हिन्दी आलोचना की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए। - Hindi aalochana ki Pramukh pravrittiyon par Prakash daliye

 प्रश्न 2. हिन्दी आलोचना की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।

अथवा

हिन्दी में कितने प्रकार की आलोचनाएँ प्रचलित रही है? प्रत्येक का परिचय दीजिए।

हिन्दी आलोचना की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

उत्तर - आलोचना शब्द संस्कृत की लुच् धातु से बना है, जिसका अर्थ है - देखना। लुच् धातु से पूर्व आ उपसर्ग जोड़कर तथा बाद में ल्युट् (यु) प्रत्यय आने से आलोचना शब्द बना है। 

आ + लुच् + यु की स्थिति में पाणिनि के सूत्र 'युवोरनाकौ' से यु को अन आदेश हो जाता है। लुच् के लकार वाले उ को ओगुण हो ल् + ओ+च्+अन की दशा में वर्ण सम्मेलन करने पर आलोचना शब्द बनता है। 

इससे स्त्रीत्व की विवक्षा में पाणिनि के सूत्र 'अजाद्यतष्टाप्' से टाप् (आ) प्रत्यय होकर आलोचन + आ की स्थिति में पाणिनि के सूत्र' अकः सवर्णेदीर्घ: से आलोचन के नकार वाले अ तथा टाप के आ को मिलाकर आ हो जाता है, इस प्रकार आलोचना शब्द बनता है।

नेत्र का पर्यायवाची लोचन शब्द भी संस्कृत की लुच् धातु से ही बनता है। लोचन का कार्य है - देखना। 

आलोचला शब्द है - भली-भाँति अथवा ठीक से देखना। आलोचना के पर्यायवाची शब्द समीक्षा का भी यही अर्थ है। 

संस्कृत की ईक्ष् धातु का अर्थ है - देखना। जिस प्रकार लुच् धातु से लोचन शब्द बनता है, उसी प्रकार ईक्ष् धातु से ईक्षण शब्द बनता है। 

ईक्षण से पहले सम् उपसर्ग और बाद में स्त्रीवाची टाप्(आ) प्रत्यय जोड़ने से (सम्+ ईक्ष्+आ) समीक्षा शब्द बना है। इसका अर्थ भी ठीक से अथवा भली-भाँति देखना है। 

आलोचना करने वाला आलोचक और समीक्षा करने वाला समीक्षक कहलाता है। अंग्रेजी में इनका पर्यायवाची शब्द है- 'क्रिटिक'। 

अंग्रेजी में समालोचना और समीक्षा को क्रिटिसिज्म कहते हैं। देखना दो प्रकार का होता है-एक सामान्य रूप से देखना और दूसरा विशेष रूप से देखना। 

यह विशेष रूप से किसी कलाकृति, कविता अथवा साहित्यिक रचना को देखना ही आलोचना, समीक्षा अथवा क्रिटिसिज्म है।

हिन्दी की आलोचनाएँ

हिन्दी में समीक्षा अथवा आलोचना के निम्नलिखित रूप प्रचलित हैं-

(1) शास्त्रीय आलोचना, (2) व्यक्तिवादी आलोचना, (3) ऐतिहासिक आलोचना, (4) तुलनात्मक आलोचना, (5) प्रभाववादी आलोचना, (6) मनोविश्लेषणवादी आलोचना, (7) सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना, (8) शैली वैज्ञानिक आलोचना, (9) समाजशास्त्रीय आलोचना।

इन सभी आलोचनाओं का परिचय नीचे दिया जा रहा है -

(1) शास्त्रीय आलोचना - किसी कविता अथवा साहित्यिक रचना की जो आलोचना काव्यशास्त्र के नियमों के आधार पर की जाती है, उसे शास्त्रीय आलोचना कहा जाता है। डॉ. कृष्णदेव शर्मा ने शास्त्रीय आलोचना की परिभाषा इस रूप में प्रस्तुत की है- 

"काव्यशास्त्र के आधार पर व्यावहारिक समालोचना करना शास्त्रीय समालोचना है। काव्यशास्त्र के अन्तर्गत आने वाले विषयों - रस, छन्द, अलंकार, ध्वनि, भाषा-शैली आदि की दृष्टि से परम्परागत काव्यशास्त्रीय भूमियों के आधार पर किसी आलोच्य कृति की व्याख्या-विश्लेषण इस समालोचना पद्धति की विशेषता है।

इस शैली का दोष यह है कि समालोचक का ध्यान कृति के बाह्य रूप विधान और बाह्याकार अभिव्यक्ति पक्ष के प्रति ही अधिक रहता है। वह अन्तरंग पक्ष का पूर्ण विवेचन नहीं कर पाता। इसलिए इसे रूप निधायिनी आलोचना (Formal Criticism) भी कहते हैं। इस पद्धति का गुण यह है कि इसकी दृष्टि काव्याकृति पर ही विशेषतः रहती है। यह पद्धति प्रचलित नहीं है।"

डॉ. शान्तिस्वरूप गुप्त ने शास्त्रीय समालोचना को एकेडेमिक क्रिटिसिज्म (Academic Criticism) कहा है और इसका परिचय इस रूप में दिया है- 

"इस आलोचना पद्धति के अन्तर्गत आलोचक लक्षण ग्रन्थों या काव्यशास्त्रीय पुस्तकों में दिये गये शास्त्रीय नियमों के आधार पर रचना की परख और उसका मूल्यांकन करता है। उदाहरण के लिए, यदि यह किसी महाकाव्य की परीक्षा करने बैठेगा तो उसके सामने मम्मट, विश्वनाथ आदि द्वारा दिये गये महाकाव्य के लक्षण होंगे और वह देखेगा कि उस महाकाव्य में उन शास्त्रीय लक्षणों का किस सीमा तक पालन किया गया है। जिस सीमा तक वह शास्त्रीय नियमों का पालन रचना में पायेगा, उसी सीमा तक उसे सुन्दर कृति कहेगा। इस प्रणाली में वह न तो अपने मन पर पड़े कृति के प्रभाव (Impression) का ही प्रस्तुतीकरण करता है। इसमें कृति में बाह्य रूप-विधान का विश्लेषण अधिक होता है, अतः इसे Formal Criticism अर्थात् साधारण समीक्षा भी कहा जाता है।"

