1. सूफी काव्य की प्रवृतियों पर एक लेख लिखें।
उत्तर -
सूफी काव्य की प्रवृत्तियाँ
भक्तिकाल की निर्गुण काव्य धारा को दो वर्गों में विभक्त किया गया है - संत काव्य-धारा एवं सूफी` काव्य-धारा। इनमें से प्रथम काव्य-धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं - कबीर, तो द्वितीय काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं जायसी। सूफी काव्य-धारा के लिए कुछ अन्य प्रचलित नाम है - प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा, प्रेमगाथा काव्य एवं प्रेममार्गी काव्यधारा डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने इस काव्य-धारा के लिए एक नया नाम दिया है - रोमांसिक कथा काव्य परम्परा। इन सभी नामों में सर्वप्रसिद्ध नामकरण जो इस धारा के कवियों के लिए सहज स्वीकृत हुआ है वह है - सूफी काव्य-धारा। इस वर्ग के कवियों ने प्रेम-गाथाओं को अपने काव्य का विषय बनाया और प्रेम तत्व के द्वारा ईश्वर प्राप्ति को संभव बताया है।
सूफी शब्द की व्युत्पत्ति एवं सूफी मत - सूफी शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का मत है कि मुसलमानों के पवित्र तीर्थ मदीना के सामने 'सुफ्फा' चबूतरे पर बैठने वाले फकीरों को सूफी कहा जाता था। कतिपय विद्वान इसका सम्बन्ध 'सोफिया' शब्द से जोड़ते हैं, जिसका अर्थ है - ज्ञान। एक अन्य मत के अनुसार, सूफी शब्द 'सफा' से सम्बन्धित है, जिसका अर्थ है पवित्र एवं शुद्ध। जो पवित्र एवं शुद्ध उच्चारण वाले व्यक्ति हैं, वे सूफी हैं। ये सभी मत अनुमान पर आधारित है, अतः अब स्वीकार नहीं किये जाते। इन मतों से कहीं अधिक तर्कसंगत मत उन विद्वानों का है जो सूफी शब्द का सम्बन्ध 'सूफ' से जोड़ते हैं, जिसका अर्थ है- 'ऊन' सूफी लोग सफेद ऊब के बने हुए चोगे पहनते थे और उनका आचरण पवित्र एवं शुद्ध होता था। विरक्तों एवं संन्यासियों जैसा जीवन बिताने वाले सूफी प्रारम्भ में अरब और ईराक से सम्बन्धित रहे हैं।
भारत में सूफी मत का प्रचार-प्रसार - ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने भारत में इस मत का प्रचार-प्रसार करते हुए इसे लोकप्रिय बनाया। सूफी मत के समर्थक ईश्वर को निराकार एवं सर्वव्यापी मानते हैं। वे ईश्वर को इस जगत में व्याप्त मानते हैं और इसीलिए इसके सौन्दर्य पर मुख्य रहते हैं। सूफी मत में साधना के सात सोपान बताये गए है अनुताप आत्मसंयम, वैराग्य, दारिद्रय, धैर्य, विश्वास और प्रेम। इनमें प्रेम की महत्ता सर्वोपरि है। सूफी साधना के चार मुकाम (पड़ाव) हैं — शरीअत, तरीकत, हकीकत और मारिफत। सूफी मत यद्यपि इस्लाम से सम्बन्धित है तथापि उसमें इस्लामिक करता विद्यमान नहीं है। इस मत के अनुयायी उदार, विशाल हृदय, सहिष्णु एवं संवेदनशील है। सूफी मत में प्रेम को ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया गया है। यह प्रेम प्रारम्भ में लौकिक होता है जो बाद में अलौकिकता की ओर उन्मुख हो जाता है। इस प्रकार 'इश्क मजाजी' से इश्क हकीकी की यात्रा साधक करता है। सूफी कवियों ने प्रेमगाथाओं में इस प्रेमतत्व का निरूपण किया है जो ईश्वर से मिलाने वाला है और जिसका आभास प्रथमतः लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है। सूफी कवियों ने आत्मा की परिकल्पना पुरुष के रूप में तथा परमात्मा की परिकल्पना स्त्री के रूप में की है जबकि भारतीय साधना में यह क्रम परिवर्तित है।
