वक्रोक्ति की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।

 प्रश्न 8. वक्रोक्ति की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।

अथवा

वक्रोक्ति सिद्धान्त की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।

उत्तर - भारतीय काव्यशास्त्र में वक्रोक्त्ति की मान्यता अनेक रूपों में रही है। वैसे वक्रोक्ति से तात्पर्य टेढ़ी अथवा असाधारण रूप से कही गयी बात है। अवधारणा शब्द आजकल अंग्रेजी के कन्सेप्शन (Conseption) शब्द के पर्याय के रूप में प्रचलित है। भारतीय काव्यशास्त्र में भी वक्रोक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त रही है।

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वक्रोक्ति सिद्धान्त के प्रवर्तक आचार्य

वक्रोक्ति सिद्धान्त के प्रवर्तक आचार्य - वक्रोक्ति सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य कुन्तक हैं। उन्होंने 'वक्रोक्ति-जीवित' नाम के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना करके वक्रोक्ति सिद्धान्त की स्थापना की तथा वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा सिद्ध किया। उनके विषय में डॉ. पारसनाथ द्विवेदी ने लिखा है -

"वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कुन्तक हैं। उन्होंने वक्रोक्ति को काव्य का जीवित (जीवन) कहा है। इसलिए उनके ग्रन्थ का नाम 'वक्रोक्ति-जीवित' पड़ा।" 

वक्रोक्ति शब्द के प्रयोग की परम्परा

वक्रोक्ति शब्द के प्रयोग की परम्परा - काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति शब्द का प्रचलन अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है। इस शब्द का सबसे पहले प्रयोग अलंकारवादी आचार्य भामह ने किया था। आचार्य भामह ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवनदायक अर्थात् काव्य के जीवन का आधार तत्व तो कहा, पर इसे काव्य की आत्मा स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वक्रोक्ति को अतिशयोक्ति अलंकार के समानार्थक माना है। अलंकारवादी होने के कारण भामह अलंकार को काव्य का सौन्दर्यदायक तत्त्व मानते थे। उनके अनुसार वक्रोक्त्ति के बिना किसी भी अलंकार का अस्तित्व सम्भव नहीं है। सभी अलंकार वक्र उक्ति अर्थात् असाधारण कथन होते हैं। आचार्य भामह ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी -

सैया सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते। 

यत्नो यस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना ।।

(यह वही वक्र उक्ति है, जिसके द्वारा सर्वत्र अर्थ को विशेष सौन्दर्य प्रदान किया जाता है। इसलिए कवि को इस चक्र उक्ति में यत्न करना चाहिए। इसके बिना कौन-सा अलंकार सम्भव है ? तात्पर्य यह है कि वक्र उक्ति के बिना कोई भी अलंकार नहीं हो पाता )

अलंकारवादी होने के कारण भामह ने वक्र उक्ति से रहित वाक्य को काव्य नहीं माना है। इसी कारण आचार्य भामह ने हेतु, सूक्ष्म और लेश को अलंकार न मानकर इन्हें वार्तालाप माना है। इसका कारण इन अलंकारों में वक्र कथन का अभाव होता है।

इसके बाद आचार्य दण्डी में पूरे साहित्य (वाङ्मय) के दो भाग किये हैं-स्वभावोक्ति और वक्रोक्ति। आचार्य दण्डी स्वभाविक कथन को स्वभावोक्ति अलंकार और स्वाभाविक कथन से भिन्न अर्थात् वक्र अथवा अतिशयतापूर्ण कथन को वक्रोक्ति अलंकार मानते थे। उन्होंने कहा है -

भिन्न द्विपा स्वभावोक्तिर्वक्रोक्तिश्चेति वाङ्मयम् । 

(यह वाङ्मय स्वभावोक्ति और वक्रोक्ति दो रूपों में विभक्त है ।)

आचार्य दण्डी ने भी उपमा आदि सभी अलंकारों का वक्रोक्ति के भीतर समावेश किया है। 

वक्रोक्ति की अवधारणा

वक्रोक्ति की अवधारणा- वक्रोक्ति की अवधारणा अनेक रूपों में हुई है। इस शब्द का प्रयोग भारतीय वाङ्मय में अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है। बाणभट्ट ने अपनी कथा कादम्बरी में राजा चन्द्रापीड की राजधानी के निवासियों को वक्रोक्ति में कुशल बताया है -