(2) व्यक्तिवादी आलोचना - इसे वैयक्तिक समीक्षक भी कहा जाता है। इस समीक्षा में व्यक्ति की निजी मान्यता का महत्त्व होता है। पाश्चात्य और भारतीय दोनों प्रकार की आलोचनाओं में व्यक्तिवादी समीक्षक हुए है। भारतीय काव्यशास्त्र में अलंकार, रीति, औचित्य, वृत्ति आदि को काव्य की आत्मा बताना व्यक्ति की समीक्षा का ही परिणाम है। हिन्दी साहित्य में बिहारी और देव की श्रेष्ठता का विवाद व्यक्तिवादी आलोचना का ही परिणाम था। व्यक्तिवादी आलोचना के विषय में डॉ. भागीरथ दीक्षित ने लिखा है - 

"इसी प्रकार मैथ्यू ने वैयक्तिक समीक्षा का भी गलत ढंग बताया है। किसी समीक्षक को कोई कृति इसलिए उच्चकोटि की या निम्न कोटि की लग सकती है कि कवि के साथ उसका सम्बन्ध अच्छा या बुरा है। व्यक्तिगत रुचि और अरुचि से कृति की वास्तविक समीक्षा नहीं हो पाती है। यदि किसी समीक्षक को कुछ सिद्धान्त मान्य है और उन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर वह किसी कृति की परख करके निर्णय देता है तो वह निर्णय सर्वथा ठीक ही होगा, यह नहीं कहा जा सकता। यदि उसके सिद्धान्त काव्य समीक्षा के वास्तविक सिद्धान्तों हों तब तो उसका निर्णय ठीक होगा। अन्यथा वह भ्रमात्मक और साहित्य के लिए बाधक होगा। समीक्षक कवियों का समीक्षा के अवसर पर यह दोष अधिक दिखाई पड़ता है। चूंकि यह जीवित कवि होता है, समीक्षक में उसके प्रति राग-द्वेष का होना सम्भव है, इसलिए वह अपने राग-द्वेष से भी प्रभावित हो सकता है। साहित्य के वास्तविक समीक्षक को इससे ऊपर उठना चाहिए। आजकल हिन्दी में ऐसी राग-द्वेष आधारित समीक्षा का बोलबाला है।"

(3) ऐतिहासिक समालोवना - ऐतिहासिक शब्द इतिहास से बना है। इसका अर्थ है - इतिहास से सम्बन्धित समालोचना अथवा इतिहास पर आधारित समालोचना। इसके विषय में डॉ. कृष्णदेव शर्मा का कथन इस प्रकार है- "युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में साहित्य तथा साहित्यकारों की आलोचना ऐतिहासिक समालोचना कही जाती है। यह समालोचना साहित्य को जन्म देने वाली परिस्थितियों का विश्लेषण करती है और उसके परिप्रेक्ष्य में आलोचना कृति की व्याख्या करती है। इसमें कृति का महत्व उस युग विशेष के सन्दर्भ में देखा जाता है, जिसमें उसकी रचना हुई है। इसमें कवि (साहित्यकार की) और उसकी कृति दोनों के प्रति न्याय होता है, क्योंकि साहित्यिक मूल्य भी मानव धारणाओं के अनुरूप ही परिवर्तित होते हैं। हो सकता है, कोई कृति आज के लिए विशेष महत्वपूर्ण न हो, पर अपने समय के लिए उसका मूल्य था। इसे परखना ऐतिहासिक समालोचना का ध्येय होता है। डॉ. श्यामसुन्दर दास और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचनाओं में इस पद्धति के दर्शन किये जा सकते हैं।"

काव्य की ऐतिहासिक समीक्षा अथवा आलोचना वास्तव में पश्चिम की देन है। वहीं इस प्रकार का प्रश्न उठाया गया कि कवि अथवा साहित्यकार ने किन परिस्थितियों में इस प्रकार की रचना की। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल की प्रशंसा और रीतिकाल की निन्दा की जाती है। यदि इनकी ऐतिहासिक समीक्षा की जाये तो इस प्रकार की भावना असत्य सिद्ध होगी। भक्ति काल के कवि साधु-सन्त थे। उनकी आवश्यकताएँ सीमित थीं। वे साधारण जनता से माँगकर अपनी आवश्यकताएँ पूरी करते थे। वे किसी राजा, बादशाह या सामन्त के चाकर नहीं, अपने इष्टदेव के चाकर थे। तुलसी ने स्पष्ट रूप से घोषणा की है-

हम चाकर रघुवीर के, पढ़ो लिखो दरबार।

तुलसी अब का होंयगे, नर के मनसबदार॥

रीतिकाल के लगभग सभी कवि किसी न किसी राजा, सामन्त, बादशाह या सम्पन्न व्यक्ति के आश्रय में रहते थे और ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। उन्हें अपनी कामुक और खुशामद पसन्द आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए श्रृंगार प्रधान काव्य रचना करनी पड़ती थी। 

पाश्चात्य साहित्य में ऐतिहासिक आलोचना की बात स्वीकार करते हुए, डॉ. भागीरथ दीक्षित ने लिखा है -

"काव्य सृजना के लिए मैथ्यू आर्नोल्ड ने व्यक्ति साहित्यकार की कारयित्री शक्ति और युग (Man and the moment) दोनों को आवश्यक माना है। युग-शक्ति के अभाव में साहित्यकार की केवल कारयित्री की शक्ति उत्कृष्ट काव्यसृष्टि नहीं कर सकती है। आर्नोल्ड ने लिखा है- "कवि के लिए आवश्यक सभी महान् गुणों के होते हुए भी ग्रे ने इतनी कम कविता इसीलिए लिखी कि वह गद्य के युग में पैदा हुआ था। तात्पर्य यह है कि इस युग शक्ति में कवि शक्ति बँधी रहती है। फिर इसका यह भी तो निष्कर्ष निकाला जा सकेगा कि किसी कवि कृति का मूल्यांकन करते समय उसके युग का अध्ययन आवश्यक है। युग के अध्ययन का अर्थ है - ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में काव्य का अध्ययन करना। तो प्रश्न यह है कि मैथ्यू ने ऐतिहासिक मूल्यांकन को गलत क्यों कहा।

