(ख) मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ (500 ई. पू. से 1000 ई. तक) - 4th Semester 6th paper

मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ - पालि, प्राकृत, शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश और उनकी विशेषताएँ।

मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं को तीन भागों में बांटा गया है-

  1. पालि (500 ई. पू. से 100 ई. तक) (इसमें अभिलेखी प्राकृत भी आती है।)
  2. प्राकृत (100 ई. या 1 ई. से 500 ई. तक)
  3. अपभ्रंश (500 ई. से 1000 ई. तक)

1. पालि (प्रथम प्राकृत) (500 ई. पूर्व से 1 ई. तक)

पालि भाषा को प्रथम प्राकृतिक भी कहते हैं। प्राकृत का अर्थ विवादास्पद है। विचार करने से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व तक संस्कृत भाषा जनभाषा और लोक व्यवहार की भाषा थी। इसके दो रूप थे - (1) साहित्यिक और (2) जन भाषा। साहित्यिक भाषा में परिवर्तन बहुत कम होते थे, परंतु जनभाषा या बोलचाल की भाषा में ध्वनि, शब्द आदि की दृष्टि से प्रायः परिवर्तन हो जाता है। यही जनभाषा संस्कृत से विकसित होते हुए प्राकृतों के रूप में प्रसिद्ध हुई। प्राकृत भाषाओं में संस्कृत शब्दों का कहीं तो विकृति करण हो गया है और कहीं सरलीकरण। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जन-व्यवहृत भाषा का साहित्यिक रूप 'संस्कृत' कहा गया और बोलचाल की संस्कृत का नाम प्राकृत। इसी आधार पर प्राकृत के सभी व्याकरणों ने संस्कृत को आधार मानकर ध्वनि परिवर्तन आदि समझाएं हैं। नाट्य-शास्त्र के रचयिता भरतमुनि (चतुर्थशती ईसा पूर्व) ने भी यही मत प्रतिपादित किया है कि संस्कृत भाषा के शब्दों का ही विकृत एवं परिवर्तित रूप प्राकृत भाषा है।

'विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यम नानाअवस्थाअन्तरात्मकम'

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★ पालि किसकी भाषा थी?

 पालि की व्युत्पत्ति

'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। 'पालि' शब्द के पुराने प्रयोग 'भाषा' के अर्थ में नहीं मिलते। इसका प्राचीनतम प्रयोग चौथी शताब्दी में लंका में लिखित ग्रंथ 'दीपबंस' में हुआ है। वहां इसका अर्थ 'बुध्दवचन' है। बाद में प्रसिद्ध आचार्य बुद्धघोष ने भी इसका प्रयोग इसी अर्थ में किया है। तब से लेकर काफी बाद तक 'पालि' शब्द का प्रयोग पालि साहित्य में हुआ है, किंतु कभी भी भाषा के अर्थ में नहीं। भाषा के अर्थ में मगध भाषा, मागधी आदि का प्रयोग हुआ है।

भाषा के अर्थ में पालि का प्रयोग अत्याधुनिक है और यूरोप के लोगों द्वारा हुआ है। 'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति 'पल्लि' (ग्रामीण भाषा होने के कारण) अथवा पाटलि (पाटलिपुत्र अर्थात मगध की भाषा), पंक्ति (बुद्धवचन की पंक्ति) अथवा प्राकृत से पाइल और पाइल से पालि शब्द सिद्ध किया है। पालि को पालने वाली (अर्थात बौद्ध साहित्य की रक्षा करने वाली) भाषा भी माना गया है। उक्त मतों की समीक्षा से ज्ञात होता है कि इनमें से कुछ मत केवल बौद्धिक व्यायाम हैं। जैसे - पंक्ति, पाठ, प्राकृत, पाटली आदि। सबसे प्रमाणिक व्युतपत्ति भिक्षु जगदीश कश्यप द्वारा दी गई है। प्रायः बहुत से भारतीय विद्वान इससे सहमत हैं। इनके अनुसार, 'पालि' का संबंध 'परियाय' से है जिसे संस्कृत में पर्याय कहते हैं। इनकी विकास परंपरा इस प्रकार है-

परियाय> पलियाय>पालियाय>पालि। 

पालि भाषा का क्षेत्र 

पालि में विभिन्न प्रदेशों की बोलियों के तत्व है, इसी कारण इसे किसी ने उज्जयिनी विंध्य प्रदेश की बोली पर आधारित माना है तो किसी ने कोसल की बोली कहा है और किसी ने पुरानी अर्धमागधी से संबद्ध माना है। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने माना है कि अपने मूल में पालि मध्य देश की 'भाषा' है। यों उस समय वह पूरे भारत में एक अन्तः प्रांतीय भाषा जैसी थी, इसी कारण उसमें अनेक प्रादेशिक बोलियों, विशेषत: बुद्ध की अपनी भाषा होने के कारण मागधी के भी कुछ तत्व मिल गए हैं। इस प्रकार अपने मूल रूप में पालि को शौरसेनी प्राकृत का पूर्वरूप मान सकते हैं। डॉक्टर हरदेव बाहरी ने लिखा है कि विद्वानों ने मथुरा और उज्जैन के बीच के प्रदेश को इसका क्षेत्र माना है। भले ही इस पर मगधी बोली का प्रभाव पड़ा है। कोई बोली जब साहित्य में स्थान पाती है तो उसमें अपने साथ की कई बोलियों के तत्व आ ही जाते हैं। इसी तथ्य को वाणी देते हुए विंटरनित्ज महोदय का कथन है कि "पालि एक साहित्यिक भाषा थी, जिसका विकास अनेक प्रादेशिक बोलियों के मिश्रण में हुआ था।"