भारत में सूफी मत का आगमन 10वीं शताब्दी में ही हो गया था, किन्तु इसके प्रचार-प्रसार का श्रेय ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती को है जिन्होंने इसे लोकप्रिय बनाया। सूफियों के पांच सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं -
- कादरी सम्प्रदाय,
- चिश्ती सम्प्रदाय,
- सुहरावर्दी सम्प्रदाय,
- नक्शबन्दी सम्प्रदाय,
- शत्तारी सम्प्रदाय।
इनमें से चिश्ती सम्प्रदाय सर्वाधिक प्रसिद्ध रहा है। इसकी सातवीं पीढ़ी में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती हुए, जिन्होंने भारत में सूफी मत का प्रचार-प्रसार किया। सुहरावर्दी सम्प्रदाय का भारत में प्रचार बहाउद्दीन जकारिया ने किया। कादरी -सम्प्रदाय का प्रवर्तन भारत में अब्दुल कादिर ने किया। इस सम्प्रदाय के सैय्यद मौहम्मद गौस इतने ख्याति प्राप्त हुए कि सिकन्दर लोदी ने अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दिया। नक्शबन्दी सम्प्रदाय का प्रचार भारत में 17वीं शती में अहमद फारुखी ने किया।
सूफियों की मान्यताएँ — सूफियों की प्रमुख मान्यताएँ इस प्रकार हैं -
(1) सूफी ईश्वर को निराकार एवं सर्वव्यापी मानते हैं तथा उसे जगत में व्याप्त मानकर उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होते हैं।
(2) मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है तथा उसमें ईश्वर की छाया है। 'नफस' (जड़ तत्व) को मारकर ही 'रूद' (आध्यात्मिक अंश) के दर्शन होते हैं।
(3) मानव में परिपूर्णता का बीज सुप्तावस्था में होता है। उसे प्रस्फुटित करना मानव का कर्त्तव्य है। मुहम्मद सर्वश्रेष्ठ एवं पूर्ण मानव हैं जिसे पीर और गुरु की सहायता से पाया जा सकता है। 'फना' मानवीय गुणों का नाश है और 'बका' ईश्वरीय गुणों की प्राप्ति है। सद्गुरु ही व्यक्ति को 'बका' की ओर ले जाता है।
(4) शैतान साधक के मार्ग में बाधक है किन्तु वह साधक की साधना को परिपक्व बनाता है।
(5) सूफी साधना के सात सोपान हैं - (i) अनुताप, (ii) आत्मसंयम, (iii) वैराग्य, (iv) दारिद्रय, (v) धैर्य, (vi) विश्वास, (vii) प्रेम
(6) सूफी साधना के चार पड़ाव हैं जिन्हें 'मुकाम' कहा जाता है। इसके नाम हैं - (i) शरीअत, (ii) तरीकत, (iii) मारिफत, (iv) हकीकत। इन मुकामों से गुजरकर ही साधक 'हाल' की दशा तक पहुँचता है।
(7) 'हाल' की चार दशाओं के नाम हैं - नासूत, मलकत, जबरूत, लाहूत। पहली दशा में वह शरीअत (कर्मकाण्ड) का अनुसरण करता है, दूसरी दशा में वह तरीकत (उपासना) में लीन हो जाता है, तीसरी दशा में मारिफत में वह आरिफ बन जाता है और चौथी दशा में हकीकत (परमतत्व) की उपलब्धि करता है।
(8) सूफियों में मजार को पूजा जाता है तथा तीर्थयात्रा की भी मान्यता होती है।
(9) सूफी-साधना में इश्क मजाजी (लौकिक प्रेम) से इश्क हकीकी (अलौकिक प्रेम) को प्राप्त किया जाता है।
(10) हाल की दशा में साधक सब कुछ भूलकर अपनी प्रिया (ईश्वर) के रूप में लीन हो जाता है। साधक यहाँ पति रूप में तथा साध्य (ईश्वर) की कल्पना पत्नी रूप में की गई है।
(11) सूफी मत इस्लाम से सम्बन्धित है किन्तु उसमें कट्टरता नहीं है। इस मत के अनुयायी उदार, विशाल हृदय, संवेदनशील एवं सहिष्णु हैं।