वास्तव में बात यह है कि युग के अध्ययन अर्थात् इतिहास के आधार पर किसी काव्य-कृति का अध्ययन करना तथा उसे समझने का प्रयत्न करना एक बात है और उसका ऐतिहासिक अथवा युगीन मूल्य निर्धारित करना दूसरी बात है। यह सम्भव है कि किसी काव्य का ऐतिहासिक मूल्य हो और फिर भी उसमें काव्यगत दोष हो। साहित्य के इतिहास में किसी काव्याकृति का इसलिए मूल्य आँका जा सकता है कि उसके साहित्य के विकास में कुछ योग दिया है, या उसने युग-जीवन की व्याख्या की है, जिसके लिए हम उसकी अत्यधिक प्रशंसा कर सकते हैं, परन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। हमें यह भी देखना चाहिए कि काव्य की वास्तविक कसौटी पर यह कृति कहाँ तक खरी उतरती है। कहीं ऐसा न हो कि उसके ऐतिहासिक महत्व की स्थापना की धुन में हम यह देखना भूल जाये कि उसका काव्योचित मूल्य क्या है?

(4) तुलनात्मक आलोचना - इस प्रकार की आलोचना में दो कलाकारों, कवियों अथवा साहित्यकारों की तुलना करके एक को उत्कृष्ट और दूसरे के निकृष्ट सिद्ध किया जाता है। हिन्दी आलोचना में देव और बिहारी को लेकर तुलनात्मक समीक्षा बबाल उठा चुकी है। मिश्र बन्धुओं ने एक समीक्षात्मक ग्रन्थ की रचना की, जिसका नाम 'हिन्दी नवरत्न' रखा। इसमें देव को सबसे ऊँचा कवि सिद्ध किया गया था। देव की अपेक्षा बिहारी को नीचा सिद्ध करने के लिए मिश्र बन्धुओं ने बिहारी पर कुछ आक्षेप भी किये। इसके बाद पद्‌मसिंह शर्मा ने विहारी पर एक आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन आक्षेपों का भी बहुत कुछ परिहार किया गया जो देव को ऊँचा सिद्ध करने के लिए बिहारी पर किये गय थे। इस सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 'हिन्दी साहित्य के इतिहास' में लिखा है-

"शर्माजी की पुस्तक से दो बातें हुई - एक तो 'देव बड़े कि बिहारी' यह भ‌द्दा झगड़ा सामने आया। दूसरे 'तुलनात्मक समालोचना' के पीछे लोग बेतरह पड़े। 'देव और बिहारी' के झगड़े को लेकर पहली पुस्तक पं. कृष्ण बिहारी मिश्र बी. एल., एल-एल बी. की मैदान में आयी। इस पुस्तक में बड़ी शिष्टता, सभ्यता और मार्मिकता के साथ दोनों बड़े कवियों की भिन्न-भिन्न रचनाओं का मिलान किया गया है। इसमें जो बातें कही गयी हैं, वे बहुत कुछ साहित्यिक विवेचन के साथ कही गयी है। 'नवरत्न' (हिन्दी नवरत्न) की तरह यों ही नहीं कही गयी है। यह पुरानी परिपाटी की साहित्य समीक्षा के भीतर अच्छा स्थान पाने योग्य है। मिश्र बन्धुओं की अपेक्षा पं. कृष्णबिहारी जी साहित्यिक आलोचना के कहीं अधिक अधिकारी कहे जा सकते हैं। 'देव और बिहारी' के उत्तर में लाला भगवान दीन जी 'बिहारी और देव नाम की पुस्तक निकाली, जिसमें उन्होंने मिश्र बन्धुओं के भद्दे आक्षेपों का उचित शब्दों में जवाब देकर पं. कृष्णबिहारीजी की बातों पर भी पूरा विचार किया। अच्छा हुआ कि छोटे-बड़े के इस भद्दे झगड़े की ओर अधिक लोग आकर्षित नहीं हुए।"

इस प्रकार स्पष्ट है कि तुलनात्मक आलोचना झगड़े और वैमनस्य का रूप ले सकती है। 'सूर सूर तुलसी शशी' इस आलोचनात्मक सूक्ति का भी कुछ विद्वानों ने शिष्ट विरोध किया। तुलनात्मक आलोचना का परिचय देते हुए डॉ. कृष्णदेव शर्मा ने लिखा है-

"तुलनात्मक आलोचना पद्धति काव्य-सम्बन्धी नाना तत्वों की दृष्टि से दो या दो से अधिक साहित्य-कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करती है। 

तुलना आलोचना का एक आवश्यक अंग है। इससे साहित्य की सम्पूर्ण तथा सांगोपांग विवेचना हो जाती है। साहित्य के सामयिक तथा ऐतिहासिक महत्व की प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण योगदान है। कभी-कभी इस प्रकार की समालोचना निष्पक्ष न होने पर कवि के साथ अन्याय अधिक किया करती है। पण्डित पद्‌मसिंह शर्मा की आलोचना इसी प्रकार की है।" तुलनात्मक आलोचना में पक्षपात करना आलोचना का नहीं, आलोचक का दोष है। यदि निष्पक्ष रूप से और विस्तारपूर्वक तुलनात्मक आलोचना की जाये तो उसका पाठकों, कवियों तथा साहित्यकारों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ेगा। 

(5) प्रभाववादी आलोचना - इस आलोचना में किसी कवि, साहित्यकार और रचना को पढ़कर आलोचक अपने मन पर पड़‌ने वाले प्रभाव का वर्णन करता है। 

डॉ. कृष्णदेव शर्मा ने इसे व्यावहारिक आलोचना का एक भेद माना है और इसके सम्बन्ध में कहा है - 

