शास्त्रीय समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।

 • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. शास्त्रीय समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।

Shastriya Samiksha paddti per Prakash daliye

उत्तर-

समीक्षा पद्धति

शास्त्रीय समीक्षा पद्धति के दो रूप हैं-

(1) सिद्धान्त निर्माण

(2) सैद्धान्तिक आधार पर समीक्षा।

आलोचना का शास्त्रीय पक्ष सैद्धान्तिक आलोचना कहलाता है। साहित्य का स्वरूप स्थिर होने पर आलोचक की प्रतिभा द्वारा निर्मित सिद्धान्त समय के साथ साहित्य के नियामक तत्व बन जाते हैं, जिनके आधार पर एक आलोचना-शास्त्र खड़ा होता है। शास्त्रीय आलोचना के अन्तर्गत काव्यशास्त्र सम्बन्धी सभी प्रकार की नवीन प्राचीन तत्व निरूपिणी आलोचनाएँ आ जाती है। इसी को सैद्धान्तिक आलोचना भी कहा जा सकता है-

यह आलोचना आलोचना-शास्त्र के नाना प्रकार के सिद्धान्तों पर विचार करती है। समीक्षा-शास्त्र सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक न होकर परिवर्तनशील है। सिद्धान्त निर्धारण सम्बन्धी आलोचना-प्रत्यालोचना सैद्धान्तिक समालोचना का अंग है। इसके अन्तर्गत साहित्य से सम्बद्ध विविध विषयों काव्य, नाटक, उपन्यास, कया, निबन्ध, जीवनी आदि के रूप का सम्यक् विश्लेषण करके उनके लक्षण निश्चित किए जाते हैं। इसमें आलोचना के आधारभूत नियमों, काव्य-रूपों के मूल में निहित तत्वों तथा कलाकार के लिए अनुकरणीय आदर्शों का निर्देश रहता है।

"आलोचक का कार्य केवल औचित्य-अनौचित्य का निर्देशन नहीं प्रत्युत उसका कर्तव्य है कि वह उन सिद्धान्तों और नियमों को खोज निकाले जिनके आधार पर उस काव्य-कृति का निर्माण हुआ और वह नियमों को सिद्धान्तों के रूप में प्रतिष्ठित कर दें।" स्पष्ट है कि किसी कृति के मूल में सैद्धान्तिक तत्वों की खोज तथा नवीन सिद्धान्तों की स्थापना सैद्धान्तिक आलोचना कहलाती है।

डॉ. राजकिशोर सिंह की मान्यता है शास्त्रीय आलोचना, आलोचना की एक विशिष्ट पद्धति है।

"बहुत-सी एक-सी कृतियों का अध्ययन कर जब आलोचक आलोचना के मापदण्ड के रूप में किन्ही सामान्य नियमों का निर्धारण करता है, तो उस समीक्षा को सैद्धान्तिक समीक्षा कहते हैं।"

इस पद्धति के आलोचक की रुचि परिष्कृत होती है, वह नियमों के अनुसार कार्य करता है, अतः इसकी आलोचना की कसौटी उसके निर्धारित मानदण्ड होते हैं। अतः इसमें हम समालोचना का शास्त्रीय पक्ष स्पष्ट होता हुआ पाते हैं। इसमें उचितानुचित के विवेक को महत्व प्राप्त है। निश्चय ही लेखक को इसमें बहकाने का स्थान नहीं रहता है। 

इस आलोचना का विषय है साहित्य या काव्य के स्वरूप का विश्लेषण। साहित्य क्या है? कविता क्या है? काव्य का उ‌द्देश्य क्या है? आदि पर इसमें विचार किया जाता है। हडसन ने लिखा है कि, "आलोचक का कार्य केवल यही नहीं है कि वह किसी के औचित्य और अनौचित्य का निर्देश करे, उसका कर्त्तव्य है कि वह उन सिद्धान्तों और नियमों को खोज निकाले, जिसके आधार पर उस काव्याकृति का निर्माण किया गया और उन नियमों को सिद्धान्तों के रूप में निश्चित कर दे।" 

प्लेटो और अरस्तू के काव्य-सिद्धान्त से लेकर कालरिज, एडीसन, वर्डस्वर्थ रिचड्स, क्रोचे, इलियट आदि के सैद्धान्तिक ग्रन्थ हमारे यहाँ संस्कृत में भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से लेकर जगन्नाथ के रसगंगाधर तक निर्मित समस्त संस्कृत कोटि के समालोचक है। "हिन्दी में रीति-काल के लक्षण ग्रन्थ, श्यामसुन्दर का 'साहित्यालोचन', शुक्लजी की 'चिन्तामणि', सुधांशु का 'काव्य में अभिव्यंजनावाद', कन्हैयालाल पोद्दार का 'काव्यकल्पद्रुम', रामदहिन मिश्र का 'काव्यदर्पण', गुलाबराय का 'सिद्धान्त और अध्ययन' तथा 'काव्य के रूप' आदि इसी प्रकार के ग्रन्थ हैं।" 

शास्त्रीय आलोचना के अधिकारी समर्थ विद्वान् हो सकते हैं। संस्कृत में भरतमुनि से जगन्नाय तक सैद्धान्तिक समालोचना की एक समृद्ध परम्परा मिलती है। हिन्दी में रीतिकाल में सैद्धान्तिक समालोचना अपने उत्कृष्ट रूप में नहीं मिलती। इसके कतिपय कारणों में कवि और आचार्य का एकीभाव, दरबारी वातावरण तथा गद्य का अभाव है। आधुनिक काल में इसके स्वस्थ एवं परिष्कृत विकास के दर्शन होते हैं। डॉ. श्यामसुन्दर दास, आचार्य शुक्ल, डॉ. गुलाबराय, डॉ. लक्ष्मी नारायण "सुधांशु तथा डॉ. नागेन्द्र का सैद्धान्तिक हिन्दी आलोचना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है।"

इस पद्धति से काव्यशास्त्रीय विवेचन पद्धति को समेटा जा सकता है, जो हमारे यहाँ काव्यशास्त्र के रूप में विद्यमान है। रस विवेचन, काव्य विवेचना, अलंकार, ध्वनि आदि रीतिकाल के भी आचार्यों की सिद्धान्त निरूपण पद्धति इसी श्रेणी में आती है।

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