उत्तर -
कृष्ण भक्तिधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
● हिन्दी साहित्य में कृष्ण काव्यधारा का अपना विशिष्ट स्थान है। इस काव्य धारा के साहित्य में आनन्द और उल्लास का अनोखा रूप देखने को मिलता है। इस काव्यधारा की भावात्मक और कलात्मक विशेषताएँ संक्षेप में निम्न प्रकार विवेचित की जा सकती है।
● कृष्ण की लीलाओं का निरूपण - कृष्ण काव्य धाय की यह प्रधान विशेषता है कि इसमें श्री कृष्ण की विविध लीलाओं का गान किया गया है। कृष्ण भक्त कवियों ने विशेष रूप से अपने उपास्य देव की बाल क्रीडा और किशोर जीवन की लीलाओं का निरूपण किया है। इन लीलाओं में रासलीला, दान लीला, मान लीला, भावन लीला, वंशीवादन, गौएँ चराना, चीरहरण प्रमुख है। कृष्ण की विविध लीलाओं के निरूपण का उद्देश्य अखण्ड आनन्द और जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की अभिव्यक्ति करना है।
● साख्य भाव की भक्ति - इस धारा की भी एक विशेष प्रवृत्ति है कि इसकी भक्ति में साख्य एवं कान्ताभाव की प्रधानता है। साख्य भाव की प्रधानता के कारण ही इस धारा के भक्त कवियों ने श्रीकृष्ण को अपना मित्र माना है तथा इसी भाव से उनकी उपासना की है। एक मित्र की तरह कृष्ण भक्त कवियों ने उन्हें विविध प्रकार के उपालम्भ दिये हैं। इसके साथ ही इस काव्यधारा के काव्य में दास्य भाव की भक्ति तथा नवधा भक्ति के दर्शन भी होते हैं।
● रस प्रयोग (वात्सल्य व शृंगार की प्रमुखता) - इस काव्यधारा में श्रृंगार और वात्सल्य रस की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का निरूपण किया गया है परन्तु वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार में अधिक सजीवता, स्वाभाविकता, मधुरता और मार्मिकता के दर्शन होते हैं। गोपियों के वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार में सुसज्जित एक उदाहरण देखिए -
निसिदन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ऋतु हम पर जब ते श्याम सिधारे ।।
वात्सल्य रस के विरूपण में भक्त कवि अद्वितीय हैं। इन कवियों ने वात्सल्य को भी श्रृंगार की भाँति वियोग वात्सल्य और संयोग वात्सल्य दो रूपों में प्रस्तुत किया है। संयोग वात्सल्य का यह उदाहरण देखिए -
सिखवत चलत जसौदा मैया।
अरबराय का पानि गहावत, डगमगाय धरनी घर पैया।
● विषयवस्तु मे मौलिकता - कृष्ण काव्यधारा के कवियों ने अपने काव्य में कृष्ण सम्बन्धी जिस वस्तु को प्रस्तुत किया है उसमें मौलिकता का परिचय दिया है। मध्य काल में कृष्ण की कथा का आधार भागवत है, परन्तु कृष्ण काव्यधारा के कवियों ने इसे उसी रूप में न अपनाया जिस रूप में भागवत् है। इस धारा के कवियों ने अपने काव्य में कृष्ण की कथा में पर्याप्त मौलिकता का परिचय दिया है। जैसे-भागवत के कृष्ण निर्लिप्त है, परन्तु हिन्दी कवियों के कृष्ण आसक्त तथा लौकिकता का विशेष भाव लिये हुए हैं।
