इकाई 3. हिंदी के विविध रूप -
संपर्क भाषा से तात्पर्य एक ऐसी भाषा से है, जिसके द्वारा किसी देश या सुगठित समाज के लोग आपस में लेन-देन, विचार-विनिमय और अपने भावों की अभिव्यक्ति कर सकें। किसी भी राष्ट्र में एक संपर्क भाषा का होना उसकी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रतीक है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय राष्ट्र की एकता की प्रतीक स्वरूप हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में मान्यता दी थी। उन्हीं के शब्दों में,....
मुझे एक लंबे समय से यकीन रहा है और आज भी है कि भारत की आम जनता की वास्तविक उन्नति और जनजागरण अंग्रेजी के जरिए नहीं हो सकता। ..... इसलिए जरूरी है कि हम हिंदी के बारे में विचार करें - इसलिए नहीं कि हिंदी, बांग्ला, मराठी या तमिल से श्रेष्ठ है, ऐसी बात कतई नहीं है, बल्कि इसलिए कि इस काम के लिए हिंदी ही सबसे उपयुक्त है।" प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ सुनीति कुमार चटर्जी ने भी कहा था कि "भारत में एक ऐसी संपर्क भाषा होनी चाहिए कि जिस सर्वापेक्षा अधिक संख्यक भारतवासी समझ सकें।" डॉ. अमिताभ ने एक लेख में लिखा है कि, "कन्याकुमारी से लेकर बद्रीनाथ तक केवल एक ही भाषा संपर्क स्थान में सहायक हो सकती है और वह है, हिंदी अथवा हिंदुस्तानी।" महात्मा गांधी ने भी कहा था, "संपर्क भाषा के बिना यह देश गूंगा है।"
संपर्क भाषा की आवश्यकता
बाइबल में वेबल (बेबिलोनिया) के मीनार की एक कथा आती है कि बाबल नगर के निवासियों ने मिलकर एक मीनार बनाने की योजना बनाई। उनमें एक भाषा का व्यवहार होता था। काम शुरू हुआ तो जो सामान मांगा जाता, हाजिर हो जाता, कार्य में जो प्रगति होती उसका लेखा-जोखा कर लिया जाता और आगे का काम कैसे होगा, सारी सामग्री तैयार है या कहीं कमी है इत्यादि बातों का विचार विनिमय कर लिया जाता और निर्माण कार्य बहुत तेजी से बढ़ता जाता। मीनार ऊंचा होता गया और आसमान को छूने लगा। तब अल्लाह मियां को आशंका हुई कि यह लोग मेरे दर्जे तक पहुंच जाएंगे उसने सब में अलग-अलग भाषाभर दी। अब क्या हुआ। राजमिस्त्री पत्थर के ढोंके मांग रहे हैं, तब सब एक दूसरे का मुंह ताकते खड़े हैं, कोई चुना गारा मांग रहा है, कोई रस्सी के लिए चिल्ला रहा है, पर कोई किसी की सुनता समझता नहीं। काम ठप्प हो गया। लोग मिलते हैं तो कोई विचार विमर्श, कोई परामर्श, नहीं हो पाता। आपस में लड़ना झगड़ना शुरू कर देते हैं, अंततः सारी जाति का नाश हो जाता है। जिस देश के लोग एक भाषा के सूत्र में बंधे होते हैं उनके भाव और विचारों में एकरूपता रहती है।
उपर्युक्त कथा से यहां प्रमाणित हो जाता है, कि हर जाति या देश की एक संपर्क भाषा होनी चाहिए। एक ऐसी भाषा जो उस देश में कहीं भी चले जाने पर काम आए अर्थात जिसका व्यवहार देशव्यापी हो। व्यवहार में हम देखते हैं कि हिंदी भारत के कोने-कोने में व्याप्त है। कहीं चले जाइए हिंदी बोली और समझी जाती है। अहिंदी प्रदेशों में तो हिंदी ही एकमात्र विचार-विनिमय और लेन-देन का माध्यम है।
हिंदी संपर्क भाषा के रूप में संपूर्ण भारत भर में युग युग से रही है। दक्षिण से आकर माध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निंबार्काचार्य और अन्य आचार्य सारे भारत में इसी भाषा के माध्यम से अपने धार्मिक विचारों का प्रचार करते रहे हैं। भारत के राष्ट्र बनने से पहले भी हमारे तीर्थ थे और बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि, प्रदेशों के लाखों यात्री इसी भाषा का व्यवहार सीखकर जाते थे। दक्षिण के तीर्थों तिरुपति, मदुरई, कन्याकुमारी और रामेश्वरम तक उत्तर भारत के लोग जाते थे तो हिंदू के द्वारा ही एक-दूसरे से संपर्क करते थे। आज तो हिंदी और बेहतर हो गई है। रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, समाचार-पत्रों के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार बड़ा है। बहुत से राज्यों में स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों तक में हिंदी में शिक्षा होती है। महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, उड़ीसा, असम, बंगाल और कर्नाटक के युवक हिंदी सीखते हैं और बोलते हैं। देश की राजधानी हिंदी प्रदेश में है। लाखों लोगों को मंत्रालयों, सचिवालयों, निदेशालयों और अन्य कार्यालयों से काम पड़ता है। उच्च न्यायालय भी हिंदी प्रदेश में ही है।
भारत के सभी प्रदेशों के बहुत से लोग हिंदी प्रदेश के नगरों, महानगरों में नौकरी करते हैं। वे और उनके बच्चे विशेषतः स्कूलों में, खेल के मैदानों में, मोहल्लों में बहुत जल्दी हिंदी का ज्ञान प्राप्त करते हैं और हिंदी को ही विचार-विनिमय का माध्यम मानते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी का संपर्क भाषा रूप अपने आप उज्जवल होता जा रहा है। हिंदी भारत की संपर्क भाषा है ही। इतना बड़ा देश है, कहीं चली जाइए, चले जाइए हिंदी से आपके सारे कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
यह मानना पड़ता है कि किसी देश की भाषा को राष्ट्रभाषा की मान्यता प्राप्त हो जाए तो उस भाषा और उस देश की प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। उसका सामाजिक स्तर ऊंचा हो जाता है। देश के प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाते हैं। बाहर के लोगों को भी जान पड़ता है कि देश एक है, अखंड है और एकात्म है। संपर्क भाषा होने से कोई भाषा राष्ट्रभाषा नहीं कहला सकती, परंतु राष्ट्रभाषा होने से वह संपर्क भाषा तो होती ही है।
सभी भाषाओं के प्रति सद्भावना
भारत की संविधान में देश की सभी भाषाओं को समान सम्मान प्राप्त है। भारत के किसी राज्य को अथवा उसके किसी भाग को अपनी भाषा बनाए रखने का अधिकार है। सब भाषाएं अपने-अपने क्षेत्र या समाज के कार्यों को सिद्ध करने के लिए उपर्युक्त और पूर्ण हैं। हिंदी सबसे कुछ ले सकती है- शब्द, मुहावरे और विचार और लेत रही है, और इस कारण समृद्ध होती रही है। किंतु राज्य के ऊपर राष्ट्र है। अतः देश की सभी भाषाओं और बोलियों का सम्मान करते हुए दूसरी भाषा के रूप में हिंदी का व्यवहार भी राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए आवश्यक है।
भारत में 367 भाषाएं हैं और जिनमें 58 भाषाएं एक अच्छे खासे वर्ग द्वारा बोली जाती हैं और 18 भाषाएं अपने-अपने राज्य में राज्य भाषाएं हैं। ऐसे में हमारे नेताओं ने ठीक ही सोचा कि देश को बांधने वाली एक ही भाषा होनी चाहिए। इसलिए हिंदी को राजभाषा का पद मिला। इसी प्रकार अपने राज्य में बाहर राज्य से बाहर संपर्क स्थापित करने के लिए कोई भी व्यक्ति 18 भाषाएं नहीं सीख सकता। जब मास्टर की जेब में हो तो 18 चाबियां कोई न उठाता फिरेगा। एक ऐसी भाषा सुलभ हो, जिससे सारे देश में अपना काम सध जाए, वह हिंदी ही है-मास्टर की।
सरल भाषा
संपर्क भाषा सरल होती है किंतु पत्र-व्यवहार में वह थोड़ी औपचारिक हो जाती है। भाषा विषय, वक्ता, श्रोता या संदर्भ के अनुसार सरल या कठिन हो सकती है। परंतु संपर्क भाषा तो सरल होती ही है, क्योंकि उसमें तद्भव शब्द और जाने-माने सामान्य प्रयोग अधिक चलते हैं। इसमें व्याकरण के नियमों का पालन भी कड़ाई से नहीं होता।
हिंदी प्रेमियों की भूमिका
