(ग) आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का सामान्य परिचय

 आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं (आ.भा.आ.)- 1000 ई. से वर्तमान समय तक

(बंगाल, उड़िया, असमी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी आदि।)

आधुनिक भारतीय भाषाओं का सामान्य परिचय दीजिये

यह कहना बहुत कठिन है कि भारतीय आर्यभाषाओं का आरम्भ कब से होता है। इन भाषाओं को बहुत बाद में साहित्यिक भाषा के रूप में व्यवहृत होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। बहुत समय तक अपभ्रंश में साहित्य रचना होती रही। 8 वीं, 9 वीं शताब्दी के सिद्धों की भाषा में हमें अपभ्रंश से निकलती हुई हिन्दी स्पष्टतः दिखाई देती है। आधुनिक आर्यभाषाओं में ईसा की सोलहवीं शताब्दी से साहित्यिक रचनाएँ मिलने लगती हैं। वैसे पन्द्रहवीं शताब्दी तक भारतीय आर्यभाषा आधुनिककाल में पदार्पण कर चुकी थी। आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के अभ्युदय के समय पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्व तक का काल संक्रान्ति काल था, जिसमें भारतीय आर्यभाषा धीरे-धीरे अपभ्रंश की स्थितियों को छोड़कर आधुनिक काल की विशेषताओं से युक्त होती जा रही थी। 'कीर्तिलता', 'चर्यापद', 'ज्ञानेश्वरी', 'प्राकृत पैंगलम', 'उक्ति व्यक्ति प्रकरणम' आदि रचनाओं में संक्रान्ति कालीन भाषा मिलती है। 

आधुनिक आर्यभाषाओं का विकास मध्यकालीन अपभ्रंश भाषाओं से हुआ है। पाँच प्राकृतों से पाँच अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ है। इन पाँच अपभ्रंशों से एवं ब्राचड तथा खस से सिन्धी, पंजाबी, हिन्दी (ब्रज भाषा खड़ी बोली आदि) राजस्थानी, गुजराती, मराठी, पूर्वी हिन्दी (अवधी इत्यादि), बिहारी बंगला, उड़िया भाषाओं का जन्म हुआ है। सिन्धी, पंजाबी में आर्यभाषा का मध्यकालीन स्वरूप बहुत कुछ सुरक्षित है, परन्तु प्राच्यभाषा, बिहारी-बंगला में मध्यकालीन आर्यभाषा का स्वरूप बहुत बदल गया है । गुजराती प्राचीन व्याकरण को अपनाए हुए है और दिन वर्गों के उच्चारण आदि में संस्कृत से अधिक दूर नहीं है । 

इस प्रकार सात अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विषय में 

अपभ्रंश विकसित आधुनिक भाषाएँ
1 शौरसेनी 1.  ( क ) पश्चिमी हिन्दी
2 . ( ख ) राजस्थानी
3 . ( ग ) गुजरात
2. महाराष्ट्री 4 . मराठी
3. मागधी 5 . ( क ) बिहारी
6 . ( ख ) बंगला या बंगाली
7 . ( ग ) उड़िया
8 . ( घ ) असमी
4. अर्धमागधी 9 . पूर्वी हिन्दी
5. पैशाची 10. लहँदा
6. ब्राचड 11. ( क ) सिन्धी
12. ( ख ) पंजाबी
7. खस 13. पहाड़ी ।

हिन्दी भाषा का उद्भव अपभ्रंश के शौरसेनी मागधी तथा अर्धमागधी से हुआ है। 

आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का संक्षिप्त परिचय 

1. पश्चिमी हिंदी 

पश्चिमी हिंदी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। इसकी पांच बोलियां हैं -

( 1 ) खड़ी बोली

( 2 ) ब्रज भाषा 

( 3 ) बांगरू 

( 4 ) कन्नौजी और 

( 5 ) बुन्देली 

पश्चिमी हिन्दी मध्यदेश की भाषा है । आजकल मेरठ तथा बिजनौर के निकट बोली जाने वाली बोली पश्चिमी हिन्दी की बोली खड़ी बोली से ही वर्तमान साहित्यिक हिन्दी तथा उर्दू की उत्पत्ति हुई है । पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियों के सम्बन्ध में आगे विचार किया जायेगा । इसका उपयुक्त नाम नागरी हिन्दी है । भारत के संविधान में हिन्दी को राजभाषा के पद पर आसीन किया गया है । प्राचीन युग में मध्यदेश की भाषा संस्कृत , पालि , शौरसेनी अपभ्रंश का जो स्थान था , आज हिन्दी ने भी राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में वहीं स्थान ग्रहण किया है । 

