सबसे पहले आपको रहीम के बारे में कुछ बता देता हूँ जब हम कोई भी किताब पढ़ते हैं तो उसके लेखक के बारे में हमें जानना उतना ही जरूरी हो जाता है।
रहीम के दोहे अर्थ सहित
1. खीरा सिर ते काटिए, मलियत लोन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय।।
भावार्थ - यहां पर रहीम कवि इन पंक्तियों के माध्यम से हमें सन्देश दे रहें हैं की हमें कटु वचन बोलने वाले के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए।
कवि कहते हैं की जैसे की हम खीरा के सिर को काटते हैं और उसमें नमक को लगाते हैं ताकि उसकी कड़वाहट दूर हो जाए करके। उसी प्रकार रहिमन दास जी कहते हैं की हमें कटू वचन बोलने वाले के मुख को भी इसी प्रकार कि सजा देनी चाहिए।
2. कदली, सीप, भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन।।
भावार्थ - यहां पर इस पंक्ति के माध्यम से रहीम ने हमें सन्देश दिया है की जिस प्रकार की संगति होती है वैसे ही हमारी रंगत होती है।
कवि इन पंक्तियों के माध्यम से स्वाति नक्षत्र के पानी का महत्व भी बता रहे हैं और कह रहे हैं की जिस प्रकार स्वाति नक्षत्र में गिरे पानी का असर एक केले के लिए कपूर का निर्माण का कराण बनता है, सीप में अगर पड़े तो मोती का निर्माण होता है और यही पानी यदि किसी सर्प के मुख पर गिरे तो यह विष बन जाता है। उसी प्रकार आदमी जिस प्रकार के संगत में बैठता और उठता है उसकी रंगत भी वैसे ही हो जाती है।
3. खैर, खून, खाँसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन ढाबे ना दबैं, जानत सकल जहान।।
भावार्थ - कवि ने यहां पर वास्तविकता का बोध कराते हुए यह बताने की प्रयास किया है की जो सत्य है वह किसी के छिपाए नहीं छिपता है।
रहीम दास जी इन पंक्तियों के माध्यम से कह रहे हैं की किसी की खैरियत, खून, दुश्मनी, प्रेम और शराब का पीना आज तक किसी के दबाये नहीं दबा है अर्थात छुपाये नहीं छुपा नही है। एक न एक इसे पूरा संसार जान लेता है। अर्थात संसार के लोगों को पता चल ही जाता है।
4. जे गरीब परहित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण-मिताई जोग।।
भावार्थ - यहां पर रहीम दास ने अमीर होने के वास्तविक मतलब को बताया है और कहा है की जो गरीब के हित में कार्य करता है उसका हित करता है वहीं बड़ा है धनवान है। जैसे श्रीकृष्ण की मित्रता गरीब सुदामा के लिए एक संयोग था।
5. टूटे सूजन मनाइए, जो टूटैं सौ बार।
रहीमन फिरि-फिरि पोइए, टूटे मक्ताहार।।
भावार्थ - इन पंक्तियों में रहीम ने अपने प्रिय को मनाने की बात कहि है और कवि कहता है यदि अपका प्रिय आपसे सौ बार भी रूठ जाता है तो उसे मना लेना चाहिये। जिस प्रकार मोतियों के दाने को हम बार-बार धागे में पिरो लेते हैं उसी प्रकार।
6. दीन सबन को लखत हैं, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।
भावार्थ - यहां पर रहीम दास ने गरीब को देखने वाले को भगवान की संज्ञा दी है। और इन पंक्तियों के माध्यम से कहते हैं की जो गरीब है दीन है उसकी दृष्टि सब पर पड़ती है, लेकिन उस गरीब पर किसी की दृष्टि नही पड़ती है।
लेकिन जिसकी दृष्टि उस गरीब पर पड़ जाती है, अर्थात वो जो उसकी मदद करता है वह भगवान उस गरीब के समान है।
7. रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ों चटकाय।
टूटे ते फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय।।
भावार्थ - इन पँक्तियों के माध्यम से रहीम दास जी ने प्रेम की महत्ता को बताया है और कहा है की इस प्रेम रूपी धागा को कभी भी एक झटके के साथ नहीं तोड़ना चाहिये। एक बार यदि टूट जाता है वह फिर से नहीं जुड़ सकता जिस प्रकार वह पहले जुड़ा हुआ था। अर्थात उसमें गांठ पड़ जाती है जिसके कारण मतभेद उतपन्न हो जाता है।
8. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून।।
भावार्थ - यहां पर रहीम के दोहों में थोड़ी सी विषम्यता की स्थिति उतपन्न हो जाती है और शायद इसी कारण इन्हें कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है। यहां पर विभिन्न व्याख्याकारों ने पानी के अर्थ को विभिन्न रूप में लिया है।