"प्रभावात्मक समालोचना के अन्तर्गत किसी कृति को पढ़कर मन पर पड़े प्रभावों का सम्यक् आकलन किया जाता है। 

इसमें कल्पना और भाव की प्रधानता रहती है, इसलिए यह समालोचना रचनात्मक साहित्य की भावात्मक निबन्ध जैसी विधि अधिक लगती है, समालोचना कम। 

यह आलोचना पूर्ण तथा व्यक्तिनिष्ठ होती है। इसीलिए इसे आत्मप्रधान आलोचना (Subjective) भी कहा जाता है। 

इस प्रकार की समालोचना में कलाकार प्रत्येक सैद्धान्तिक बन्धन से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से आलोचना करता है। 

इस प्रकार की आलोचना के विषय में विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है कि आलोचना आराध्य की पूजा है। 

आलोचक कृति को प्रशंसात्मक दृष्टि से देखने पर ही उसका सही मूल्यांकन कर सकता है। 

हैनरी हडसन का भी यही कहना है कि साहित्य का विकास व्यक्तित्व से होता है और वह व्यक्तित्व की ही अपील करता है, अतः आलोचना में से व्यक्तित्व (प्रभावाभिव्यंजक) तत्व नहीं निकाले जा सकते।"

समालोचक अपनी रुचि के अनुसार कृति का मूल्यांकन करता है, अपने मन पर पड़े हुए प्रभाव का प्रस्तुतीकरण करता है। 

मुख्य निर्धारण की अपेक्षा कलात्मक अनुभूति से स्पन्दनों को व्यक्त करता है। ऐसे आलोचकों की आलोचनाओं में उसके व्यक्तित्व का आग्रह रहता है। 

अंग्रेजी में आर्थर साइमन्स, राबर्ट लिण्ड तथा आर्थर क्विलर कुछ इसी प्रकार के समालोचक हैं और हिन्दी में विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी मेघदूत, शकुन्तला आदि की समालोचनाएँ इसी कोटि की समालोचनाएँ है।

डॉ. शान्तिस्वरूप गुप्त ने इसे अंग्रेजी में इम्प्रेसमिस्टिक क्रिटिसिज्म (Impressionistic Criticism) कहा है।

(क) इस पद्धति में आलोच्य विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होता।

(ख) आलोचक अपनी रुचि को पाठक पर लादता है।

(ग) आलोचना में मन पर पड़ने वाले आनब्द आदि के प्रभाव का उतना महत्व नहीं है, जितना कि यह विचार कि जो भाव कृति में प्रस्तुत किये गये हैं, वे कहीं तक उचित है।

(घ) 'लोकः भिन्न रुचिः' कहकर आलोचक ऊल-जलूल बातें कहेंगे और आलोचना में प्रामाणिकता नहीं रहेगी। 

इसके बाद डॉ. शान्तिस्यरूप गुप्त ने इन पर विचार करते हुए स्पष्ट किया है- 

"ये सब बातें किसी हद तक सत्य है। शुक्ल (रामचन्द्र) तक इन दोषों से नहीं बच पाये हैं। 

प्रबन्ध काव्य को आदर्श मानने के कारण ही उन्होंने सूर को उतना महत्व नहीं दिया, जितने के वे अधिकारी हैं और जायसी को आवश्यकता से अधिक ऊँचा उठा दिया। 

सहानुभूति न होने के कारण ही उन्होंने छायावादी काव्य को समुचित महत्व नहीं दिया, पर प्रथम तो हम इस आलोचना पद्धति में किसी मापदण्ड से मापने की नीरस प्रक्रिया से बच जाते हैं; 

दूसरे अपनी सहानुभूति को किनारे रखकर जो आलोचना की जाती है, यह प्रथम तो सम्भव नहीं और यदि सम्भव हो भी तो सम्यक् नहीं हो पाती। 

हम कृति में अन्तर्निहित सौन्दर्य या शक्ति को किसी शास्त्रीय विधान से अनुभव नहीं कर सकते, न वैज्ञानिक अनुसंधान ही उसमें हमारा सहायक होता है। उसके लिए तो सहृदयता की ही आवश्यकता पड़ती है।"

इतना होने पर अनेक विद्वानों ने प्रभाववादी समीक्षा को आवश्यक स्वीकार किया है, उसकी उपादेयता में भी किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। 

एक बात अवश्य है, वह यह कि प्रभाववादी समीक्षा पर कुछ नियन्त्रण अवश्य होना चाहिए। 

पहले तो प्रभावाभिव्यंजकता के नाम पर मनोमुग्ध दृष्टि वाली आलोचना से बचना होगा। 

किसी कृति की केवल प्रशंसा या कुत्सा करना अथवा व्यक्ति-वैचित्र्य के कारण निरर्थक बातें लाना आलोचना नहीं होता। 

मूल से असम्बन्धित बातें कहना, मनमानी बातें कहना तथा प्रवाह, सौन्दर्य आदि के नाम पर भाषा-शैली का वाग्जाल फैलाना उचित नहीं है। 

कभी-कभी प्रभावाभिव्यंजक आलोचना के नाम पर वही किया जाता है। दूसरी बात यह है कि इस प्रकार के आलोचक में सहृदयता और प्रतिभा भी होनी चाहिए। 

मानसिक जागरूकता, पैनी अन्तर्दृष्टि, सम्वेदनशीलता, सुक्ष्म ग्रहणशक्ति से सम्पन्न आलोचक यदि प्रभावशाली समीक्षा करे, तो निश्वय ही उसकी आलोचना आदर्श होगी और ऐसी आलोचना स्वयं सार्थक बन जायेगी।

(6) मनोविश्लेषणवादी आलोचना - इस आलोचना का आधार मनोविज्ञान होता है। इसमें आलोचक यह पता लगाता है कि इस रचना को आकार देते समय रचयिता अर्थात् कवि या साहित्यकार की मनोवृत्ति क्या रही थी? 