2 . राजस्थानी 

राजस्थानी का विकास शौरसेनी के नागर अपभ्रंश से हुआ है । इसका प्रमुख क्षेत्र राजस्थान है । पिंगल के अनुकरण पर राजस्थानी में डिंगल काव्य की रचना हुई है । इसकी लिपि नागरी और महाजनी है । इसकी चार प्रमुख बोलियाँ हैं -

( 1 ) मारवाड़ी , ( 2 ) जयपुरी , ( 3 ) मालवी और ( 4 ) मेवाती । 

( 1 ) मारवाड़ी- यह पश्चिमी राजस्थान की बोली है इसका क्षेत्र है -- जोधपुर , उदयपुर , बीकानेर , जैसलमेर आदि । 

( 2 ) जयपुरी - यह राजस्थान के पूर्वी भाग में बोली जाती है । इसका क्षेत्र है - जयपुर , कोटा , बूंदी । 

( 3 ) मालवी- यह राजस्थान के दक्षिण - पूर्वी भाग की भाषा है । इसका प्रमुख केन्द्र इन्दौर है । 

( 4 ) मेवाती- यह अलवर और हरियाणा में गुड़गाँव जिले के कुछ भागों में बोली जाती है । इस पर ब्रज भाषा का प्रभाव है । 

3 . गुजराती 

शौरसेनी अपभ्रंश के नागर रूप से गुजराती का विकास हुआ है । यह गुजरात प्रान्त की भाषा है । इसका राजस्थानी से बहुत साम्य है । गुजरात का सम्बन्ध गुर्जर जाति के लोगों से है । ये लोग मूलत : शक थे और 5 वीं सदी के लगभग भारत में आए थे । यहाँ अरब , पारसी , तुर्क आदि बड़ी संख्या में बाहर से आकर बसे हैं । अत : विदेशी तत्व भाषा में अधिक हैं । गुजराती की लिपि अपनी है जो नागरी से बहुत मिलती - जुलती है । यह लिपि शिरोरेखा विहीन है । इसमें उच्चकोटि का साहित्य मिलता है । 13 वीं सदी से अब तक इसमें साहित्य रचना हो रही है । इसके प्रमुख साहित्यकार विनयचन्द्र सूरि ( 13 वी ) , राजशेखर ( 14 वीं ) , नरसी मेहता ( 15 वीं सदी ) आदि है ।

4 . मराठी

इसका विकास महाराष्ट्री अपभ्रंश से हुआ है । यह महाराष्ट्र की भाषा है । शब्द साहित्य का प्रारम्भ 12 वीं सदी से माना जाता है । मराठी के आदि कवि मुकुंद हैं जिनका प्रधान ग्रन्थ ' विवेक सिन्धु ' है । मराठो की प्रमुख चार बोलियाँ हैं -

( 1 ) देशी- यह दक्षिण भाग में बोली जाती है । 

( 2 ) कोंकणी- यह समुद्री किनारे की बोली है । 

( 3 ) नागपुरी- यह नागपुर के आसपास बोली जाती है । 

( 4 ) बरारी- यह बरार की बोली है । 

पूना की बोली टकसाली भाषा मानी जाती है । मराठी की लिपि देवनागरी है। 

5. बिहारी 

इसका जन्म मागधी अपभ्रंश से हुआ है । वस्तुत : बिहारी कोई भाषा नहीं है यह बिहार प्रान्त में बोली जाने वाली भाषाओं के समूह का नाम है । इसकी प्रमुख तीन उपभाषाएँ है - 

( 1 ) भोजपुरी- भोजपुरी का आधार भोजपुर गाँव है । यह शाहाबाद जिला था। अब शाहाबाद जिले का नाम ही भोजपुर हो गया है । इस भाषा का क्षेत्र बहुत व्यापक है । इसमें बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिले हैं । उ.प्र . के वाराणसी , गाणवाली, बलिया , जौनपुर , मिर्जापुर , गोरखपुर , देवरिया , बस्ती , आजमगढ़ और बिहार के भोजपुर , राँची , सारन , चम्पारन आदि । राँची अब झारखण्ड प्रान्त में हैं । इसका स्वयं का साहित्य नहीं है। कबीर , धर्मदास , भीखा साहब आदि के पदों में इसका प्रयोग हुआ है । इसका लोक साहित्य अत्यन्त समृद्ध है ।