अपने समय में पालि का प्रचार न केवल उत्तरी भारत में था अपितु बर्मा, लंका, तिब्बत, चीन आदि में भी हुआ था। इन देशों की भाषाओं पर पालि का गहरा प्रभाव पड़ा है।

 पालि का साहित्य

पालि भाषा को हम बौद्ध प्राकृत भी कह सकते हैं, क्योंकि सारी साहित्यिक संपत्ति भगवान बुद्ध अथवा उनके शिष्य परंपरा के बौद्ध भिक्षुओं द्वारा दी गई है अन्य प्रकार का साहित्य अवश्य होगा परंतु वह कालकलवित हो गया है। परंपरागत रूप से पालि साहित्य को पिटक और अनुपिटक दो वर्गों में बांटते हैं जिनमें जातक धम्मपद (धर्मपद), बुद्धघोष की अट्टकथा तथा महावंश आदि प्रमुख हैं। पालि साहित्य का रचनाकाल 483 ईसा पूर्व से लेकर आधुनिक काल तक लगभग ढाई हजार वर्षों में फैला हुआ है।

 पालि की भाषायी विशेषताएं

1. ध्वनियाँ 

पालि के प्रसिद्ध व्याकरण कच्चायन के अनुसार 41 ध्वनियाँ थी। 

स्वर 

पालि में निम्नलिखित स्वर मिलते हैं -

हस्व - अ, इ, उ, एँ, ओं 

दीर्घ - आ, ई, ऊ, ए, ओ 

स्वर विषयक मुख्य बातें -

  1. स्वरों में हस्व एँ, ओं दो नए विकसित हो गए।
  2. ऐ, औ और ऋ, ऋृ, लृट, लुप्त हो गए। 
  3. स्वरों के साथ का विसर्ग लुप्त हो गया। जैसे - देव: से देवो, धेनु: से धेनु आदि। 

 व्यंजन

व्यंजनों में श और ष दोनों का उच्चारण स हो गया। जैसे - तेषु से तेसु, कोष से कोस। 

शब्द के अंत में आने वाले व्यंजन का भी लोप हो गया। जैसे - भगवान का भगवा आदि। पालि में व्यंजनांत शब्द हैं  ही नहीं। 

पालि में वैदिक ळ सुरक्षित है। जैसे - पीड़ा से पीळा। 

संयुक्त व्यंजन - संयुक्त व्यंजन लगभग समाप्त हो गया, उनकी जगह द्वित्व व्यंजन कर दिए गये। जैसे- ज्येष्ठ से जेठ, ग्राम से गाम। त्य का च्च, घ का ज्ज आदि। स्वर भक्ति है, जैसे मर्यादा से मरियादा आदि।

 फुटकर परिवर्तन - कुछ अन्य परिवर्तन इस प्रकार हैं -

आदि स्वर का लोप - अलंकार से लंकार आदि।

स्वरों का समानीकरण - इषु से उसु आदि।

स्वर का हस्वीकरण - उताहो से उदाहु आदि।

इसी प्रकार अन्य बहुत से परिवर्तन हुए हैं जिनका यहां उल्लेख करना संभव नहीं है।

2. संधि

पालि में संधि के नियम अत्यंत सरल हैं। स्वर संधियों में जैसे तस्स + ईद = तस्सेदं, वाम + उरू = वामोरू। 

व्यंजन संधि के नियम भी शिथिल हैं। किसी शब्द के अंत में (हलंत) व्यंजन होता ही नहीं।

विसर्ग संधि नहीं है क्योंकि विसर्ग इस भाषा में है ही नहीं।

3. स्वराघात

टर्नर के अनुसार, पालि भाषा में वैदिक संस्कृत की भांति ही संगीतात्मक एवं बलात्मक दोनों स्वराघात था। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, पालि में मुख्यत: बलात्मक स्वराघात ही था, यद्यपि संगीतात्मक के भी कुछ अवशेष हैं।

4. व्याकरण या रूप विचार

नाम - पालि में सरलीकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है। यह सरलीकरण समीकरण, सादृश्य आदि के कारण हुए हैं। यथा-

  1. पालि में द्विवचन नहीं है। सब नाम (संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण) एकवचन और बहुवचन में रूपांतरित हो गए।
  2. आठ कारकों के स्थान पर छः कारक रह गए। संप्रदान और संबंध कारक एक हो गए। कर्ता और संबोधन में कोई विशेष अंतर नहीं रह गया।
  3. पालि में ऋकारांत जैसे पितृ, मातृ संज्ञाएँ नहीं रही।
  4. नामों में तीन लिंग हैं - पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग।

