1. भारत में भक्तिकाल के अन्तर्गत सूफी मत का प्रभाव किस रूप में पड़ा? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
सूफी काव्यधारा पर एक परिचयात्मक लेख लिखिए।
उत्तर -
सूफी काव्यधारा परिचयात्मक लेख
सूफी सम्प्रदाय
‘सूफी' शब्द सूफ से बना है, जिसका अर्थ है 'सफेद ऊन का"। सूफी लोग वैभव शून्य, सरल जीवन व्यतीत करने के कारण मोटे ऊन के कपड़े पहनते थे, इसलिए उन्हें सूफी कहा जाता था। एक मत यह है कि सूफी शब्द का सम्बन्ध यूनानी शब्द सोफोस (Sophos) से है जिसका अर्थ है बुद्धिमान या ज्ञानी'। अंग्रेजी के फिलॉसोफी शब्द में भी यही शब्द है।
इस प्रकार सूफी का अर्थ होता है 'ज्ञानी'। सूफी मत का चलन मुहम्मद साहब के प्रायः दो सौ वर्ष बाद हुआ सूफी लोग पीरंगुरू को अधिक महत्ता देते थे। वे ईश्वर और जीव का सम्बन्ध भय का नहीं वरन् प्रेम का मानते थे। उनका झुकाव सर्वेश्वरवाद की ओर था। वे संगीत के प्रेमी थे। इन सब बातों के कारण वे कट्टर मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दू धर्म के अधिक निकट थे। कट्टर पन्थियों ने मन्सूर को 'अनहलक' (मैं सच्चाई या ईश्वर हूँ।) कहने के कारण सूली का दण्ड दिलाय था। भारत में सूफी सम्प्रदाय का आरम्भ सिन्ध से हुआ है।
सामान्य विशेषताएँ
- प्रेममार्गी कवियों की प्रेमगाथाएँ भारतीय चरित्र-काव्यों की सर्ग-बद्ध शैली में न होकर फारसी की मसनवियों के ढंग पर रची गयी हैं। इनमें ईश्वर वन्दना, पैगम्बर की स्तुति, तत्कालीन बादशाह की प्रशंसा के साथ कथा का आरम्भ किया गया है।
- इनकी भाषा अवधी है।
- इनकी रचना दोहा-चौपाइयों में हुई है। चौपाई छन्द अवधी के लिए विशेष उपयुक्त है।
- ये कथाएँ प्रायः हिन्दू-जीवन से सम्बन्ध रखती है, और भौतिक प्रेम द्वारा ईश्वरीय प्रेम का प्रतिपादन किया गया है।
- इनके लिखने वाले प्रायः वे मुसलमान थे, जिन्होंने हिन्दू धर्म का भी थोड़ा-बहुत ज्ञान था।
- ये लोग किसी सम्प्रदाय विशेष का खण्डन-मण्डन तो नहीं करते थे, फिर भी मुसलमान-धर्म की ओर अधिक के हुए थे।
प्रमुख प्रेममार्गी कवि
प्रेममार्गी परम्परा वैसे तो ऊष्मा-अनिरुद्ध की कथा से चली आती है, किन्तु उसका प्रौढ़ रूप इन मुसलमान कवियों में ही दिखाई देता है। पद्मावत में चार कथाओं का उल्लेख है। वह निम्न प्रकार का है -
विक्रम धाँसा प्रेम के बारा। सपनावति कहँ गयउ पतारा ॥
मधूपाछ मुगधावति लागी। गगनपूर होइगा वैरागी ||
राजकुंवर कंचनपुर गयऊ। मिरगावति कहँ जोगी भयऊ।।
साधे कुंवर खण्डावति जागू। मधुमालति कर कीन्ह वियोग ॥
प्रेमावति कहँ सुरवर साधा। ऊषा लागि अनिरुध वर बाँधा ॥
उपर्युक्त चौपाइयों में जायसी ने पूर्व के चार काव्य-ग्रन्थों का उल्लेख किया है-मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती। इनमें मृगावती और मधुमालती का पता चल गया है, शेष दो ग्रन्थ अभी नहीं मिले हैं।