वक्रोक्तिनिपुणेन विलासिजनेन।

इसका अर्थ वक्रोक्ति अलंकार नहीं, अपितु कथन की वक्रता अर्थात् असाधारणता है। बाणभट्ट के कथन का यह आशय भी निकाला जा सकता है कि नागरिकजन प्राचीन काल से कथन की वक्रता से परिचित हैं। वैसे यह वास्तविकता है कि कथन की वक्रता अथवा असाधारण कथन जन-जीवन में सर्वत्र और सदा प्रचलित रहा है तथा व्यवहार में आया है। वक्रोक्ति को सम्प्रदाय की मान्यता आचार्य कुब्तक के कारण प्राप्त हुई। वक्रोक्ति-सम्प्रदाय के काव्य सम्बन्धी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने लिखा है -

"वक्रोक्ति सम्प्रदाय के आधारभूत सिद्धान्तों को समझने से पूर्व उसके काव्य सम्बन्धी दृष्टिकोण से परिचित हो जाना अधिक उपयोगी सिद्ध होगा। आचार्य कुन्तक ने अपने ग्रन्य के प्रारम्भ में ही अपनी काव्य सम्बन्धी अनेक धारणाओं को व्यक्त किया है। सबसे पूर्व वे काव्य शब्द की विवेचना करते हुए बताते हैं - 'कवि कर्म काव्यम्' अर्थात् कवि का कर्म ही काव्य है। यहाँ प्रश्न उठता है - कवि किसे कहते हैं ? कृन्तक इस सम्बन्ध मौन है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि शब्द की व्याख्या करना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा। आगे चलकर वे काव्य का लक्ष्य प्रस्तुत करते हुए कहते हैं -

शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि। 

बन्धे व्यवस्थितौ काव्ये तद्विदाह्लादकारिणि ।।

(अर्थात् काव्यमर्मज्ञों को आनन्द देने वाली सुन्दर (वक्र) कवि - व्यापारयुक्त रचना में व्यवस्थित शब्द और अर्थ मिलकर काव्य कहलाते हैं। आचार्य कुन्तक की उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि एक तो वे काव्य में शब्द और अर्थ दोनों को समान महत्व देते हैं, दूसरे वे प्रत्येक रचना के लिए आह्लादकारिणी होना आवश्यक मानते हैं।) 

डॉ. नगेन्द्र ने कुन्तक की इन्हीं मान्यताओं का सूक्ष्म विवेचन करते हुए निम्नलिखित निष्कर्ष दिया है -

  1. आचार्य कुब्तक के विचार से काव्य में वस्तु-तत्त्व एवं माध्यम या अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों का तादात्म्य होता है।
  2. काव्य अभिव्यंजना शैली असाधारण या अद्वितीय होती है। 
  3. काव्य का वस्तु-तत्त्व साधारण न होकर विशिष्ट होता है अर्थात् उसमें ऐसे तव्यों का वर्णन नहीं होता जो अति प्रचलित होने के कारण प्रभावहीन हो गये हैं। वस्तु-तत्त्व सामान्य न होना विशिष्ट होता है। 
  4. अलंकार काव्य का मूल तत्त्व है, केवल बाहा भूषण मात्र नहीं।
  5. काव्य की कसौटी काव्यमर्मज्ञों का मनः प्रसादन है।

उपर्युक्त निष्कर्षो से स्पष्ट है कि आचार्य कुन्तक का दृष्टिकोण विशुद्ध कलावादी या सौन्दर्यवादी था। आधुनिक कलावादियों की भाँति वह एकांगी नहीं था। आधुनिक कलावादी केवल अपने मनःप्रसादन को ही काव्य की कसौटी मानते हैं, जबकि आचार्य कुन्तक विद्वान् पाठकों की अनुभूति को ही प्रमाण मानते हैं। इसी अन्तर के कारण कुन्तक: व्यक्तिवाद से ऊपर उठ जाते हैं।

