वक्रोक्ति की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूपों एवं भेदों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए एवं अन्य सिद्धांतों से इसका संबंध स्थापित कीजिये।

वक्रोक्ति सिद्धांत 

प्रश्न 7. वक्रोक्ति की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूपों एवं भेदों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए एवं अन्य सिद्धांतों से इसका संबंध स्थापित कीजिये। 

उत्तर - 

वक्रोक्ति की परिभाषा

वक्रोक्ति शब्द का संधि-विच्छेद करने पर - वक्र + उक्ति = टेढ़ा अथवा अस्वाभाविक कथन प्रतीत होता है। व्यवहार में वक्रोक्ति तभी से प्रतीत हो रही है, जब मनुष्य ने भाषा का व्यवहार पूर्णरूप से सीख लिया था। आज भी श्रोता को चमत्कृत करने के लिए लोग अस्वाभाविक चक्र अथवा टेढ़े कथनों का आश्रय लेते हैं। संस्कृत साहित्य में वक्रोक्ति शब्द वाक् छल, क्रीड़ा-कलाप अथवा हास-परिहास अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। काव्यशास्त्र में आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा माना है। इससे पूर्व भी इसकी चर्चा हो चुकी है। 

वक्रोक्ति के स्वरूप

 वक्रोक्ति का स्वरूप - वक्रोक्ति सिद्धान्त काव्यशास्त्र का प्रौढ़-चिंतन है, जिसके प्रणेता आचार्य कुन्तक ने 'वक्रोक्तिजीवितम्' नामक ग्रंथ में इस पर विचार किया है। 

उनके अनुसार वक्रोक्ति काव्य की आत्मा है। उन्होंने इसे अत्यन्त व्यापक महत्व दिया और काव्य के सभी तत्वों एवं भेदों में इसे स्वीकार किया। उनके अनुसार - वक्रोक्ति वैदग्ध्यभंगीभणिति या चतुर कवि-कर्म का कुशलता से कथन है। इसे वे शब्द एवं अर्थ के सौन्दर्य की समष्टि मानते हैं। उनके अनुसार काव्य के चमत्कार-भूत तत्व का नाम वक्रोक्ति है। शब्द और अर्थ अलंकार्य है और वक्रोक्ति उनका अलंकार है। वह प्रसिद्ध कथन से भिन्न प्रकार की उक्ति या कथन है। 

(भारतीय आलोचनाशास्त्र)

उभावेतावलंकार्यो न तयोः पुनरलंकृतिः, 

वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते।


यहाँ 'वैदग्ध्य' का अर्थ है- कुशल कवि-व्यापार, 'भंगी' का अर्थ है - चमत्कार अथवा चारूता और 'भणिती' का अर्थ है- कवन का ढंग अर्थात् वह कथन जो कुशल कवि-व्यापार युक्त हो और जिसमें चमत्कार या चारुता उत्पन्न करने की सामर्थ्य हो, उसी को वक्रोक्ति कहते हैं। इस प्रकार कुन्तक ने वक्रोक्ति में तीन तत्वों की उपस्थिति आवश्यक मानी - कुशल कवि व्यपार, चमत्कार या चारुता और कवि-कथन या उक्ति कुन्तक ने एक अन्य तत्व को भी आवश्यक माना, यह है सहृदयों को आह्लादित करने की क्षमता। 

(डॉ. देवीशरण रस्तोगी साहित्यशाख)

कुन्तक के अनुसार -

शब्दार्थो सहितौ वक्र कवि व्यापार शालिनौ । 

बधे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणी।।

अर्थात् वक्र-व्यापार से युक्त सहृदयों को आह्लादित करने वाले शब्द और अर्थ सम्मिलित रूप से उत्तम काव्य कहे जा सकते हैं।

 वक्रोक्ति के भेद

वक्रोक्ति के भेद एवं संक्षेप में उल्लेख - कुक्तक ने इसके छः भेद किये हैं 

(1) वर्ण-विन्यास-वक्रता - जब एक या एक से अधिक कई वर्ण किसी रचना में थोड़े अन्तर से बार-बार उपनिषद्ध किये जायें -

'एकौ द्वौ बहवो वर्णाः बध्यमानाः पुनः पुनः।' 

इसमें यदि वर्णों का प्रयोग वैचित्र्योत्पादक हो तो रचना सहृदय के लिए अधिक आनन्ददायक होती है। कुन्तक का यह संकेत अनुप्रास तथा यमक के निकट है, क्योंकि कुन्तक का वर्ण से अभिप्राय व्यंजन से ही है। - 

