रीतियों के प्रमुख भेद, नामकरण, स्वरूप आदि का परिचय देते हुए रीति और शैली में अन्तर बताइए।

प्रश्न 6. रीतियों के प्रमुख भेद, नामकरण, स्वरूप आदि का परिचय देते हुए रीति और शैली में अन्तर बताइए।

अथवा

"रीति काव्य की आत्मा है।" इस कथन का मूल्यांकन कीजिए तथा उसके भेदों का सोदाहरण विवेचन कीजिए। 

अथवा

रीति के प्रमुख भेदों को सोदाहरण समझाते हुए 'रीतिरात्मा काव्यस्य' इस मत की समीक्षा कीजिए।

उत्तर- रीति के प्रमुख भेद, नामकरण, स्वरूप के साथ रीति और शैली में अंतर इस प्रकार है - 

 भारतीय काव्यशास्त्र में सर्वप्रथम भरतमुनि ने रीति के लिए 'प्रवृत्ति' शब्द का उल्लेख किया और नाट्यप्रयोग की दृष्टि से प्रादेशिक आधार पर चार प्रवृत्तियाँ स्वीकार की आवन्ती, दाक्षिणात्या, पाञ्चाली एवं औड्रमागधी। तत्पश्चात् आचार्य भामह और दण्डी ने रीति का नाम न लेकर 'मार्ग' के रूप में भाँति-विवेचन किया है। इन दोनों ही आचार्यों ने रीति के दो भेद किये हैं - वैदर्भ और गौड़ीय। पदों की कोमलता, एकरूपता एवं संश्लिष्टता अर्थ की सुबोधता एवं परिपूर्णता, भावों की उदात्तता एवं मधुरता, संगीतात्मकता तथा सादृश्यमूलक अलंकारों की योजना वैदर्भ मार्ग की तथा उद्धत एवं समास बहुल पदयोजना अनुप्रास-प्रयोग एवं आडम्बरपूर्ण शब्दों की अधिकता तथा अतिशयोक्तिपूर्ण शैली गौड़ीय मार्ग की विशेषताएँ उन्होंने मानी है। 

 रीति के प्रमुख भेद

'रीतिरात्मा काव्यस्य' कथन की समीक्षा पूर्व में विस्तार से दी गई है, तदनुसार वामनाचार्य ने रीति को काव्य की आत्मा माना है।

वामन द्वारा रीति-भेद - रीति-विकास में वामन का नाम उल्लेख्य है। 'रीति' शब्द के प्रयोग का श्रेय वामन को ही है। उन्होंने दो के स्थान पर तीन रीतियाँ स्वीकार की हैं - वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली। वामन ने दोषों की मात्रा से रहित तथा समस्त गुणों से युक्त वीणा के स्वर के समान मधुर लगने वाली रीति को वैदर्भी अत्यधिक समासयुक्त, उत्कट पदों से युक्त, ओज और कान्ति गुणों से समन्वित रीति को गौड़िया तथा गाढ़बन्ध से रहित एवं शिथिल पद वाली, माधुर्य एवं सौकुमार्य से युक्त रचना को पांचाली रीति कहा है। वामन का मत है कि इन तीनों रीतियों के अन्दर सम्पूर्ण काव्य उसी प्रकार समाविष्ट हो जाता है जैसे रेखाओं में चित्र।

अन्य आचार्यों द्वारा रीति-भेद - रीति-विकास में रुद्रट का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उन्होंने वामन की तीन रीतियों में 'लाटीया' नाम का चतुर्थ भेद जोड़ा और उन्हें समाप्त के आधार पर दो भागों में विभाजित किया है - समासवती और असमासवती। असमासवती से तात्पर्य वैदर्भी से है और समासवती के तीन भेद किये है - पांचाली, लाटीया और गौड़ीया। इस प्रकार उनके द्वारा विवेचित रीतियों का स्वरूप इस प्रकार है - (क) वैदर्भीपूर्णतः समासरहित, (ख) पांचाली - अल्पसमासयुक्त, (ग) लाटीया-मध्यम समासयुक्त, तथा (घ) गौड़ीया-दीर्घ समासयुक्त। उन्होंने समासों की संख्या भी दी है-पांचाली में दो या तीन समस्त-पद रहते हैं और लाटीया में पाँच-सात, गौड़ीया में यथाशक्ति समस्त पदों का प्रयोग रहता है।