कुतक का वक्रोक्ति-विवेचन

कुतक का वक्रोक्ति-विवेचन - यह स्पष्ट है कि आचार्य कुल्तक का वक्रोक्ति-विवेचन वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा सिद्ध करने का आधार है। इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि उन्होंने वक्रोक्ति का सम्बन्ध काव्य के निम्नतम अंश से उच्चतम अंश तक स्थापित किया है। इस विषय में डॉ. राजवंश सहाय हीरा का मन्तव्य इस मान्यता को रेखांकित करता है- 

“कुन्तक ने वक्रोक्ति का विवेचन स्वतन्त्र काव्य सिद्धान्त के रूप में किया है। उन्होंने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मानकर इसको व्यापक रूप प्रदान किया है तथा रीति, रस, अलंकार, गुण ध्वनि आदि समस्त काव्य तत्त्वों तथा प्रबंध-मुक्तक प्रकृति काव्य-रूपों में भी वक्रोक्ति का प्रकाश भर दिया है। उन्होंने वक्रोक्ति को व्यक्ति-काव्य के सूक्ष्मतम रूप-वर्णन से लेकर उसके महत्तम रूप महाकाव्य में भी दिखा दिया है।" 

कुन्तक ने वक्रोक्ति का लक्षण प्रस्तुत करते हुए उसे 'वैदग्ध्यभंगी भणिति कहा है अर्थात् चतुर कवि-कर्म या चतुरता से पूर्ण कथन ही वक्रोक्ति है। यह प्रसिद्ध कथ;न से भिन्न प्रकार का कथन वक्रोक्ति या उक्ति है। इसे काव्य-सौन्दर्य या कवि कौशल से अभिन्न या इसका समानार्थी कहा जा सकता है। काव्य साहित्य का समस्त चमत्कार या सौन्दर्य वक्रताजन्य चमत्कार है या वक्रता का ही सौन्दर्य है। कविप्रतिभा से समुद्भूत समस्त काव्य-सौन्दर्य या समस्त प्रसाधनों का रूप वक्रोक्ति- कवन में सर्वथा भिन्न विचित्र प्रकार का कथन है, जो कवि व्यापार कौशल के कारण काव्य को आह्लादक बना देता है। यह कवि-कल्पना-सम्भूत है और इसका उद्देश्य है - वैचित्र्य की सिद्धि। वक्रोक्ति लोकोत्तर आह्लादकारिणी होकर असुन्दर वस्तु में कलात्मकता का आधान करती है। कुन्तक ने वक्रोक्ति के समानार्थी अनेक शब्दों का प्रयोग किया है-

(क) वक्रोक्ति - वैदग्ध्यभंगी भणिति है।

(ख) विचित्राभिधा - वक्रोक्ति।

(ग) वक्रत्वं वक्रभाव - प्रसिद्ध प्रस्थानान्तिर्यकणोनिबद्धा।

(घ) वक्रोक्ति - सकलालंकार सामान्याम् 

आचार्यों की वक्रोक्ति सम्बन्धी अवधारणा

कुन्तक के परवर्ती आचार्यों की वक्रोक्ति सम्बन्धी अवधारणा - कुंतक के पूर्ववर्ती ऐसे आचार्य, जिन्होंने वक्रोक्ति के संबंध में अपनी अवधारणा प्रकट की है, निम्नलिखित हैं -

(1) रुद्रट (2) आनन्दवर्धन (3) अभिनवगुप्त (4) भोज (5) मम्मट (6) रुय्यक (7) विश्वनाथ (8) अप्पय दीक्षित।

डॉ. माया अग्रवाल ने कुन्तक के इन परवर्ती कवियों द्वारा वक्रोक्ति के विषय में प्रकट किये गये विचारों का वर्णन करते हुए लिखा है - 

