उत्तर –
कृष्ण-काव्य धारा के अष्टछाप (आठ कवि)
अष्टछाप के आठों कवि पुष्ट-मार्ग से सम्बन्धित हैं। इनका और इनकी कविता का परिचय प्राप्त करने से पूर्व पुष्टि मार्ग का परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। डॉक्टर विजयेंद स्नातक ने डॉक्टर नगेन्द्र द्वारा संपादित 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में पुष्टि मार्ग का परिचय देते हुए लिखा है – पुष्टिमार्गीय भक्ति रागानुराग भक्ति है। कृष्ण-भक्ति में किसी प्रकार के साधन या कर्मकाण्ड की अपेक्षा नही होती। पुष्टिमार्गीय भक्त के प्रारब्ध और संचित कर्मो का शमन ईश्वर कृपा से स्वयं हो जाता है। पुष्टि भक्ति का लाभ यह है कि-इसके द्वारा सघः मुक्ति प्राप्त होती है। पुष्टिमार्गीय भक्ति के तीन फल हैं – पहला, रस-रूप पुरुषोत्तम के स्वरूपानंद की शक्ति प्राप्त कर उसकी लीला में प्रविष्ट होना, दूसरा, पूर्ण पुरुषोत्तम के श्री अंग अथवा आभूषणादी अंग बनना और तीसरा, प्राकृत देह इन्द्रियादी मुक्त होकर अप्राकृत शरीर में भगवान के बैकुंठ आदि लोकों में आनन्द भोग की स्थिति प्राप्त करना. इस प्रकार मोक्ष की दृष्टि से भी पुष्टिमार्ग को अधिक सुगम बताया गया है। पुष्टिमार्गीय कृष्ण भक्त हिंदी कवियों ने इसी आधार को ग्रहण कर कृष्ण के रूप-सौन्दर्य के श्रृंगार मण्डित किया और उस भगवान के अनुग्रह की प्राप्ति के लिए काव्य-रचना की कृष्ण का विविध लीलाओं का वर्णन भी इसी पुष्टि-भक्ति को ध्यान में रखकर किया गया है। पुष्टि मार्ग की स्थापना बल्लभाचार्यजी ने की थी। बल्लभाचार्यजी के समय में ही पुष्टिमार्ग भक्ति सिद्धांत के आधार पर कृष्ण-लीला का गायन करने वाले बहुत-से कृष्ण-भक्त कवि थे, पर बल्लभाचार्य की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र विठ्ठलनाथजी ने आठ कृष्ण-भक्त कवियों पर अपने आशीर्वाद की छाप लगा दी। इसी कारण इनको अष्टछाप का कवि कहा जाता है। विठ्ठलनाथ जी ने चार कवि अपने पिताजी बल्लभाचार्य जी के शिष्यों में से तथा चार कवि अपने शिष्यों में से चुनकर अष्टछाप की स्थापना की। उन आठ कवियों के नाम निम्नलिखित हैं – (क) बल्लभाचार्यजी के
शिष्य –
(1) कुम्भनदास, (2) सूरदास, (3) परमानन्ददास तथा (4) कृष्णदास.
(ख) विठ्ठलनाथजी के
शिष्य –
(1) गोविंदस्वामी, (2) नन्ददास (3) छीतस्वामी, तथा (4) चतुर्भुजदास।
अष्टछाप के कवियों की नियुक्ति – डॉक्टर सुधाकर के अनुसार, “अष्टछाप से तात्पर्य उन आठ कवियों से है जो गोसाई विठ्ठलनाथजी द्वारा श्रीनाथजी की सेवा में पद-गायन हेतु नियुक्त किये गये। बल्लभाचार्य के पुष्टि मार्ग के अंतर्गत श्रीनाथजी (गोवर्धन) के मन्दिर में कीर्तन-सेवा प्रारम्भ हुई. उसमें क्रियात्मक सेवा पर अधिक जोर होने के कारण नैमिक्तिक कर्मों की प्रधानता है। ये आठ कर्म हैं –
मंगल श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थान, भोर, संध्या, आरती तथा शयन।
इन नैमित्तिक कर्मों के सम्पादन के समय उपयुक्त गीत लिखे गये और उनके गायन की भी योजना बनी। प्रत्येक सेवा के समय विशिष्ट शिष्यों की नियुक्ति की गई। बल्लभाचार्य के चार शिष्य उनकी सेवा में नियुक्त थे, जिनके नाम इस प्रकार थे – सूरदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास और कृष्णदास। प्रभू के गोलोकवास के उपरान्त उनके सुपुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथजी ने श्रीनाथजी की व्यवस्था का सञ्चालन अपने हाथ में लिया और कीर्तन, सेवा आदि के लिए उनहोंने उपर्युक्त चार महाप्रभु के शिष्य और चार अपने शिष्य लेकर अष्टछाप की स्थापना की। स्वामी विठ्ठलनाथजी के शिष्यों के नाम इस प्रकार हैं – नन्ददास, चतुर्भुजदास, गोविंदस्वामी और छीतस्वामी।