प्रमुख सूफी कवि एवं उनकी रचनाएँ - सूफी प्रेमाख्यानकों में सर्वप्रथम रचना है मुल्ला दाऊद कृत चंदायन जिसका रचनाकाल 1379 ई. बताया जाता है। दूसरे प्रसिद्ध सूफी कवि कुतुबन हैं जिनकी रचना का नाम है - मृगावती। इस ग्रंथ का रचनाकाल 1503 ई. है। सूफी प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा में सर्वप्रमुख हैं - जायसी तथा इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है - पद्मावत। इस ग्रन्थ की रचना 947 हिजरी सन् (1540 ई.) में की गयी थी। इसके अतिरिक्त उनके दो ग्रंथ और हैं - अखरावट एवं आखिरी कलाम। मंझन कृत 'मधुमालती' का भी सूफी प्रेमाख्यानों में महत्वपूर्ण स्थान है। इनके अतिरिक् 'उसमान' ने 'चित्रावली' शेख नबी ने 'ज्ञानदीप' एवं 'हंस जवाहिर', नूरमुहम्मद ने 'इन्द्रवती' और 'अनुराग बाँसुरी' तथा शेख निसार ने 'यूसुफ-जुलेखा' नामक प्रेमगाथाएँ लिखी है। मुसलमान सूफी कवियों के अतिरिक्त हिन्दू कवियों ने भी प्रेमगाथाएँ लिखी हैं। इनमें प्रमुख हैं - ईश्वरदास कृत 'सत्यवती कथा' तथा दुःखहरन दास कृत 'पुष्पावती'।
सूफी काव्य की प्रवृत्तियाँ - सूफी प्रेमाख्यानकों की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन निम्न शीर्षकों के अर्न्तगत किया जा सकता है -
- मुसलमान कवि एवं मसनवी शैली
- प्रेमगायाओं का नामकरण
- अलौकिक प्रेम की व्यंजना
- कथा-संगठन एवं कथानक रूढ़ियाँ
- चरित्र चित्रण
- लोकपक्ष एवं हिन्दू संस्कृति का चित्रण
- भाव एवं रस व्यंजना
- वस्तु-वर्णन
- खण्डन-मण्डन अभाव
- काव्य रूप
- भाषा एवं अलंकार योजना
(1) मुसलमान कवि एवं मसनवी शैली - सूफी काव्य-धारा के अधिकांश कवि मुसलमान हैं परन्तु उनमें धार्मिक कट्टरता का अभाव है। इन सूफी कवियों ने सूफी मत का प्रचार-प्रसार करने के लिए हिन्दुओं के घरों में प्रचलित प्रेम-कहानियां को अपने काव्य का विषय बनाया। जायसी ने पद्मावत में जिस प्रेमकथा को लिया है वह राजा रत्नसेन और राजकुमारी पद्मावती की ऐतिहासिक प्रेमगाथा है। इन्होंने चरित-काव्यों को सूफियों की मसनवी शैली में प्रस्तुत किया। इस बाद शैली के अन्तर्गत सर्वप्रथम ईश्वर वंदना (हम्द) तत्पश्चात् हजरत मुहम्मद की स्तुति (नअत), तदुपरान्त मुहम्मद साहब के चार मित्रों की प्रशंसा (मंकबत) और फिर शाहे वक्त (तत्कालीन शासक) की प्रशंसा (मद्ह) की जाती है। गुरु-महिमा का निरूपण करने के साथ-साथ अपनी आस्थाओं एवं धार्मिक विश्वासों की विवेचना भी की जाती है। हिन्दू कवियों द्वारा भी कुछ प्रेमाख्यानक लिखे गये हैं, परन्तु उनमें इस पद्धति का अनुसरण नहीं किया गया है।
(2) प्रेमगायाओं का नामकरण - सूफी कवियों ने प्रेमगाथाओं का नामकरण प्रायः नायिका के आधार पर किया है। उदाहरण के लिए; जायसी कृत पद्मावत का नामकरण इसकी नायिका पद्मावती के नाम पर है तो मंझन कृत मधुमालती तथा कुतुबन कृत मृगावती नामक रचनाओं का नामकरण भी नायिका के नाम को आधार बनाकर किया गया है। कुछ ऐसी रचनाएँ भी हैं जिनमें नायिका के नाम के साथ कथा शब्द जोड़कर नाम रखा गया है, यथा-सत्यवती कथा। इन काव्य-ग्रन्थों में नायिका को ईश्वरीय जलाल (ज्योति) और जमाल (सौन्दर्य) से मण्डित दिखाया गया है। ये ही ग्रन्थ का केन्द्रबिन्दु भी रही हैं, अतः उनके आधार पर किया गया नामकरण नितांत उपयुक्त माना जा सकता है।