वर्णशब्दोअत्र व्यंजन पर्याय:

 (2) पद-पूर्वार्द्ध वक्रता - वर्णों का समूह ही पद कहलाता है। जहाँ पद के पूर्वार्द्ध भाग में वक्रता हो, वहाँ पद-पूर्वार्द्ध-वक्रता मानी जायेगी। कुन्तक ने आगे चलकर इसके भी आठ प्रकार बताये हैं। 

(3) पदपरार्द्ध-वक्रता - जहाँ पद के उत्तरार्द्ध में अंश में चमत्कार हो, वहाँ यही वक्रता मानी जायेगी। कुन्तक ने इसके भी छः भेदों की चर्चा की है।

(4) वाक्य वक्रता - कुन्तक के अनुसार -

'वाक्यस्य वक्रभावोऽत्यो विद्यते यः सहस्रधा ।'

अर्थात् वह वक्रता सहस्रों प्रकार की सम्भव है। उनके अनुसार इसमें अलंकारों का अन्तर्भाव हो जाता है। कुन्तक अनुसार वैचित्र्यपूर्ण वर्णन ही वाक्य वक्रता या वाच्य वक्रता है। इसके दो प्रकार है - सहजा एवं आहार्या। सहजा से उनका के तात्पर्य 'स्वभावोक्ति' से है, जिसे वे अलंकार न मानकर अलंकार्य स्वीकार करते हैं। इसके माध्यम से सहज रमणीय चित्र उतारा जा सकता है। आहार्या के अन्तर्गत उपमादि अलंकार आते हैं।

(5) प्रकरण वक्रता - कुन्तक के अनुसार प्रबन्ध का अंश 'प्रकरण' है। जब कवि प्रसंग-विशेष का उत्कर्ष करता है, तब सम्पूर्ण प्रबन्ध प्रोज्ज्वल हो जाता है—यही प्रकरण-वक्रता है। प्रकरण को सरस, मनोरम एवं उपयोगी बनाने के लिए प्रसंग आवश्यक होते हैं। कुक्तक ने इस प्रकार के नौ प्रसंगों का भी उल्लेख किया है जिसमें से छः इस प्रसंग इस प्रकार हैं - 

(i) भावपूर्ण स्थिति की उद्भावना,

(ii) उत्पाद्य लावण्य, 

(iii) प्रधान कार्य के संबद्ध प्रकरणों का उपकार्य-उपकारक भाव, 

(iv) विशिष्ट प्रकरण की अतिरंजना, 

(v) रोचक प्रकरणों का विशेष विस्तार से वर्णन, 

(vi) सुन्दर उप-प्रधान प्रसंग की उद्द्भावना आदि। 

(6) प्रबन्ध-वक्रता - यह वक्रोक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप है। इसके अन्तर्गत महाकाव्य या नाटकादि के वस्तु-कौशल के सभी रूप आ जाते हैं। कुन्तक इसके छ: रूप मानते हैं 

(क) मूल-रस परिवर्तन - प्रसिद्ध इतिवृत्त के मूलरस की अपेक्षा अन्य आह्लादकारी रस की प्रधानता रखना मूलरस-परिवर्तन कहलाता है। 

(ख) कथा की मध्य समाप्ति - इतिहासप्रसिद्ध कथा को नायक के चरित्र के उत्कर्ष का द्योतन करने वाले प्रसंग ही समाप्त कर देना मध्य समाप्ति कहलाती है।

(ग) आकस्मिक प्रसंग की अवतारणा - नीरस कथा को सरस बनाने के हेतु बीच में इस प्रकार के प्रसंग की कल्पना की जाती है। 

(घ) नायक को फल प्राप्ति - मुख्य फल प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील नायक को अन्य अनेक फलों की प्राप्ति का प्रसंग उपस्थित होने पर यह वक्रता उपस्थित होती है।

(ङ) नामकरण का वैचित्र्य - प्रबन्ध का नाम इस प्रकार रखना, जिससे प्रधान कथा द्योतित हो सके, नामकरण वैचित्र्य कहलाता है।

(च) विशिष्ट उद्देश्य - जहाँ कवि किसी विशेष उद्देश्य को लेकर प्रबन्ध रचना करता है।