इस प्रकार की आलोचना के आरम्भ करने का श्रेय पाश्चात्य आलोचक फ्रायड को दिया जाता है। इसके विषय में डॉ. कृष्णदेव गौड़ ने लिखा है-

"यह समीक्षा पद्धति मनोविज्ञान से अनुशासित होती है। इसमें कवि की कृति को समझने के लिए कवि के अन्तर्जगत् और उसके स्वभाव का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना होता है। 

इस पद्धति का समालोचक कृति को उसके स्वयिता के व्यक्तित्व का प्रकाशन मानता है। 

आलोचक यह मानता है कि साहित्य की मूल दमित वासना की अभिव्यक्ति, हीन ग्रन्थियों से विमुक्ति, कुण्ठा, हताशा आदि से पलायन तथा जीवनेच्छा का कारण है। 

वह यह भी मानता है कि इन सबके मूल में कास-भावना विद्यमान है, अतः साहित्यकार की अन्तर्वृतियों का प्रकाशन इस आलोचना का मूल लक्ष्य होता है। 

आजकल हिन्दी में कुछ आलोचकों, जैसे-आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, इलाचन्द जोशी, अज्ञेय आदि की आलोचना में मनोविश्लेषणात्मक पुट स्पष्टतः देखने को मिलता है।"

डॉ. शान्तिस्वरूप गुप्त ने इसे हिन्दी में मनोविश्लेषणात्मक आलोचना तथा अंग्रेजी में साइ‌कोलॉजीकल क्रिटीसिज्म (Psychological Criticism) कहा है। उन्होंने पाश्चात्य विद्वान प्रभयड का मत प्रस्तुत करते हुए लिखा है-

"फ्रायड का यह मत है कि कला का जन्म कामवासना से होता है और इच्छा, स्वप्न तथा कलाएँ घनिष्ट रूप से परस्पर सम्बद्ध है। 

हमारी कुठाएँ और अतृप्त वासनाएँ जो उपचेतन में पड़ी रहती हैं, कला या स्वप्न के माध्यम से व्यक्त होकर तृप्ति पाती है। 

अतः रचना के समझने के लिए हमें कवि के अन्तर्मन के द्वन्द का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिए। 

यह आलोचना पद्धति साहित्य को सामाजिक कर्म न मानकर वैयक्तिक कर्म मानती है और कर्ता के मन के सन्दर्भ में कृति का विश्लेषण और भावन करती है। 

वह कृति को साहित्यकार के व्यक्तिगत का प्रकाशन मानती है। इस आलोचना पद्धति में दोष यह है कि कभी-कभी कृति कर्ता की अभिव्यक्ति का प्रत्यक्ष प्रकार नहीं भी होती, अतः आलोचक भ्रान्त अनुमान के कारण भ्रामक निष्कर्ष निकाल सकता है। 

आत्माभिव्यक्ति परोक्ष है या प्रत्यक्ष, यह कहना बड़ा कठिन है। महादेवी का काव्य उनके जीवन की पीड़ा से आद्र है, यह तो ठीक है, पर वह पीड़ा फ्रायडियन कुण्ठा तथा अतृप्ति का परिणाम है और उसका उदात्तीकरण नहीं किया गया है, यह कहना दुस्साहस मात्र होगा। 

अतः मनोवैज्ञानिक समीक्षाभूमि खतरे से खाली नहीं है। इस पर समीक्षक को बड़ा सतर्क होकर चलना चाहिए। 

ये समीक्षक कला सृजन की प्रक्रिया के मूल में काम करने वाली शक्तियों का पता लगाने में तो सफल हो जाते हैं. पर मूल्य की दृष्टि से कलाकृतियों के अध्ययन में उसका कोई महत्व नहीं। 

कला को एकान्त रूप में अचेतन मन की क्रिया मान लेने से रचना में चेतन और नैतिक आधार की उपेक्षा होती है। 

कलाकार को मानसिक रोगी और कला को दिवास्वप्न मानना उचित नहीं। इस प्रकार की आलोचना कला के सौन्दर्य को विघटित करती है और उसके आस्वाद में बाधक होती है। रोजनदीग, विलियम ट्राम, सैल्म फेवर्ग इस पद्धति के प्रमुख आलोचक है। 

(7) सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना - भारतीय मान्यता और पाश्चात्य मान्यता में काव्य अथवा साहित्य की स्थापना को लेकर जो अन्तर है, उसी के कारण सौन्दर्य का समावेश आलोचना में होना कष्टसाध्य रहा है। 

भारतीय आचार्यों ने साहित्य को विधा के अन्तर्गत और कला को उपविधा के अन्तर्गत स्थान दिया। तात्पर्य यह है कि भारतीय विचारकों के मत से साहित्य और कला अलग-अलग है। 

ये विचार सौन्दर्य को कला का विषय मानते हैं, साहित्य का नहीं। इनके विचार के अनुसार कला का प्राण सौन्दर्य है और साहित्य अथवा कविता का प्राण रस है। 

इसी आधार पर आवार्य विश्वनाथ ने काव्य की परिभाषा निश्चित की है-

वाक्यं रसात्मक काव्यम् ।

(अर्थात् रसात्मक वाक्य काव्य है।) 

पाश्चात्य विचारकों ने साहित्य को कला के अन्तर्गत स्थान दिया है। इसी कारण इन्होंने काव्य अथवा साहित्य की आलोचना की सौन्दर्यशास्त्रीय प्रवृत्ति को स्वीकार किया है। 

काव्यशास्त्र की लगभग सभी नवीन मान्यताएँ अंग्रेजी भाषा के साहित्य से भारत में आयी हैं। हिन्दी के विचारकों ने भी हिन्दी आलोचना में सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि अथवा प्रवृत्ति की बात उसी आधार पर कही है।

कला और सौन्दर्य - कला के अन्तर्गत चित्रकला और मूर्तिकला का आधार साकार होता है, अतः इनमें सहज ही सौन्दर्य का अनुभव किया जा सकता है। 

व्यवहार में साकार वस्तुओं और प्राणियों में सौन्दर्य की स्थिति मानी जाती है। मनुष्य, स्त्री, पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्वत आदि को सुन्दर कहा जाता है और इनमें सौन्दर्य की अनुभूति सर्वमान्य है। 