आचार्य राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में वामन की तीन रीतियों को ही मान्यता प्रदान की है, किन्तु इसे प्रकारान्तर से व्यक्त किया है। 'काव्यमीमांसा' के तृतीय अध्याय में काव्यपुरुष की उत्पत्ति और साहित्य-विद्यावधू के साथ वत्सगुल्म नगर में उसका विवाह दिखाया गया है। उन्होंने कहा है कि - (1) काव्यपुरुष ने साहित्य - विद्यावधू के वंशवद न होने से जब समासयुक्त, अनुप्रासमय तथा योगवृत्तिपरम्परागर्भ वचन बोले तो गौड़ीया रीति, (2) कुछ वशंवद होने से जब-अल्पसमास तथा अल्प अनुप्रासमय उपचारगर्भ वचन बोले तो पांचाली रीति, तथा (3) अत्यन्त वशंवद होने पर जब समासरहित, स्थानानुप्रयासयुक्त तथा योगवृत्तिगर्भ वचन बोले तो वैदर्भी रीति बनी। उक्त कथन से गौड़ीया का समास एवं अनुप्रासयुक्त पांचाली का अल्पसमास तथा अल्पानुप्रासयुक्त तथा वैदर्भी का समासरहित तथा स्थानानुप्रास-युक्त होना ही विदित होता है। एक स्थल पर उन्होंने लिखा है कि वैदर्भीी, गौड़ीया और पांचाली इन तीनों रीतियों में साक्षात् सरस्वती निवास करती है। इन तीनों रीतियों के अतिरिक्त उन्होंने अपनी नाटिका 'कर्पूरगंजरी' की भूमिका में मगधी तथा 'बालरामायण' मैथिली रीति का भी वर्णन किया है।

  नामकरण -

  'वक्रोक्तिकाव्यजीवितम्' में कुन्तक ने प्रादेशिकता के आधार पर रीतियों के नामकरण का खण्डन करते हुए उनका सम्बन्ध कवि-स्वभाव से माना है। कवियों का सम्बन्ध अनेक प्रकार का हो सकता है और उनके सूक्ष्म-भेदों का विवेचन एक दुष्कर कार्य है, तथापि स्वभाव को तीन रूपों में विभाजित किया गया है जिनके आधार पर तीन मार्ग माने गये है, ये मार्ग है सुकुमार, विचित्र और माध्यम सुकुमार मार्ग में कोमल, असमस्त पदों का प्रयोग होता है तथा माधुर्य, प्रसाद, लावण्य और अभिजात्य इन चार असाधारण गुणों का समावेश रहता है। विचित्र मार्ग से अलंकार-वैचित्र्य का समावेश होने से अप्रस्तुत पक्ष की प्रबलता रहती है। माध्यम मार्ग में दोनों भागों की विशेषताएँ होने से कृत्रिम और सहज दोनों प्रकार की शोभाएँ प्राप्त होती है। इस संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि कुन्तक ने काव्य के सहज और आहार्य सौन्दर्य को विभाजन का आधार बनाया है जो पूर्ववर्ती तथा परवर्ती आचार्यों के आधार से किंचित् भिन्न हैं।

'सरस्वतीकण्ठाभरण' के रचयिता भोजदेव ने रीति का विस्तार से विवेचन किया है। उन्होंने गुण और समास दोनों को रीतिका आधार स्वीकारते हुए छह रीतियाँ मानी हैं - वैदर्भी, पांचाली, गौड़ीया, लाटीया, अवन्तिका और मागधी। इनमें प्रथम तीन का विवेचन वामन ही कर चुके थे और चतुर्थ और रुद्रट। भोज के अनुसार लाटीया समस्त रीतियों के सम्मिश्रण से बनती है तथा पूर्व रीतियों में किसी एक का निर्वाह न होने पर मागधी नामक खण्ड रीति होती है। पांचाली और वैदर्भी की अन्तरावर्तिनी आवन्तिका रीति होती है। भोज के उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उनके विवेचन में विस्तारप्रियता है, वैज्ञानिकता नहीं। छ रीतियों में से अन्तिम तीन का विवेचन अत्यन्त अवैज्ञानिक है। स्वयं भोज को भी इस विवेचन से अधिक सन्तोष नहीं हो सका। परिणामतः उन्होंने अपने दूसरे 'अन्य' 'श्रृंगारप्रकाश' में केवल चार रीतियों वैदर्भी, पांचाली, गौड़ीया और लाटीया का विवेचन किया है। इन रीतियों के लक्षणों के लिए भोज राजशेखर के ऋणी हैं। राजशेखर के लक्षणों में ही एकाध विशेषज्ञ जोड़कर उन्होंने अपने रीति-लक्षणों का निर्माण किया है।

