द्रुतपाठ के कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय : छायावाद एवं पूर्ववर्ती काव्य प्रश्न उत्तर

 द्रुतपाठ के कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय

1. अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कृतियों का वर्णन करें। 

उत्तर - हरिऔध की कृतियाँ 

    खड़ी बोली हिंदी काव्य में अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। पंडित श्रीधर पाठक के उपरान्त 'हरिऔध' जी को ही खड़ी बोली में सरस् एवं मधुर रचनाएँ प्रस्तुत करने का श्रेय दिया जाता है। उनकी खड़ी बोली कविता को पढ़कर ही लोगों को लगा कि खड़ी बोली काव्यभाषा के लिए पूर्णतः उपयुक्त भाषा है।  'हरिऔध' जी ने गद्दय रचना के क्षेत्र में भी पर्याप्त कार्य किया है। 'प्रधुम्न विजय' (1893 ई.) का ठाठ' (1899 ई.) तथा 'रूक्मिणी परिणय' (1894 ई.) आपके लिखे हुए नाटक हैं, जबकि 'ठेठ हिंदी' तथा 'अधखिला फूल' (1907 ई.) लिखे हुए उपन्यास हैं। 

    प्रारम्भ में 'हरिऔध' जी ब्रजभाषा में काव्य रचना करते थे। 'रसकलश' में उन्होंने ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। इनकी लिखी अन्य काव्य कृतियाँ हैं - कबीर कुण्डल, श्रीकृष्ण शतक, प्रेमाम्बु प्रवाह, उपदेश कुसुम, प्रेम प्रपंच, प्रेमाम्बुवारिधि, प्रेमाम्बु प्रस्रवण, प्रेम पुष्पोहार, उद्बोधन, ऋतुमुकुर, पुष्प विनोद, विनोद वाटिका, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पद्ध्यप्रसून, प्रियप्रवास, बोलचाल, रसकलश, फूल-पत्ते, पराजित, ग्राम गीत, वैदेही बनवास, हरिऔध सतसई, मर्मस्पर्श आदि। 

    इन काव्य संकलनों में कहीं जाति सेवा, समाज सेवा, राष्ट्र सेवा एवं साहित्य सेवा की भावनाएँ व्याप्त हैं तो कहीं आक्रोश एवं व्यंग्य का आश्रय लेते हुए सामाजिक कुरीतियों एवं दुर्बलताओं पर विचार किया गया है। 'हरिऔध' जी के लिखे दो काव्य ग्रंथ विशेषतः उल्लेखनीय हैं - प्रियप्रवास एवं वैदेही वनवास। 

2. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' के प्रियप्रवास पर टिप्पणी लिखें। 

उत्तर -   प्रियप्रवास 

    'प्रियप्रवास' (1914 ई.) आधुनिक काल में लिखा गया खड़ी बोली हिंदी का प्रथम महाकाव्य है जिसमें कवि की प्रबंध पटुता एवं काव्य प्रतिभा का अद्भुत संयोग दृष्टिगोचर होता है। इसकी कथावस्तु में श्री कृष्ण के मथुरा गमन, राधा एवं गोपियों की विरह व्यथा, पवन दूती प्रसंग, यशोदा की व्यथा, उद्धव गोपी संवाद, राधा उद्धव संवाद आदि का मार्मिक निरूपण है। श्री कृष्ण के जीवन से जुड़ी हुई अनेक घटनाओं पूतना वध, बकासुर, शकटासुर, कालीनाग, कंस, जरासंध वध आदि का उल्लेख भी यथास्थान है। कथानक में राधा-कृष्ण के परम्परागत चरित्र को युगीन सांचे में ढालकर प्रस्तुत किया गया है। प्रियप्रवास की राधा केवल विरहिणी मात्र नहीं है अपितु वह लोक सेविका एवं समाज सेविका भी है। इसी प्रकार कृष्ण भी जननायक अधिक हैं। जन्मभूमि के प्रति अटूट श्रद्धा, दुराचारी के प्रति विद्रोह, अन्याय दमन, स्वदेश प्रेम एवं लोकोपकार के भाव भी इस कथा में पिरोए गए हैं। भारतीय संस्कृति का उज्जवल रूप इनमें चित्रित है। इस महाकाव्य में आध्यात्मिक एवं लौकिक प्रेम को प्रस्तुत करते हुए भी लोकपक्ष एवं लोक कल्याण पर कवि का ध्यान केन्दित रहा है। 

    प्रियप्रवास के कथानक को 17 सर्गों में विभक्त किया गया है। प्रथम सर्ग में संध्या वर्णन है, द्वितीय सर्ग में गोकुलवासियों की कृष्ण के आसक्त विरह से उत्पन्न व्यथा है तथा तृतीय सर्ग में नंद की व्याकुलता एवं यशोदा की कृष्ण की कुशलता के लिए की गई मनौतियों का चित्रण है। चौथे सर्ग में राधा के सौंदर्य का चित्रण है तथा पांचवें सर्ग में गोकुल के विरह का निरूपण है साथ ही राधा एवं माता यशोदा की व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति है। सातवें सर्ग में नंद के मथुरा से लौट आने पर माता यशोदा के पुत्र विषयक प्रश्नों का मार्मिक वणर्न है। आठवें सर्ग में गोकुलवासियों को अतीत में कृष्ण के साथ बिताए दिनों की याद करते दिखाया गया है तो नौंवे सर्ग में श्री कृष्ण भी गोकुल की यादों में डूबे दिखाए हैं। दसवें एवं ग्यारहवें सर्ग में उद्धव प्रसंग है वो गोकुलवासियों को संतावना देते हैं, उपदेश देते हैं। कृष्ण के लोकोपकारक स्वरूप का चित्रण ग्यारहँवे सर्ग में है। बारहँवें सर्ग में उन्हें जननायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। चौद्हें सर्ग में गोपी-उद्धव संवाद है। पन्द्रहँवे सर्ग में कृष्ण विरह में व्यथित गोपियों की दशा का चित्रण है तथा सोलहंवे सर्ग में राधा-उद्धव संवाद है। सत्रहँवे सर्ग में हरिऔध जी ने बताया कि विश्व प्रेम व्यक्तिगत प्रेम से अधिक महत्वपूर्ण है। 

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