निराकार होने के कारण गायन और नृत्य को सुन्दर नहीं, आकर्षक कहा जाता है। गायक-गायिका और नर्तक-नर्तकी साकार होते हैं। अतः इन्हें सुन्दर कहा जा सकता है।

साहित्य और सौन्दर्य - पाश्चात्य आचार्य और विचारक चाहे साहित्य को सौन्दर्य की कला के अन्तर्गत माने, पर भारतीय आचार्यों की मान्यता ऐसी नहीं है। 

साहित्य अथवा कविता को पढ़कर अथवा सुनकर जो बिम्ब बनता है, वह सुन्दर या असुन्दर हो सकता है। यही कारण है कि साहित्य में और विशेषकर काव्य में रस का होना आवश्यक माना गया है। 

भारतीय साहित्य में सौन्दर्य का शास्त्रीय विवेचन तो वात्स्यायन के 'कामसूत्र' से आरम्भ हो जाता है, पर काव्य या साहित्य की सौन्दर्य के आधार पर अथवा सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना संस्कृत साहित्य में प्राप्त नहीं होती। 

नवीन आचार्यों में सबसे पहले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कविता को कला स्वीकार करते हुए लिखा है-

"काव्य एक बहुत-सी व्यापक कला है। जिस प्रकार मूर्त विधान के लिए कविता चित्र विधा की प्रणाली का अनुसरण है, उसी प्रकार नाद-सौन्दर्य के लिए यह संगीत का कुछ-कुछ सहारा लेती है। नाद-सौन्दर्य कविता की आयु बढ़ाता है। अतः नाद-सौन्दर्य का योग भी कविता का पूर्ण स्वरूप खड़ा करने के लिए कुछ न कुछ आवश्यक होता है।"

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की इस मान्यता को स्वीकार भी कर लें, तब भी कविता को चित्र अथवा मूर्ति के समान सुन्दर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कविता का आधार स्थूल नहीं, सूक्ष्म है।

संस्कृत के आचार्यों ने, काव्य के सौन्दर्य-विधान के साधन है-रीति, गुण, वक्रोक्ति, अलंकार आदि जिनका भारतीय काव्यशास्त्र में विस्तार के साथ वर्णन किया है। 

रीति-सिद्धान्त में शब्द अर्थ की अनेक संयोजनाओं का विधान है। इसी प्रकार अलंकारवादी आचार्यों ने शब्दार्थ के नाना स्वरूपों का विवेचन किया है, जिनके द्वारा काव्य के रूपात्मक सौन्दर्य की सृष्टि होती है। 

वक्रोक्ति का क्षेत्र और भी विस्तृत है। इसमें वर्ण-योजना से लेकर प्रबन्ध विधान तक सौन्दर्य संरचना के सूक्ष्म, जटिल एवं व्यापक स्वरूपों की रचना का विधान है। 

आचार्य आनन्दवर्धन ध्वनि को काव्य की आत्मा मानते हैं। उन्होंने काव्य में ध्वनि को अंगनाओं में लावण्य के समान विचित्र वस्तु माना है-

प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्तवरित वाणीषु महा कवीनाम।

यत्तव्युसिद्ध व्यवातिरिक्त विभाति लावण्य मिवां गनासु।।

(प्रतीयमान अर्थ कुछ और ही वस्तु है जो महाकवियों की वाणी में रमणियों के मुख, नेत्र आदि अवयवों से भिन्न लावण्य के समान प्रकाशित होता है।)

चाहे काव्य की आत्मा ध्वनि को माने अथवा रस, पर काव्य में स्थूल सौन्दर्य की सत्ता किसी प्रकार स्वीकार नहीं की जा सकती। 

पाश्चात्य विचारकों की इसी कारण काव्य में बिम्ब योजना स्वीकार करनी पड़ी जो काव्य पढ़कर पाठक के और सुनकर श्रोता के मन में आकार ग्रहण है। 

भारतीय और पाश्चात्य आचार्यों के सौन्दर्य सम्बन्धी दृष्टिकोण में अन्तर नहीं है, पर सौन्दर्य को काव्य की आलोचना का आधार बनाने के विषय में मतभेद है। 

इसी सम्बन्ध में पण्डितराज जगन्नाथ के काव्य लक्षण को उद्‌धृत किया जा सकता है- 

रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्द काव्यम्

(अर्थात् रमणीय अर्थ को प्रस्तुत करने वाला शब्द काव्य होता है। रमणीय सौन्दर्य भी होता है, जिनका आधार साकार है। अर्थ की रमणीयता का आधार निराकार है।)

(8) शैली वैज्ञानिक आलोचना - हिन्दी में शैली शब्द का प्रयोग 'स्टाइल' (Style) के पर्याय के रूप में किया जाता है। अब तक शैली को भाषा के साथ जोड़कर 'भाषा शैली' शब्द बनाया गया और उसका अर्थ भाषा के प्रयोग का ढंग अथवा भाषा के रूप के अर्थ में किया जाता है। 

यह विश्वास किया जाता है कि सबकी लेखन शैली और भाषा का प्रकार एक निश्चित रूप में होता है। व्यक्ति को उसकी शैली से पहचाना जा सकता है। 

इसी आधार पर अंग्रेजी भाषा में एक कहावत प्रचलित है- 'स्टाइल इज दी मैन हिमसेल्फ' (Style is the man himself)। तात्पर्य है कि मनुष्य या व्यक्ति स्वयं अपनी शैली होता है। शैली के रूप का विवेचन करते हुए डॉ. एच. एन. यादव ने लिखा है-

"शैली विज्ञान वह शास्त्र है, जिसमें शैली का वैज्ञानिक विवेचन किया है। यों तो शैली शब्द का प्रयोग बड़े व्यापक अर्थ में किया जाता है; जैसे-भाषिक शैली, चित्रशैली, स्थापत्य शैली आदि, किन्तु शैली विज्ञान का प्रतिपाद्य केवल भाषिक शैली ही है। 