हिंदी भाषा-भाषी हिंदीतर भाषियों के सामने हिंदी में बात करने में संकोच करता है। संसद में, विधान मंडलों में, साधारण मुलाकात में ऐसे लोग अंग्रेजी का प्रयोग करके शायद शिक्षित होने का प्रमाण देना चाहते हैं। यह हीनभावना है हिंदी भाषी को अपनी भाषा को छोड़ अंग्रेजी का व्यवहार करना उचित नहीं है। जब वह मित्रों से मिलता है और किसी विषय पर चर्चा होती है तो अंग्रेजी में। वह अपने बच्चों को डांटता है, तो अंग्रेजी में, गाली भी देता है तो अंग्रेजी में। यह एक विडंबना है। जब हिंदी भाषी ही संपर्क भाषा हिंदी में नहीं बोलता तो वह दूसरों को क्या और कैसे उपदेश दे सकता है। संपर्क भाषा हिंदी का व्यवहार पहले अपने घर में और फिर बाहर होगा तभी आपकी मातृ-भाषा, राज-भाषा, राज्य भाषा या राष्ट्रभाषा का कल्याण हो सकेगा और देश की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। आज 'लिंक-लैंग्वेज' अंग्रेजी को माना जा रहा है और शायद माना जाएगा भी, लेकिन महात्मा गांधी का कथन, "संपर्क भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" संकेत करता है कि अंग्रेजी को बनाए रखना अपने मुख पर ताले लगाना है।
संविधान द्वारा हिंदी राज-भाषा के रूप में मान्य है और आप अपनी लोकप्रियता एवं व्यापकता के कारण वह सहज यही राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त करती है। कभी-कभी राष्ट्रभाषा को राज-भाषा के रूप में पुकारा जाता है, लेकिन इन दोनों में पर्याप्त अंतर है।
राष्ट्रभाषा और राजभाषा में अंतर
राज-भाषा का अर्थ है राजा या राज्य की भाषा-वह भाषा जिसमें शासक या शासन का काम होता है और राष्ट्रभाषा वह है जिसका व्यवहार राष्ट्र की सामान्य जन करते हैं। राजभाषा का प्रयोग क्षेत्र सीमित होता है, जैसे वर्तमानकाल में केंद्रीय सरकार के कार्यालयों और सार्वजनिक क्षेत्र के व्यवसायों के अतिरिक्त, हिंदी भाषा-भाषी प्रदेशों में राजकाज हिंदी में होता है। तमिलनाडु, बंगाल, महाराष्ट्र या आंध्र-प्रदेश की सरकारे अपनी-अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिंदी में नहीं। राष्ट्रभाषा का क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क भाषा है।
राजभाषा की अभिव्यक्ति सीमित विषयों तक होती है- विधि, सरकारी परिवहन, प्रशासन आदि और यह अभिव्यक्ति क्रमशः रूढ़ और रुक्ष होती जाती है। इसमें लालित्य, मुहावरेदारी या शैलीवैविध्य का कोई स्थान नहीं है। हर दफ्तर की बनी-बनाई शब्दावली है, वाक्यों का एक ढर्रा है जैसे- "इसका अवलोकन करके डाक द्वारा प्रेषित कर दें।" ऐसी भाषा कृत्रिम हो जाती है, उसमें से संस्कृत के तत्सम शब्दों का बाहुल्य होता है। राष्ट्रभाषा का संबंध जीवन के प्रत्येक पक्ष से है। इससे यह भी नहीं समझा चाहिए कि राजभाषा और राष्ट्रभाषा में परस्पर कोई लगाव नहीं है। राजभाषा राष्ट्रभाषा पर अपना प्रभाव डालती है। कारण यह है कि जो भी भाषा राजभाषा के पद पर आसीन होती है, लोग उसी में शिक्षा पाना आवश्यक समझते हैं। युवा वर्ग में उसी भाषा का बोल-बाला होता है। कचहरी और सरकारी कार्यालयों से संपर्क रखने वाले लोगों के द्वारा वही भाषा जनसाधारण में प्रचलित हो जाती है। मध्ययुग में फारसी का और आधुनिकयुग में अंग्रेजी का जो प्रभाव पड़ा है और आज भी पड़ रहा है, वह सर्वविदित है। राजभाषा, राष्ट्रभाषा की स्वाभाविक और आंतरिक प्रगति में बाधा पहुंचाती है।
राष्ट्रभाषा की आवश्यकता
प्रत्येक समुन्नत, स्वतंत्र, स्वाभिमानी देश की अपनी राष्ट्रभाषा है-इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, रूस, चीन, जापान सभी देशों में वहां की व्यापक ब्रहुचलित भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में व्यवस्थित होती है। अफ्रीका के दसों देश उसी शताब्दी में स्वतंत्र हुए। उनकी एक भाषा है जिसके बल पर प्रत्येक जाति में विदेशी आधिपत्य से मुक्ति पा ली है। हमारे देश के ही साथ लंका, बर्मा और पाकिस्तान में स्वतंत्र सत्ता की स्थापना हुई है। इन सभी देशों की अपनी-अपनी भाषा है जिसमें सबका कार्य-व्यवहार होता है। खेद है कि एक भारत ऐसा देश है जहां राष्ट्रभाषा समस्या बनी हुई है।
दीर्घकाल से हिंदी देश की सामान्य भाषा रही है।
जो भाषा थोड़ी बहुत सारे राष्ट्र में बोली और समझी जाती है, वह अपने इसी गुण से राष्ट्रभाषा होती है। भारत में अकबर के समय से लेकर लगभग 3 शताब्दी तक फारसी राजभाषा रही है और सन 1833 के बाद से निचले स्तर पर उर्दू और उच्च स्तर पर अंग्रेजी राजभाषा रही है। परंतु सारे देश की संपर्क भाषा हिंदी ही रही है। सैकड़ों वर्षो से जिस किसी को भी जनसंपर्क करने की आवश्यकता हुई उसने हिंदी का उपयोग किया है।
दक्षिण के आचार्य वल्लभाचार्य, विट्ठल, रामानुज, रामानंद आदि हिंदी की राष्ट्रीय महत्ता समझकर ही इसे अपने व्यवहार में लाते रहे। विजय नगर दरबार में हिंदी को विशिष्ट स्थान प्राप्त था।
मुस्लिम साम्राज्य के समय दक्षिण भारत में विस्तार के साथ हिंदी आंध्र, कर्नाटक आदि प्रदेशों में फैली। अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बीदर में दक्खिनी हिंदी के केंद्र बने। वहां प्रचुर साहित्य लिखा गया।दक्खिनी हिंदी के लेखकों में बंदा नवाज से लेकर मुल्ला वजही तक सबने दखिनी हिंदी में काव्य रचना की है।
मलयालम में संस्कृत शब्दावली का का बाहुल्य है। इस कारण वे अन्य द्रविड़ भाषाओं की अपेक्षा हिंदी के अधिक निकट है। महाराष्ट्र में नाथयोगियों, वारकरी संप्रदाय और विट्ठल संप्रदाय ने दूर-दूर तक हिंदी का प्रचार किया। संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम आदि की रचनाओं में हिंदी के ढेरों पद मिलते हैं। गुजराती ब्रजभाषा के बहुत निकट है। निर्गुण संतों और सभी सूफियों ने गुजरात में हिंदी के प्रचार-प्रसार में योग दिया। पंजाब के सिख गुरुओं और सूफी फकीरों ने अपना प्रचार खड़ी बोली मिश्रित ब्रज भाषा में किया था। उड़ीसा भक्ति आंदोलन के साथ ही हिंदी के साथ जुड़ गया। बंगाल में भी भक्ति आंदोलन के साथ ही हिंदी का प्रचार होने लगा था। असम के शंकर देव आदि ने हिंदी को अपने सांस्कृतिक प्रचार और साहित्य का माध्यम बनाया।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है की हिंदी दीर्घकाल से सारे देश में जन-जन के पारस्परिक संपर्क की ही नहीं, साहित्य की भी अखिल भारतीय भाषा रही है। मुस्लिम काल से लेकर भारत शासन में हिंदी सर्वमान्य थी।
अंग्रेजी काल में राष्ट्रभाषा हिंदी
19वीं शताब्दी में खड़ी बोली हिंदी का प्रचार-प्रसार जोरों से हुआ। ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म-प्रचार का अखिल भारतीय माध्यम हिंदी को बनाया था। उन्होंने हिंदी के व्याकरण लिखे, शब्दों को तैयार किए। मद्रास के लेफ्टिनेंट टॉमस रोबक ने हिंदी को हिंदुस्तान की महाभाषा कहा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने शासकीय कार्य के लिए हिंदुस्तानी सिखाने के लिए कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज खोला।
कोल बुक ने लिखा है- "जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है उसी का यथार्थ नाम हिंदी है।"
जॉर्ज ग्रियर्सन ने हिंदी को भारत की सामान्य भाषा कहा है।
राष्ट्रीय एकता के लिए हिंदी