(3) अलौकिक प्रेम की व्यंजना - प्रेमगाथा काव्य-परम्परा के अधिकांश कवियों ने लौकिक प्रेमगाथाओं के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना की है। राजा रत्नसेन एवं पद्मावती के जिस प्रेम का उल्लेख 'पद्मावत' में किया गया है, वह इसी प्रकार का है। यहाँ रत्नसेन आत्मा का प्रतीक है और पद्मावती परमात्मा का प्रतीक अतः रत्नसेन के हृदय में जो उत्कट लालसा पद्मावती से मिलन के लिए है उसे आत्मा की परमात्मा के प्रति मिलन की अभिलाषा ही समझा जाना चाहिए। अलौकिक प्रेम की इस व्यंजना के कारण सूफी कवियों की रचनाओं में रहस्यवाद का समावेश हो गया है पद्मावत में कथा के बीच-बीच में ऐसे अनेक संकेत दिए गए हैं, जो पद्मावती को परमात्मा का प्रतीक मानने के लिए बाध्य करते हैं। समासोक्ति और अन्योक्ति के कारण पद्मावत में दुहरे अर्थों की व्यंजना करने वाले अनेक प्रसंग देखे जा सकते हैं। कवि ने इन प्रसंगों की योजना अलौकिक प्रेम की व्यंजना करने के लिए ही की है। उदाहरण के लिए पद्मावती के नख-शिख चित्रण में उसकी दंत पंक्ति की शोभा का वर्णन करते समय संसार के सभी पदार्थों में उस ज्योति को दिखा दिया गया है-
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूफी के काव्य में पायी जाने वाली रहस्यवादी प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए इसे भावात्मक कोटि का रहस्यवाद स्वीकार किया है—“यदि कहीं सच्चे भावात्मक रहस्यवाद के दर्शन होते हैं, तो जायसी आदि सूफी कवियों में।"
(4) कथा-संगठन एवं कथानक रूढ़ियाँ - सूफी कवियों के प्रेमाख्यानक प्रबन्ध काव्य है, जिनमें कथा तत्व का समावेश है। इन प्रबन्ध काव्यों के कथा-स्रोत भारतीय पुराण, इतिहास एवं अन्य लोक प्रचलित प्रेम कहानियाँ हैं। इन कवियों ने जिन प्रेमगाथाओं का चयन किया है, वे प्रायः एक ही साँचे में ढली हुई हैं। कथावस्तु में अपेक्षित गति न होकर शिथिलता है। वस्तु-वर्णन की प्रधानता होने के कारण कथा-प्रवाह में व्याघात पड़ा है तथा कहीं-कहीं नीरसता भी आ गयी है। कथावस्तु में असाधारण एवं रोमांचक घटनाओं की अधिकता भी दिखायी पड़ती है।
इन कवियों ने अपनी रचनाओं में भारतीय एवं ईरानी काव्य रूदियों का समावेश भी किया है। इन प्रेमगाथाओं में प्रायः वे सभी काव्य रूड़ियाँ मिल जाती हैं जो परम्परा से भारतीय कथाओं में व्यवहृत होती रही है, यथा-चित्र दर्शन, स्वप्न दर्श या शुक-सारिका द्वारा नायिका का रूप देख-सुनकर उस पर आसक्त हो जाना, पशु पक्षियों की बातचीत से भावी घटना का संकेत प्राप्त करना तथा मन्दिर या उपवन में प्रेमी युगल का मिलन होना इत्यादि। इसी प्रकार कुछ कथानक रूढ़ियाँ ईरानी साहित्य से भी ली गई है, यथा-प्रेम व्यापार में परियों एवं अलौकिक शक्तियों का सहयोग, उड़ने वाली राजकुमारियाँ, राजकुमारी द्वारा प्रेमी को गिरफ्तार करवा लेना इत्यादि जायसी ने पद्मावत में ऐसी अनेक कथानक रूढ़ियों की योजना की है। मानसरोवर में पद्मावती का सखियों के साथ स्नान करना, नायिका को विरह ताप चढ़ने पर वैद्य द्वारा गाड़ी परीक्षा करना, बारहमासे के द्वारा विरह निरूपण, समुद्री तूफान से नौका का टूट जाना तथा शंकर-पार्वती द्वारा सहायता करना इसी प्रकार की कथानक रूढ़ियाँ हैं।