● त्याग भावना - कृष्ण काव्य धारा के कवियों की एक विशेषता यह भी है कि उन्हें कोई सांसारिक लोभ-लालच नहीं था। वे लोक में मान तथा धन के इच्छुक नहीं थे। उनको कृष्ण का गुणगान ही विशेष प्रिय था। इन्होंने किसी भी राजा के दरबार में जाकर अपनी कविता का गान नहीं किया और न किसी राजा का अपनी कविता में वर्णन ही किया। एक बार भक्त कुम्भनदास को अकबर ने सीकरी बुलाया तो उन्होंने दुखी होकर कहा -
"भक्तन को कहा सीकरी सो काम"
● भ्रमरगीत का वर्णन - कृष्ण काव्यधारा के प्रायः सभी कवियों ने अपने भाव प्रकट करने के लिए अमर गीत गाये। इस प्रकार के गीतों का प्रसंग विरह वर्णन शीर्षक से अधिक हुआ है। विरह दग्धा गोपियाँ उद्भव को खरी-खोटी सुनाने के उद्देश्य से एक भौरे को सम्बोधित कर अपने मन के भाव प्रकट कर देती है। इस प्रकार गोपियाँ भ्रमर का आश्रय लेकर उद्भव एवं श्रीकृष्ण को भी भला-बुरा कहकर अपने मन की बातें कह डालती है। हिन्दी में यह परम्परा भ्रमर गीत के नाम से प्रसिद्ध है। कृष्ण भक्त कवियों ने इसका बड़ी तन्मयता एवं कुशलता से वर्णन किया है।
● लोकजीवन की अवहेलना - कृष्ण काव्यधारा के अन्तर्गत लोकजीवन की उपेक्षा का भाव दिखाई देता है। कृष्ण काव्य में राधा, कृष्ण, गोपी तथा उनके विविध चित्रों का चरित्रांकन किया गया है। कृष्ण काव्य के इन सभी पात्रों के व अपने आराध्य की विविध लीलाओं के निरूपण में संलग्न रहे लगभग सभी कवि जन-जीवन की ओर उन्मुख होने का अवसर प्राप्त न कर सके।
● चरित्रांकन - कृष्ण काव्यधारा के अन्तर्गत चरित्रांकन की विविधता राम काव्यधारा की तरह प्राप्त नहीं होती है। काव्य में कृष्ण व उनसे सम्बन्धित सभी पात्रों के चरित्र का चरित्रांकन किया गया है। कृष्ण काव्य के इन सभी पात्रो के चित्रण विशेषता है - प्रतीकात्मकता। राधा माधुर्य भाव की प्रतीक हैं, कृष्ण परमात्मा एवं गोपियाँ जीवात्माएँ हैं। निरन्तर प्रेम व्याकुल होकर परम आनन्द धाम कृष्ण लीन होने लिए व्याकुल रहती हैं।
● प्रकृति-चित्रण - इस काव्यधारा के कवियों अपने काव्य प्रकृति का उद्दीपन और आलंकारिक रूप विशेष चित्रण किया है। उद्दीपन रूप में इन्होने यमुना की तरंगों, वन, उपवन आदि का अपूर्व वर्णन किया है। एक उदाहरण देखिए -
देखिए कालिन्दी अति कारी।
कहियो पथिक जाय उन्ह हरि सो भई विरह जुरजारी।
सूरदास प्रभू जमुना गति सो गति भई हमारी।।
● काव्य शिल्प - कृष्ण काव्यधारा की काव्य शिल्प विषयक विशेषताएँ भी भावात्मक विशेषताओं से कम नहीं है। इस धारा की विशेषता यह कि इसके कवियों ने अपनी भावनाओं को काव्य के रूप प्रस्तुत किया सत्यता यह है कि इन कवियों ने कृष्ण के जीवन के जिस अंश को अपने काव्य का विषय बनाया वह मुक्तक के काव्य के उपयुक्त था। कृष्ण भक्त कवियों ने प्रधान रूप अपने काव्य में गीत शैली का प्रयोग किया है। इन कवियों काव्य में गीत शैली के सभी गुण उपलब्ध होते। इस धारा के कवियों ने प्रमुख रूप से अपने साहित्य पद, छन्द का प्रयोग किया, परन्तु इसके अतिरिक्त दोहा, रोला, सोरठा, सवैया, छप्पय, कुण्डलियाँ, गीतिका, हरिगीतिका आदि प्रयोग भी दृष्टिगत होता है। यह काव्य छन्द विधान दृष्टि से अपूर्व बन पड़ा है। इन कवियों अपने साहित्य अलंकारों स्वाभाविक और सजीव रूप किया है। इनके काव्य में अलंकार साधन बनकर आये हैं न कि साध्य बनकर। वैसे इन कवियों के काव्य में उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, उपमान आदि अलंकार विशेष रूप से प्रयुक्त हुए हैं।
