1. भक्तिकाल की सांस्कृतिक चेतना पर लेख लिखिए।
अथवा
भक्तिकाल की चारों धाराओं के समान तत्त्वों पर प्रकाश डालिए।
भक्तिकाल की सांस्कृतिक चेतना
उत्तर - हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल स्वर्ण-युग के नाम से अभिहित किया जाता है। इस काल में ईश्वर के रूप और गुण की विशिष्टता के सहारे भक्ति का स्वरूप स्थिर किया गया है। भक्त कवियों ने राजाश्रय का मोह छोड़ दिया था। फलतः जायसी के अतिरिक्त कोई भी कवि राजाश्रय में नहीं पला है।
समस्त हिन्दू जाति अपने धर्म और शील की रक्षा के लिए प्रयत्नरत थी। इस प्रयत्न के परिणामस्वरूप सगुण और निर्गुण भक्त्ति की उपासना को बल मिला। इसके साथ ही इस काल में एक दूसरे मत का प्रभाव भी पड़ा, वह था-सूफी मत का धार्मिक भाव। सगुण भक्त कवियों के दो विभाग हो गये-राम भक्ति और कृष्ण भक्ति।
उधर निर्गुण भक्त कवियों ने भी दो रूपों में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया-सूफी काव्य और संत काव्य धारा। इस प्रकार भक्ति-काल में चार धाराएँ प्रवाहित हुई- 1. ज्ञानाश्रयी धारा या सन्त काव्य धारा, 2. प्रेमाश्रयी धारा या सूफी काव्य धारा 3. रामभक्ति धारा और 4. कृष्णभक्ति धारा।
ये चारों काव्य धाराएँ अपना पृथक्-पृथक् महत्व रखती है, किन्तु इन चारों में कुछ ऐसी सामान्य प्रवृत्तियों का विकास हुआ, जिनसे इन्हें एक सूत्र में बाँधा जा सकता है। अतः भक्ति काव्य की प्रमुख विशेषताओं को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।
भक्ति काव्य में सांस्कृतिक चेतना - हिन्दी साहित्य में भक्ति-युग का साहित्य मानव जाति की श्रेष्ठतम धार्मिक भावनाओं को लेकर चलता है। इस काव्य में जिस भावभूमि का चित्रण हुआ है, वह हमारे जीवन के धार्मिक पक्ष को प्रकट श्रेष्ठतम धार्मिक करती है।
ठीक भी है कि श्रेष्ठ धार्मिक भावनाएँ ही साहित्य को अमरता का पद दिलाती है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने इस काल के साहित्य के विषय में ठीक ही लिखा है कि, "जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी और सूरदास जैसे रस-सिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरण से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के क्षेत्र में सामान्यतः भक्ति-युग कहते हैं। निश्चय ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग है।"
आगे संक्षेप में भक्ति - काव्य की वे विशेषताएँ दी जा रही है, जो इस काल में प्रवाहित चारों धाराओं में समान मिलती है-
1. नाम की महत्ता, 2, गुरु की महिमा, 3. भक्तिभावना की प्रधानता, 4. अहंकार का त्याग, 5. मिथ्याडम्बरों का विरोध, 6. आचार की प्रधानता, 7. आत्मसमर्पण की प्रधानता।
निष्कर्ष - अन्त में यही कहना उचित प्रतीत होता है कि भक्तिकाल में जिन विशेषताओं की ओर ऊपर संकेत किया गया है वे सब की सब कवियों में मिलती है। भक्ति काव्य एक प्रकार से सरल जीवन की कामना, सदाचार, पवित्रता, | धार्मिकता, आत्मसमर्पण, विनयशीलता और निरभिमानी वृत्तियों का प्रेरक काव्य है।
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Bhaktikal ki sanskritik chetna par prakasha daliye?
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