कृष्ण काव्य-धारा का परिचय देते हुए इसकी प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।

1. कृष्ण काव्य-धारा का परिचय देते हुए इसकी प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।

अथवा

2. कृष्ण-काव्य-धारा के उद्भव तथा विकास पर प्रकाश डालते हुए इसकी प्रमुख विशेशताएँ बताइए।

उत्तर -

कृष्णाख्यान की प्राचीनता

    कृष्णाख्यान की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है जो भारतीय साहित्य में विविध रूपों में उपलब्ध है। वैदिक और संस्कृत साहित्य में कृष्ण के तीन रूप है- 

(1) ऋषि एवं धर्मोपदेशक, 

(2) नीतिविशारद क्षत्रिय राजा, और 

(3) बाल तथा किशोर रूप। 

    प्रथम रूप का विकास गीता में हुआ है, दूसरे रूप के दर्शन महाभारत में होते हैं और तीसरा रूप पुराणों में विकसित हुआ है। 

    पुराणों में सबसे पहले भागवत में ही गोपाल कृष्ण के जन्म से द्वारिका प्रवास तक सम्पूर्ण चरित्र विस्तृत रूप से वर्णित है। 

मध्यकालीन भाषा-कवियों ने गोपाल कृष्ण के इसी रूप को कृष्ण भक्ति के रूप में ग्रहण करके अपने काव्य का प्रमुख विषय बनाया है। वस्तुतः भागवतकार ने गोपाल कृष्ण की लोक-प्रसि कथाओं तथा अप्रचलित वार्ताओं को ललित रूप प्रदान करने में अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति का परिचय दिया है। 

    कृष्ण-कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण पाषाण-मूर्तियों तथा शिला-पट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों से मिलते हैं। इनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी से सातवी शताब्दी तक का है। अस्तु, कृष्ण के उक्त तीनों रूपों का अध्ययन अत्यन्त रोचक एवं कौतूहलवर्द्धक है। 

कृष्ण के ललित चित्रण से भारतीय धर्म, संस्कृति एवं साहित्य निःसन्देह अद्वितीय रूप से प्रभावित है। 

कृष्ण-भक्ति साहित्य का उदय एवं विकास 

महाभारत में अनेक स्थानों पर कृष्ण-पूजा का उल्लेख है। इसके बाद बौद्ध धर्म के उदय एवं विकास के कारण ईसा की 7वीं शताब्दी तक कृष्ण पूजा का अधिक प्रचलन नहीं रहा। 

    वैसे मेगस्थनीज के अनुसार मथुरा के आस-पास कृष्ण-पूजा का प्रचलन था। ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी में गुप्त सम्राटों ने भागवत् धर्म स्वीकार करके उसकी पर्याप्त उन्नति की। ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी में कृष्ण भक्ति का जोरों से प्रचार हुआ। दक्षिण के आलवार भक्तों ने कृष्ण-भक्ति पर बल दिया। कृष्ण के ललित रूपों को प्रस्तुत करने वाले भागवत पुराण की रचना भी दक्षिण में हुई।

    आठवी-नवीं शताब्दी में कुमारिल और शंकर के मायावाद सम्बन्धी प्रचार के कारण भक्ति-आन्दोलन के मार्ग में बाधा पड़ी, किन्तु बाद में रामानन्द, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, चैतन्य, हितहरिवंश आदि ने भक्ति-आन्दोलन को गति प्रदान की भक्ति-विरोधी सिद्धान्तों का खंडन करके भक्ति का प्रचार किया और अपने-अपने सम्प्रदायों की स्थापना की। उक्त विभिन्न आचार्यों ने निम्बार्क, चैतन्य, वल्लभ और राधावल्लभ सम्प्रदायों को जन्म दिया हिन्दी के भक्ति कालीन कृष्ण-काव्य को वल्लभ सम्प्रदाय ने अधिक समृद्ध किया।

    हिन्दी में कृष्ण-भक्ति-काव्य का प्रारम्भ विद्यापति से माना गया है, किन्तु विद्यापति पदावली में राधा-कृष्ण विषयक मादक शृंगारी चित्र प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें भक्ति-भावना का नितान्त अभाव और वासना की प्रधानता है। फिर -विद्यापति का शैव होना भी सिद्ध हो चुका है। वस्तुतः कृष्ण-भक्ति-काव्य में सरसता तथा प्राणों के संचार का श्रेय महाकवि सूरदास को है। सूर के द्वारा ही कृष्ण-काव्य को लोकप्रियता मिली है। सूर के अन्य साथी अष्टछाप के कवियों ने भी प्रचार में सराहनीय योगदान किया है। सूर इममें सर्वश्रेष्ठ है। सूर के अतिरिक्त अन्य अष्टछाप के कवि है-कुम्भनदास, परमानन्द दास, कृष्णदास, नन्ददास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी और चतुर्भुजदास। 