आर्य समाज के प्रवर्तक दयानंद सरस्वती ने हिंदी को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करते हुए लिखा था कि - "मेरी आंखें उस दिन को देखना चाहती हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाये।"
श्रीमती एनी बेसेंट ने कहा था - "हिंदी जानने वाला आदमी संपूर्ण भारत वर्ष में मिल सकता है और वह भारतवर्ष भर में यात्रा कर सकता है।"
स्वाधीनता संघर्ष और राष्ट्रभाषा
वंदे मातरम के रचियता बंकिम चंद्र चटर्जी ने कहा था "हिंदी एक दिन भारत की राष्ट्रभाषा होकर रहेगी।"
श्री अरविंद ने लिखा है कि, "अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए हिंदी को सामान्य भाषा के रूप में जानकर हम प्रांतीय भेदभाव नष्ट कर सकते हैं।"
नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने कहा, "हिंदी प्रचार का केवल यही उद्देश्य है कि आजकल जो काम अंग्रेजी में लिया जाता है, वह आगे चलकर हिंदी से लिया जाएगा।"
आचार्य क्षितिमोहन सेन ने लिखा है कि, "हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु जो अनुष्ठान हुए हैं, उनको मैं संस्कृति का राजसूय यज्ञ समझता हूं।"
महात्मा गांधी ने इंदौर अधिवेशन में स्पष्ट किया कि, "मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।" वे कहते हैं कि, "हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।" उन्होंने सैद्धांतिक दृष्टि से राष्ट्रभाषा की व्याख्या करते हुए कहा कि राष्ट्रभाषा होने के लिए निम्नलिखित आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए-
- वह भाषा राष्ट्र के बहुसंख्यक लोग जानते बोलते हो।
- जो सीख सीखने में सुगम हो।
- जिसके द्वारा भारत वर्ष के धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार निभ सके।
- जो क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति के ऊपर निर्भर न हो।
गांधी जी मानते थे कि राष्ट्रभाषा के सारे गुण भारत की भाषाओं में केवल हिंदी में मिलते हैं। उन्होंने कहा था, "अगर हिंदुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या ना माने राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता।"
गुजरात के ही प्रसिद्ध साहित्यकार, राजनीतिज्ञ और नेता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का मत है कि, "भारत के भविष्य का निर्माण राष्ट्रभाषा हिंदी के उद्भव और विकास के साथ संबंध है, क्योंकि हिंदी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश की भाषा नहीं है, बल्कि समस्त भारत में भारती के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए।" 1945 में उन्होंने कहा था कि, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना नहीं है, वह तो राष्ट्रभाषा है।
दक्षिण के तीर्थ स्थानों तिरुपति बालाजी, मदुरई, कन्याकुमारी, रामेश्वरम आदि में हिंदी का व्यवहार बराबर होता आया है। एस. निजलिंगप्पा ने एक जगह लिखा है - "दक्षिण के भाषाओं ने संस्कृत से बहुत कुछ लेन-देन किया है, इसलिए उसी परंपरा में आई हुई हिंदी बड़ी सरलता से राष्ट्रभाषा होने लायक है।" सर टी. विजय माधवाचार्य ने कहा, "हिंदुस्तान की सभी जीवित और प्रचलित भाषाओं में मुझे हिंदी ही राष्ट्रभाषा बनने के लिए सबसे अधिक योग्य दिख पड़ती है।"
हिंदी एकमात्र भारतीय भाषा है जिसमें उस भाषा के क्षेत्र के बाहर के साहित्यकारों ने भारी साहित्य लिखा है। जैसे- बंगाल के क्षितिमोहन सेन, महाराष्ट्र के मन्मथनाथ गुप्त, प्रभाकर माचवे, मुक्तिबोध, गुजरात के क.मा. मुंशी, तमिलनाडु के डॉक्टर गोपाल, डॉक्टर शंकर राजू, आंध्र प्रदेश के रमेश चौधरी आदि, केरल के भास्करन अय्यर, पंजाब के यशपाल, उपेंद्रनाथ अश्क इत्यादि उल्लेखनीय है।
हिंदी की इतनी सारी उपलब्धि सार्वदेशिकता और सर्वप्रियता उसके राजभाषा होने के प्रमाण हैं। स्वाधीनता संग्राम के समय राष्ट्रभाषा के प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।
समस्याएं
भारतीय भाषाओं में हिंदी ही सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्र एवं सर्वत्र समझी जाने वाली है, अतः इसे संविधान में राजभाषा का पद दिया गया, किंतु नौकरशाहों (अंग्रेजी के प्रबल समर्थक) ने हिंदी को केवल मुकुट ही प्रदान किया, अधिकारदंड उसके हाथों से दूर ही रहा। अंग्रेजी समर्थकों में खुलकर तो हिंदी का विरोध करने का साहस नहीं था, इन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं की आड़ लेकर हिंदी का विरोध पूरा किया। अपने हिंदी समर्थक, विचारक एवं मनीषी उस विरोध-प्रवाह में बह गए। इन्होंने कई समस्याएं की हैं-
- परिभाषिक शब्दावली की समस्या - विरोधियों का तर्क है कि हिंदी का शब्द भंडार बहुत ही सीमित है। इसमें विज्ञान, तकनीकी तथा चिकित्सा आदि से संबंधित शब्दों का अभाव है। लेकिन आज इस समस्या का समाधान हो चुका है।
- वर्तनी की समस्या - विरोधियों ने कहा है कि, हिंदी की वर्तनी में एकरूपता नहीं है। इसमें तत्सम शब्दों के लेखन, सामासिक पदों के लेखन, अनुस्वार और अनुनासिक ता आदि की समस्याएं हैं।
- व्याकरण की समस्या - हिंदी में लिंग, वचन तथा कारकों के प्रयोग की समस्या है।
- लिपि की समस्या - यह देवनागरी लिपि को वैज्ञानिक लिपि नहीं मानते।
- टंकण की समस्या - हिंदी में संयुक्त अक्षर के टंकण की समस्या है। जैसे सौहाद्र, भ्रातृत्व आदि।
- अनुवाद की समस्या - इनके अनुसार अनुवाद, कार्य स्तर और परिणाम दोनों ही दृष्टि से संतोषजनक है।
उपर्युक्त समस्याओं का समाधान तो प्रायः हो चुका है किंतु हिंदी की सबसे बड़ी समस्या मनोवैज्ञानिक प्रतीक होती है।हमारी यह हीनभावना की हिंदी में कुछ नहीं है, हिंदी किसी योग्य नहीं है, सारी समस्याओं की जननी है। हमें इस भावनाओं से उबरना होगा। खेद है कि भाषा का प्रश्न राजनीतिबाजों के हाथों में चला गया है।
प्रश्न उठता है कि, हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा और राजभाषा क्यों हो? हिंदी देश के सर्वाधिक क्षेत्र में बोली और समझी जाने वाली भाषा के अतिरिक्त कतिपय ऐसे गुणों से संयुक्त है जो अन्य देशी भाषाओं में दुर्लभ है। हिंदी का स्वदेशीपन, हिंदी में रही संस्कृत शब्दावली और हिंदी के प्रादेशिक शब्द हजम करने की शक्ति- ये 3 गुण इतने जबरदस्त हैं कि हिंदी स्वतंत्र भारत की राजभाषा और राष्ट्रभाषा होकर ही रहेगी।
यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा न माना जाए तो यह भी सवाल उठता है कि, राष्ट्रीय एकता के लिए कौन-सी भाषा पूरे देश की एक भाषा हो सकती है। तमिल? बांग्ला? मलयालम? उड़िया? देश के एक छोर की भाषा पूरे देश में व्याप्त नहीं हो सकती है। हमारे विरोधियों ने एक प्रश्न उठाया है कि हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा क्यों है, गुजराती, मराठी, बंग्ला, तमिल, तेलगु आदि राष्ट्रभाषाएँ कैसे नहीं हैं। हमारा कहना है कि, देश की सभी भाषाएं समादरणीय भाषाएं हैं, यह सब इस राष्ट्र की भाषाएं हैं हिंदी पूरे राष्ट्र की भाषा है। इसमें एक किसी की भाषा का निरादर नहीं है। सवाल राष्ट्रीयता बनाम प्रांतीय ताका है। हमारे देश में कितने ही सुंदर और उपयोगी पक्षी हैं तोता मैना कबूतर बाज सिकरा। परंतु मोर राष्ट्रीय पक्षी है। इसे अन्य पक्षी ना भारतीय हैं ना अंतरराष्ट्रीय। राष्ट्रीय पशु चीता माना गया है। हाथी तीन हिरण गाय आदि के प्रति हमारे आदर और गर्व पर प्रश्न चिन्ह क्यों लगे?