    भोजदेव के उपरान्त रसध्वनिवादियों की परम्परा आती है। इन सभी आचायों ने ध्यानिकार आनन्दवर्धन को ही प्रमाण माना है। आनन्दवर्धन ने समास को रीति का आधार मानते हुए संघटना (रीति) के असमासा, मध्यसमासा तथा दीर्घसमासा तीन भेद किये हैं। परवर्ती आचार्यों ने समास के स्थान पर वर्णगुम्फ को महत्व दिया, किन्तु वामन तथा आनन्दवर्धन द्वारा विवेचित तीन रीति-भेद-वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली ही स्वीकार किये। आचार्य सम्मट ने उपनागरिका परुषा और कोमला (क्रमशः वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली) तीन वृत्तियाँ (रीति) मानी है। माधुर्यव्यंजक वर्णों से युक्त वैदर्भी, ओजः प्रकाशक वर्णों से युक्त गौड़ी तथा शेष वर्णों से युक्त को पांचाली रीति माना है। पूर्ववर्ती तथा परवर्ती काव्यशास्त्र में प्रायः इन्हीं तीन रीतियों का विवेचन होता रहा है।

स्वरूप -

    तीन रीतियों का औचित्य - वामनाचार्य द्वारा विवेचित तथा आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा स्वीकृत वैदर्भी, गौड़ीया (गौड़ी) तथा पांचाली तीन रीतियाँ मानना ही युक्तिसंगत है। रीति का आधार चाहे समास मानें या वर्णगुम्फ, इसके तीन ही भेट माने जा सकते हैं। यों तो भोज ने छह रीतियों का विवेचन किया है और शारदातनय ने एक सौ पाँच रीतियों का उल्लेख कर डाला, किन्तु अधिक भेदोपभेद करने से अनावश्यक विस्तार बढ़ता है और साथ ही विवाद भी। समास के आधार पर तीन ही रूप निश्चित होते हैं - समासों का पूर्ण अभाव, समासों का अल्प प्रयोग तथा समासों का अधिक प्रयोग। इन्हें भी आनन्दवर्धन ने क्रमशः असमासा, मध्यसमासा तथा दीर्घसमासा नाम दिया है। वर्णों के भी दो स्पष्ट रूप हैं - कोमलवर्ण तथा पुरुष वर्ण। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे वर्ण भी हैं जो न केवल हैं और न परुष। अतः वर्णों के आधार पर भी रीति के तीन ही भेद ठहरते हैं। अतः स्पष्ट है कि रीति के तीन भेद मानना ही अधिक युक्तिसंगत है। इसी व्यावहारिक दृष्टि से आचार्य मम्मट ने वामन के दस गुणों के स्थान पर केवल माधुर्य, प्रसाद तथा ओज तीन गुणों को ही मान्यता दी है और उनके आधार पर क्रमशः वैदर्भी, पांचाली और गौड़ी का उल्लेख- उपनागरिका, कोमला और परुषा वृत्ति नाम से किया है। इस प्रकार मम्मट ने भी तीन ही रीतियों मानी हैं।

1. वैदर्भी रीति

    श्रुतिपेशलता तथा संगीतात्मकता के कारण वैदर्भी रीति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इसमें माधुर्य व्यंजक वर्णों की योजना की जाती है जिसके लिए टवर्ग को छोड़कर शेष वर्गों को उनके अंत्यवर्ण के साथ संयुक्त किया जाता है तथा रेफ और णकार का प्रयोग लघु-पर में किया जाता है। इसमें ललित पदावली ही रखी जाती है। जिसके कारण श्रुतिपेशलता विद्यमान रहती है। माधुर्यव्यंजक वर्ण तथा ललित पद योजना के कारण यह श्रृंगार, करुण, हास्य आदि रसों की अभिव्यक्ति में सहायक होती है। इसमें समासों का पूर्ण अभाव होता है अथवा अत्यल्प समास रहते हैं। आचार्य दण्डी और वामन इसे श्लेष, प्रसाद समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कान्ति और समाधि इन दस गुणों से सम्पन्न मानते हैं, तो मम्मट इसके मूल में माधुर्य गुण को ही प्रमुख मानते हैं। इसकी महत्ता संगीतात्मकता में निहित है। वामन ने इसे वीणा के स्वर के समान मधुर लगने वाला बताया है। आचार्य विश्वनाथ ने इसे माधुर्य गुण की व्यंजक बताकर श्रृंगार, करुण और शान्त दस में इसकी अवस्थिति मानी है। 'साहित्यदर्पण' में वैदर्भी रीति के स्वरूप को संक्षेप में निम्न प्रकार रखा है -