इतिहास एवं अन्य से सम्बन्ध 

वक्रोक्ति का इतिहास - वक्रोक्ति विवेचन कुन्तक से भी पूर्व प्राप्त होता है। यद्यपि वक्रोक्ति का शास्त्रीय विवेचन सर्वप्रथम भामह ने किया, पर इससे पूर्व भी इसका वर्णन मिलता है। 

अथर्ववेद में भी इसका उल्लेख है -

अयं यो वक्रो विरूपव्यो मुखानि वक्रा वृजिना कृपोषि ।' 

इसके साथ ही 'मेघदूत' (वक्रः पन्या यदपि भवतः) 'अमरुक शतक' और 'कादम्बरी' (वक्रोक्ति निपुणेन विलासि जनेन) में इसका प्रयोग हुआ है। अथर्ववेद में इसका प्रयोग 'कुटिल' अर्थ में, 'मेघदूत' में 'टेढ़ा मार्ग' और बाणभट्ट ने तो इसका प्रयोग वाक्-छल, क्रीड़ा-कलाप, परिहास जल्पित, चमत्कारपूर्ण कथन एवं वाक् वैचित्र्य के रूप में किया है। 

(1) भामह - 'काव्यालंकार' में वे अलंकार को काव्य-सर्वस्व मानते हैं, तो वक्रोक्ति को उसका प्राण स्वीकार करते हैं। अर्थ की रमणीयता वक्रोक्ति से ही है, इसके बिना कोई भी अलंकार संभव नहीं है। वे कवि से इसके लिए यत्न करने को कहते हैं -

सैषा सर्वेव वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते।

यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना।।

वक्रोक्ति का अर्थ शब्द और अर्थ की वक्रता से है। उन्होंने हेतु, सूक्ष्म एवं लेश को इसी कारण अलंकार नहीं माना, क्योंकि इनमें वक्रोक्ति का अभाव है। वक्रोक्ति से भामह का अभिप्राय अतिशयोक्ति से ही है। उन्होंने शब्द एवं अर्थ के चमत्कार को ही वक्रोक्ति का मूल तत्व माना है।

(भारतीय आलोचनाशास्त्र)

(2) दण्डी - इन्होंने तो काव्य को दो भागों में बाँट दिया है-स्वभावोक्ति एवं वक्रोक्ति वे भी अलंकार का मूल वक्रोक्ति को ही स्वीकार करते हैं -

'श्लेषः सर्वासु पुष्णाति प्रायो वक्रोक्तिषु किंचन ।'

    उन्होंने उसे उपमा आदि सभी अलंकारों के सौन्दर्य में चमत्कार लाने का साधन स्वीकार किया। श्लेष को वक्रोक्ति का आधार मानकर उसकी शोभा को वे सर्वाधिक स्वीकार करते हैं। 

(3) वामन - इन्होंने वक्रोक्ति को सादृश्य के ऊपर आश्रित लक्षणा को वक्रोक्ति स्वीकार किया है -

'सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्तिः।'

(4) रुद्रट - इन्होंने शब्दालंकारों के रूप में इसका वर्णन करके इसके दो प्रकार बताये हैं - काकु और श्लेष । 

(5) भोज - इनके अनुसार - 

"वक्रोक्तिश्च रसोक्तिश्च स्वभावोक्तिश्च वाङ्मयम् ।"

इस प्रकार वे वाङ्मय के तीन भाग करते हैं - वक्रोक्ति, रसोक्ति और स्वभावोक्ति। उनके अनुसार - उपमादि अलंकारों के प्राधान्य में वक्रोक्ति, गुण के प्रधान होने पर स्वभावोक्ति तथा विभावादि के संयोग के कारण रस की निष्पत्ति होने से रसोक्ति होती है।

डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा' के अनुसार पूर्ववर्ती (कुन्तक-पूर्व) आचायों का वक्रोक्ति-विवेचन चार भागों में बाँटा जा सकता है -

(क) सर्वालंकाराचाररूपा वक्रोक्ति, 

(ख) वाङ्मय के प्रकार के रूप में,

(ग) स्वभावोक्ति एवं रसोक्ति से भिन्न उपमादि अलंकारों के रूप में, तथा 

(घ) अर्थालंकार अथवा शब्दालंकार के रूप में उपस्थित संकीर्ण क्षेत्र में।

    परवर्ती आचार्यों द्वारा उसे मुख्यतः अलंकार का ही रूप प्राप्त हुआ और शब्दालंकार तथा अर्थालंकार (रुय्यक द्वारा) दोनों के ही रूप में वक्रोक्ति की प्रतिष्ठा हुई।