एक राष्ट्र में एक राष्ट्रभाषा हमारे गौरव और हमारी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रतीक है। सार्वजनिक सरवर राष्ट्रीय या पूरे देश की संपर्क भाषा बनने या मान्य होने के लिए विद्वानों ने निम्नलिखित बताएं बताई हैं
- वह राष्ट्र में बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली जाती हो।
- उसका अपने क्षेत्र से बाहर भी व्यापक विस्तार हो।
- वह राष्ट्र की सांस्कृतिक और भाषिक विरासत की उत्तराधिकारी को।
- उसकी व्याकरणिक संरचना सरल सुबोध और वैज्ञानिकों।
- उसकी शब्द सामर्थ्य तथा अभिव्यंजना आत्मक क्षमता उत्तम हो।
- उसमें जीवंतता तथा सचिव ता हो।
- उसकी लिपि पूर्ण और वैज्ञानिक हो।
भारत की भाषाओं में केवल हिंदी ऐसी भाषा है जिसमें उपर्युक्त शब्द गुण पाए जाते हैं। हिंदी 7 हिंदी भाषा-भाषी प्रदेशों के 43% जनता की तो मातृभाषा है और इसके अतिरिक्त हिंदी प्रदेश के आसपास पंजाब, गुजरात, उड़ीसा, बंगाल और आसाम के अधिकतर लोगों की दूसरी भाषा है एवं दक्षिण के बहुत से लोग दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में इसे भली प्रकार बोलते समझते हैं। हिंदी संस्कृत, प्राकृत आदि की पूर्ण तथा उत्तराधिकारी है। हिंदी अत्यंत सरल एवं वैज्ञानिक भाषा है। विदेशों से आने वाले पर्यटक भी कुछ समय पश्चात हिंदी समझने लगते हैं। हिंदी का शब्द भंडार अत्यंत समृद्ध है। इसमें जीवंतता है, सजीवता है। देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है। भारत की किसी भाषा को लिप्यांकित करने में समर्थ है। हमारे देश के नेताओं ने भी यही बात कही है।
डॉ रामविलास शर्मा के शब्दों में, "अंग्रेजी हटाने का संघर्ष लंबा संघर्ष है। सबसे पहले विशाल हिंदी प्रदेश को हिंदी का अजय गढ़ बनाना है। यहां के सरकारी कामकाज से सांस्कृतिक जीवन से अंग्रेजी को निकालना है। लोकसभा के हिंदी सदस्य वहां हिंदी में बोलें, यह स्थिति उत्पन्न करनी है।" कहने का तात्पर्य है कि, जब हम प्रत्येक प्रकार से सक्षम होंगे तभी हमारी मांगों पर ध्यान दिया जाएगा। इसके लिए आवश्यक है कि हिंदी भाषी समुदाय रूपी हनुमान को अपनी क्षमता और शक्ति का ज्ञान हो और वह वर्तमान नैराश्य-सागर का उल्लंघन करके नौकरशाही एवं भुजंगी राजनीति की लंका में स्थित हिंदी-सीता का न केवल पता लगावे, बल्कि उसका प्राप्य उसे प्रदान कराकर उस लंका में भी आग लगा दे, ताकि भविष्य में फिर कभी हिंदी को वंदनी न बनना पड़े। महात्मा गांधी ने कहा था - जब रूस ने अंग्रेजी के अभाव में इतनी वैज्ञानिक प्रगति कर ली है तो हम अंग्रेजी के अभाव में अपनी प्रगति क्यों नहीं कर सकते हैं?