    वल्लभ सम्प्रदाय के भक्त कवियों के अतिरिक्त राधावल्लभ सम्प्रदाय, गौड़ीय सम्प्रदाय तथा निम्बार्क सम्प्रदाय के कवियों ने भी कृष्ण-भक्ति काव्य के सृजन में पर्याप्त योगदान किया है। गोस्वामी हितहरिवंश ने राधावल्लभ सम्प्रदाय में, गदाधर भट्ट ने गौड़ीय सम्प्रदाय में, स्वामी हरिदास तथा श्रीभट्ट ने निम्बार्क सम्प्रदाय में कृष्ण-भक्ति-विषयक काव्य-रचना की है। कृष्ण-भक्ति-काव्य की रचना के संदर्भ में राजस्थान की प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई का नाम भी उल्लेखनीय है इनकी भक्ति दाम्पत्य भाव की है, जिसमें इन्होंने स्वयं अपने को राधा के रूप में प्रस्तुत किया है। 

    राधावल्लभ सम्प्रदाय के हरिराम व्यास ने कृष्ण की रास-लीला के पदों की रचना की है। नरोत्तमदास ने सुदामा-चरित की रचना की है। इसी संदर्भ में अकबर के दरबारी कवियों में गंग, रहीम और रसखान के नाम भी उल्लेख्य हैं। कृष्ण-भक्त-स्त्री कवियित्रियों में प्रवीणराय, कुंवरबाई, साईँ, रसिक बिहारी, रत्नकुंवरि तथा सुंदरकुंवरि आदि ने कृष्ण-भक्ति की रचनाएं की हैं। रीतिकालीन कवियों में नागरीदास, अलबेली अलिजी, चाचा हित वृन्दावनदास, ललितकिशोरी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। घनानंद की रचनाएँ भी अत्यंत सरस बन पड़ी हैं। आधुनिक वैज्ञानिक युग में रचित कृष्ण-काव्य में मानव रूप का चित्रण है। आधुनिक कवियों में भारतेन्दु, जगन्नाथदास रत्नाकर, सत्यनारायण कविरत्न, वियोगीहरि, अयोध्यसिंह उपाध्याय तथा मैथिलीशरण गुप्त ने कृष्ण-काव्य की रचना की है। 

कृष्ण काव्य-धारा की सामान्य प्रवृत्तियाँ 

  1. कृष्ण-लीला का वर्णन
  2. विषय-वस्तु में मौलिक उद्भावना
  3. रस-चरित्र
  4. भक्ति-भावना
  5. पात्र एवं चरित्र
  6. प्रकृति-चित्रण
  7. रीति-तत्व का समावेश
  8. प्रेम की अलौकिकता
  9. सामाजिक पक्ष
  10. ऐतिहासिक पक्ष
  11. काव्य-रूप
  12. शैली
  13. छंद
  14. अलंकार-योजना
  15. वाग्विदग्धता
आईये जाने विस्तार से -

1. कृष्ण-लीला का वर्णन - कृष्ण-काव्य-धारा के कवियों का प्रमुख विषय है - कृष्णलीला का वर्णन। गोपाल-कृष्ण तथा गोपीवल्लभ-कृष्ण की लोकानुरंजिनी लीलाओं का गायन इन कवियों का परम ध्येय रहा है। इनकी लीला का प्रयोजन लीलानंद में रमाहित है। समस्त मध्यकालीन कृष्ण-भक्त कवियों ने बाल गोपाल की वातसल्यपूर्ण, सख्य भाव तथा माधुर्य भाव की लीलाओं का चित्रण किया है। निम्बार्क, वल्ल्भ आदि चार सम्प्रदायों के काव्य में माधुर्य भाव का सर्वाधिक महत्व है। इन्होंने लीलाओं के अखण्ड आनंद को स्त्री-पुरुष के रति-भाव में पर्यवसित किया है। सूर-काव्य में प्रेम-लीलाओं का सर्वाधिक विस्तार है, किन्तु सूर ने प्रणय-लीला वर्णन में अपेक्षाकृत अधिक संयम तथा विवेक से काम लिया है। 