( 2 ) मैथिली- यह मिथिला क्षेत्र की भाषा है । इसका क्षेत्र है- दरभंगा ,सहरसा , मुजफ्फरपुर का पूर्वी भाग । इसमें पर्याप्त साहित्य मिलता है । इसके प्रारम्भिक कवि विद्यापति हैं । लोकगीत मधुर है । 

( 3 ) मगही - यह पटना , गया , हजारीबाग एवं भागलपुर के पूर्वी भागों में प्रयोग की जाती है । इसमें लोकगीत हैं, उल्लेखनीय साहित्य नहीं है। 

6 . बंगाली 

यह बंगाल प्रान्त की भाषा है । बंगाली का सम्बन्ध बंगाल के प्राचीन वर्ग 'वंग' से है। यह शब्द कदाचित आस्ट्रिक भाषा का है। 'वंग' में आल प्रत्यय लगने से बंगाल बना है । मागधी अपभ्रंश से इनका विकास हुआ है । इसकी साहित्यिक बोली को 'साधु भाषा' कहते हैं। इसमें संस्कृत में शब्दों का बाहुल्य है । हिंदी से बंगला ने बहुत से शब्द लिए है और हिन्दी को भी उपन्यास , गल्प , रसगुल्ला , रूपसि आदि शब्द दिए हैं। यह भाषा साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। प्राचीन बंगाली साहित्य में 'कृतिवास रामायण', काशीराम दास का 'महाभारत', चंडीदास की 'पदावली', केशवदास का 'क्षेमानन्द काव्य' आदि प्रमुख है। आधुनिक लेखकों में बंकिमचंद्र, माइकेल मधुसूदन, शरदचंद्र, रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि प्रमुख हैं। बंगाल की लिपि अलग है। यह प्राचीन देवनागरी से विकसित है। 

7. उड़िया 

यह उड़िया प्रांत की भाषा है। उड़िया भाषी उड़िया को ओड़िया कहते हैं। इसका जन्म मागधी अपभ्रंश से हुआ है। उड़ीसा का प्राचीन नाम कलिंग या उत्कल मिलता है। वर्तमान में उड़िया भाषी अपने देश को उड़ीसा न कहकर ओडिशा कहते हैं। इस भाषा पर बंगाली और तेलगु का अधिक प्रभाव हैं। संस्कृत भाषा के शब्द प्रचुर मात्रा में हैं। उड़ीसा साहित्य को आदिकाल (11 वीं से 1550 तक), मध्यकाल (1550 से 1850 तक), आधुनिक काल (1850 से अब तक), इन तीन कालों में बाँटा गया है। इनके प्रमुख ग्रंथ 'महाभारत' तथा 'विलंका रामायण' हैं। उड़ीया की अपनी लिपि है। जो ब्राम्ही की उत्तरी शैली से विकसित है। 

8. असमी 

यह असम प्रांत की भाषा है। असम का प्राचीन नाम 'प्राग्ज्योतिष' था। उसके बाद इसे काम रूप कहने लगे। यह मागधी अपभ्रंश से विकसित हुई है। इस भाषा के प्रथम कवि हेम सरस्वती हैं जिन्होंने 'प्रह्लाद चरित्र' लिखा है। प्राचीन असमी साहित्यकारों में पीतांबर, शंकरदेव, माधवदेव तथा सूर्यखरी बलदेव आदि प्रमुख हैं। असमी लिपि मैथली और बंगाली की तरह नागरी के पूर्वी रूप से विकसित हुई है। भौगोलिक कारणों से यह बंगला से बहुत प्रभावित है। 

9. पूर्वी हिंदी 

यह अर्धमागधी अपभ्रंश से विकसित हुई है। इसकी तीन बोलियाँ हैं -

(1) अवधि, (2) बघेली और (3) छत्तीसगढ़ी। इन तीनों की लिपि देवनागरी है। 

(1) अवधी - यह लखनऊ, फैजाबाद, सीतापुर, रायबरेली, गोंडा, बहराइच आदि जिलों में बोली जाती है। कानपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर आदि के भी कुछ भागों में बोली जाती है। इसमें जायसी का पद्मावत और तुलसी का रामचरितमानस अत्यंत प्रसिद्ध है। इसमें पर्याप्त समृद्ध साहित्य है। 