"आगे चलकर वक्रोक्ति के इस अर्थ में संकोच हुआ है। वामन ने इसे एक सामान्य अर्थालंकार माना है। रुद्रट ने वक्रोक्ति को वाक्छल पर आधारित शब्दालंकार तथा अर्थालंकार स्वीकार किया है। आनन्दवर्धन ने वक्रोक्ति की स्वतन्त्र व्याख्या तो नहीं की है, परन्तु इसे विशिष्ट अलंकारों के रूप में ग्रहण करते हुए इसके सामान्य तथा व्यापक रूप को स्वीकार किया है। आनन्दवर्धन ने अतिशयोक्ति और वक्रोक्ति को पर्याय मानते हुए सभी अलंकारों को अतिशयोक्तिगर्भित माना है। अभिनव गुप्त ने वक्रोक्ति के सामान्य रूप को स्वीकार किया है। उनके अनुसार शब्द और अर्थ की वक्रता का आशय है - उनकी लोकोत्तर स्थिति और इस लोकोत्तर का अर्थ अतिशय ही है। भोज ने वक्रोक्ति को स्वभावोक्ति से उत्कृष्ट, परन्तु रसोक्ति से निकृष्ट माना है। मम्मट ने वक्रोक्ति को अलंकार के रूप में ही स्वीकार किया है और रुद्रट के आधार पर उसका कारक और भंगश्लेष भेद किया है। रुय्यक ने इसे व्यापक रूप में स्वीकार करते हुए भी अर्थालंकार विशेष ही माना है। आगे की परम्परा में दीक्षित (अप्पय दीक्षित) ने अर्थालंकार और विश्वनाथ ने शब्दालंकार माना है।"

आचार्य कुंतक के पूर्ववर्ती और परवर्ती आचायों में आनन्दवर्धन और मम्मट विशिष्ट हैं। इनकी वक्रोक्ति सम्बन्धी अवधारणा प्रस्तुत है - 

(क) आनन्दवर्धन - आनन्दवर्धन ध्वनिवादी आचार्य हैं और उन्होंने ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार किया है। इनकी वक्रोक्ति सम्बन्धी अवधारणा के विषय में डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने लिखा है - 

"यह आश्चर्य की बात है कि इस वैभववंचिता वक्रोक्ति को ध्वनि सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित आचार्य आनन्दवर्धन ने इतना अधिक सम्मान प्रदान किया कि यह एक बार में ही अपनी समस्त खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः पा सकने में समर्थ हुई। आचार्य आनन्दवर्धन ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है -

सैषा सर्वत्र वक्रोक्त्तिरनयार्थो विभाव्यते। 

यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना।।

(अर्थात् यह सब वही वक्रोक्ति है। इसके द्वारा अर्थ चमक उठता है। कवियों को इसमें विशेष प्रयत्न करना चाहिए। इसके बिना अलंकार है ही क्या ?) 

सम्भवतः आनन्दवर्धन की इस प्रशंसा के कारण ही कुन्तक को इतना बल मिला था कि ये ध्वनि सम्प्रदाय के विरोध में वक्रोक्ति सम्प्रदाय की स्थापना करते हुए वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा घोषित कर सके। फिर भी इसमें कोई सन्देह नहीं कि वक्रोक्ति के प्रति कुन्तक का दृष्टिकोण आनन्दवर्धन से पर्याप्त व्यापक है। किन्तु परवर्ती आचायों और विद्वानों में वक्रोक्ति को एक अलंकार विशेष के रूप में ही स्वीकार किया, उसका व्यापक रूप उन्हें मान्य नहीं हो सका।" 

(ख) सम्मट - जाचार्य मम्मट ने अपने 'काव्यप्रकाश' के नवम उल्लास में शब्दालंकारों का विवेचन करते हुए वक्रोक्ति को प्रथम स्थान दिया है। आचार्य मम्मट ने वक्रोक्ति को लक्ष्य करते हुए इसके दो भेद, निम्न प्रकार बताये है -

यदुक्तमन्यथा वाक्यमन्यथान्येन योज्यते ।

श्लेषेण काक्वा वा ज्ञेया वक्रोक्तिस्तथा द्विधा ।।

[वक्ता के द्वारा अन्य अभिप्राय से कहा गया जो वाक्य अन्य के द्वारा श्लेष अथवा काकु (ध्वनिविकार) अन्य अर्थ (वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ) में समझा जाता है। वह वक्रोक्ति अलंकार श्लेष और काकु भेद से दो प्रकार का होता है। 

श्लेष दो प्रकार का होता है - पदभंगश्लेष और अभंगश्लेष। आचार्य मम्मट ने पदभंग श्लेष का उदाहरण निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है -