2. विषय-वस्तु में मौलिक उद्भावना -  वैसे तो कृष्ण-काव्य का उपजीव्य भागवत पुराण है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मध्यकालीन कृष्ण-भक्ति-काव्य भागवत का अनुवाद मात्र है। कृष्ण काव्य-धारा के कवियों ने उसमें मौलिक उद्भावनाएँ भी की हैं। भागवत की गोपियाँ स्वयं कृष्ण की ओर उन्मुख होती हैं, जबकि कृष्ण-भक्त कवियों के कृष्ण स्वयं गोपियों की ओर उन्मुख होते हैं। भागवत में एक कृष्ण-प्रिया गोपी का उल्लेख है। कृष्ण-भक्त कवियों ने उसे राधा के रूप में ग्रहण किया और उसे अपनी आराध्या बनाकर ही चैन लिया है। भागवत के कृष्ण ब्रम्ह हैं, उनमें अलौकिकता है, जबकि कृष्ण-भक्त कवियों के कृष्ण में कहीं-कहीं ही अलौकिकता के दर्शन होते हैं। वे बाल रूप में बाल लीलायें और युवा रूप में प्रणय लीलाएँ करते हैं। वस्तुतः कृष्ण-काव्य-धारा के कवियों ने अपने युग तथा समाज के वातावरण के अनुसार अनेक नवीन प्रसंगों की उद्भावना की है। 

3. रस-चरित्र - कृष्ण-भक्त कवियों के काव्य का प्रमुख रस है - ब्रज रस या भक्ति रस। शास्त्रीय दृष्टि से इसे हम वातसल्य, शांत तथा श्रृंगार की संज्ञा दे सकते हैं। रस की दृष्टि से कृष्ण-भक्ति-काव्य अत्यंत सरस् है। सूर तथा मीरा के काव्य में संसार-माया, भ्रम, अविद्या, अज्ञान-अन्धकार की जहाँ विगर्हणा की है, वहाँ निर्वेद के कारण शांत रस का परिपाक हुआ है। वातसल्य तथा श्रृंगार के चित्रण में तो कृष्ण-भक्त कवि अद्वितीय रहे हैं। सूर के वातसल्य वर्णन में ऐसा प्रतीत होता है कि सूर 'वातसल्य' हैं और वातसल्य 'सूर' है। शिशु-क्रीड़ाओं तथा शिशु के भावों के प्रसंग में सूर की उद्भावनाएँ सर्वथा बेजोड़ हैं। वातसल्य ही नहीं, सख्य-भावना के क्षेत्र में भी कृष्ण-भक्त कवि अद्वितीय हैं। माधुर्य-भाव का चित्रण कृष्ण-भक्त कवियों को सर्वाधिक प्रिय रहा है। माधुर्य-भाव या श्रृंगार का कोई पक्ष सूर से अछूता नहीं रहा। श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन अत्यंत सजीव हुआ है, किन्तु संयोग की अपेक्षा वियोग-वर्णन अधिक मर्मस्पर्शी है। सूर तथा मीरा के तो संयोग पक्ष में भी वियोग का आभास होता है। इन रसों के अतिरिक्त प्रसंगवश वीर, अद्भूत तथा हास्य का भी चित्रण हुआ है, किन्तु प्रधानता श्रृंगार तथा वातसल्य की ही है। 

4. भक्ति-भावना - कृष्ण-भक्ति के मूल में भगवद-रति जो कहीं वातसल्य में, कहीं सख्य में और कहीं शांत भाव में प्रस्फुटित हुई है। कृष्ण-भक्त कवियों की भक्ति को हम प्रेम-लक्षणा या रागानुराग-भक्ति कह सकते हैं। वैधी-भक्ति में जहाँ लोक-वेद की मर्यादा है, वहाँ रागानुराग भक्ति सभी मर्यादाओं तथा विधि-निषेधों से मुक्त है। इसमें भगवान के सौंदर्यमय रूप की प्रधानता है। निम्बार्क सम्प्रदाय में स्वकीया और अन्य सम्प्रदायों में परकीया भाव पर बल दिया गया है। परकीया भाव आदर्श प्रेम की प्रतीक है। कान्ता-भाव की भक्ति के अतिरिक्त भक्ति-विधाओं में दास्य-भाव की भक्ति, सख्य-भाव की भक्ति तथा नवधा भक्ति को भी स्थान मिला है, किन्तु प्रमुखता रागानुराग-भक्ति को ही है। 