प्रायः इसके यहां पानी के तीन अर्थ हैं एक तो मनुष्य के स्वभाव के लिए, दूसरा मोती की चमक के लिए और तीसरा अर्थ गेंहूँ के लिए पानी का महत्व बताता है।
रहीम दास इन पंक्तियों के माध्यम से कहते हैं की जिस प्रकार मोती का महत्व उसके चमक के बिना कुछ भी नही है, और गेहूं का महत्व पानी के बिना कुछ भी नहीं है अर्थात गेंहूँ में जब तक पानी नहीं मिलाया जाता तब तक वह नरम नही होता उसी प्रकार मनुष्य का महत्व उसके स्वभाव में विनम्रता के बिना कुछ भी नहीं है। इसलिए रहिमन कवि कहते हैं की मनुष्य को अपनी विनम्रता को सम्भालकर रखना चाहिए।
9. यों रहीम सुख होत है, उपकारी के संग।
बाँटनवारे के लगे, ज्यों मेंहदी के रंग।।
भावार्थ - रहीम कवि ने यहां पर सुख को ध्यान में लाने की कोशिश करी है और लिखा है की जिस प्रकार मेहंदी के रंग के साथ-साथ हाथ का रंग भी बदल जाता है और इत्र का छिड़काव करने वाले पर भी इत्र छूट जाता है।
उसी प्रकार भले आदमी के साथ, उपकारी आदमी के साथ रहने वाला भी सुखी होता है।
10. एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलहिं फलहिं अघाय।।
भावार्थ - इन पंक्तियों के माध्यम से रहीम दास ने मानव मन की चंचलता को नियंत्रित करने की बात कही है और नियंत्रण न होने पर क्या हानि होती है उसको बताया है।
रहीम दास कहते हैं एक बार में एक ही काम को करना (साधना) चाहिए। जिससे सब काम सिद्ध हो जाते हैं।
और यदि एक बार में हम अनेक काम को करने की कोशिश करते हैं तो वह सब के सब व्यर्थ चला जाता है।
जिस प्रकार पूरे वृक्ष को उसके पत्ते, तने, डालियों को पानी देने से कुछ नही हो सकता है।
और जड़ में पानी डालने से सभी को पोषण मिलता है। इसलिए ऐसे काम को करना चाहिए जिससे हमारा सारा कार्य सिद्ध हो जाता है।
11. जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्याप्त नहीं, लपटे रहत भुजंग।।
भावार्थ - रहीम ने यहां पर संगत के असर को एक अच्छे प्रकृति के इंसान के समक्ष फीका बताया है।
रहीम दास जी कहते हैं की, जो व्यक्ति उत्तम प्रकृति अर्था उत्तम चरित्र का होता है। उसे किसी भी प्रकार के बुरी संगति का कोई असर नही पड़ता। जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष में सर्प के लिपटे रहने पर भी चन्दन पर विष का कोई प्रभाव नही पड़ता है।
12. रहिमन यहि संसार में, सब सों मिलिए धाइ।
ना जानै केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ।।
भावार्थ - रहीम दास जी ने यहां पर सभी से विनम्र रहकर मिलने की बात कहि है और कहते हैं की
रहीम दास कहते हैं की इस संसार में भगवान जो है वह कण-कण में व्याप्त हैं इसलिए हमें सभी से विनम्रता पूर्वक मिलना चाहिए। न जाने किस रूप में हमें भगवान नारायण मिल जाएं।
13. तै रहीम मन आपुनो, कीन्हों चारु चकोर।
निसिवार लाग्यो रहै, कृष्णचंद्र की ओर।।
भावार्थ - रहीम दास ने यहां भक्ति की महत्ता को बताया है। जिस व्यक्ति ने अपने मन उस चन्द्रमा के लिए व्याकुल चकोर पक्षी के भांति बना लिया है। वह निरन्तर बिना किसी लालच के मोह के श्री कृष्ण के भक्ति में उस चन्द्रमा की तरफ जिस प्रकार चकोर पक्षी देखता रहता है एकटक उसी प्रकार मनुष्य का मन भी उस श्री कृष्ण की छवि को निहारता रहता है।
14. जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट।
भगत-भगत कोउ बचि गए, चरन कमल की ओट।।
भावार्थ - यहां पर रहीम ने भगवान के चरणों की महत्ता को प्रस्तुत किया है। रहीम दास कहते हैं की जिस प्रकार सुंदरी के नेत्र इस पूरे संसार को मार डालता है अर्थात उसमें हर कोई मोहित हो जाता है। जिसके कारण पीड़ा होती है। इससे भागते भागते वहीं बच पाते हैं जिसको प्रभु के चरण कमल की छाँव मिलती है। या प्राप्ति होती है।
15. गहि सरनागति राम की, भव सागर की नाव।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछु उपाव।।
भावार्थ - यहां इस पँक्ति के माध्यम से कवि ने इस संसार से इस भवसागर से पार होने का रास्ता बताया है।
रहीम कहते हैं की इस संसार रूपी सागर को पर करने के लिए नाव की आवश्यकता होती है। जिसे राम के सरन में जाकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