अष्टछाप के कवियों और उनकी कविता का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार हैं –
- कुम्भनदास
- सूरदास
- परमानंददास
- कृष्णदास
- नंददास
- गोविंदस्वामी
- छीतस्वामी
- चतुर्भुजदास
1. कुम्भनदास – इनका जीवन काल सन 1468 से 1583 है। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में कुम्भनदासजी का चरित्र आता है। हरिरायजी द्वारा रचित ‘भाव-प्रकाश’ के अनुसार ये ब्रज में गोवर्धन पर्वत से कुछ दूर जमुनावती, नामक गाँव में निवास करते थे। ये अपने गाँव से पारसौली चन्द्र सरोवर होकर श्रीनाथजी के मन्दिर में कीर्तन करने जाते थे। गौर से क्षत्रिय कुल में जन्म कुम्भनदास के यहाँ खेती-बाडी होती थी इनके सात पुत्र थे, जिनमें छोटे चतुर्भुजदास के अतिरिक्त सभी पुत्र कृषि-कार्य करते थे। इनके कंठ स्वर से प्रभावित होकर महाप्रभू वल्लभाचार्य जी ने इन्हें कीर्तन गायन का कार्य सौपा था।
इनके विषय में एक घटना प्रसिद्ध है जो इनके विरक्त और लोभहीन स्वभाव पर प्रकाश डालती है। सम्राट अकबर ने इनका एक पद किसी से सुनकर इन्हें सीकरी आने का निमन्त्रण दिया। इन्होने सम्राट को निम्नलिखित पद गाकर सुनाया जो इनके अनारक्त भाव का सूचक है –
भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पन्हैयाँ टूटी बिसारी गयौ हरि नाम।।
जाको देखे से दुःख लागै ताके करन परी परनाम।
कुम्भनदास लाल गिरिधर बिनु यह सब झूठौ धाम।।
2. सूरदास – सूरदास को ‘पुष्टि मार्ग का जहाज’ कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि अष्टछाप के कवियों में ही नहीं, ये पुष्टि मार्ग के भक्तों में भी सर्वश्रेष्ट थे. नाभादास कृत ‘भक्तमाल’, गोकुलनाथ कृत, चौरासी वैष्णवन की वार्ता’, यदुनाथ रचित ‘वल्लाभादिविजय’ तथा ‘निज वार्ता’ के आधार पर इनका जन्म 1478 ई. के लगभग और मृत्यु सन 1583 ई. में मानी जाती है। इनका स्थान दिल्ली के समीप ब्रज की ओर बसा सीही गाँव में माना जाता है। ये सारस्वर ब्राम्हण परिवार में जन्में थे। ये आगरा-मथुरा मार्ग पर स्थित गौघाट पर रहकर विनय के पद बनाकर गाया करते थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी से इनकी भेट सन 1495 के लगभग हुई। महाप्रभू वल्लभाचार्य के शिष्य बनने के पश्चात ये चन्द्र सरोवर के समीप परसौली गाँव में निवास करने लगे थे। महाप्रभु बल्लभाचार्य की आज्ञा से इन्होंने श्रीमद्भागवत के आधार पर पद-रचना की है। इनके रचित तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं – सूरसागर, सूरसारावली, श्रृंगारलहरी। ‘सूरसागर’ में सवा लाख पद बताये जाते हैं, पर उनमें से अभी तक केवल 40 हजार पद ही प्राप्त हुए हैं। ‘सूरसारावली’ में ‘सूरसागर’ के महत्वपूर्ण पद संग्रहीत किये गये हैं। ‘श्रृंगारलहरी’ में सूरदास के द्रिष्टिकूट पदों का संग्रह है। अर्थगोपन शैली में राधाकृष्ण की लीलाओं के वर्णन के अतिरिक्त इसमें अलंकार निरूपण भी है।