1. कुतुबन - ये महाशय संवत् 1550 के लगभग शेरशाह के पिता हुसैनशाह के दरबार में रहते थे। ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे। इनकी पुस्तक मृगावती, जिसका उल्लेख जायसी ने किया है, सन् 1909 हिजरी अर्थात् संवत् 1558 वि. में लिखी गई थी। इस पुस्तक में चन्द्रगिरी के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर की राजकुमारी की प्रेमकथा का वर्णन है। मृगावती उड़ने की विद्या में निपुण थी वह राजा को छोड़कर कहीं उड़ गई थी। राजा उसके वियोग में योगी हो गया और उसकी खोज में निकल पड़ा। इसी बीच में उसने एक राक्षस के चंगुल से बचाई हुई कन्या (रुक्मिन) से विवाह किया। अन्त में उसका, मृगावती से मिलन हो गया। वह दोनों रानियों को लेकर अपने देश को लौट आया। राजा के हाथी से गिरकर मर जाने पर दोनों रानियाँ सती हो गई। कथा के बीच-बीच में प्रेममार्ग की कठिनाइयों का अच्छा वर्णन है। जो साधना के लिए बड़ा उपदेशप्रद है। इसमें रहस्य से भरे हुए कई स्थान है।
2. मंझन - मधुमालती इन्हीं का ग्रन्थ है। इसकी कथा मृगावती से अधिक रुचिकर है। इस ग्रन्थ में कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र राजकुमार मनोहर का महारस नगर की राजकुमार मधुमालती के साथ प्रेम और पारस्परिक वियोग की कया है। पहले नायक अप्सराओं द्वारा मधुमालती की चित्रसारी में पहुँचाया जाता है। वे एक-दूसरे पर मोहित हो जाते है, किन्तु वे शीघ्र ही अलग हो जाते हैं। इस प्रकार एक बार मिलन के पश्चात् विरह होता है, परन्तु अन्त में फिर मिलन हो जाता है। इसमें प्रेमा और ताराचन्द का त्याग अत्यन्त सराहनीय है। इसमें विरह का अच्छा महत्व दिखाया गया है। इसकी एक उक्ति जो संस्कृत के एक श्लोक का अनुवाद है, यहाँ दी जाती है -
रतन की सागर सागरहि, गज मोती गज कोई।
चन्दन की बन-बन उपजै, विरह कि तन-तन होई।।
मूल श्लोक
"शैले-शैले न मणिक्य मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो नहीं सर्वत्र, चन्दनं न बने-बने।।”
इस ग्रन्थ में विरह-कथा के साथ आध्यात्मिक तथ्यों का भी निरूपण बड़े सुन्दर ढंग से हुआ है।
3. मलिक मुहम्मद जायसी - ये महाकवि प्रेममार्गी कवियों के प्रतिनिधि माने गये है। इनका जन्म गाजीपुर में होना बतलाया जाता है। जायसी ने अपने 'आखिरी कलाम' में अपना जन्म सन् 900 हिजरी (सन् 1493 ई.) में बतलाया है। तीस वर्ष की अवस्था में वे कविता करने लगे थे।
भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरस ऊपर कवि वदी ।।
उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'पद्मावत' का रचना-काल 947 हिजरी (संवत् 1557 वि.) है- 'सन् नौ सौ सैतालीस अहा, या आरम्भ बैन कवि कहा। ये चेचक के प्रकोप के कारण इस आँख से वंचित हो गये थे। इसी कारण अपनी पुस्तक जायसी में एक आँख का होना गौरव की बात बतलायी है, तथा शुक्राचार्य से अपनी तुलना की है। ये पीछे से 'जायस' रायबरेली में रहने लगे थे, इसी से ये जायसी कहलाये।
जायसी प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहदी (मुहीउद्दीन) के शिष्य थे। 'गुरु मोहदी सेवकं में सेवा।" यद्यपि इनकी मुसलमानी धर्म में पूरी आस्था थी, तथापि इन्होंने हिन्दू देवताओं का आदर के साथ उल्लेख किया है। केवल एक जगत रत्नसेन के मुख से मूर्तिपूजा की अवश्य बुराई कराई है, किन्तु नैराष्य में प्रायः ऐसा हो जाता है कि लोग देवताओं को कोसने लगते हैं।