सर्वनाम - सर्वनाम इस प्रकार है- मयं (मैं), तुवं (तू), अम्ह (हम), तुम्ह (तुम) आदि। 

विशेषण - पालि के संख्यावाचक विशेषण सब प्राचीन आर्यभाषा से व्युत्पन्न हुए हैं। जैसे - एक, द्वि, ति, या तीणि, चतुर, पंच, सत्त, अट्ठ, नव, दस आदि। 

क्रिया - पालि में दो वचन (द्विवचन का लोप), तीन पुरुष, आठ लकार हैं। पालि में सभी रूप परस्मैपद में ढल गए हैं। आत्मनेपद और उभयपद नहीं है।

अव्यय - पालि में संस्कृत के सारे उपसर्ग मिलते हैं। कुछ में ध्वनिगत परिवर्तन जरूर हुए हैं। जैसे - संस्कृत में प्रति उपसर्ग पालि में पति हो गया है।

क्रिया विशेषण भी प्रायः संस्कृत के ही हैं उनमें ध्वनि परिवर्तन अवश्य हुए हैं। जैसे - किंसु (कैसे), कुत्थ (कहाँ), तत्थ (वहाँ) आदि।

पालि में योजक शब्द हैं - च, चा, एवं, पर, यदि, आदि।

विस्मयादि बोधक शब्द हैं - भो, रे, है, वे, हा, हे। 

5. बोलियाँ 

 संस्कृत के समान ही पालि में भी तीन बोलियाँ या भाषा रूप हैं-

(1) पश्चिमोत्तरी दक्षिणी, (2) मध्यवर्ती, (3) पूर्वी।

धम्मपद की कुछ पंक्तियां उद्धृत कर संस्कृत, पालि और हिंदी में उनकी समानता देखी जा सकती है।

(1) संस्कृत - सर्वा दिशः सत्पुरुष: प्रवाति।

पालि - सब्बा दिसा सप्पुरिसों पवाति ।

हिंदी - सब दिशाओं में सत्पुरुष (सुगंध) बहाता है।

(2) संस्कृत - न भजेत पापानि मित्राणि।

पालि - न भजे पापके मित्ते।

हिंदी - न सेवन करे पापी मित्रों को।

संस्कृत की तरह पालि भी संयोगात्मक भाषा है।

 अभिलेखी या शिलालेखी प्राकृत

मौर्य साम्राज्य के विस्तार के साथ पालि भाषा का भी विस्तार हुआ। सम्राट अशोक ने शासन और धर्म संबंधी अपने आदेश भारत के विभिन्न भागों में पहुंचाने के लिए शिलाओं, स्तंभों और भित्तियों पर खुदवाये। ये अभिलेख, उड़ीसा, बिहार, आंध्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब आदि के कई केंद्रों में पाए गए हैं। हिंदी के विकास की पूर्व स्थितियों के अंतर्गत इनका कोई विशेष महत्व नहीं है, क्योंकि ये अभिलेख मूलतः पूर्वी पालि में लिखे गए और प्रादेशिक भाषाओं में इनका अनुवाद किया गया।

प्राप्त सामग्री के आधार पर अभिलेखी प्राकृत की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है-

  1. स्वर एवं व्यंजन पालि के समान हैं। कुछ शिलालेखों में श, ष, स तीनों मिलते हैं।
  2. कुछ शिलालेखों में ण, ञ व्यंजन नहीं है।
  3. हलंत शब्द प्रायः अकारांत हो गए हैं।
  4. क्रिया रूप पालि के समान है। आत्मनेपदी नहीं है। पालि के सभी प्रत्यय प्रायः मिलते हैं।
  5. रूप रचना में कोई विशेष अंतर नहीं है।
  6. तीन लिंग है। द्विवचन नहीं है।
  7. सघोषीकरण, अघोषिकरण और मुर्धन्यीकरण के उदाहरण अधिक मिलने लगे हैं।

2 प्राकृत (द्वितीय प्राकृत) (100 ई. से 500 ई.)

जिस प्रकार प्राचीन भारतीय आर्यभाषा को साधारणतया संस्कृत कह दिया जाता है, उसी प्रकार मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा के लिए 'प्राकृत' शब्द का व्यवहार किया जाता है। 'प्राकृत' शब्द की व्युत्पत्ति प्रकृति अर्थात जनसाधारण से है, अतः प्राकृत का अर्थ हुआ जनसाधारण की भाषा। हेमचंद्र, मारकंडेय, सिंहदेव आदि आचार्यों के अनुसार, मूलभाषा अर्थात संस्कृत से उत्पन्न प्राकृत है- "प्रकृति संस्कृतम्, तद्भव प्राकृतम" संस्कृत जनभाषा थी ही। वही विकसित-विकृत होते-होते प्राकृत प्रसिद्ध हुई।