रहीम जी कहते है इस जगत इस संसार को पार करने अर्थात इससे इस संसार से मुक्त होने का और कोई मार्ग नहीं है और न ही कोई उपाय है।
16. मान सहित विषपान करि, शंभू भए जगदीश।
बिना मान अमृत पियो, राहु कटायो शीश।।
भावार्थ - यहां पर सम्मान के महत्व को बताया गया है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि रहीम ने अपने दोहे के माध्यम से उस समय की बात कहि है जिस समय समुद्र मंथन हुआ था। जब समुद्र मंथन हुआ था तो उस समय अमृत और विष दोनों की उतपत्ति हुई थी तथा विष को भगवान शंकर ने15 आदर सहित धारण करके अर्थात पान करके वह भगवान कहलाये।
लेकिन राहु ने अमृत का बिना आदर किये अर्थात छल पूर्वक धारण किया था जिसके कारण उसकी शिस को काट दिया गया था। अर्थात यदि विष को भी आदर के साथ ग्रहण किया जाए तो वह सम्मान देता है और अमृत को भी यदि बिना आदर के साथ ग्रहण किया जाए तो वह घातक होता है।
Rahim ka jivan Parichay
रहीम के बारे में - इनका सन जन्म 1556 ई. में हुआ था। लाहौर में जो की अब पाकिस्तान के क्षेत्र में है। इनकी मृत्यु दिल्ली भारत की राजधानी में सन 1626 ई. को हुई थी।
रहीम की कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ- दोहावली, बरवै, नायिका भेद, श्रृंगार, सोरठा, मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, रहीम सतसई।
रहीम के रचनाओं की विशेषता - इसे दो भाग में बांटा गया है एक तो रहीम का कला पक्ष और दूसरा रहीम का भाव पक्ष सबसे पहले बात करते हैं भाव पक्ष की
रहीम के भाव पक्ष
सबसे पहले तो ये कृष्ण भक्त थे जो भाव मन से उतपन्न होता है। रहीम ने अपना ध्यान व्यवहारिक पक्ष पर रखा जिसके कारण उनकी रचनाओं में लोकव्यवहार, नीति, भक्ति, श्रृंगार आदि का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता है।
रहीम के काव्य में प्रकृति के उपादानों का सामंजस्य देखा जा सकता है। इन्होंने अपने अनुभव के आधार पर समाज को सहीं दिशा में ले जाने का प्रयास किया। यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता रही।
रहीम के कला पक्ष की विशेषता
रहीम की रचानाओं में अनेक भाषाओं का समावेश है जैसे की इनकी रचानाओं में निम्न भाषा देखने को मिलता है अरबी, फारसी, संस्कृत, हिंदी आदि। इनकी दोहा शैली की रचनाएँ बहुत ही प्रसिद्ध हैं। इनकी भाषा में हमें निम्न गुण देखने को मिलता है - सरलता, सुबोधता और परवाह।
रहीम जी को उनकी रचनाओं में सबसे प्रिय उनका प्रिय छंद बरवै था। इनके काव्य में श्रृंगार और शांत रस का अद्भुत समावेश है। रहीम के नीति के दोहे लोकजीवन में अत्यंत ही प्रसिद्ध हुए हैं। इनके काव्य को सरस् बनाने वाले अलंकारों में दृश्टान्त अलंकार श्रेष्ठ है और इसके अतिरिक्त उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा अलंकार भी मुख्य भूमिका निभाते हैं।
रहीम का साहित्य में स्थान
रहीम के दोहे भी सन्त कबीर की साखी के समान ही प्रसिद्ध हैं। उनकी रचना में भारतीय संस्कृतियो की झकल नीति दिखाई देते हैं। इन्होंने हिंदी साहित्य (Hindi Sahitya) के भंडार वृध्दि में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
रहीम के भक्ति और नीतिपरक दोहे अत्यंत ही प्रभावपूर्ण हैं। इसीलिए इनका हिंदी साहित्य में स्थान सर्वोपरी है।
कहा जाता है की जब रहीम जिंदा थे उस समय उनके घर से कोई भी याचक खाली हाँथ नहीं लौटता था। जैसे की दान मनुष्य में अहंकार पैदा करता है लेकिन रहीम में लेस मात्र भी अहंकार नहीं था।
वे अपने विषय में स्वयं कहते थे
सारांश या केंद्रीय भाव - भक्तिकाल के कवि रहीम समाज में फैली विषमताओं का चित्रण कर वर्गभेद को दूर करने का प्रयास किया है।
मधुरता, प्रेम, सहानुभूति, सौहार्द, सज्जनता, करुणा, दया, गरीबों के प्रति अपार स्नेह, प्रसन्नता आदि नैतिक मूल्यों का विकास रहीम कवि ने अपने दोहों में किया है जो की नैतिक मूल्यों के विकास में अपूर्व योगदान है।
आपको यह जानकारी कैसे लगी मुझे कमेंट करके अवश्य बताएं ताकि आपके लिए ऐसे ही जानकारी लाता रहूँ। यह दोहे हिंदी विशिष्ट के कक्षा 9 वी की पुस्तक से लिया गया है जो की सत्र 2015-16 में दिया गया था।
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