सूरदासजी की भक्ति सख्य भाव की थी। अर्थात ये श्रीकृष्ण को अपना सखा मानते थे। इन्होंने कृष्ण की बाल-लीलाओं का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। सूरदास को वात्सल्य रस का सम्राट माना जाता है। रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “सूरदासजी वात्सल्य रस का कोना-कोना झाँक आये थे।”
3. परमानन्ददास – इनका जन्म उत्तर प्रदेश के कन्नौज नामक नगर में कान्यकुब्ज ब्राम्हण परिवार में हुआ। परमानन्ददास का जन्म-काल 1493 ई. माना जाता है। परमानंदास महाप्रभु बल्लभाचार्य से अवस्था में 15 वर्ष छोटे माने जाते हैं इन्होने न विवाह किया और न जीविका का कोई आधार अपनाया। भक्ति सम्बन्धी पदों की रचना ये बचपन से ही करते थे। प्रयाग के समीप अरैल में इन्होने बल्लभाचार्य जी से दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात श्री कृष्ण की बाल-लीला से सम्बन्धित पदों की रचना आरम्भ की।
परमानंददास के द्वारा रचित पद ‘परमानन्द सागर’, ‘परमानन्द के पद’ एवं ‘बल्लभ सम्प्रदायी कीर्तन पद-संग्रह’ संकलित हैं, ‘दीनलीला’ और ‘ध्रुवगीता’ भी इनके द्वारा रचित बताये जाते हैं। पर वे उपलब्ध नहीं हैं। इन्होने कृष्ण के मथुरा-गमन से लेकर भ्रमरगीत प्रसंग के आधार पर पद-रचना की है। इन्होने श्री कृष्ण के ईश्वर रूप का वर्णन करके उनके माधुर्य पक्ष की लीलाओं का गान किया है। कृष्ण के प्रेम की पीर से व्यथित एक गोपी का कथन कितना प्रभावपूर्ण है यह देखने योग्य है -
जब से प्रीति श्याम ने कीनी।
ता दिन ते मेरे
इन नैननि नैकहूँ नींद न लीनी।
सदा रहत चित चाक
चल्यो सो और कछु न सुहाय।
मन में रहे उपाय
मिलन के इहै, विचारत जाय।।
परमानन्द पीर
प्रेम की काहू सों ना कहिए।
जैसे बिथा मूक
बालक की अपने तन-मन रहिए।
4. कृष्णदास – ये ‘कृष्णदास अधिकारी’ के नाम से प्रसिद्ध थे। डॉक्टर दीनदयाल गुप्त के अनुसार ये कुनकी जाति के थे, जो शूद्र जातियों में गिनी जाती है। इनका जन्म गुजरात राज्य के अहमदाबाद जिले के चिलोतरा गाँव में 1496 ई. में हुआ। ये बचपन में ही गृहत्याग करके ब्रज में आ गये थे। ये मथुरा के विश्राम-घाट पर निवास करते थे। यहीं से बल्ल्भाचार्य जी ने इन्हें सन 1510 में अपना शिष्य बनाया। इनकी मृत्यु सन 1578 के आस-पास हुई।
कृष्णदास सुकवि के साथ-साथ अच्छे गायक भी थे. इनके सौ से अधिक फुटकर पर मिलते हैं। इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इन्होने श्री कृष्ण की बाल-लीला, राधा-कृष्ण-प्रेम, रूप-सौदर्य आदि पद-रचना की है। इनका निम्नलिखित पद बहुत प्रसिद्ध है-
मो मन
गिरधर छवि पर अटक्यौ।।
ललित
त्रिभंगी अगन पर बलि गयौ तहाई तटक्यो।
सजल
स्याम घन चरनलीन हवै फिरि चल अनत न भटक्यौ।
कृष्णदास
कियो प्रान निछावर यह तन जगसिर पटक्यौ।
5. नन्ददास – काव्य-सौष्ठव एवं भाषा के माधुर्य की दृष्टि से अष्टछाप के कवियों में सूरदास के बाद इन्हीं को महत्व दिया जाता है। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले में स्थित शूकर क्षेत्र अर्थात सोरों के समीप रामपुर गाँव में सन 1533 में हुआ इनके पिता जीवनराम तथा चाचा आत्माराम थे। सोरों में प्राप्त सामग्री के अनुसार तुलसीदास जी इन्हीं आत्माराम के पुत्र थे। इन्होंने सोरों में रहकर नरहरि पंडित से संस्कृत भाषा का अध्ययन किया। तुलसीदासजी के साथ जाकर इन्होंने काशी में भी अध्ययन किया। काशी से द्वारिका जाते समय ये एक स्त्री पर आसक्त होकर उसके साथ गोकुल आये। गोस्वामी विठ्ठलनाथ जी से दीक्षा लेने के बाद इनके जीवन की दिशा ही बदल गई। सूरदासजी की भक्ति-भावना से प्रभावित होकर उनके कथन के अनुसार इन्होने अपने गाँव में जाकर कमला से विवाह किया। जीवन के अंतिम दिनों में गोवर्धन में रहने लगे थे। इनकी मृत्यु सन 1583 ई. के लगभग हुई।