(2) बघेली - यह बघेलखण्ड की बोली है। इसका प्रमुख केंद्र रीवा है। 

(3) छत्तीसगढ़ी - छत्तीसगढ़ में बोली जाती है। इसका विस्तार रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, जगदलपुर आदि जिलों तक है। इसमें केवल कुछ लोकगीत मिलते हैं। 

10.  लहँदा 

लहँदा पश्चिमी पंजाब की भाषा है। यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में है। 'लहँदा' का शाब्दिक अर्थ है पश्चिम या सूर्यास्त। इसका विकास पैशाची अपभ्रंश से हुआ है। इसके अन्य नाम हैं - जटकी, मुलतानी, डिलाही, उच्ची। लहँदा पर सिंधी तथा कश्मीरी का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। सिक्ख धर्म की जनमसाखी के अतिरिक्त लहँदा में केवल लोक-साहित्य ही है। लहँदा बोलने वाले मुसलमान अधिक हैं, इस कारण इसके लिए फारसी लिपि का ही प्रयोग होता है। हिन्दू लोग 'लंडा' नाम की लिपि का प्रयोग करते हैं। अब लहँदा क्षेत्र में उर्दू का ही बोलबाला है। 

11. सिन्धी 

मूलतः सिंधी सिंध प्रदेश की ही भाषा है। अब सिंध में सिंधी बोलने वाले मुसलमान ही रह गए हैं। इसके बोलने वाले पंजाब, दिल्ली, मुम्बई आदि में पाए गए हैं। सिंधी की प्राचीनतम पुस्तक महाभारत कही जाती है जिसकी रचना 1000 ई. से कुछ पहले हुई थी। सिंधी साहित्य का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ 'शाहजो विशाल' है। इसके प्रमुख कवि अब्दुल करीम, शाह लतीफ, सचल और सामी आदि हैं। इसकी प्रमुख पाँच बोलियां हैं - बिचौली, सिरैकी, लाड़ी, थरेली, कच्छी। इनमें बिचौली मुख्य है। यह साहित्यिक भाषा हो गई है। सिंधी के लिए फ़ारसी लिपि का प्रयोग होता है। भारत में सिंधी लिपि का प्रयोग होता है। भारत में सिंधी अब नागरी लिपि लिखी जाने लगी है। इसकी अपनी प्राचीन लिपि लंडा है। 

12. पंजाबी 

'पंजाबी' शब्द फारसी का है। इसका अर्थ है - पांच नदियों (पंज + आब) का देश। पाँच नदियाँ है - सतलज, रावी, व्यास, चेनाब और झेलम। पंजाब प्रदेश की भाषा होने के कारण इसका नाम पंजाबी है। सिक्खों के कारण इसे सिक्खी और ... के आधार गुरुमुखी भी कहते है। अमीर खुसरो ने इसे लाहौरी कहा है। इसके प्रथम कवि बाबा फरीद शंकरगंज हैं। इसके प्रसिद्ध साहित्यकार नानक, गुरु अर्जुनदेव गुरुदास तथा हीर-रांझा के लेखक वारिशशा है। पंजाबी की लिपि गुरुमुखी पाकिस्तान क्षेत्र में उर्दू में लिखी जाती है। 

13. पहाड़ी 

इसका विकास खस अपभ्रश से हुआ है । कुछ विद्वान शौरसेनी से इसका विकास मानते हैं । यह हिमालय के निचले भाग में बोली जाती है । इसकी लिपि नागरी है । इसके तीन भाषा वर्ग है- ( 1 ) पश्चिमी पहाड़ी , ( 2 ) मध्य पहाड़ी और ( 3 ) पूर्वी पहाड़ी । पश्चिमी पहाड़ी की लगभग 30 बोलियाँ हैं । मध्य पहाड़ी दो भाग है , गढ़वाली और कुमायू । इन भाषाओं का लोक साहित्य सम्पन्न है । नेपाली पूर्वी पहाड़ी में हैं । नेपाली नेपाल की राजभाषा है । इसका साहित्य नवीन है । डॉ . टर्नर ने नेपाली पर महत्वपूर्ण ग्रन्थ ' नेपाली शब्दकोष ' लिखा है ।

आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ 

आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित है -

1. इन भाषाओ प्रमुखतः वही ध्वनियाँ हैं जो अपभ्रंश में थी । 

2. ध्वनि विषयक प्रमुख विशेषताएँ -

( क ) पंजाबी आदि में उदासीन स्वर ' अ ' , अवधी आदि में जपित या अघोष स्वर , गुजराती में मर्मर स्वर का विकास हो गया है । 

( ख ) ऋ का लिखित रूप तो ऋ है किन्तु उच्चरित रूप उत्तरी भारत में ' रि ' , गुजराती आदि में ' रु ' है । 

( ग ) उष्म वर्गों में लिखने में तो स , श , ष तीनों का प्रयोग किन्तु उच्चारण में स , श दो ही है । ' ष ' भी श रूप में उच्चरित होता है । 

( घ ) संयुक्त व्यंजन ' ज्ञ ' के शुद्ध उच्चारण का लोप हो गया है । इसके स्थान पर ज्य , ग्यं या द्ध का उच्चारण होता है।

( ड ) आधुनिक भाषाओं में नुक्ता वाले क , ख , ग , ज , फ ध्वनियाँ भाषाओं में आ गई हैं , पर इनका शुद्ध उच्चारण नहीं होता। 

3. अन्तिम दीर्घ स्वर प्रायः हस्व हो गए हैं और अन्तिम ' अ ' स्वर भी प्रायः लुप्त हो गया है । यथा - राम , अब् आदि । 

4. आधुनिक भाषाओं में बलाघात स्वर मुख्य हो गया है । वाक्य के स्वर पर संगीतात्मक भी है ।

5. संस्कृत , पालि आदि की तुलना में रूप कम हो गए हैं । संस्कृत में 1 में 24 , प्राकृत में 12 , अपभ्रंश में 6 और आधुनिक भाषाओं में दो , तीन या चार रूप हैं। क्रिया रूप भी कम हो गए हैं। 

6. संस्कृत , पालि आदि भाषाएँ योगात्मक थी किन्तु आधुनिक भाषाएँ अयोगात्मक या वियोगात्मक हो गई हैं । 

7. संस्कृत में वचन तीन थे । प्राकृत , अपभ्रंश में दो और अब आधुनिककाल में भी दो ही हैं किन्तु प्रवृत्ति एकवचन ' की है ।

8. आ. भा. आ. में केवल गुजराती, मराठी तीन लिंग हैं, शेष में दो हैं - पु. , स्त्री.।

आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण 

आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के वर्गीकरण पर प्रकाश डालने वाले विद्वान हैं 

  1. हार्नले,
  2. जार्ज ग्रियर्सन,
  3. डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी, 
  4. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा तथा 
  5. भोलानाथ तिवारी। 

1. डॉ. हार्नले का मत 

डॉ. हार्नले ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं को 4 वर्गों में रखा है -

(1.) पूर्वी गौड़ीयन 

(क) पूर्वी हिंदी (बिहारी सहित),

(ख) बंगला,

(ग) असमी,

(घ) उड़िया 

(2.) पश्चिमी गौड़ियन

(क) पश्चिमी हिंदी (राजस्थानी भी),

(ख) गुजराती,

(ग) सिंधी,

(घ) पंजाबी 

(3) उत्तरी गौड़ीयन

(क) गढ़वाली,

(ख) नेपाली आदि पहाड़ी बोलियाँ 

(4) दक्षिणी गौड़ियन

मराठी 

हार्नले का वर्गीकरण का आधार उनके द्वारा किया गया आर्यभाषाओं का आधार है। उनकी धारणा है कि भारत में आर्य कम से कम दो बार आए। पहले आर्य आधुनिक पंजाब में आकर बसे थे। कुछ दिन बाद दूसरे आर्यों का हमला हुआ। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने लिखा है कि " जैसे कहीं कील ठोकने पर कील ठोकने पर कील छेद बनाकर बैठ जाती है और उस बने छेद के आधार पर जो चीज रहती है, चारो ओर चली जाती है। उसी प्रकार नवागत आर्य उत्तर से आकर प्राचीन आर्यों के स्थान पर जम गए। इस प्रकार नवागत आर्य भीतरी कहे जाते हैं और पूर्वागत बाहरी। "