"माधुर्यव्यंजकैर्वणैः रचनाललितात्मिका । 

अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरष्यते।।"

अर्थात् माधुर्य गुण की व्यंजना करने वाले वर्णों द्वारा समासरहित अथवा अल्पसमास वाली रचना वैदर्भी रीति कहलाती है।

वैदर्भी रीति का एक उदाहरण प्रस्तुत है -

"रससिंगार मज्जनु किए, कंजन भंजनु दैन। 

अंजन रंजनु हूँ, बिना खजनु गंजनु नैन।।"

यहाँ माधुर्य गुण की व्यंजना के लिए अन्त्य वर्णों से युक्त संयुक्ताक्षरों का प्रयोग दर्शनीय है, टवर्ग का पूर्ण अभाव है।

2. गौड़ी रीति

    ओजपूर्ण वर्णों में गौड़ी रीति होती है। इसमें वर्गों के प्रथम एवं द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ वर्णों के संयुक्त रूप, द्वित्व प्रयोग, टवर्ग, श-ष आदि का बाहुल्य एवं रेफ का संयुक्त दीर्घ प्रयोग रहता है। इसमें पदयोजन दीर्घ समासों से युक्त रहती है। बन्ध के आडम्बरपूर्ण होने तथा पुरुष वर्णों के प्रयोग से यह रीति वीर, वीभत्स, रौद्र और भयानक रसों की अभिव्यक्ति में बहुत सहायक होती है। वीर और रौद्र रस की तो यह जीवनी शक्ति है। लम्बे-लम्बे समास वातावरण को प्रकम्पित करते प्रतीत होते हैं। इसमें माधुर्य एवं सौकुमार्य गुणों का नितान्त अभाव रहता है, इसलिए इसे मम्मटाचार्य ने परुषा वृत्ति भी कहा है।

गौड़ी रीति का एक उदाहरण प्रस्तुत है -

बोल्लाहि जो जय-जय मुण्ड रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं। 

खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभ भटन्ह ढहाहीं।

बानर निशाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भये। 

संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकारन्हि हए।। 

    उक्त छन्द में जो गुण की व्यंजना के लिए टवर्ग, द्वित्व तथा महाप्राण वर्णों के साथ अल्प प्राण वर्णों के संयुक्त प्रयोग दर्शनीय हैं। इन सभी ने मिलकर आज की व्यंजना में बहुत सहायता की है जिससे वीर-रस की अभिव्यक्ति सही ही हो सकी है।

3. पांचाली रीति

    पांचाली रीति का उल्लेख सर्वप्रथम वामन ने किया है। उन्होंने इसको माधुर्य और सौकुमार्य से युक्त माना है तथा गाढबन्ध से रहित और शिविल पद-विन्यास वाली बताया है। रुद्रट आदि परवर्ती आचार्यों ने इसमें लघु समासों का अस्तित्व स्वीकार किया है। वस्तुतः यह वैदर्भी और गौड़ी के मध्य की रीति है जिसमें वर्ण-गुम्फ न माधुर्य-व्यंजक होता है और न ओजः प्रकाशः, इसमें न तो समासों का नितान्त अभाव होता है और न दीर्घ समासों की योजना। पदयोजना यथासम्भव कोमतला लिये रहती है, इसलिये मम्मट आदि आचार्यों ने इसे कोमला वृत्ति भी कहा है। इसका मूल गुण प्रसाद माना गया है। प्रसाद का अर्थ है - अर्थवैमलरू या झटिति अर्थ समर्पण।

    'साहित्यदर्पण' में विश्वनाथ ने पाँच-छह पदों के समास वाले गुम्फ को पांचाली रीति कहा है। भोज ने भी इसे माधुर्य-कोमल वर्ण-गुम्फ से परिपूर्ण बतलाया है। इस कारण इसमें कहीं-कहीं पर समासाभाव, कहीं पर दीर्घ समास, कही पर माधुर्यव्यंजकता और कहीं पर माधुर्य-ओजगुण व्यंजकता का अभाव दिखाई देता है। सुकुमारता इसमें बनी रहती है।