हिन्दी के विद्वान् 

(1) डॉ. नगेन्द्र - इन्होंने वक्रता की समृद्धि का प्रमुख आधार रस-सम्पदा बताकर रस एवं वक्रोक्ति का वही सम्बन्ध स्वीकार किया है जो रस एवं ध्वनि का है। वक्रता के अभाव में रस की कल्पना का निर्णय करते हुए उन्होंने लिखा है - 

"रस परम श्रेष्ठ तत्व अवश्य है, किन्तु आत्मा नहीं है। कुछ ऐसी ही स्थिति वक्रोक्ति एवं रस के परस्पर सम्बन्ध की भी है। रस वक्रोक्ति की परम विभूति है। रस की काव्यगत अभिव्यंजना वक्रताविहीन नहीं हो सकती।"

(2) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - डॉ. कृष्णदेव झारी ने शुक्लजी के वक्रोक्ति सम्बन्धी विचारों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वे स्वभावोक्ति और वक्रोक्ति में कोई भेद नहीं मानते।

वक्रोक्ति और अन्य सम्प्रदाय

(1) वक्रोक्ति और अलंकार सम्प्रदाय - पूर्व-विवेचन से ही स्पष्ट है कि इन दोनों का परस्पर गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि आचार्य उसे (वक्रोक्ति) अलंकार का एक प्रकार मानते हैं। इसका एक कारण यह भी रहा है कि आचार्य भामह (वक्रोक्ति के जन्मदाता) अलंकारवादी आचार्य थे। उन्होंने वक्रोक्ति को ही अलंकार मानते हुए वक्रोक्ति के अभाव में वाणी .को 'वार्ता' मात्र स्वीकार किया है। इसके साथ ही दण्डी, रुद्रट, भोज, मम्मट, , विश्वनाथ आदि ने वक्रोक्ति को अलंकार के रूप में ही वर्णित किया है। अलंकारवादी आचार्य अलंकार्य और अलंकार में अभेद स्थापना करते हुए सम्पूर्ण काव्य-सौन्दर्य को अलंकार में ही अन्तर्निहित कर देते हैं। कुन्तक भी भेद नहीं मानते। उन्होंने वक्रोक्ति के मार्गों के विवेचन में भी प्रकारान्तर से रस के चमत्कार का उल्लेख किया है, पर कुन्तक उसे ही काव्यात्मा स्वीकार करते हैं, रस को नहीं।

(2) रीति और वक्रोक्ति - रीति और वक्रोक्ति की तुलना करते समय वक्रोक्ति का अधिक महत्व माना जाता है, क्योंकि वक्रोक्ति को काव्य-मार्ग और काव्य-स्वभाव का धर्म माना गया, जबकि रीति को काव्य की आत्मा । अतः महत्वपूर्ण वस्तुवादी तत्व के रूप में प्रतिष्ठित होने के कारण वक्रोक्ति का अधिक महत्व है। रीति के आचार्य उसका महत्व पदसंरचना में स्वीकार करते हुए उसे काव्य-रचना कौशल में सर्वोपरि मानते हैं, पर वक्रोक्ति रीति के सभी सिद्धान्तों को समेट लेती है और व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करती है। तीसरे रस की महत्ता स्वीकार करके वह रीति से अधिक महत्वपूर्ण हो उठती है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, "वक्रोक्ति वास्तव में काव्य-कला (Poetic art) की समानार्थी है और रीति काव्य-शिल्प (Poetic craft) की इस प्रकार वामन की रीति वक्रोक्ति का एक अंग मात्र रह जाती है। इन दोनों सिद्धान्तों के अन्तर का सार यही है।"

(3) रस और वक्रोक्ति - कुन्तक ने रस का विरोध नहीं किया। उन्होंने वक्रोक्ति को आह्लादकारी कहकर रस की महत्ता स्वीकार की है -

बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि।

काव्य के प्रयोजन का वर्णन करते हुए उन्होंने स्वीकार किया कि काव्यामृत का रस सहृदयों के अन्तःकरण में चतुर्वर्ग-रूप फल के आस्वाद से भी बढ़कर चमत्कार उत्पन्न करता है। 