राजभाषा शब्द अंग्रेजी के ऑफिशियल लैंग्वेज के पर्याय के रूप में प्रयुक्त हो रहा है। यह एक परिभाषिक शब्द है जिसका एक निश्चित अर्थ है - सरकारी कामकाज के लिए प्रयुक्त भाषा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 (1) के अंतर्गत माना गया है कि संघ की सरकारी भाषा (राजभाषा) देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी होगी। अर्थात संविधान के अनुसार संघ की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका इन तीनों प्रमुख अंगों के कार्यकलाप में संवैधानिक मान्यता प्राप्त राजभाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग किया जाएगा। 14 सितंबर 1949 ई. को भारत के संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गई। तब से राजकार्यों में इसका प्रयोग हो रहा है। किंतु संविधान बनने के 65 वर्ष बाद तक भी हिंदी कभी भी राजकाज की भाषा नहीं बन पाई। प्रारंभ में ही इसकी सीमाएं निर्धारित कर दी गई थीं। नई दिल्ली में 'हिंदी-प्रदर्शनी' के उद्घाटन पर राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने स्पष्ट कहा था कि, "राजभाषा के रूप में हिंदी का व्यवहार कुछ कामकाज के ठीक निर्धारित क्षेत्रों तक ही सीमित रहेगा। " अन्य भाषाओं का अपने क्षेत्रों में पूर्ण स्वतंत्र आधिपत्य रहेगा।" बाद में कहा गया कि 26 जनवरी 1965 से हिंदी को उसका उचित स्थान प्रदान किया जाएगा किंतु हिंदी विरोध के कारण ऐसा संभव ना हो सका।
अंग्रेजी का पक्ष
दक्षिण भारत के निवासी हिंदी के व्यवहार के विरुद्ध हैं। वे अंग्रेजी का समर्थन करते हुए हिंदी को अनुपयुक्त सिद्ध करते हैं। हिंदी का विरोध सबसे अधिक तमिलनाडु में है। वहां के राजनीतिबाजो ने हिंदी विरोध को चुनाव का मुद्दा बना रखा है। राजभाषा हिंदी तमिल नेताओं की राजनीति में फंसी है। यदि पूरे देश के साथ न्याय करने की बात उनसे की जाए तो वे भारत से अलग स्वतंत्र देश द्रविणीस्तान बना लेने की धमकी देते हैं। प्रकारांतर से वे एक विदेशी भाषा को स्वदेशी भाषा पर प्राथमिकता एवं वरीयता देते हैं। वस्तुतः मद्रासियों और बंगालियों को हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी में अधिक कुशलता प्राप्त है। किंतु कुछ क्षेत्रीय स्वार्थों के लिए गुलामी की जंजीर को गले लगाना कहां तक उचित है, बुद्धिजीवी वर्ग के लिए यह चिंतन का विषय है।
हिंदी का विरोध करने वालों में नौकरशाही व्यवस्था के वे अधिकारी भी हैं जिन्हें केवल अंग्रेजी आती है और जो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों कॉलेजों से निकलकर इसी भाषा के बल पर अखिल भारतीय सेवाओं में बड़ी आसानी से आ जाते हैं। प्रतियोगिता परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण उनको विशेष लाभ मिल जाता है। वे अंग्रेजी के कट्टर पक्षधर होते हैं और अपने कर्मचारियों को हिंदी में काम करने पर हतोत्साहित करते हैं।
सबसे दु:ख की बात यह है कि हिंदी प्रदेश के राज्यों में भी उच्च अधिकारी हिंदी का प्रयोग पूरे तौर पर नहीं करते।
अंग्रेजी की महत्ता को भरने के लिए कहा जाता है कि अंग्रेजी संसार की भाषाओं में सबसे बड़ी भाषा है, अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, अंग्रेजी विश्व ज्ञान की खिड़की है, अंग्रेजी पढ़कर हममें राष्ट्रीयता और स्वाधीनता की भावना जगी, देशी भाषाओं को अपनाने से भारत टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा, राष्ट्रीय एकता के लिए अंग्रेजी एकमात्र साधन है, अतः अंग्रेजी भारत के एकमात्र राष्ट्रीय भाषा है, अंग्रेजी की सहायता के बिना भारतीय भाषाओं का विकास संभव नहीं है। अंग्रेजी समृद्ध और बलिष्ठ भाषा है इत्यादि।
रविंद्र नाथ टैगोर ने ऐसे ही लोगों को लक्ष्य करके कहा था कि, "हमने अपनी आंखें आंखों पर चश्मे लगा लिए हैं।" अकबर इलाहाबादी ने बड़े व्यंग पूर्ण ढंग से कहा है-
उन्हीं के मतलब की कह रहा हूँ जबान मेरी है बात उनकी,
उन्हीं की महफिल संवारता हूं चिराग मेरा है रात उनकी।
फकत मेरा हाथ चल रहा है, उन्हीं का मतलब निकल रहा है,
उन्हीं का मजमू, उन्हीं का कागज, कलम उन्हीं की दवात उनकी।
अंग्रेजी नर्सों के हाथों पला हुआ भारतीय अभारतीयों का एक दल दीर्घकाल से इस देश की स्वभाविक प्रगति में रोड़ा बना हुआ है। इसी दल के नेताओं ने 1963 और 1967 में राजभाषा अधिनियम द्वारा अंग्रेजी को सदा-सदा के लिए भारत की राजभाषा बना दिया है। सोचा था कि 1950 से 15 वर्ष बीतने पर हिंदी अपने संवैधानिक पद पर प्रतिष्ठित हो जाएगी। थोड़े से अंग्रेजीदानों की सुविधा के लिए जनतांत्रिक शासन के व्यवहार अंग्रेजी में चलाना सर्वसाधारण के लिए के हितों की अवहेलना करना है।
आश्चर्य है कि गांधीवादी भी गांधी के वचन को भूल गए। गांधी जी ने कहा था कि-
"अंग्रेजी के व्यामोह से पिंड छुड़ाना स्वराज्य का एक अनिवार्य अंग है।"
"मैं यदि तानाशाह होता अर्थात मेरा बस चलता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बंद कर देता, सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता।"
"मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हो मैं इससे इसी तरह चिपट रहूंगा जिस तरह बच्चाअपने मां की छाती से। यही मुझे जीवनदायनी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है, जिसकी वह हकदार नहीं है, तो मैं उसे सख्त नफरत करूंगा - वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों करोड़ों की नहीं।"
केंद्रीय सरकार की उपेक्षा
भारत संघ की सरकार ने भी संविधान द्वारा दिए गए आदेशों की अवहेलना की है। संविधान की धारा 344 में स्पष्ट कहा गया था कि सन् 1950 के बाद हर 5 वर्ष पर एक आयोग का गठन किया जाता रहेगा जो राजभाषा हिंदी की प्रगति की जायजा लेगा और आगे चलन-वृद्धि के लिए सिफारिशें करेगा। 1950 के बाद एक ही आयोग 1955 में गठित किया गया है और उसकी नकारात्मक सिफारिशों को तो माना गया, लेकिन सकारात्मक सिफारिशों की अनदेखी कर दी गई। बाद में 1960 या 1965 में आयोग नहीं बने।
राजभाषा अधिनियम के द्वारा जब से अंग्रेजी को दृढ़ता से स्थापित कर दिया गया, तब से राज्य कर्मचारियों को विश्वास हो गया कि अंग्रेजी का भविष्य उज्जवल है। राष्ट्रपति का यह आदेश भी कि यदि कोई कर्मचारी हिंदी में काम न करें तो उसका अहित नहीं होगा। कुल मिलाकर हिंदी में काम करने की चाह नहीं है, जो काम अब तक हुआ है उसके बारे में समीक्षकों का कहना है कि वह दुरूह और भद्दा है। अनुवाद की अपेक्षा अंग्रेजी का मूल पाठ सरल और सुबोध है। यह संविधान की धारा 351 के अनुकूल भी नहीं है। इससे संस्कृत ही संस्कृत है, वह भी अत्यंत कठिन।
1976 से गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग नियम और आदेश जारी करता रहता है, लेकिन अंग्रेजी के समर्थक अधिकारी इनकी कोई परवाह नहीं करते। वार्षिक कार्यक्रम बनते हैं परंतु वे कागजों पर ही बने रह जाते हैं। हिंदी को देखने के लिए केंद्रीय हिंदी समिति है, इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें राजभाषा के लिए फुर्सत ही नहीं मिलती और वर्षानुवर्ष इस समिति की बैठक भी नहीं होती। मंत्रालयों की अपनी-अपनी सलाहकार समितियां हैं जो थोड़ी-बहुत सलाह तो देती हैं, पर उसे क्रियान्वित नहीं किया जाता।