नारीणामनुकूलमाचरसि चेज्जनासि यश्चेतनो, 

वामानां प्रियमादधसि हितकृन्नैषाबलानां भवान् ।

युक्त किं हितकर्तनं ननु बलाभाव प्रसिद्धात्मनः, 

सामर्थ्य भवतः पुरन्दरमतच्छेदं विधातुं कुतः ।।

[(वक्ता) यदि तुम स्त्रियों के अनुकूल आचरण करते हो तो समझदार हो । (श्रोता) यदि तुम शत्रुओं के अनुकूल आचरण नहीं करते हो तो बुद्धिमान हो - यह अर्थ लगाकर वक्ता को उत्तर देता है। कौन बुद्धिमान व्यक्ति विरोधियों का प्रिय करता है? (वक्ता) तो क्या आप अबलाओं के हितकारी नहीं है ? (श्रोता) बल के अभाव के लिए प्रसिद्ध दुर्बलजन के हित का विनाश क्या उचित है ? (वक्ता) अरे बलासर के विनाश करने में प्रसिद्ध इन्द्र के अभीष्ट का विनाश करने की सामर्थ्य आप में कहाँ है ?)

यहाँ नारीणाम् और अबलासु इन पदों में अभंगश्लेष है। नारीणाम् और अबलासु शब्द स्त्री अर्थ में रूद हैं, पर संधि-विच्छेद से उनका अर्थ न + अरीणाम् तथा न + बलानाम् = अबलानम् अर्थ श्लेष के आधार पर लिया गया है।

(ख) अभंग श्लेष का उदाहरण -

अहो केनेदृशी बुद्धिर्दा रुणा तब निर्मिता। 

त्रिगुणा श्रयूते बुद्धिर्ननु दारुमयी क्वचित् ।।

(अहो ! किसने तुम्हारी बुद्धि इस प्रकार दारुण अर्थात् कठोर बना दी है ? किन्तु त्रिगुणात्मक बुद्धि तो सांख्यदर्शन में सुनी जाती है, परन्तु दारुमयी अर्थात् काष्ठ की बनी हुई बुद्धि तो कहीं नहीं सुनी है।) 

यहाँ पर वक्ता ने 'दारुण' पद का प्रयोग कठोर अर्थ में किया है, किन्तु श्रोता वक्ता के अभिप्राय से भिन्न 'दारुणा' पद का अर्थ काष्ठेन (लकड़ी से) लगा लेता है। दारू शब्द का तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'दारुणन' रूप बनता है। इस प्रकार यहाँ अभंग श्लेष है।

(ग) काकु का उदाहरण -

गुरुजन परतन्त्र्या दूरतरम् देशमुद्यतो गन्तुम्। 

अलिकुलकोकिलाललिते नेष्यसि सखि सुभिसमयेऽसौ ।।

(अरे सखि ! गुरुजनों के परतन्त्र (अधीन) होने से विदेश जाने के लिए उद्यत थे, अतः हे सखि ! भ्रमरकुल और कोयलों के कारण रमणीय इस बसन्त काल में नहीं आयेंगे) 

यहाँ नायिका ने 'नैष्यसि', (नहीं आयेंगे) पद का प्रयोग किया था, किन्तु उसकी सखी ने काकु अर्थात् ध्वनिविकार से दूसरे ढंग से इसका उच्चारण करके नेष्यसि पद का अर्थ नहीं आयेंगे अर्थात् अवश्य आयेंगे, इस प्रकार किया है। 

वक्रोक्ति सम्प्रदाय का भविष्य

वक्रोक्ति सम्प्रदाय का भविष्य - वक्रोक्ति सिद्धान्त जिस महान् उद्देश्य को लेकर आरम्भ किया गया था, वह उद्देश्य बाद में समाप्त हो गया। आचार्य मम्मट, विश्वनाथ आदि ने इसे अलंकार-विशेष का रूप प्रदान करके उक्ति-वैचित्र्य का साधन सिद्ध कर दिया है। अलंकार सिद्धान्त में अति समीप आकर वक्रोक्ति सिद्धान्त का पतन हुआ और वह अलंकार बनकर रह गया। कुन्तक के अतिरिक्त किसी भी आचार्य ने वक्रोवित्त को काव्य की आत्मा कहना उचित नहीं समझा है।

 Wakrokti ki awdharna spashta kijiye.

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