2. डॉ. ग्रियर्सन का वर्गीकरण 

डॉ. हार्नले के उपर्युक्त वर्गीकरण का डॉ. ग्रियर्सन ने समर्थन किया है। यद्धपि आर्यों के आक्रमण आदि के संबंध में ग्रियर्सन का हार्नले से मौलिक मतभेद है तथापि जहाँ तक भीतरी तथा बाहरी भाषाओं से संबंध हैं, दोनों विद्वानों का मत एक है। नवागत आर्यों को भीतरी और पूर्वागत आर्यों को बाहरी मानते हुए उन्होंने भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण किया है -

1. बाहरी उपशाखा 

(क) पश्चिमोत्तरी समुदाय - (1) लहँदा,

(2) सिन्धी 

(ख) दक्षिणी समुदाय - (3) मराठी 

(ग) पूर्वी समुदाय - (4) उड़िया, 

(5)  बंगला,

(6) असमिया तथा 

(7) बिहारी 

2. मध्यवर्ती उपशाखा 

मध्यवर्ती अर्थात बीच का समूह - (8) पूर्वी हिंदी 

3. भीतरी उपशाखा 

(क) केंद्रीय समुदाय - (9) पश्चिमी हिंदी,

(10) पंजाबी,

(11) गुजराती,

(12) भीली,

(13) खानदेशी,

(14) राजस्थानी। 

(ख) पहाड़ी समुदाय - (15) पूर्वी पहाड़ी,

(16) मध्य पहाड़ी,

(17) पश्चिमी पहाड़ी। 

नवागत आर्यों ने मध्य देश को ही अपना निवास स्थान बनाया था और यही पर यज्ञ परायण संस्कृति की नींव डाली थी। गुजरात की भाषा को ग्रियर्सन ने भीतरी उपशाखा में स्थान दिया है इसका कारण यह है कि मध्य देश स्थित मथुरा वालों ने इस प्रदेश पर आधिपत्य किया था। इस प्रकार भौगोलिक दृष्टि से बाहर होते हुए भी गुजरात भाषा की दृष्टि से भीतरी समूह के अंतर्गत है। 

ग्रियर्सन का यह वर्गीकरण ध्वनि, क्रिया, रूप तथा शब्द समूह, इन सभी पर आधारित है। 

1. ध्वनितत्व - ध्वनितत्व की दृस्टि से बाहरी और भीतरी उपशाखाओं में पद का अंतर् है। सबसे पहले उप्प वर्ण श, ष और स को लिया जा सकता है। फिर उपशाखा में ये दन्त्य 'स' के रूप में उच्चारित होते हैं। मागधी में यह 'स' वर्ण में परिणत हो गया है। बंगला और मराठी में 'स' आज भी 'श' रूप में ही उच्चारित होता है किन्तु पूर्वी बंगाल तथा असम (आसाम) प्रदेश में यह 'ख' हो गया है। कश्मीर में यह 'ह' हो गया है। 

2. क्रियारूप - बाहरी और भीतरी क्रियारूपों में भी भिन्नता है। क्रियाओं में भिन्नता के कारण ही ग्रियर्सन ने बाहरी और भीतरी उपशाखाओं को अलग रख कर भीतरी उपशाखा की भाषाओं तथा बोलियों का व्याकरण बाहरी उपशाखा की भाषा तथा बोलियों के व्याकरण से अपेक्षाकृत संक्षिप्त तथा सरल है। 

3. शब्द रूप - संज्ञा के शब्द रूपों में भी इन उपशाखाओं में स्पष्ट अंतर् है। भीतरी उपशाखा की भाषाएँ तथा बोलियाँ वस्तुतः विश्लेषणात्मक अवस्था में इनमें प्राचीन कारकों के रूप विलुप्त हो चुके हैं। बाहरी उपशाखा की भाषाएँ विश्लेषण की परम्परा में एक कदम आगे बढ़ गई हैं। पहले ये संस्कृत की भाँति संयोगात्मक थी और अब वियोगावस्था की ओर उन्मुख हैं। यथा - हिंदी में - राम की पुस्तक, तथा बंगला में 'रामेर बोई' कहा जाता है। 