काव्य-मार्ग के निरूपण में भी कुन्तक ने रस को समुचित महत्व प्रदान किया है। वे सुकुमार तथा विचित्र मार्गों के वर्णन में रस की महत्ता प्रतिष्ठित करते हैं। सुकुमार मार्ग तो सहज ही 'रसादि परमार्थमत- संवाद - सुन्दर' होता है। उन्होंने काव्य-वस्तु के विवेचन में भी रस के महत्त्व या चमत्कार का उल्लेख किया है। काव्य के वर्ण्य विषय के लिए उन्होंने रस की अनिवार्य सत्ता की स्वीकृति दी है, पर वे काव्य का सर्वस्व अवश्य वक्रोक्ति को ही मानते है, रस को नहीं। वे वक्रोक्ति का परम तत्व रस को मानकर भी उसे वक्रोक्ति का अंग स्वीकार करते हैं अर्थात् वक्रोक्ति अंगी है और रस उसका अंग । 

(डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा' भारतीय आलोचना शास्त्र)

(4) वक्रोक्ति और ध्वनि - कुन्तक को ध्वनि का विरोधी माना जाता है। ये लक्षणा एवं व्यंजना को अभिधा के अन्तर्गत ही मानते हैं। उनके अनुसार रसादि की अभिव्यक्ति अभिधा शक्ति द्वारा ही होती है, जबकि ध्वनिवादी उसे व्यंजना द्वारा स्वीकार करते हैं।

(5) औचित्य और वक्रोक्ति - कुन्तक शब्द और अर्थ के औचित्यपूर्ण सहभाव में ही काव्य की सार्थकता स्वीकार करते हैं। उन्होंने वक्रता के विविध रूपों के निरूपण में औचित्य की महनीयता स्वीकार की है तथा वृत्त्यौचित्य, रीत्यौचित्य, अलंकारौचित्य का निरूपण वर्ण्यवक्रता के अन्तर्गत किया है और वहाँ उनकी स्थिति आवश्यक मानी है। उन्होंने सुकुमार, विचित्र और मध्य मार्ग में औचित्य गुण की स्थिति स्वीकार कर उसके महत्व को दर्शाया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने स्वभावौचित्य एवं व्यवहारौचित्य का वर्णन किया है। दूसरी समता यह है कि दोनों ही रस का महत्व स्वीकार करते हैं। कुन्तक ने प्रकरण- वक्रता और प्रबन्ध वक्रता में रस की स्थिति स्वीकार की है और दोनों प्रकार के मुख्य तत्वों का आधार रस को ही माना है। कुन्तक रसोन्मीलन में ही वक्रोक्ति की सार्थकता सिद्ध करते हैं और औचित्य-संप्रदाय भी रस-सिद्धि को काव्य का परमतत्व मानता है। अतः दोनों ही सिद्धान्त रसोन्मीलन के साधक सिद्ध होते हैं।

(डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा')

वक्रोक्ति और अभिव्यंजनावाद

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की चर्चा वक्रोक्ति के साथ होती रही है। आचार्य शुक्ल ने तो इसे वक्रोक्ति का विलायती संस्करण माना है- "क्रोचे का अभिव्यंजनवाद, सच पूछिए, एक प्रकार का वक्रोक्तिवाद है।" (इन्दौर का भाषण) 

अब ये दोनों अलग-अलग माने जाते हैं। यह बात दूसरी है कि इनमें कुछ समानताएँ भी हैं। डॉ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार - समानताएँ हैं - दोनों में अभिव्यंजना पर बल, दोनों में कल्पना की महत्ता, दोनों में रसोन्मीलन की दृष्टि से उक्ति की अखंड सत्ता का प्रतिपादन। असमानताएँ भी हैं, वे हैं - वक्रोक्ति में उक्ति की वक्रता तथा ऋजुता दोनों की अलग स्वीकृति, जबकि क्रोचे ऐसा कोई भेद नहीं मानता। वक्रोक्ति में काव्य-कर्म में कवि व्यापार की महत्ता की स्वीकृति है, जबकि क्रोचे के अनुसार स्मृति सहायक वस्तु मात्र है। वक्रोक्ति में आनन्द ही काव्य का परम प्रयोजन है, अभिव्यंजनावाद में वह मात्र सहचारी के रूप में स्वीकृत है। अन्ततः वक्रोक्ति में वस्तु-तत्व की महत्ता भी स्वीकृत है, जबकि अभिव्यंजनावाद में उसका स्थान गौण है।

Vakrokti ki paribhasha dete huye uske svroopon ewam bhedon ka sankshep me ullekh kijiye ewam anya siddhanton se iska sambandh sthapit kijiye.

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