प्राकृत को साहित्यिक प्राकृत भी कहते हैं। वह अब उस भाषा के लिए रूढ़ हो गया है जो पहली शताब्दी से पांचवी-छठी शताब्दी तक प्रमुख रूप से साहित्यिक भाषा रही है। साहित्यक भाषा होने के कारण ही यह संस्कृत की अनुचरी बन गई, क्योंकि इस भाषा में संस्कृत के शब्दों और आवश्यक रूपों को अपनाया है। इसी कारण प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से मानी गई है।

प्राकृत साहित्य - प्राकृत भाषा में प्रचुर साहित्य मिलता है : धार्मिक और लौकिक भी। बौद्ध और जैन साहित्य प्रमुख रूप से मागधी, अर्धमगधी, शौरसेनी और महाराष्ट्रीय प्राकृत में प्राप्त है। 'गौडवहो' (गौडवध) और 'सेतुबंध' जैसे महाकाव्य तथा 'गहासत्तसई' (गाथासप्तशती) और 'वज्जालग्ग' जैसे खंडकाव्य प्राकृत की बहुमूल्य संपत्ति है। इस साहित्य के व्याकरण ग्रंथ वररुचिकृत 'प्राकृत प्रकाश' और आचार्य हेमचंद्र कृत 'प्राकृत व्याकरण' है। किंतु व्याकरणों ने प्राकृत भाषा में वैसी ही जकड़न ला दी, जैसी पाणिनी, कात्यायन आदि व्याकरणों ने संस्कृत में। इसलिए यह भाषा शिक्षित वर्ग की भाषा बन गई ।

प्राकृत के भेद 

प्राकृत व्याकरण के सबसे प्राचीन व्याकरण वररुचि के चार प्रकृतों का नाम लिया है - (1) शौरसेनी, (2) महाराष्ट्री, (3) मागधी और (4) पैशाची। मागधी के दो रूप हो गए हैं - मागधी और अर्ध मागधी। इस प्रकार ये पांच प्राकृत हैं। 

एक व्याकरण ने 27 और दूसरे ने 42 प्राकृतें गिना दी हैं। परंतु इन सब का साहित्य उपलब्ध नहीं है। अतः मुख्य पाँच  प्राकृतों का परिचय यहां दिया जा रहा है।

1. शौरसेनी प्राकृत 

शौरसेनी प्राकृत मथुरा के आस-पास की भाषा है, जिसे शूरसेन कहते थे। पश्चिमी हिंदी की बोलियों ब्रजभाषा, कौरवी, कन्नौजी, हरियाणी, राजस्थानी आदि का विकास इसी से हुआ है। नाटकों में सर्वाधिक प्रयोग इसी भाषा का हुआ है। नाटकों में इसका व्यवहार स्त्री-पात्रों, मध्यम वर्ग के लोगों और विदूषकों से कराया गया है। प्राकृत का गद्य शौरसेनी में मिलता है। यह भाषा संस्कृत से अधिक निकट है। भास, कालिदास आदि के नाटकों में गद्य शौरसेनी में ही है।राजशेखर कृत 'कर्पूरमंजरी' का समस्त गद्य-भाग इसी प्राकृत में है। इसका प्राचीनतम रूप अश्वघोष के नाटकों में मिलता है। यह निम्न एवं मध्यम कोटि के पात्रों और स्त्रियों की भाषा थी। अपनी सरलता, सरस्ता आदि के कारण यह अधिक लोकप्रिय है।

प्रमुख विशेषताएं 

  1. प्रथमा एकवचन में कारक चिन्ह 'ओ' हो गया है। जैसे - पुत्र: का पुत्रों, बहुवचन में पुत्ता।
  2. दो स्वरों के मध्य आने वाले 'त' को 'द' और 'थ' को 'ध' हो गया है। जैसे संस्कृत के गच्छदि, कथं को कधं।
  3. दो स्वरों के मध्य की द, ध ध्वनियां ज्यों के त्यों है। जैसे- जलद: का जलदो।
  4. मध्यगत महाप्राण ध्वनियाँ ख, घ, थ, ध, फ, भ के स्थान पर ह हो जाता है। जैसे मुख का मुंह, मेघ का मेह, वधू का वहू, अभिनव का अभिणव।
  5. न को ण हो जाता है। जैसे भगिनी को बहिनी।
  6. मध्यगत प को व हो जाता है। दीप का दीव।
  7. क्ष को क्ख हो जाता है। इक्षु को इक्खु।
  8.  केवल परस्मैपद धातुएं हैं।
  9. लिट्, लङ, लुङ, विधि लिंग प्रायः समाप्त हो गए।
  10. द्विवचन नहीं रहा।

2. पैशाची प्राकृत 

पैशाची को ग्राम्य भाषा, मृत भाषा, भूत भाषा आदि भी कहते हैं। इसका क्षेत्र पश्चिमोत्तर भारत (कश्मीर के आसपास) एवं अफगानिस्तान था। महाभारत में पिशाच जाति का उल्लेख है। कुछ शिलालेख और गुणाढ्य कृत 'वृहतकथा'  पैशाची भाषा में लिखे गए थे। अब यह रचना अप्राप्य है। इसके कुछ उदाहरण अवशिष्ट हैं। हम्मीरमर्दन तथा कुछ अन्य नाटकों में कुछ पात्रों ने इसका प्रयोग किया है। राक्षस, पिशाच, निम्न कोटि के पात्र लोहार आदि इसी का प्रयोग करते थे-रक्षः पिशाच नीचेषु पैशाची द्वितयं भवेत्च-षडभाषा चंद्रिका।