इनकी तीन पुस्तकें प्रख्यात है-'पद्मावत', अखरावट और आखिरी कलाम। पद्मावत में राजा रत्नसेन और सिंहलदेव की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम का वर्णन है। इन दोनों का योग हीरामन तोता ने कराया है। इस कथा में दोनों प्रेम की पीर दिखलायी गयी है। इसमें राजा की पहली रानी नागमती के वियोग का अच्छा वर्णन है। इस कथा में प्रेम-साधना द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखलाया गया है। यह कथा अधिकांश में ऐतिहासिक है। कवि-कल्पना के अनुसार इनमें हेर-फेर अवश्य किया गया - पूर्वार्द्ध कल्पित है, किन्तु उत्तरार्द्ध का बहुत कुछ ऐतिहासिक आधार है। पूर्वार्द्ध का भी बहुत कुछ अंश जनश्रुति पर अवलम्बित है। भौतिक प्रेम के साथ आध्यात्मिक प्रेम की भी झलक मिलती है। जायसी स्वयं इस कथा को आध्यात्मिक रूप दिया है
तन चित उर, मन राजा कीन्हा।
हिय, सिंघन बुधि पदमिनि चीन्हा ।।
गुरु सूआ जेहि पंथ दिखावा।
बिन गुरु जगत को निरगुन पावा।।
नागमती यह दुनियाँ धन्धा।
बाँचा सोई न एहि चित बन्धा।।
राघव दूत सोई सैतानू।
माया अलादीन सुलतानू ।।
जायसी का यह ग्रन्य प्रवन्ध काव्य की दृष्टि से बहुत अच्छा गिना जाता है, किन्तु रामचरितमानस से प्रबंध-सौष्ठव बराबरी नहीं कर सकता। यद्यपि प्रेम-गाथाओं में इसका पहला स्थान है, परन्तु प्रबन्ध-काव्यों में दूसरा।
जायसी का विरह-वर्णन बड़ा विशद है। इन्होंने विरहग्रस्त प्रेमी और प्रेमिका के साथ सारे संसार की सहानुभूति दिखलायी है, और सब चराचर, पशु-पक्षी आदि को विरह-वेदना से व्याप्त बताया है। गेहूँ का हृदय भी विरह के कारण फटा हुआ है और कौआ विरह के कारण काला है। कहीं-कहीं इनका विरह वर्णन अत्युक्ति की मात्रा को पहुँच गया है, किन्तु बिहारी के विरह वर्णन से कुछ भिन्न है। इसमें इनकी अत्युक्तियाँ विरह की विषम वेदना के संकेत रूप प्रतीत होती है, उनमें शब्दों का चमत्कार नहीं। जायसी की अधिकांश अत्युक्तियाँ उत्प्रेक्षा सूचक 'जबु', 'मानो' आदि अव्ययों के कारण वास्तविक जगत की न होकर कल्पना की बात रह जाती है। जहाँ पर जायसी ने अत्युक्ति को घटना का रूप दिया है (जैसे कि पक्षी द्वारा नागमती की चिट्ठी ले जाते समय का वर्णन), वहाँ वे बिहारी की भाँति हास्यास्पद बन गये हैं। इसमें मुसलमानी काल के विरह-वर्णन की वीभत्सता भी आ गयी है, हर जगह रक्त के आँसू गिरते हैं। इसमें हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों का समन्वय है। इसके विरह में अत्युक्ति अवश्य है, किन्तु इसके साथ ही इसमें अनुभूति की तीव्रता भी परिलक्षित होती है।
जायसी बहुश्रुत थे। उन्होंने ज्योतिष, हठयोग और शतरंज आदि का अच्छा ज्ञान दिखलाया है। यद्यपि जायसी ने हिंन्दू कथाओं के वर्णन में भूल की है, जैसे-इन्द्र का निवास कैलाश बतलाया है और चन्द्रमा को स्त्री कहा है, तथापि इनको हिन्दू धर्म का ज्ञान बहुत अच्छा था।
जायसी ने अपने ग्रन्थ ठेठ अवधी भाषा लिखे हैं। इनकी अलंकार योजना बड़ी सुन्दर है। इनके अलंकार अलंकारों के उदाहरणस्वरूप नहीं लिखे गये हैं, वरन भावों साथ गुंथे हुए हैं। पद्मावत के कारण जायसी की कीर्ति हिंदी-संसार में अक्षय बनी रहेगी। इनकी कविता उदाहरणस्वरूप कुछ छन्द दिये गये हैं -