(5) चरित्र चित्रण - सूफी प्रेमाख्यानकों में नायक-नायिकाओं के चरित्रांकन की एक जैसी पद्धति दिखायी पड़ती है। उनमें जीवन के विविध घात-प्रतिघातों का अभाव है। नायक को प्रायः राजकुमार दिखाते हुए उसे सहृदय, साहसी, प्रेमी एवं परदुःखकातर बताया गया है जबकि नायिका अनिंद्य सुन्दरी, रूपगर्विता, बुद्धिमती राजकन्या के रूप में चित्रित की गयी है। प्रायः सभी कवियों ने भारतीय वातावरण एवं मर्यादाओं के अनुरूप नायक-नायिका का चरित्र चित्रण किया है। प्रेम-पथ की कठिनाइयों का चित्रण करते हुए नायक के चरित्र को उभारने का प्रयास प्रायः सभी सूफी प्रेमकथाओं में किया गया है। नायक को उसके रूप-सौन्दर्य के प्रति आकृष्ट होकर उसे प्राप्त करने के लिए अनेक संघर्षो से गुजरना पड़ता है। ये संघर्ष ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में आने वाले संघर्षों के द्योतक है। सूफी प्रेमाख्यानकों में कुछ मानवेत्तर पात्र भी है। यथा-पद्मावत में हीरामन तोता, जिसे एकविद्वान के रूप में प्रस्तुत किया गया है, कथा का विकास करने में ऐसे पात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वस्तुतः सूफी कवियों का ध्यान चरित्र चित्रण पर उतना केन्द्रित नहीं रहा, जितना कथा-वैचित्र्य एवं वर्णन विस्तार पर रहा है। उन्होंने ऐतिहासिक एवं काल्पनिक दोनों वर्गों के पात्रों की योजना अपनी रचनाओं में की है। ऐतिहासिक पात्रों का व्यक्तित्व भी इतिहास के अनुरूप न होकर कल्पना से अधिक निर्मित किया है। कुछ पात्र काल्पनिक होते हुए भी बेजोड़ हैं 'पद्मावत' की नागमती इसी प्रकार की एक अद्वितीय पात्र है जो भारतीय रमणी का आदर्श कही जा सकती है।
(6) लोकपक्ष एवं हिन्दू संस्कृति का चित्रण - प्रेमाख्यानक कवियों ने अपनी रचनाओं में लोक-जीवन का पर्याप्त चित्रण किया है। जनसामान्य में प्रचलित अंधविश्वास, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, लोक व्यवहार का सुन्दर दिग्दर्शन इन काव्य-ग्रन्थों में कराया गया है। साधारण जनता के व्रत, उत्सव, तीर्थ, पर्व, लोकाचार और उनके सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का विवरण भी इनमें उपलब्ध हो जाता है। सूफी कवियों ने हिन्दू घरों में प्रचलित लोकप्रिय प्रेमकथाओं को अपने काव्य का विषय बनाया था, अतः हिन्दू धर्म के स्थूल सिद्धान्तों, रहन-सहन और आचार विचार का निरूपण भी इनमें यथावसर किया गया है। सूफी कवि हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की सामान्य जानकारी रखते थे अतः प्रसंगानुसार इन्होंने अपने पौराणिक ज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद की यत्किंचित् जानकारी का उपयोग अपने काव्य-ग्रन्थों में किया है। भारतीय साहित्यिक परम्परा के अनुरूप ही इन कवियों ने अपनी रचनाओं में नख-शिख वर्णन एवं बारहमासे की योजना की है।
(7) भाव एवं रस व्यंजना – सूफी कवियों का मूल प्रतिपाय है-प्रेम अतः इनकी रचनाओं में श्रृंगार रस की प्रधानता रही है। श्रृंगार के दोनों ही पक्षों-संयोग एवं वियोग का प्रभावपूर्ण चित्रण इन प्रेमाख्यानकों में किया गया है। सौन्दर्य निरूपण के अन्तर्गत नायिका के नख-शिख, रूप-रंग हाव-भाव का चित्रण करने के साथ-साथ उसकी विद्वता, बुद्धिमता एवं कला विशारदता का उल्लेख भी किया है। संयोग शृंगार के अन्तर्गत रूप-चित्रण की प्रधानता रही है। नायिका का अद्भुत सौन्दर्य वस्तुतः परमात्मा का ही नूर है, अतः सम्पूर्ण सृष्टि में उसी का अभ्यास उन्हें होता है। संयोग शृंगार के अन्तर्गत नायक-नायिका के मिलन का चित्रण करते हुए काम-क्रीड़ा का वर्णन भी किया है जिससे कहीं-कहीं अश्लीलता आ गई है। संयोग वर्णन के अन्तर्गत इन्होंने बारहमासे की योजना की है। पद्मावत में नागमती के विरह की सुन्दर अभिव्यक्ति बारहमासे के द्वारा जायसी ने की है। यह विरह वर्णन हिन्दी काव्य की अनूठी निधि है। श्रृंगार रस के अतिरिक्त अन्य रसों की योजना भी इन काव्य-ग्रन्थों में की गई है। उदाहरण के लिए, पद्मावत में गोरा-बादल युद्ध खण्ड के अन्तर्गत वीर, रौद्र एवं वीभत्स रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है।