प्रसिद्ध भाषा शास्त्री डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने ग्रियर्सन के इस वर्गीकरण की आलोचना अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'ओरिजन एन्ड डेवलेपमेंट ऑफ बंगाली लैंग्वेज' में किया है। 

3. डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का मत 

डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने ग्रियर्सन के वर्गीकरण को दोषपूर्ण मानते हुए अपना वर्गीकरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है -

1. उदीच्य (उत्तरी) - (1) सिंधी,

(2) लहँदा,

(3) पंजाबी 

2. प्रतीच्य (पश्चिमी) - (4) गुजराती,

(5) राजस्थानी 

3. मध्यदेशीय - (6) पश्चिमी हिंदी 

4. प्राच्य (पूर्वी) - (7) पूर्वी हिंदी,

(8) बोहारी,

(9) उड़िया,

(10) असमिया,

(11) बंगला

5. दक्षिणात्य (दक्षिणी) - (12) मराठी 

कश्मीर की कश्मीरी भाषा की उत्पत्ति  डॉ. चटर्जी दरद शाखा से मानते हैं। इसी प्रकार पहाड़ी भाषाओं, पूर्वी पहाड़ी (नेपाली), मध्य पहाड़ी (गढ़वाली तथा कुमायूँनी) तथा पश्चिमी पहाड़ी (चमेआली, सिरमौरी आदि) की उत्पत्ति वे खस अपभ्रंश और दरदीय भाषा से मानते हैं। 

4. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का मत 

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने चटर्जी के वर्गीकरण के आधार पर ही अपना वर्गीकरण दिया है - 

1. उदीच्य (उत्तरी) - (1) सिंधी,

(2) लहँदा,

(3) पंजाबी 

2. प्रतीच्य (पश्चिमी वर्ग) - (4) गुजराती 

3. मध्यदेशीय - (5) राजस्थानी,

(6) पश्चिमी हिंदी,

(7) पूर्वी हिंदी,

(8) बिहारी 

4. प्राच्य (पूर्वी वर्ग) - (9) उड़िया,

(10) असमी,

(11) बंगाली 

5. दक्षिणात्य (दक्षिणी) - (12) मराठी 

इस वर्गीकरण में केवल यही एक विशेषता है कि मध्य वर्ग के पश्चिमी हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी पूर्वी हिंदी और बिहारी को भी ले लिया गया है। 

5. डॉ. सीताराम चतुर्वेदी का मत 

डॉ. सीताराम चतुर्वेदी ने संबंधसूचक परसर्ग के आधार पर आ. भा. आ. का वर्गीकरण किया है -

का वर्ग - हिंदी, पहाड़ी, जयपुरी 

दा वर्ग - पंजाबी, लहँदा 

जो वर्ग - सिंधी, कच्छी 

नो वर्ग - गुजराती 

एरै वर्ग - बंगाली, उड़िया, असमी 

यथार्थः यह कोई वर्गीकरण नही है ऐसे तो 'ल' या 'स' से 'श' आदि के आधार पर भी वर्ग बनाए जा सकते हैं। 

6. डॉ. भोलानाथ तिवारी 

डॉ. भोलानाथ तिवारी ने भाषाओं की मूलभूत विशेषताओं के आधार पर आ.भा.आ. का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है -

1. मध्यवर्ती - (1) पूर्वी हिंदी,

(2) पश्चिमी हिंदी 

2. पूर्वी - (3) बिहारी, 

(4) बंगला,

(5) उड़िया,

(6) असमिया 

3. दक्षिणी - (7) मराठी 

4. पश्चिमी - (8) सिंधी,

(9) गुजराती 

5. उत्तरी - (10) लहँदा,

(11) पंजाबी,

(12) पहाड़ी 

वस्तुतः वर्गीकरण का उद्देश्य वर्ग विशेष की भाषाओं की प्रवित्तियों में एकरूपता बताना है। इस उद्देश्य की पूर्ति किसी भी वर्गीकरण से नहीं होती। तथा कोई भी भाषा वैज्ञानिक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। डॉ. भोलानाथ तिवारी लिखें हैं कि, "प्रवित्तियों के आधार पर इन भाषाओं में इतना वैभिन्य या साम्य है कि इन बातों का ठीक तरह से विचार करते हुए वर्गीकरण हो ही नहीं सकता। "

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