कहने का आशय यह है कि संविधान ने जो कार्य सरकार को सौंपा था, उसे दिखावे के लिए भले ही किया हो, परंतु इस कार्य में गति नहीं है। अभी भी अंग्रेजी का ही बोलबाला है।
राजभाषा हिंदी का भविष्य
पिछले पृष्ठों में राजभाषा की वर्तमान स्थिति का उल्लेख किया गया है। संविधान ने जिसको रानी बनाना चाहा था, उसे एक अधिनियम ने अंग्रेजी का सहचरी बना दिया। जनतंत्रिक शासन-व्यवस्था में जनता की भाषा ही राजभाषा होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है परंतु हमें अंग्रेजी को हटाना होगा। इसके रहते हिंदी ही नहीं, हमारी कोई भी प्रादेशिक भाषा पनप नहीं सकती। यह सत्य पिछले दो-ढाई सौ वर्ष का इतिहास बता रहा है। यह बात अच्छी तरह समझ में आती है कि 1963, 1967 का अधिकतम अधिनियम हिंदी के लिए घातक सिद्ध हुआ है। इस अधिनियम में इस बात का उल्लेख किया गया कि 1965 के बाद भी हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग में लाई जाती रहेगी जिनके लिए वह इससे पहले प्रयोग में लाई जाती रही है। साथ ही यह भी कहा गया कि जब तक कर्मचारी हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते तब तक हिंदी के साथ अंग्रेजी का और अंग्रेजी के साथ हिंदी का अनुवाद पत्र आदि में दिया जाए। इस अधिनियम को निरस्त करा देना अभीष्ट है। परंतु हमें अलगाववादी शक्तियों से भी सावधान रहना है। देश की एकता प्रमुख है। हमें तमिलनाडु और दूसरे प्रदेशों की जनता को आश्वस्त करना है।
दूसरी बात यह है कि भारत सरकार की सलाहकार समितियों को सक्रिय करना होगा।
तीसरी बात यह है कि सरकारी कर्मचारियों के लिए हिंदी का व्यवहारिक ज्ञान अनिवार्य है। सरकारी कामकाज में हिंदी का प्रयोग भी अनिवार्य होना चाहिए।
चौथी बात यह है कि कार्यान्वयन समितियों परिश्रम से सही-सही तथ्य और आंकड़े गृह मंत्रालय को भेजे और वहां देखा जाए कि वहां कहां-कहां, किन-किन कार्यालयों में आदेशों की अवहेलना की जाती है।
पांचवी बात यह है कि हिंदी प्रदेश के सभी राज्यों में सारा काम हिंदी में हो ।
छठवीं बात यह है कि केंद्रीय तथा प्रादेशिक लोक सेवा आयोगों की परीक्षाओं में सभी भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में मान्यता प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त कर्मचारी चयन आयोग भी परीक्षाओं में प्रादेशिक भाषाओं को उचित स्थान दे। अंग्रेजी मात्र वैकल्पिक विषय के रूप में रहने दी जाए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, "मुझे एक लंबे समय से यकीन रहा है और आज भी है कि भारत की आम जनता की वास्तविक उन्नति और जन-जागरण अंग्रेजी के जरिए नहीं हो सकता। इसलिए जरूरी है कि हम हिंदी के बारे में विचार करें, इसलिए नहीं कि हिंदी बांग्ला, मराठी या तमिल में श्रेष्ठ है ऐसी बात कतई नहीं है, बल्कि इसलिए कि इस काम के लिए हिंदी ही सबसे उपयुक्त है।
हिंदी के प्रयोग में प्रमुख अवरोध
राजभाषा हिंदी के प्रयोग में प्रमुख अवरोध तो अंग्रेजी के प्रति आकर्षण की मानसिकता है लेकिन इसके अतिरिक्त भी कुछ बहुत सी ऐसी बातें हैं जो हिंदी के व्यवहार में कठिनाइयां पैदा करती हैं-
1. परिभाषिक शब्दावली एवं अनुवाद - परिभाषिक शब्द भाषा के सामान्य शब्दों से भिन्न होते हैं और इनका प्रयोग किसी विषय के क्षेत्र में या विशेष संदर्भ में किया जाता है। परिभाषिक शब्द भाषा सापेक्ष हैं, भाषा में विषय सापेक्ष हैं, संस्कृति सापेक्ष हैं। इसलिए हिंदी के प्रयोग में सबसे बड़ी कठिनाई परिभाषिक शब्दों का है। इस समस्या का समाधान करने के लिए अनेक प्रयत्न किए गए हैं और बड़े पैमाने पर परिभाषिक शब्द तैयार किए गए हैं फिर भी आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी में परिभाषिक शब्दों का एक प्रामाणिक शब्दकोश तैयार किया जाए। जिन विषयों के लिए परिभाषिक शब्द नहीं है उसके लिए भारत की प्राचीन भाषाओं से, लोक में सामान्य बोलचाल में प्रचलित, प्रांतीय भाषाओं से शब्द लिए जाएं, अपनी भाषा में शब्द न होने पर उस भाषा के परिभाषिक शब्दों को ही ग्रहण कर लिया जाए। जैसे ग्लूकोज, कंपोज, बुलेटिन आदि।
2. वर्तनी की समस्या - हिंदी के प्रयोग में वर्तनी में एकरूपता नहीं है, जैसे चाहिए-चाहिये, गयी-गई, चिन्ह-चिंन्ह आदि। इसके लिए भाषा वैज्ञानिकों की एक समिति बनाकर दो या दो से अधिक रूपों में से किसी एक को अधिकृत कर दिया जाये।
3. तत्सम रूप के प्रति आग्रह - कुछ लोगों का आग्रह रहा है कि हिंदी की जननी संस्कृत है इसलिए परिभाषिक शब्दों के लिए भारत की प्राचीन भाषाओं से शब्द लिए जाय, जैसे मंत्री (मिनिस्टर), तस्कर (स्मगलर) आदि। लेकिन इससे हिंदी और अधिक जटिल अटपटी और अग्राह्य बन जाएगी। इसलिए आज हिंदी के नए तेवर उत्पन्न किए हैं, जैसे संस्कृत में राज्यक्षमा, अरबी-फारसी में तपेदिक और अंग्रेजी में टी.वी. ये सब परिभाषिक शब्द हैं। अलग-अलग स्त्रोत होने पर भी ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। हां इनका प्रयोग परिवेश से नियंत्रित अवश्य होता है-
उसे राज्यक्षमा हो गया है।
उसे टी.वी. हो गई है।
उसे तपेदिक हो गया है।
वाक्यों का अर्थ एक ही है किंतु राज्यक्षमा टीवी और तपेदिक परिभाषिक शब्द हैं। इनके स्रोत क्रमशः संस्कृत, अंग्रेजी और अरबी-फारसी है।
4. टंकण संबंधी समस्या - जहां तक टंकण का प्रश्न है। हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी का टंकण अधिक सुगम है। कारण यह है कि अंग्रेजी के वर्ण सीधे हैं, लेकिन हिंदी की देवनागरी के वर्ण उलझाव भरे व टेढ़े मेढ़े हैं। अंग्रेजी में न मात्राएं लगती हैं न संयुक्त अक्षर होते हैं। इसका समाधान यह है कि टाइपराइटरों की कुंजीपटल का एक मानक स्वरूप निश्चित कर दिया जाना चाहिए।
कुल मिलाकर सरकारी कामकाज में इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी सरल और सुबोध होनी चाहिए। जटिल और बोझिल नहीं। राजभाषा नियम 1976 का भी यही कहना है।
राजभाषा के रूप में हिंदी का स्वरूप
राजभाषा के रूप में हिंदी के स्वरूप की मुख्य विशेषताएं जो उसे हिंदी के अन्य रूपों से अलगाती है, इस प्रकार है-
1. अमिधा शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग - साहित्य में अमिधा शक्ति का कम से कम प्रयोग होता है,लक्षणा और व्यंजना शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग अभीष्ट है किंतु राजभाषा या कार्यालय की हिंदी भाषा में अभिधा का अधिकाधिक प्रयोग होता है, लक्षणा तथा व्यंजना का नहीं। इसलिए राजभाषा साहित्य हिंदी से अलग है।
2. एकार्थता - साहित्य हिंदी में श्लेष और यमक आदि अलंकारों के द्वारा एक से अधिक अर्थ की अभिव्यक्ति हो सकती है किंतु राजभाषा हिंदी में एक अर्थ की अभिव्यक्ति ही वांछनीय है।
3. परिभाषित शब्दों का प्रयोग - राजभाषा अपने परिभाषित शब्दों में भी हिंदी की अन्य प्रयुक्तियों से स्पष्टतः अलग है। इसमें ऐसे अनेक शब्द हैं जो मूलतः इसी के हैं और यदि अन्य प्रयुक्तियों में कभी प्रयुक्त होते भी हैं तो इसी से लेकर। जैसे-
तदर्थ (Adhoc)
प्रतिलिपि (Copy), किश्त (Instalment)
दस्तावेज (Document), विचाराधीन पत्र (P.U.C.)