 प्रमुख विशेषताएं

  1. पुल्लिंग एकवचन कर्ता में 'अः' का 'ओ' हो जाता है। 
  2. ण का न हो जाता है। जैसे गुण का गुन।
  3. र का ल और ल का र हो जाता है। जैसे रुधिर में लुधिर, फल से फर।
  4. सघोष और अघोष हो जाता है जैसे मेघ: से मेक्खो, नगर से नकर आदि।
  5.  दो स्वरों के बीच में ल का ळ हो जाता है। जैसे सलिल से सळिळ।
  6. ष का कही श और कही स हो जाता है। जैसे विषमः का विसमो।

3. महाराष्ट्री प्राकृतिक 

इसका मूल स्थान महाराष्ट्र है किंतु यह उत्तरी भारत की एक सामान्य और परिनिष्ठित भाषा थी। हार्नले ने माना है कि महाराष्ट्र का अर्थ है महान राष्ट्र। महाराष्ट्री सारे उत्तरी भारत में व्याप्त थी। इससे ही मराठी भाषा का विकास हुआ है। प्राकृत का जितना ललित साहित्य मिलता है उसका 80% इसी भाषा में उपलब्ध है संस्कृत नाटकों में प्राकृत में पद्य रचना महाराष्ट्री में ही है। इसलिए कुछ लोग इसे काव्य की भाषा मानते रहे हैं। प्राकृत के व्याकरणों ने महाराष्ट्री का ही विवेचन विस्तार से किया है और अन्य प्राकृतों के मुख्य लक्षण देकर कह दिया कि शेषं महाराष्ट्रीवत। 

इस विश्व के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं - राजा हालकृत 'गाहा सत्तसई' (गाथा सप्तशती) प्रवरसेन कृत 'रावणवहो' (सेतुबंध), जय वल्लभकृत 'वज्जालग'। कर्पूरमंजरी के पद महाराष्ट्री में हैं। दंडी ने इसे सर्वश्रेष्ठ प्राकृत माना है - प्राकृतं। 

श्री मोहन घोष के अनुसार, महाराष्ट्री प्राकृत शौरसेनी का  विकसित रूप है।

 प्रमुख विशेषताएं

  1. दो स्वरों के बीच में क, ग, च, ज, त, द, और य का लोप हो गया है। जैसे लोकः से लोओ, ह्रदय से हिअअ, प्रिय से पिअ आदि।
  2. ख, घ, थ, ध, फ, भ, इन महाप्राण स्पर्शों के स्थान पर 'ह'  हो जाता है। जैसे अथ से अह, मुख से मुंह, मधुर से महुर, लाभ: से लाहो। 
  3. ऊष्म व्यंजन ध्वनि श, ष, स के स्थान पर कहीं-कहीं 'ह' हो जाता है। जैसे - पाषाण से पाहाण, दश से दह।
  4. ऐ, औ, ऋ, श, ष वर्णमाला में नहीं है।
  5. न का ण हो जाता है।
  6. द्वित्व व्यंजन का सरलीकरण हो गया है। जैसे कज्ज का काज।
  7. क्ष को च्छ हो जाता है। जैसे इक्षु को उच्छू।
  8. तुम प्रत्यय उं, क्त को अ और त्वा को ऊण हो जाता है। जैसे कर्तुम काउं, ग्रहीत से गहिअ, पृष्ट्वा से पुच्छिऊण।

4. अर्धमगधी

अर्धमागधी काशी-कोसल प्रदेश की भाषा थी। इसमें मागधी की प्रवृतियां पर्याप्त मात्रा में मिलती हैं इसलिए इसे अर्धमगधी कहा गया। इसमें भरपूर जैन साहित्य प्रधान है। जैसे पालि बुद्ध भगवान के उपदेशों का संकलन है, वैसे ही अर्धमागधी भाषा में महावीर के उपदेशों का संग्रह है। इसके अतिरिक्त पचास एक ग्रंथ और भी हैं। इन ग्रंथों में गद्य में मागधी और पद्य में शौरसेनी व्याप्त है। साहित्यिक प्राकृतों में यह सबसे पुरानी भाषा है। जैन इसे आदि भाषा कहते हैं। पूर्वी हिंदी की बोलियों अवधि, बघेली और छत्तीसगढ़ी का विकास इसी से हुआ है। आचार्य विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण में इसे चेट, राजपुत्र और सेठों की भाषा बताया है। इसका प्राचीनतम प्रयोग अश्वघोष के नाटकों में मिलता है।