पांचाली रीति का एक उदाहरण दर्शनीय है -

फागु की भीर, अभीरिन में गहि गोविन्दै लै गई भीतर गोरी, 

भाई करी मन की पदमाकर, ऊपर नाई अबीर की झोरी।

छीनि पितम्बर कम्मर ते सु विदा छई मीड़ि कपोलन रोरी,

नैन नचाइ कह्यौ मुसकाय लला फिर आइयो खेलन होरी।। 

पद्माकर की ही विरह-विदग्धा नायिका की मनः स्थिति दर्शनीय है -

 सांझ ना सुहात दिन माँझ ना सुहात, कछु, 

व्यापी यह बात सो बखानत हौं तोहि सौ। 

राति ना सुहात, ना सुहात परभात आली,

जब मन लागि जात काढू निरमोही सौ।।

पद्माकर के उक्त दोनों छन्दों में सुकुमारता तथा प्रसाद गुण दर्शनीय है। छन्द को पढ़ते जाइये और अर्थ स्पष्ट होता जायेगा।

4. लाटी रीति

    लाटी रीति का उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य रुद्रट ने किया है। इसमें उन्होंने वैदर्भी और पांचाली रीति के मध्य की स्थिति बतलाई है। इसी तरह समास संख्या के आधार पर रुद्रट ने कहा है कि दो-तीन पदों की समास वाली पांचाली रीति तथा पाँच सात पदों की समास वाली लाटी रीति होती है। यथा-"द्वित्रपदा पांचाली लाटीया पञ्च सप्त या यावत्" कुछ आचार्यों ने लाट लोगों की प्रिय रचना होने से इसे लाटी रीति कहा है। उनका कथन है कि इसमें कोमल - 'पदों का चमत्कार प्रयोग होता है। इसमें संयुक्त वर्णों का प्रयोग कम होता है तथा प्रकृतोपयोगी विशेषज्ञों की अधिकता रहती है। भोज न इसे वैदर्भी आदि पूर्वोक्त तीनों रीतियों के गुणों से मण्डित बतलाया है। आचार्य विश्वनाथ ने इसका विशेष स्वरूप निरूपण नहीं किया है, केवल इतना ही कहा है कि -

"लाटी तु रीतिवैदर्भी-पाचाल्योरन्तरे स्थिता।"

    अर्थात् लाटी रीति वैदर्भी और पांचाली के मध्य की रीति है। इस लक्षण के आधार पर इसमें दीर्घ समास नहीं होते हैं तथा कोमल वर्ण-वृत्त आदि का समावेश रहता है। 

अंतर -

रीति और शैली में अन्तर - आधुनिक काल में अधिकतर विद्वान रीति और शैली को समानार्थक मानते हैं। परन्तु सूक्ष्मता से देखा जाय, तो इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। 'रीति' शब्द पद-रचना का वाचक होने से पद्धति, परम्परा, ढंग, तरीका, रिवाज आदि के अर्थ का द्योतक है। इसीलिए रीति शब्द वाणी का मार्ग, वचनविन्यासक्रम आदि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

    शैली शब्द शील से बना है, इसका सम्बन्ध स्वभाव से है। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है। रीति में जहाँ परम्परा की प्रधानता और सामूहिकता की स्थिति रहती है, वहीं शैली में कवि के व्यक्तित्व की प्रधानता और वैयक्तिकता रहती है। शैली को कवि या लेखक का स्वभाव, चरित्र, रुचि एवं व्यक्तित्व प्रभावित करता है। शैली के तीन तत्व माने जाते हैं (1) वस्तु, (2) रूप, और (3) व्यक्ति। भारतीय साहित्यशास्त्र में वस्तु और रूप का विवेचन पर्याप्त रूप में हुआ है, परन्तु यहाँ व्यक्ति की महिमा समाविष्ट की है। यही स्टाइल कवि का आत्मतत्व भी है, इसलिए कहा गया है कि, 'स्टाइल इज द मैन।' इस तरह रीति और शैली में पर्याप्त अन्तर है।

निष्कर्ष - उक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि रीतियों की संख्या एवं स्वरूप निर्धारण को लेकर भारतीय काव्यशास्त्र में पर्याप्त मन्यन हुआ है। प्रारम्भ में सभी आचायों ने रीतियाँ दो या तीन ही मानी हैं, परन्तु वामन द्वारा तथा परवर्ती काल में रीतियाँ तीन मानी गयी है। रुद्रट ने इन्हें चार बताया है तो भोज आदि ने इन्हें पाँच या छह तक माना है। परन्तु मार्ग या समस्त पदरचना की दृष्टि से तीन ही रीतियाँ उचित है। रीति और शैली में पर्याप्त अन्तर है। रीति को आचार्यों ने काव्य-तत्व माना है, जबकि शैली काव्यकार के व्यक्तित्व से सम्बन्धित है। कवि का व्यक्तित्व ही काव्य-तत्व कदापि नहीं हो सकता है।

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Riti ke pramukh bhed namkaran swaroop aadi ka parichay dete huye aur shaili me antar bataiye?

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