संप्रेषक (Despatcher), स्मरण पत्र (Reminder)
प्रविष्टि (Entry), अधिशेष (Surplus)
4. समस्रोतीय घटकों से शब्द रचना का विशेष बंधन नहीं - हिंदी में प्रायः समस्रोतीय घटकों से ही शब्दों की रचना होती है। जैसे- संस्कृत शब्द निर्धन+ता = निर्धनता, अरबी फारसी शब्द गरीब + अरबी-फारसी प्रत्यय ई = गरीबी। हिंदी में निर्धनी और गरीबता जैसे शब्दों की रचना नहीं होती। किंतु राजभाषा या कार्यालयीन हिंदी में इस प्रकार का बंधन नहीं है। इससे बहुत से शब्द विषमस्त्रोतीय घटकों से बने हैं जैसे 'कुर्की' शब्द फारसी का है और 'अधिकारी' हिंदी का है। इसी प्रकार 'रजिस्टर्ड' एक परिभाषिक शब्द है, इसके लिए 'रजिस्ट्रीकृत' बना। रजिस्ट्री अंग्रेजी का शब्द है और कृत संस्कृत का। इसी प्रकार मुकदमा अधिकारी (Litigation officer), मुद्राबंद (Sealed), मजदूरी निरीक्षक (Wage Inspector) , उपकिरायेदारी (Subletting) इत्यादि।
5. एकाधिक शैलियों का प्रयोग - ज्ञान-विज्ञान के नए क्षेत्रों के खुलने से हिंदी की पारिभाषिक शब्दावली में समृद्धि आई है। एक ही अर्थ के वाचक अनेक भाषाओं से आये परिभाषिक शब्दों में हिंदी में नये तेवर उत्पन्न किए। राजभाषा हिंदी में भी एक से अधिक शैलियों का प्रयोग हो रहा है। इसका कारण यह है कि एक ही शब्द के लिए उसके पास प्रायः कई शब्द हैं -
संस्कृत अरबी-फारसी अंग्रेजी
कार्यालय दफ्तर ऑफिस
अधिकारी अफसर ऑफिसर
मूल्य कीमत प्राइस
न्यायालय अदालत कोर्ट
ये सभी शब्दों के अपने खास अर्थ है, पर अलग-अलग स्त्रोत से आने पर भी ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। कार्यालय, दफ्तर और ऑफीस परिभाषिक शब्द हैं, पर इनके स्त्रोत क्रमशः संस्कृत, अरबी-फारसी और अंग्रेजी हैं।
6. संक्षिप्तीकरण - राजभाषा हिंदी में कुछ संक्षेपों का भी अलग प्रयोग होता है जैसे अर्धशासकीय पत्र (D. O. letter), विचाराधीन पत्र (P. U. C.), निम्न श्रेणी लिपिक (U.D.C.), उच्च श्रेणी लिपिक (U. D. C.) आदि।
7. कर्मवाच्य की प्रधानता - हिंदी की अन्य प्रयुक्तयों में कर्तृवाच्य की प्रधानता होती है, किंतु राजभाषा हिंदी में कर्मवाच्य की प्रधानता होती है। इसमें प्रायः कभी कथन व्यक्ति निरपेक्ष होते हैं। उदाहरण के लिए-
(क) सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है (उत्तम पुरुष का प्रयोग नहीं है।)
(ख) कार्यवाही की जाए (न कि आप कार्यवाही करें।)
(ग) स्वीकृति दी जा सकती है (न की स्वीकृति दीजिए।)
8. वाक्यों में भी विषमसत्रोतीय शब्दों का प्रयोग - राजभाषा हिंदी के वाक्यों में भी विषमस्त्रोतीय शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से होता है। जैसे,
मसौदा अनुमोदन के लिए पेश है।
यह कागज विचाराधीन है।
प्रादेशिक प्रशासन में हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार राजभाषा हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं, साथ ही दिल्ली में भी इसका प्रयोग हो रहा है और केंद्रीय सरकार भी अपने अनेकानेक कार्यों में इसके प्रयोग को बढ़ावा दे रही है।
अक्टूबर 2011 में राजभाषा मंत्रालय का ताजा प्रयास - हिंदी को अबूभ्क्त बनाए रखने और नौकरशाहों द्वारा हिंदी की आत्मा के दमन के बाद अक्टूबर 2011 की एक परिपत्र से सरकार इस भाषा की जीवंतता से जुड़ना चाहती है। यह स्वागत योग्य है। केंद्रीय मंत्रालय (राजभाषा) की तरफ से सरकारी हिंदी में बोलचाल के शब्दों को शामिल करने के लिए एक परिपत्र जारी किया है। इस प्रपत्र में सरकारी विभागों से कहा गया है कि वे अपने हिंदी दस्तावेजों में उर्दू, अंग्रेजी, अरबी या तुर्क मूल उन शब्दों का प्रयोग करें, जो लोकप्रिय हैं। साथ ही इस परिपत्र में अनुवाद की प्रक्रिया को बदलने की जरूरत बताई गई है और कहा गया है कि अनूदित पाठ के शब्द दर शब्द अनुवाद के बजाय मूल पाठ की भावाभिव्यक्ति हो, इसका ख्याल रखा जाना चाहिए। जनसंचार के माध्यमों ने यह तरीका काफी पहले अपनाया और इसका ही योगदान है कि आज हिंदी इन बहुभाषी देश में आम संवाद के साथ-साथ व्यापार एवं कारोबार की जनभाषा के रूप में आगे बढ़ती गई है। राजभाषा मंत्रालय का ताजा प्रयास यह तो बताता है कि अब सरकार ने मर्ज को समझा है, मगर इसका इलाज कारगर हो और सुगम्य एवं सुग्राह्य हिंदी सरकार की भाषा बन सके, इसके लिए मजबूत इच्छा-शक्ति की आवश्यकता है।
इस परिपत्र के प्रकाशन से एक सवाल यह भी उठता है कि जिस भारत को हम विश्व गुरु का दर्जा देना चाहते हैं, संयुक्त राष्ट्र में हम हिंदी को प्रतिष्ठित मान्यता दिलवाना चाहते हैं और भारत के राजकाज में उसे ही कठिन कहकर खारिज कर रहे हैं। मलयालम और तेलुगु भाषा में तो 80% से अधिक संस्कृत के शब्द हैं।
संविधान का अनुच्छेद 351 भारत की राजभाषा हिंदी के मूल स्वरूप को कायम रखते हुए राजकाज संचालन करने की संवैधानिक बाध्यता को अनदेखा करने की इजाजत नहीं देता है। क्या सरकार संविधान की बाध्यता को अनदेखा कर देश के स्वाभिमान, स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता की अपने ही असंवैधानिक निर्णय से खुली एवं स्पष्ट अवमानना कर इस आत्महन्ता नई खोज से भारत की भाषा को अपने ही हाथों से खत्म करने का काम नहीं कर रही है? आजादी के चौसठ वर्ष बाद हमें हमारे शासक बता रहे हैं कि हम भारत का राजकाज कैसे करें?
भारत की "भाषा की समस्या के केवल तीन रूप हैं। शासन और न्याय की भाषा की समस्या, शिक्षा माध्यम की समस्या तथा विदेशी संबंधों के माध्यम की समस्या। शासन न्याय भाषा की समस्या के 3 पहलू हैं। केंद्रीय, प्रांतीय और अंतर प्रांतीय। शिक्षा माध्यम की समस्या भी तीन प्रकार की है - प्रारंभिक, माध्यमिक तथा विश्वविद्यालय स्तर की भाषा की समस्या। विदेशों में पत्र-व्यवहार, आदान-प्रदान किस भाषा में हो, यह तीसरी समस्या है।" इन सभी समस्याओं में यहां माध्यम भाषा पर विचार करना अपेक्षित है।
देश के विभिन्न प्रांतों के मध्य किस भाषा के माध्यम से विचार-विनिमय हो, यह एक विवादग्रस्त प्रश्न है। कुछ समय पहले तक प्रदेशों की संपर्क भाषा अंग्रेजी रही है किंतुगत वर्षो में यह दायित्व क्षेत्रीय भाषाओं के कंधों पर आ पड़ा है, क्योंकि हिंदी को सभी प्रांत माध्यम भाषा बनाने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। लेकिन इस प्रवृत्ति से अनेक असुविधाएं भी जन्म लेती हैं। पत्राचार आदि में विलंब होता ही रहता है। "जहां तक आम लोगों के लिए माध्यम भाषा या संपर्क भाषा का प्रश्न है, यह तो वे ही तय करेंगे कि उन्हें किस भाषा का इस्तेमाल करना है।.......