(8) वस्तु-वर्णन - प्रेमाख्यानक काव्य-ग्रन्थों वस्तु-वर्णन की प्रधानता दिखाई देती है। ये कवि मूल कथा के साथ-साथ वस्तु, दृश्य एवं घटना का विवरण अतिश्योक्तिपूर्ण शैली प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। जायसी के पद्मावत में वन, वाटिका, समुद्र, पर्वत, नगर, पर्व, उत्सव, भोज्य सामग्री वस्त्राभूषणों का विविध प्रकार से वर्णन करते हुए वस्तु-वर्णन की ओर अपनी रुचि दिखाई है। उन्होंने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति का परिचय देते हुए वस्तु-वर्णन के अन्तर्गत अपने ज्ञान का प्रदर्शन भी किया है। इन कवियों वस्तु-वर्णन टिप्पणी करते हुए डॉ. सरला शुक्ल ने लिखा - "कहीं-कहीं वस्तु-वर्णन इतना विस्तृत है कि कवियों के वस्तु ज्ञान प्रदर्शन के अतिरिक्त कौतूहल, आकर्षण या प्रभावशीलता में किंचित भी वृद्धि नहीं पाती।" सूफी कवियों के द्वारा अतिश्योक्तिपूर्ण शैली में किया गया यह वस्तु-वर्णन उनके काव्य का एक दुर्बल पक्ष ही माना जाएगा।
(9) खण्डन-मण्डन अभाव - सूफी कवियों ने विशेष सम्प्रदाय का खण्डन-मण्डन नहीं किया। संत कवियों में जहाँ यह प्रवृति उग्र थी, वहीं सूफियों में इसका अभाव था। इन कवियों ने सूफी मत का प्रचार करने के लिए प्रेमगाथाओं की रचना अवश्य की, किन्तु कहीं पर भी किसी अन्य धर्म या सम्प्रदाय के विरुद्ध एक भी बात नहीं कहीं। इन्होंने अपने मत प्रचार करने के लिए काव्य की सरसता का सहारा लिया जिसके कारण हिन्दुओं में भी ये कवि काफी लोकप्रिय हुए। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूफी कवियों की विशेषता स्पष्ट करते हुए लिखा है - "प्रेम-स्वरूप ईश्वर को सामने लाकर सूफी कवियों हिन्दू और मुसलमान दोनों को मनुष्य सामान्य रूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्यों को हटाकर पीछे कर दिया।" सच्चे अर्थों में सूफी कवियों ने अपनी रचनाओं के द्वारा प्रेम के सार्वभौमिक स्वरूप की स्थापना की।
(10) काव्य रूप - आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूफी प्रेमगाथाओं को फारसी की मसनवी शैली में रचित काव्य-ग्रन्थों के अन्तर्गत माना है। उनके अनुसार ईश वंदना, शाहेवक्त का उल्लेख, कथा का सर्गों में विभक्त न होना तथा सम्पूर्ण ग्रन्थ में एक ही छन्द का प्रयोग आदि ऐसी विशेषताएँ जिनके कारण इन्हें मसनवी रचनाएँ कहा जाना उपयुक्त है। जबकि कुछ अन्य विद्वानों ने इनके मत को अस्वीकार किया है। इनमें प्रमुख हैं डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त। इनके अनुसार इन्हें कथा-काव्य कहा जाना उचित है।
सूफी कवियों के ये प्रेमाख्यानक प्रबंध-काव्य के अंतर्गत आते हैं क्योंकि इनमें एक सानुबन्ध कथा की योजना की गई है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी कवियों के काव्य को स्पष्ट करते लिखा है - "सूफी प्रेमाख्यानक एक ऐसी रचना जिसमें प्रबंध काव्य के प्रायः सभी तत्व विद्यमान है, किन्तु जिसमें इसके साथ ही कथा आख्यायिका, जैन चरित काव्य एवं मसनवी की भी विशेषताओं का समन्वय हो गया है और यही इनकी सबसे बड़ी विशेषता है।"