 प्रमुख विशेषताएं

  1. दन्त्य को मूर्धन्य हो जाता है। स्थित को ठिय। 
  2. श तथा ष के स्थान पर स हो जाता है। श्रावग को सावग, वर्ष को वास। 
  3. चवर्ग के स्थान पर कहीं-कहीं तवर्ग मिलता है। जैसे चिकित्सा को तेइच्छा।
  4. य को ज हो जाता है। यौवन को जोव्वण। 
  5. स्वरों के बीच स्पर्श का लोप होने पर 'य' श्रुति मिलती है। जैसे सागर से सायर।
  6. क का ग हो जाता है - आकर से आगर।
  7. अ: का कहीं ओ और कहीं ए हो जाता है।
  8. संयुक्त व्यंजन सरल हुआ है। जैसे वर्ष से वस्स और उससे वास।
  9. रूपों की विविधता अधिक है क्योंकि कई बोलियों के तत्व इसमें समाहित हैं।
  10. त्वा प्रत्यय को त्ता और त्य को च्चा हो गया है। 
इसे जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी भी कहा गया है।

5. मागधी 

मागधी मूलतः मगध की भाषा थी। संस्कृत नाटकों में निम्न श्रेणी के पात्र मागधी बोलते थे। भरत के नाट्य शास्त्र के अनुसार, यह अन्तः पुर के नौकर, अश्वपालक आदि की भाषा थी। मारकंडे के अनुसार, भिक्षु, राक्षस, चेट आदि मागधी  बोलते थे। इसका प्राचीनतम प्रयोग अश्वघोष के नाटकों में मिलता है। कालिदास के नाटकों में तथा शुद्रक के 'मृच्छकटिकं' में मागधी का प्रयोग मिलता है। लंका में पालि को मागधी कहते हैं। इसके तीन प्रकार है- शाकारी, चाण्डाली और शाबरी। इसमें कोई विशेष साहित्यिक सामग्री उपलब्ध नहीं है।

मागधी से ही बिहारी हिंदी की बोलियों भोजपुरी, मैथिली, बंगला और असमी का विकास हुआ है।

 प्रमुख विशेषताएं

  1. मागधी में 'र' ध्वनि का सर्वथा अभाव है। र को ल हो जाता है राजा को लाजा, समर से शमल।
  2. मागधी में स, ष, को श हो जाता है। यथा समर से शमल, शुष्क से सुष्क।
  3. ज को य हो जाता है। यथा जानाति से याणादि। 
  4. च्छ को श्च हो जाता है। यथा गच्छ से गश्च। 
  5. क्ष को श्क जब हो जाता है। पक्ष से पश्क।
  6. ष्ट को स्ट हो जाता है। कष्ट से कस्ट। 
  7. प्रथमा एकवचन में विसर्ग को 'ए' हो जाता है। देव: से देवे।

इन पंच प्राकृतों के अलावा कुछ और प्राकृत भाषाएं हैं जिनका कोई भी महत्व नहीं है।

(6) केकय प्राकृत - इसका क्षेत्र प्राचीन केकय प्रदेश था, जहां यह भाषा बोली जाती है।

(7) टक्क - इसका क्षेत्र पंजाब है।

(8) खस - इसका क्षेत्र हिमाचल प्रदेश है। खस अपभ्रंश से पहाड़ी का विकास हुआ है।

(9) ब्राचड - इसका क्षेत्र प्राचीन सिंध क्षेत्र था व्राचड़ अपभ्रंश से सिंधी विकास हुआ है। 

प्राकृत भाषाओं की सामान्य विशेषताएं

प्राकृत के उपर्युक्त प्रमुख पांच भेदों के आधार पर प्राकृत भाषाओं की विशेषताएं इस प्रकार हैं- 

  1. ध्वनि की दृष्टि से प्राकृत भाषाएं पालि के पर्याप्त समीप है।
  2. प्रकृतों में 'न' का 'ण' हो गया है।
  3. नाम और धातुरूपों में कमी आ जाने से भाषा सरल हो गई है।
  4. पालि संयोगात्मक भाषा थी किंतु प्राकृत भाषाएं योगात्मक हो गए हैं।
  5. संगीतात्मक स्वराघात के स्थान पर बलात्मक स्वराघात है।
  6. तद्भव शब्दों का बाहुल्य है। विदेशी शब्द भी अधिक आ गए हैं।
  7. प्राकृतों में व्यंजनात शब्द प्रायः नहीं है।
  8. द्विवचन का प्रयोग नहीं मिलता।
  9. संस्कृत के समान प्राकृत भी श्लिष्ट योगात्मक है।
  10. चतुर्थी विभक्ति नहीं है।
  11. लङ, लिट्, और लुड़ लकार नहीं है।
  12. केवल परस्मैपद है।
  13. स्वरों में ऋ, ऋृ, लृ, ऐ, औ नहीं रहे।
  14. दो नए श्वर आ गए- हृस्व एँ और औ।
  15. ऋ को अ, इ या उ हो गया।
  16. ऐ को ए, औ को ओ हो गया। 
  17. व्यंजनों में य, श, ष और विसर्ग नहीं रहे। मागधी में य, श है, स नहीं।