प्रशासनिक क्षेत्र में इतना तय है कि केंद्रीय सरकार को धीरे-धीरे हिंदी में कामकाज करना ही होगा।" (सप्ताहिक हिंदुस्तान, 23 मार्च 1968, पृ. 16)
'संचार' शब्द 'सं + चर' धातु के योग से बना है जिसका सीधा शाब्दिक अर्थ है - 'समान रूप से रखना या चलना' अथवा 'साथ-साथ चलना या रखना'। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संचार में दो का होना आवश्यक है- एक श्रोता एवं दूसरा वक्ता का। आज जब हम संचार का उपयोग करते हैं तब हमारे सामने वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र का स्वरूप उभर आता है, जिसमें कम्युनिकेशन (Communication) शब्द का प्रयोग होता है। इसी कम्युनिकेशन के हिंदी-पर्याय के रूप में 'संचार' का प्रयोग हो रहा है। व्यक्ति अपने अनुभव, विचारों, संदेशों धारणाओं सूचनाओं विश्वासों मतों दृष्टिकोण आदि को आज संचार माध्यमों के द्वारा बड़ी ही शीघ्रता से संप्रेषित कर पा रहा है, इसका प्रमुख कारण है - संचार माध्यमों में आई क्रांति। कुछ वर्षों तक केवल प्रिंट मीडिया और श्रव्य मीडिया ट्रांजिस्टर रेडियो आदि ही इसके साधन थे, किंतु आज संचार साधनों में दूरदर्शन एवं मल्टीमीडिया के उपयोग ने संपूर्ण विश्व को जैसे समेट दिया है। हिंदी आज संपूर्ण भारत में बोली जाती है और कभी-कभी उस पर प्रांतीय भाषाओं का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि हिंदी आज विश्व की द्वितीय भाषा के रूप में स्थापित होने की दिशा में अग्रसर है। भारतीय हिंदी-भाषी जन-समुदाय के साथ हिंदी भी विदेशों में जाकर अपना स्थान बना रही है। किंतु संचार माध्यमों आदि में जो हिंदी-भाषा प्रयोग की जा रही है उसके स्वरूप को देखकर निश्चय ही शुद्ध हिंदी-प्रेमी समुदाय को चिंता एवं व्याकुलता घेर लेती है कि क्या इसी हिंदी की प्रतिष्ठा विश्व में द्वितीय भाषा के रूप में होगी? क्या हम हिंदी को 'हिंग्लिस' कहते हैं तो उसके इस रूप के कारण ही। वास्तव में यह प्रश्न अवश्य चिंता का विषय है कि क्या यही अच्छी हिंदी है? अथवा क्या यह हिंदी है? संचार माध्यमों में सबसे सशक्त माध्यम आज दूरदर्शन या टी.वी. है। इसमें प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की हिंदी एवं समाचार आदि की भाषा में हिंदी का जो रूप रहता है, वह अंग्रेजी, हिंदी तथा कभी-कभी अरबी-फारसी के शब्दों के मेल से बनी खिचड़ी भाषा का होता है, यथा -
असम में हुए Train Accident में death कुल Five Hundred का Number cross कर चुका है। इसकी जिम्मेदारी एक्सेप्ट accept करते हुए Railway Minister ने अपना Resignation Prime Minister के पास भिजवा दिया है। (समाचार का एक अंश)
शुक्रवार रात साढ़े-नौ बजे देखिए-मिशन फतेह (धारावाहिक)
नया डैंड्रफ फ्री ऑल क्लियर क्लीनिक शैंपू, क्या ट्राय किया? (विज्ञापन)
जब कमर दर्द सताए, तो moov हो जाए। (मलहम-Moov का विज्ञापन)
जब Life में हो आराम तो ideas आते हैं। (बनियान का विज्ञापन)
Made in India, Made in India. दिल चाहिए बस, Made in India. (अलीशा चिनॉय के एल्बम का प्रसिद्ध गीत)
Try Hero, Hero Number 1, Underwear and Baniyan - यह आराम का मामला है।
इस Film के माध्यम से मैंने ये Feel किया कि प्यार में कितना दीवानापन होता है। Its has no boundation. यहाँ पर आप Bargain नहीं कर सकते। (एक सिनेतारिका का वक्तव्य)
ताजमहल, "Oh, it's marvellous." इसकी सुंदरता का जवाब नहीं। (विदेशी प्रतिनिधि के उद्गार)
इनके अतिरिक्त या फिर अन्य आम बोलचाल के ये वाक्य भी दर्शनीय हैं -
मैंने Univesity में Job के लिए Try किया था, मगर वहां Clerical के अलावा किसी और Post के लिए Vacancy नहीं है। क्या करूं यार, मैं तो बड़ा Disturbed और Suffocated महसूस कर रहा हूं। Only God can help me. घर पर वैसे ही बड़ी Tension है। कभी-कभी लगता है वही Accept करनी होगी।
उपर्युक्त कुछ उदाहरण आधुनिक भारत में बोली जाने वाली हिंदी के नहीं हैं, इससे इनकार करना कठिन है, किंतु यह भी सत्य है कि भारत के कोने-कोने तक हिंदी अपने इस रूप में सबको लुभा रही है। हिंदी का विस्तार इस रूप में सर्वत्र देखा जा सकता है। साहित्यक पुस्तकीय हिंदी का स्वरूप कितना भी परिनिष्ठित क्यों ना हो किंतु हमें इस सत्य को स्वीकार करना ही पड़ता है कि सुशिक्षित एवं अल्प-शिक्षित की भाषा में अंतर होता है। संस्कृत की प्रतिष्ठा के समय भी यह समस्या आई होगी। आम जनता का यह रुख रहता है कि यह समस्या नहीं है। आज हिंदुस्तान का हिंदी भाषी कुछ अंग्रेजी शब्द अपनी हिंदी ठूसने या घुसेड़ने में इस भावना से परिचालित होता है कि उसे हिंदी तो आती ही है, अंग्रेजी भी आती है और वह अपने वाक्य में श्रोता की सुविधा के लिए अंग्रेजी के शब्द रख रहा है यानी वह भी विद्वान हैं उसे भी अंग्रेजी आती है। राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के प्रति निष्ठा का भाव यहां नहीं रहता, कार्य कर रही होती है तो एक गुलाम मानसिकता। किंतु इस सत्य से भी इनकार करना कठिन है कि हिंदीतर प्रांतों में तथा देश के बाहर यदि हिंदी प्रतिष्ठित हो रही है तथा विस्तार पा रही है तो अपने इस सुविधा पर रुप-स्वरुप के कारण ही। इस दृष्टि से, संचार की आवश्यकताओं को पूरा करने के कौन से यदि देखा जाए तो निश्चय ही हिंदी संचार-भाषा के रूप में देश-विदेश दोनों ही स्थानों पर अपनी पैठ बनाने में सफल रही है। आज भारत में यदि हिंदी के संचार भाषा के रूप में अंग्रेजी एवं प्रांतीय भाषाओं का प्रभाव है भी, तब भी वह पूर्ण सफल इसलिए है कि वह संचार भाषा की अहर्ताओं को पूरा करती है।
सभी देशों की राजभाषाएँ आमतौर पर राष्ट्र के भीतर एवं बाहर संपर्क साधने के लिए प्रयोग की जाती है। संपर्क-साधन, संचार के बिना संभव नहीं है, अतः संचार में प्रयुक्त होने वाली भाषा संपर्क भाषा पर निर्भर करती है, उससे सहायता लेती है। संक्षेप में, संचार भाषा के रूप में हिंदी आज संपूर्ण विश्व की चहेती भाषा बनती जा रही है। हिंदी, भारत की राष्ट्रभाषा है, राजभाषा है, संपर्क भाषा है तथा संचार भाषा भी है। हिंदी के आरंभिक एवं आधुनिक स्वरूप में अंतर है, किंतु उसके आधुनिक स्वरूप का व्यवहार क्षेत्र बहुत व्यापक एवं बड़ा है और यह विस्तार उसने संचार भाषा के रूप में ही प्राप्त किया है।
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