इसमें साहित्यिक भाषा के प्रायः सृजनात्मक प्रयोगों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है। वस्तुतः शैली की सत्ता वहीं होती है, जहाँ भाषा का सामान्य से अलग प्रयोग हो, ऐसा प्रयोग जो सामान्य भाषा में सुलभ नहीं है। इन्हीं प्रयोगों का अध्ययन-विश्लेषण शैली विज्ञान का विषय है। 

शैली विज्ञान को कुछ विद्वान् भाषा विज्ञान के अन्तर्गत मानते हैं तो कुछ लोग इसे आलोचना का एक अलग प्रकार मानते है।"

शैली और विषय - शैली के अनेक भेद और उपादान होते हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण है-विषय। तात्पर्य यह है कि विषय से शैली का सम्बन्ध सबसे अधिक घनिष्ठ होता है। 

कवि अथवा साहित्यकार को वैसे तो ब्रह्माजी से भी अधिक रसपूर्ण सृष्टि रचना करने वाला माना गया है। ब्रह्माजी की सृष्टि नियमों से बंधी हुई है, पर कवि की रचना अर्थात् साहित्य में नियमों का कोई महत्व नहीं होता। 

कवि और साहित्यकार भी सृष्टि अर्थात् साहित्य नियम रहित होती है। शैली यद्यपि रचनाकार की अभिव्यक्ति है, किन्तु रचनाकार का कथ्य जिनसे प्रभावित होता है, उसकी शैली भी उनसे प्रभावित होती है। 

इन तत्वों में से एक तत्व रचना का विषय है, जिसको रचनाकार अभिव्यक्ति के लिए चयन करता है।

शैली और विषय का यह सम्बन्ध भारतीय और पाश्चात्य साहित्यकारों ने पहले से ही विश्लेषण का विषय बनाया है। विषय और शैली की घनिष्ठता को स्वीकार करते हुए पाश्चात्य विचारक अरस्तू की मान्यता इस रूप में है-

"अच्छी शैली में विषयानुकूल उत्थान और पतन अपेक्षित है। कोई भी अध्यापक ज्यामिति पढ़ते समय भड़कीली भाषा का प्रयोग नहीं करता। 

रीतिशास्त्र के प्रत्येक प्रकार की अपनी उचित शैली होती है। लिखित गद्य (साहित्य) की होली, वाद-विवादों की शैली से भिन्न होती है, इसी प्रकार राजनीतिक भाषणों की (संसदीय) शैली भी न्यायालयों में दिये गये भाषणों की शैली से भिन्न होगी।"

शैली विज्ञान आलोचना की नवोदित प्रणाली

शैली विज्ञान आलोचना का एक प्रकार है, यह बात जितनी सत्य है, उससे भी अधिक सत्य यह कथन है कि शैली विज्ञान आलोचना की प्राचीन प्रणाली नहीं, अपितु एक नवोदित प्रणाली है। 

आलोचना और भाषा विज्ञान की मधीम मान्यतायें पश्चिम से भारत में आती है और अंग्रेजी से हिन्दी आदि आषाओं में स्थान ग्रहण करती है।

शब्द विन्यास - शैली विज्ञान में शब्द विन्यास का भी विशेष महत्च है। कहीं किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए। 

उचित शब्दों का चयन यदि आवश्यक है तो उन शब्दों को उचित क्रम देना भी कम आवश्यक नहीं है। शब्दों का सुन्दर विन्यास लेखन कला की दृष्टि से सुन्दर होना चाहिए।

शैली के उपादान - शैली के उत्पादन के तत्व कहलाते हैं, जो शैली को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। हुम उपादानों की संख्या चार मानी गयी है-

(i) शैली का शिल्प - शैली और शिल्प में आधारभूत समानता होनी चाहिए। दोनों में ही रचना के अवयव अन्विति अर्थात् क्रम के कौशल से स्थान पाते हैं। यह स्थिति सौन्दर्य को उत्पन्न करने में सहायक बनती है।

(ii) शैली और व्यक्तित्व - साहित्यकार का व्यक्तित्व शैली में महत्वपूर्ण होता है। भारतीय और पाश्चात्य दोनों विद्वानों ने शैली और व्यक्तित्व की एकरूपता स्वीकार की है।

(iii) शैली और विषय - रखना का विषय भी शैली को पर्याप्त प्रभावित करता है।

(iv) शैली और भाषा - भाषा समाज की सम्पत्ति ही नहीं, सामाजिक अनिवार्यता भी है। व्यक्तिगत और सामाजिक सभी विषय, भाव और विचार भाषा के द्वारा ही विवेचित किये जाते हैं। 

(9) समाजशास्त्रीय आलोचना - डॉ. कृष्णदेव शर्मा ने इसका दूसरा नाम प्रगतिवादी समालोचना दिया है। इसके विषय में उनकी मान्यता है- 

"इस समालोचना पद्धति का जन्म रूस के गोर्की द्वारा माना जाता है। इसका आधार समाजवादी यथार्थ है। 

इस पद्धति में साहित्य को सामूहिक कर्म माना जाता है, जिसका उद्देश्य समाज की भौतिक कल्याण भावना है। यह समालोचना साहित्य के सामाजिक महत्व तथा प्रभाव का मूल्यांकन, निर्धारण तथा व्याख्या करती है। 

इसकी दृष्टि एकांगी होती है, क्योंकि इसमें व्यक्तिगत प्रतिभा स्फुरण तथा आन्तरिक कलापक्ष की उपेक्षा करके केवल सामाजिक तत्वों की ही परीक्षा की विवेचना की जाती है।"

अधिकांश विद्वान् समाजवादी अथवा प्रगतिवादी आलोचना का आधार कार्ल मावर्स के 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' को मानते हैं। डॉ. शान्तिस्वरूप गुप्त ने इसे इसी आधार पर मार्क्सवादी समीक्षा कहा है। 

उनके अनुसार, कार्लमार्क्स का सिद्धान्त 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' के नाम से प्रचलित है। मार्क्स ने ये दोनों शब्द उधार लिये है। द्वन्द्वात्माक शब्द उन्होंने जर्मन दार्शनिक हीगेल से लिया और भौतिकवाद शब्द फ्रायडवाद से लिया। 