नव पौरी पर दह्वै दुबारा। तेहि पर बाज राज-घरियारा।।
घरी सौ बैठि गर्ने घरियारी। पहर पहर सो आपन वारी।।
जबहि घरी पूजै ओहि मारा। घरी-घरी घरियार पुकारा।।
परा जो डाँड जगत सब डाँडा। का निर्चित माटी कर भाँडा ॥
तुम तेहि चाक चढ़े ओही काँचे। आएहु रहै न घर कोई बाँचे।।
घरी जो घटी तुम आऊ। का निर्चित सौवे बटाऊ ॥
पहरहिं पहर गजर नित होई। हिया ब्रज भा जागु कोई।।
दोहा -
मुहम्मद जीवन जल भरन, रहँट धरा के रीति।
घरी जो आई ज्यों भरी, ढ़र
4. उसमान - सन् 1613 उनकी 'चित्रावली' लिखी गयी थी। इनमें नेपाल के राजकुमार सुजानकुमार का चित्रावली के साथ विवाह का वर्णन है। इसमें राजा का पूर्वानुराग चित्र-दर्शन से हुआ था। इसमें यात्राओं का अच्छा वर्णन है। कथा बिल्कुल काल्पनिक मालूम होती है, जैसा कि कवि स्वीकार है-'कथा एक मैं इनके काव्य कहीं-कहीं आध्यात्मिक व्यंजनाएँ हैं -
पावहि खोज तुम्हारा सो, जेहि दिखरावहु पन्थ।
कहा होय जोगी भये, और बहु पढ़े गरंथ।।
तुलसीदासजी ने भी कहा है - 'सो जानिहि जेहि देहु जनाई।"
ये कवि निजामुद्दीन चिश्ती की परम्परा में थे। इन्होंने हाजी बाबा से दीक्षा ली थी। इन्होंने अपना उपनाम 'मान' लिखा है। ये जहाँगीर के समय में थे, और गाजीपुर के रहने वाले थे। इन्द्रावती और अनुराग बाँसुरी का वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक में किया है।
इन कवियों के अतिरिक्त शेख नबी, कासिमशाह, नूरमुहम्मद, फाजिलशाह, शेखनिसार (युसुफ जुलेखा) आदि कवियों का नाम परम्परा लिखा जाता है। कुछ हिन्दू कवियों (जैसे-दामो, हरिराज, मोहनदास आदि) ने भी प्रेममार्गी परम्परा को अपनाया है।
उपसंहार - प्रेममार्गी कवियों मानव-ह्रदय को स्पर्श करने वाली प्रेम की मधुर कोमल वृत्ति का सहारा लिया है। वे लोग कबीर की भाँति हिन्दू-मुसलमानों के खण्डन-मण्डन के पचड़े में नहीं पड़े, और न इन्होंने किसी को बुरा-भला ही कहा, इसलिए उनके काव्य लोकप्रिय होने की सम्भावना अवश्य थी। हिन्दू यह सम्भावना सगुण भक्ति की मधुर-धारा प्रभाव के आगे वास्तविकता में परिणत न हो सकी। प्रेम-गाथाओं के आलम्बन इतने लोकप्रिय न थे जितने राम और कृष्ण। मानव-हृदय लौकिक प्रेम ओर अवश्य आकर्षित होता है, किन्तु हिन्दू भक्ति-भावना में धर्म और प्रेम, दोनों मिले हुए है। राम और कृष्ण की लीलाओं हिन्दू-जाति को आकर्षण था वह प्रेम-गाथाओं में न आ सका। राम और कृष्ण की कथाओं से दुःखों से तारण पाने की कुछ आशा मिलती है, इसलिए भक्ति-काव्य ने लोगों के हृदय में अपना गहरा स्थान बना लिया है।
प्रेम-मार्गी कवियों ने अवधी भाषा का विशेष रूप से प्रयोग किया है। इनकी भाषा बोलचाल की ठेठ अवधी थी। तुलसी की-सी संस्कृतमयी भाषा न थी। इसमें अरबी-फारसी के शब्दों का भी समावेश हुआ। मुसलमान कवियों के लिए यह बात स्वाभाविक ही थी। दोहा-चौपाई की परम्परा को इन्होंने प्रशस्त किया, इसलिए हिन्दी संसार इनका कृतज्ञ है।
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