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी नन्ददास जी ने 15 ग्रन्थों की रचना की है. इनकी सर्वोत्तम कृति ‘रास पंचाध्यायी’ है। इन्होने ‘भंवर-गीता’ की रचना करके निर्गुण-निराकार की उपासना का खंडन एवं सगुण-साकार की भक्ति का समर्थन किया है। नन्ददास जी अपनी ब्रजभाषा की मधुरता के लिए प्रसिद्ध हैं। इनके विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है –
“और कवि गढिया, नन्ददास जड़िया।”
6. गोविंदस्वामी – इनका जन्म राजस्थान ले भरतपुर जिले के आंतरी गाँव में सन 1505 में हुआ। इनकी रचनाओं से सिद्ध होता है कि ये गृहस्थ जीवन बिताते थे तथा एक पुत्री के पिता थे। वैराग्य उत्पन्न होने पर ये ब्रज के महावन नामक गाँव में आकर रहने लगे थे। इनका एक पद किसी से सुनकर गोस्वामी विठ्ठलनाथ जी ने बुलाकर सन 1535 में इन्हें दीक्षा दी। इसके पश्चात ये गोवर्धन में रहने लगे। इनकी मृत्यु सन 1585 में हुई। इनके द्वारा रचित लगभग 600 पद बताये जाते हैं, जिनमें से 252 पद पुष्टिमार्ग से सम्बन्धित हैं। इनके पदों का संकलन ‘गोविंदस्वामी के पद’ के नाम से प्रकाशित हैं. इन्होंने अधिकांश पद राधा-कृष्ण की श्रृंगार-लीला से सम्बन्धित लिखे हैं। ये अपने संगीत के लिए प्रसिद्ध रहे हैं।
7. छीतस्वामी – ये मथुरा निवासी चतुर्वेदी ब्राम्हण थे तथा लड़ाई-झगड़े के लिये बदनाम ‘छीतू चौबे’ के नाम से प्रसिद्ध थे। इनका जन्म सन 1512 में हुआ। एक दिन ये गोस्वामी विठ्ठलनाथजी को चिढ़ाने के लिए खोटा रुपया और खाली नारियल भेंट करने गये। विट्ठलनाथ जी ने अपनी शक्ति से रूपये को खरा और नारियल को भरा हुआ बना दिया। इससे प्रभावित होकर इन्होने तुरंत विठ्ठलनाथ जी से दीक्षा ग्रहण कर ली। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होकर ये गोवर्धन के समीप पूंछरी गाँव में निवास करने लगे थे। काव्य और संगीत दोनों के प्रति इनकी रूचि बचपन से थी। इन्होंने कीर्तन के निमित्त लगभग 200 पदों की रचना की थी जो ‘पदावली’ के नाम से प्रकाशित है।
8. चतुर्भुजदास – ये अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि एवं बल्लभाचार्य जी के शिष्य कुम्भनदास के सबसे छोटे पुत्र थे। इनका जन्म गोवर्धन के समीप जमुनावती नामक गाँव में हुआ। इन्होंने अपना वंश-परम्परागत कार्य खेती-बाडी छोड़कर पुष्टि मार्ग में दीक्षा ग्रहण की। काव्य-रचना ये बचपन से ही करते थे। इनका रचित कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। इनके पदों के संग्रह ‘चतुर्भुज कीर्तन संग्रह’, ‘कीर्त्नावली’ तथा ‘दान-लीला’ के नाम से प्रकाशित है। इनके पदों में श्रृंगार रस की विशेष छटा है। इन्होंने कृष्ण की बाल-लीला से लेकर गोपी-विरह तक पर पद रचना की है।
Ashtachhap kya hai? iske antargat aane vale kaviyon ewam unki kavita ka parichay dijiye.
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