हीगेल फ्रायडवादी विचारक था। उसका विचार था कि प्रत्येक का विकास परस्पर विरोधी तत्वों के संघर्ष से होता है। पहले मनुष्य के मस्तिष्क में विरोधी प्रत्ययों अर्थात् विश्वासों में संघर्ष होता है और बाहरी इतिहास केवल उन संघर्षों की छाया है।

मार्क्स ने हीगेल से द्वन्द्वात्मक शब्द को समाज एवं इतिहास की व्याख्या में बड़ी कुशलता से प्रयोग किया। अन्तर इतना है कि हीगेल प्रत्यय अर्थात् प्रधान मानता है, जबकि मार्क्स के अनुसार संघर्ष का इतिहास पदार्थ में है न कि प्रत्यय अर्थात् विश्वास में। 

वह मनुष्य के सम्पूर्ण इतिहास को बाह्य प्रकृति और समाज में देखता है। दोनों में समता केवल इतनी है कि हीगेल और मार्क्स दोनों के अनुसार परिवर्तन की प्रणाली द्वन्द्वात्मक है। 

मार्क्स फ्रायडवाद के दर्शन के भौतिकवादी अंशों से भी प्रभावित था, जिसके अनुसार मनुष्य समूची सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिबिम्ब है। डॉ. शान्तिस्वरूप गुप्त ने मार्क्सवाद का कला और साहित्य से सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए कहा है-

"मार्क्सवाद ने कला और साहित्य के क्षेत्र में व्यक्तिवादी दृष्टिकोण के स्थान पर समाजवादी यथार्थ की प्रवृत्ति का प्रतिपादन किया। उसकी पक्की धारणा है कि कलाकार अपनी सामाजिक परिस्थितियों से कभी पृथक नहीं रहता, न ही रह सकता। 

उन परिस्थितियों के फलस्वरूप ही विकास होता है। यदि कलाकार अपनी कल्पना और चेतना का सामाजिक व्यवस्था से अलग उपयोग करेगा तो वह वास्तविकता को नितान्त भ्रामक रूप में प्रस्तुत करेगा। कलात्मक प्रयत्न जितना अधिक वैयक्तिक होगा और आत्मपरक होगा, उतना ही अमूर्त और इसीलिए नकारात्मक होगा।"

लेनिन ने स्पष्ट कहा है कि, "कला जनता की वस्तु है, इसकी जड़े दूर तक श्रमिकों के अन्दर फैलनी चाहिए। यह श्रमिकों द्वारा समझी और पसन्द की जानी चाहिए। प्लेखनोव प्राचीन कला का श्रम से अनिवार्य सम्बन्ध मानते हैं। उनका मत है कि श्रम को आसान करने के लिए कला का जन्म हुआ था। समाज में श्रम पहले तथा कला दूसरे स्थान पर रही है। श्रम कला से अधिक प्राचीन है। कला श्रम के लिए है, श्रम कला के नहीं।"

डॉ. माया अग्रवाल ने प्रगतिवादी समीक्षा को मार्क्सवादी नाम भी दिया है। मार्क्सवादी धारणाएँ सबसे पहले अर्थशास्त्र और राजनीति के क्षेत्र में प्रचलित हुई। 

उन्हीं मार्क्सवादी धारणाओं को जब साहित्यिक विवेचन का भी आधार बनाय, गया तो प्रगतिवादी अथवा मार्क्सवादी आलोचना पद्धति का आविर्भाव हुआ। 

माक्र्सवादी दर्शन के अनुसार मानव के सारे चिन्तन, उसकी सारी विधाएँ, उप-विधाएँ, सब दर्शनशास्त्र परिस्थितियों की उपज होते हैं। साहित्य भी इसका अपवाद नहीं हो सकता, क्योंकि साहित्यकार अपने पार्श्ववर्ती समाज का अंग है, उसके व्यक्तित्व का निर्माण समाज की भावनाओं तथा युगवादी चेतना के द्वारा हुआ है।

डॉ. माया अग्रवाल ने प्रगतिवादी धारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है- 

"प्रगतिवादी धारणा में समाज संगठन का वास्तविक आधार आर्थिक व्यवस्था ही है। इस व्यवस्था की विषमता वर्गवाद, वर्ग-संघर्ष को जन्म देती है। वर्गवादी समाज में लिखित साहित्य वर्गवादी ही होगा, अतः उत्कृष्ट साहित्य न होगा। 

वर्गहीन समाज में वर्गहीन साहित्य की सृष्टि हो सकती है। इस वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए साहित्य को साधन रूप में देखना प्रगतिवादी का प्रमुख कार्य है। 

यही कारण है कि इस पद्धति में आनन्द को काव्य का लक्ष्य नहीं माना जाता, अपितु उसे केवल साधन के रूप में ग्रहण किया जाता है। 

प्रगतिवादी समीक्षक की दृष्टि में काव्य मानव को भौतिक विकास की प्रबल प्रेरणा देता है, वह इसमें नव-निर्माण और क्रान्ति की बुद्धि जाग्रत कर देता है। 

प्रगतिवादियों को सौष्ठववादियों की रसानुभूति से सन्तोष नहीं। वह तो उसे बौद्धिक ज्ञान का पथ-प्रदर्शक बना देना चाहता है। 

बाह्य परिस्थितियों को विशेष महत्व देने के कारण इस पद्धति में ऐतिहासिक समीक्षाओं को विशेष स्थान प्राप्त है। इस-समीक्षा प्रणाली की सीमाएँ अति संकुचित है। 

भौतिकवादी मार्क्सवादी का आर्थिक दृष्टिकोण अतिपूर्ण है। उसे मानव जाति के चारित्रिक भण्डार से अभी बहुत कुछ सीखना और लेना है। 

हिन्दी में डॉ. रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचन्द गुप्त, रांगेय राघव तथा प्रभाकर माचवे इस पद्धति को अपनाने वाले हैं।"

Hindi aalochana ki Pramukh pravrittiyon per Prakash daliye. 

Hindi mein kitne prakar ki aalochnaen prachalit rahi hain pratyek ka Parichay dijiye.

Newest Older

Related Posts

Post a Comment