दार्शनिकता - कृष्ण काव्य धारा के अन्तर्गत दार्शनिकता की प्रवृत्ति के भी दर्शन हो जाते हैं यह काव्यधारा मुख्य रूप से पुष्टिमार्ग तथा राधाबल्लभ सम्प्रदाय के दार्शनिक सिद्धान्तों से प्रभावित है। श्री कृष्ण ब्रह्म, वे नित्य है, वे अपनी आनन्ददायिनी शक्ति राधा के विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ हुए गोपियों को बन्धन से युक्त करके सुख की अनुभूति करते हैं। गोपियों कृष्ण के सिक्त होकर निर्वाण की आकांक्षा नहीं करती हैं।
अलौकिक प्रेम - इस काव्यधारा में प्रेम का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है। कृष्ण कवियों प्रेम रीतिकालीन कवियों तरह संसारिक या लौकिक नहीं है। उसमें कलुषिता अश्लीलता और निम्नता के स्थान पर पवित्रता, उच्चता और अलौकिकता के दर्शन होते हैं।
भगवान के सगुण रूप की की प्रधानता - कृष्ण काव्य धारा के कवियों ने भगवान के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को माना, परन्तु भक्ति के क्षेत्र उन्होंने निर्गुण परम्परा का खण्डन किया, क्योंकि वह मन, वाणी कर्म से अगम्य है-
अवगति गति कछू कहत न आवै।
रूपरेखा गुन जुबन बिन, निरालम्ब मन चकृत धावै।
सब विधि अगमि विचारहि ताते सूर सगुन लीलापद गावै।।
कृष्ण काव्यधारा में जहां भावुकता, सहृदयता और सरसता के दर्शान होते हैं, वहाँ व्यंजना शक्ति और वाग्वैदग्धता भी साकार हो उठी है। गोपियाँ विरह व्यथित सीधे-शब्दों में अपने भावों व्यक्त नहीं करती हैं, अपितु व्यंग्य भरी उक्तियों का सहारा लेती हैं। सूर की गोपियों की वाग्वैदग्धता का उदाहरण देखिए -
निर्गुण कौन देस को वासी।
मधुकर हसि समुझाय सौह दै बुझति साँच न हाँसी।।
कृष्ण काव्यधारा के कवियों के राग, संगीत की शास्त्रीय कसौटी पर खरे उतरते हैं। सूर के पदों की संगीतात्मकता की प्रशंसा ठीक ही की है -
सूर कवित्त सुनि कवि कौन नहि चालन करै।
कृष्ण काव्यधारा का प्रभाव और काव्य की दृष्टि से हिंदी साहित्य में अपूर्व स्थान है। इस काव्य धारा के कवियों मानव ह्रदय की रागात्मक वृत्तियों का आलम्बन ग्रहण करके शृंगार और वात्सल्य के जो अद्वितीय चित्र खींचे हैं, उन्हें देखकर हिन्दी जगत् आत्म विभोर हो उठता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि, "ये कृष्ण भक्त कवि हमारे साहित्य में प्रेम माधुर्य का जो सुधा-खोत बढ़ा गये हैं उनके प्रभाव से हमारे काव्य क्षेत्र में सरसता और प्रफुल्लता बनी रहेगी। दुःखवाद की छाया आकर भी टिक नहीं पायेगी। इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्ति सम्प्रदाय व उसके साहित्य का अन्यतम स्थान है।
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