प्रबंध काव्यों में वर्णनात्मकता के लिए दोहा-चौपाई शैली सर्वथा उपयुक्त है। सूफी कवियों ने इसी 'कड़वक' शैली को अपनी रचनाओं प्रयुक्त किया है।
(11) भाषा एवं अलंकार योजना - सूफी कवियों ने अपनी रचनाओं अवधी का प्रयोग है। जायसी ने पद्मावत में जिस अवधी का प्रयोग किया है, वह ठेठ ग्रामीण अवधी है, अतः उसमें वैसी साहित्यिकता एवं संस्कृतनिष्ठता दिखाई नहीं पड़ती जो तुलसी की भाषा में विद्यमान है। जायसी की भाषा में अवधी लोक-प्रचलित मुहावरों एवं लोकोक्तियों का समावेश भी हुआ है। जायसी की भाषा की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि मुसलमान हुए भी उनकी भाषा में अरबी-फारसी की अपेक्षा संस्कृत के तत्सम एवं तद्भव शब्दों को वरीयता दी गई है। कुछ अन्य सूफी कवियों पर क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। उदाहरण के लिए; उसमान की भाषा पर भोजपुरी का प्रभाव है तो नूर मुहम्मद पर कहीं-कहीं ब्रजभाषा का प्रभाव दिखाई पड़ता
सूफी कवियों ने अलंकारों की योजना भी अपनी रचनाओं में की है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और अतिश्योक्ति अलंकारों प्रयोग इन कवियों ने प्रायः सौन्दर्य वर्णनों में किया है। एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इन्होनें उपमानों का चयन भारतीय पृष्ठभूमि से किया है। जायसी के काव्य में पाये जाने वाले उपमान की दृष्टि किसी भी कवि की तुलना सर्वाधिक हैं। इन्होंने श्लेष, व्यतिरेक, विभावना, अनुप्रास, संदेह अलंकारों का प्रयोग भी किया है। इन प्रेमाख्यानों जहाँ दुहरे अर्थों की व्यंजना हुई है, वहाँ प्रकरण के अनुरूप समासोक्ति या अतिश्योक्ति मानी जायेगी। इस कवियों की अलंकार योजना भाव-प्रवणता अधिक है, चमत्कार प्रदर्शन कम, यही कारण है कि इनके काव्य शब्दालंकारों का प्रयोग बहुत कम हुआ है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में सूफी कवियों के प्रेमाख्यानकों का महत्वपूर्ण स्थान है। इन रचनाओं ने एक ओर तो प्रेम के ऐसे लोकोत्तर स्वरूप की प्रतिष्ठा की जो ईश्वर तक ले जाने वाला है तो दूसरी ओर सहिष्णुता, उदारता और भाईचारे का पाठ पढ़ाया। हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों द्वारा जन-साधारण के ज्ञानकोश में पर्याप्त वृद्धि हुई, क्योंकि इनके रचयिताओं ने दर्शन, कर्म, नीति, कामशास्त्र, ज्योतिष, वैद्यक आदि विषयों की जानकारी का समावेश अपनी रचनाओं में किया है। मध्यकालीन संस्कृति एवं लोकजीवन के विविध पक्षों का सहज स्वाभाविक चित्रण भी इनमें हुआ है। काव्यत्व की दृष्टि से भी इन ग्रन्थों का महत्व निर्विवाद है। सौन्दर्य, प्रेम और विरह की जो त्रिवेणी इन ग्रंथों में उपलब्ध होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। साथ ही इन ग्रंथों में साहस, त्याग और बलिदान की जो उदात्त वृत्तियाँ इनके नायकों के चरित्र के माध्यम से प्रदर्शित की गई हैं, उसे इनकी प्रमुख विशेषता मानी जा सकती है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि इन रचनाओं में प्रेम के गम्भीर, उदात्त एवं भव्य रूप का गरिमापूर्ण चित्रण हुआ है, इन्हें हिन्दी साहित्य में उच्च स्थान प्रदान किया जा सकता है।
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