3. अपभ्रंश (तृतीय प्राकृत) (500 ई. से 1000 ई. तक)

महाभाष्यकार पतंजलि ने भ्रष्ट एवं अशुद्ध शब्दों को अपभ्रंश कहा है। वाग्भट्ट और आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश को ग्राम भाषा कहा है। कुछ विद्वानों ने इसे देशी भाषा कहा है। दंडी ने इसे आभीर आदि की भाषा कहा है। समय के साथ इस भाषा का विस्तार हुआ और यह साहित्य की भाषा और देशभाषा बन गई। 7 वीं शताब्दी से 11 वीं तक इसकी विशेष उन्नति हुई। हिंदी भाषा के विकास में अपभ्रंश का विशेष योगदान है।

कालिदास के नाटकों में कुछ पात्रों के कथन अपभ्रंश में है। आठवीं शताब्दी में सिद्धों की रचनाओं में प्राकृत मिश्रित अपभ्रंश मिलती है। शिलालेखों में इसका प्रयोग पाया जाता है। अपभ्रंश मेंविशाल साहित्य है। इसमें चरित काव्य, रासो काव्य, खंडकाव्य और स्फुट कविताएं मिलती हैं। इसका साहित्य अधिकांशतः पश्चिम में रचा गया है। इसकी प्रसिद्ध रचनाएं महापुराण, नेमिरास, गौतम रासा आदि है।

अपभ्रंश की बोलियां

 मार्कंडेय ने 'प्राकृत सर्वस्व' में तीन अपभ्रंश माने हैं - नागर, उपनगर और ब्राचड़। नागर गुजरात की अपभ्रंश, व्राचड़ सिंध की और उपनागर दोनों के मध्य की मानी है। यों 'प्राकृत सर्वस्व' में मार्कंडेय ने अपभ्रंश के 27 भेज भी स्वीकार किए है किंतु विद्वानों का मत है कि पांच प्राकृतों से पांच अपभ्रंशों का विकास हुआ। 

मुख्य अपभ्रंश शौरसेनी, महाराष्ट्री, अर्धमागधी, मागधी, व्राचड़ मानी जा सकती है। डॉ चटर्जी में अपभ्रंश का भी उल्लेख किया है जिसका स्थान पर्वतीय क्षेत्र में माना है। यों याकोबी ने अपभ्रंश के चार भेद, तगारे ने तीन भेद तथा नागर सिंह ने दो भेद किए हैं, किन्तु ये भेद साहित्य में प्रयुक्त भाषा के आधार पर किए गए हैं।

 अपभ्रंश के प्रमुख विशेषताएं

 अपभ्रंश की सामान्य विशेषताओं में निम्नलिखित उल्लेखनीय है-

1. स्वर

 स्वर की प्रमुख विशेषताएँ हैं -

  1. प्राकृत में प्रयुक्त स्वर अपभ्रंश में भी थीं।
  2.  ऐ, औ नहीं मिलते।
  3.  ऋ लिखा तो जाता था, किंतु उसका उच्चारण 'रि' हो गया था।
  4. स्वरों के अनुनासिक रूप प्रयुक्त होने लगा था। यथा - देवं, जाउं आदि। 
  5. कई शब्दों में अकारण अनुनासिकता आ गई थी। यथा - पक्षि से पंखिं, आशु से अंशु।
  6. अपभ्रंश उकारबहुला भाषा थी। यथा- मनु, अंगु, कारणु, चलु, चलतु आदि।
  7. स्वर लाकर व्यंजन संयोग को सरल किया गया। यथा- सिंह से सींह, कसू से कासु, सीता से सीय।
  8. कई शब्दों में स्वर लोप हो गया। यथा- अहं से हउं, अरण्य से रण्य आदि।
  9. संगीतात्मक स्वर के स्थान पर बलात्मक स्वर हो गया।

2. व्यंजन

  1. प्राकृत में प्रयुक्त व्यंजन ध्वनियां अपभ्रंश में भी थी।
  2. वर्णमाला में ङ, ञ, न, श और ष ध्वनियाँ नहीं है।
  3. दन्त्य व्यंजन मूर्धन्य होने लगे थे।
  4. म का वँ (कमल से कवँल), व का ब (वचन से बअण), क्ष से च्छ (पक्षी से पच्छी), य का ज (युगल से जुगल) आदि रूपों में ध्वनि परिवर्तन हुए।
  5. संयुक्त अक्षरों में र का लोप हो जाता है। यथा- प्रिय से पिउ, चंद्र से चंद।
  6. त्य का च्च हो जाता है। यथा- सत्य से सच्च।

3. व्याकरण

संज्ञा - कारकों के रूप बहुत कम हो गए। संस्कृत में एक शब्द के 24 रूप होते थे, प्राकृत में उनकी संख्या लगभग 12 रह गई। अपभ्रंश में लगभग 6 रूप रह गए। तीन कारक समूह हैं -

  1.  कर्ता, कर्म, संबोधन,
  2.  करण, अधिकरण,
  3.  संप्रदान, उपादान, संबंध। 

सर्वनाम - सर्वनामों के रूपों में कमी आ गई।

विशेषण - विशेषणों के रूपांतर संस्कृत की तरह संज्ञा के अनुरूप लिंग वचन के अनुसार होते हैं। सार्वनामिक विशेषण हैं- एक या एग, दु, तिण्ण, चउ। 

 क्रिया

तिङन्त रूप कम रह गए।

नपुंसक लिंग समाप्त हो गया।

 द्विवचन का पूर्णतया अभाव है।

अपभ्रंश के धातु रूप हैं- कह, बोल्ल, उटठ।

धातु रूपों में आत्मने पद नहीं है।

धातु रूपों में लट, लोट और लृट ही शेष रहे।

4. शब्दावली

 अपभ्रंश के शब्द भंडार की प्रमुख विशेषताएं -

तद्भव शब्दों का अनुपात अपभ्रंश में सबसे अधिक है। यथा - जिभा (जिव्हा), तलाउ (तालाब), पंछी (पक्षी), पुच (पुत्र), बारिस (वर्ष)।

देशज शब्दों की भरमार है। यथा - सुपड़ा (झोपड़ा), मुग्ग (मूंग), छइल्ल (छैला)

क्रियाओं में भी बहुत से देशज हैं।

अरबी-फारसी के शब्द भी मिल गए हैं। यथा - आलमाल, कोंचा ताला, खुश, तहसील, रुमाल, सुलताण आदि।

अपभ्रंश भाषा के कतिपय उदाहरण-

कहउं संगहबि हत्थ (कहता हूं जोड़कर हाथ) ।

जं जसु सच्चइ तं तसु (जो जिसको भाता है वह उसका है) ।

किं भरेवि पंचमु गाइज्जइ (क्या मरण पर पंचम गाया जाता है) ।

अंधा अंध कढाव तिय वेन्न वि कूव पड़ेइ (अंधों को अंधा निकाले तो यह कुएं में पड़े) ।

ते मंग्गिउ वरु णरवइ अभीहु (उसने मांगा वर नरपति से अभय का) ।

अवहट्ट या अवहट्ठ 

अपभ्रंश के परवर्ती या परिवर्तित रूप को अवहट्ट कहा गया है। यह अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं के बीच की कड़ी है। 11वीं से लेकर 14 वीं सदी के अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को अवहट्ट कहा है। इस शब्द के प्रथम प्रयोगकर्ता ज्योतिश्वर ठाकुर हैं। 'प्राकृत पैंगलम' की भाषा को उसके टीकाकार वंशीधर अवहट्ट माना है। 'संदेशरासक' के रचयिता अब्दुररहमान ने भी अवहट्ट भाषा का उल्लेख किया है। मिथिला के विद्यापति ने अपनी कृति 'कीर्तिलता' की भाषा अवहट्ट कहा है। आधुनिक भाषा वैज्ञानिकों ने तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर अवहट्ट को परवर्ती भाषा माना है और बताया है कि निश्चित रूप से अवहट्ट ध्वनिगत, रूपगत और शब्द संबंधी बहुत से तत्व ऐसे हैं जो इस पूर्ववर्ती में अपभ्रंश से अलग करते हैं। 

अवहट्ट काल सन 900 से 1100 तक निश्चित किया गया है। इसके बाद पूर्वी हिंदी का प्रारंभ होता है।

अवहट्ट भाषा की प्रसिद्ध रचनाएं हैं - कीर्तिलता, वर्णरत्नाकर, प्राकृत पैगम्बर नाथ और सिद्ध साहित्य, बाहुबली रास आदि।

प्रमुख विशेषताएं

  1. अपभ्रंश की ही ध्वनियाँ अवहट्ट में भी हैं। केवल दो नए स्वर आ गए ऐ और औ।
  2. स्वरगुच्छों में संधि या संकोच इसकी महत्वपूर्ण विशेषता है। यथा-- भण्डार अपभ्रंश से अवहट्ट में भंडारी, सन्नआर से सुनार, उपआस से उपास। 
  3. अकारण अनुनासिकता चल पड़ी थी। जैसे आँखि (आंख), गींव (ग्रीवा), पाँव (पाद), बंमण (ब्राह्मण) ।
  4. व्यंजन व्यवस्था अपभ्रंश जैसी थी। ड़, ढ़ दो नए व्यंजन आ गए।
  5. लिंग दो हैं और वचन भी दो ही हैं।  
  6. कर्ता में 'ने' का विकास हुआ।
  7. सर्वनामों के रूप बदल गए। जैसे मैं, हौं, अम्हे।
  8. क्रिया रूपों में आधुनिक बोलियों का प्रभाव पड़ा है।
  9. संयुक्त क्रियाओं की संख्या बढ़ रही थी।
  10. अवहट्ट में तद्भव शब्द सर्वाधिक हैं। देशज विदेशी और तत्सम शब्दों की संख्या भी अपभ्रंश की अपेक्षा भरपूर हैं।
  11.  वाक्य में शब्द क्रम निश्चित हो गया। कर्ता, कर्म और अंत में क्रिया।

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