5. पात्र एवं चरित्र - चित्रण - कृष्ण-काव्य-धारा के प्रमुख पात्र हैं - श्रीकृष्ण। उन्हीं की बाल-लीलाओं तथा प्रणय-लीलाओं का चित्रण कृष्ण-काव्य का प्रमुख आधार है। उन्होंने कृष्ण के जीवन के कोमलता अंशों को अपने काव्य में ग्रहण किया है। उनसे संबद्ध पात्र हैं - नन्द-यशोदा, गोपी और उनके सखा। नन्द-यशोदा में वातसल्य भाव का उत्कर्ष है। गोप सख्य-भाव में प्रवृत्त हैं। सखाओं में उद्भव का प्रमुख स्थान है। राधा प्रणय-लीला का माध्यम है। वे माधुर्य-भाव की भक्ति की उच्चतम प्रतीक हैं। माधुर्य-भाव से प्रेम करने वाली समस्त गोपियाँ कृष्ण से अनभिज्ञ हैं। श्रीकृष्ण परमात्मा हैं तो गोपियाँ जीवात्माएँ हैं। वे स्नेह-सिक्त परम आनन्दमय कृष्ण में विलय होने के लिए निरंतर व्याकुल हैं। राधा-कृष्ण की आल्हादिनी-शक्ति है। ये सभी प्रतीकात्मक हैं। 

6. प्रकृति-चित्रण - कृष्ण-काव्य-धारा में प्रकृति के स्वतंत्र रूप का चित्रण नहीं के बराबर है। इसमें तो बाह्य प्रकृति या तो किसी विशेष भाव की पृष्ठभूमि में हुआ है या उद्दीपन भाव में या अलंकार के अप्रस्तुत विधान में हुआ है। प्रकृति-चित्रण के  संदर्भ में डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा ने लिखा है - "दृश्यमान जगत का कोई भी सौंदर्य उनकी आँखों से छूट नहीं सका। पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश, जलाशय, वन-प्रान्त, यमुना-कूल तथा कुंज-भवन की सम्पूर्ण शोभा इन कवियों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निःशेष कर दी है। इन कवियों ने मानव प्रकृति चित्रण में भी अपनी सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का परिचय दिया है। मानव-ह्रदय के अमूर्त सौंदर्य चित्रण अर्थात रस-निरूपण में भी कृष्ण-भक्ति की भावना और कल्पना जिन मधुमती वीथियों में विचरण करती हैं, उनमें से अनेक ऐसी हैं, जिनका पूर्ववर्ती कवियों को परिचय भी नहीं था। 

7. रीति-तत्व का समावेश - कृष्ण काव्य परम्परा में श्रृंगारिक चित्रण के अतिरिक्त-तत्व का भी आधान है। सूरदास की साहित्य लहरी में नायिका भेद तथा अलंकारों का निरूपण है। नन्ददास की 'मंजरी', में नायिका-भेद, हाव-भाव, हेला और रति का सविस्तार वर्णन है, 'विरह मंजरी' में विरह-काव्य के शास्त्रीय भेद हैं। 'रूप-मंजरी' में वयः सन्धि तथा प्रथम समागम की दशाएँ वर्णित हैं। अष्टछाप के अन्य कवियों में भी नायिका-भेद की झलक है। 

8. प्रेम की अलौकिकता - विद्वानों के अनुसार कृष्ण-भक्ति में वर्णित रति को श्रृंगार रस से भिन्न मधुर रस माना गया है, और प्रेम की अलौकिकता उद्घोषित की गई है, किन्तु वास्तविकता यह है कि मधुर रस श्रृंगार रस ही है। सम्भवतः राधा-कृष्ण के प्रेम-व्यपारों का उन्मुक्त चित्रण करने के लिए इसे मधुर रस की संज्ञा दी गई है और राधा-कृष्ण के प्रेम को अलौकिक कहा गया है। कृष्ण-भक्ति शाखा का प्रेम वस्तुतः जयदेव तथा विद्यापति के काव्य में वर्णित प्रेम की परम्परा में है जो सर्वथा लौकिक है। उसे खींच तानकर अलौककक कहा जाता है। 

9. सामाजिक पक्ष - यध्यपि कृष्ण-भक्ति काव्य लीलावादी काव्य है, फिर भी वह लोक-मंगल की भावना से शून्य नहीं है। विषय-वासना का पराभव करने वाले सुर ने अपनी विगर्हणा करके तात्कालिक सामाजिक पक्ष को भी उभारा है। परीक्षित-पश्चाताप तथा भागवत के अन्य प्रसंगों द्वारा उस युग की उद्देश्यहीनता एवं इन्द्रियपरायणता का भी परिचय दिया है। उद्धव-गोपी-संवाद में अलखवादी निर्गुनियों, संतों, पाण्डित्याभिमानियों तथा हठयोगियों की भर्त्सना की गई है। कलियुग के वर्णन में वर्णाश्रम धर्म के पतन, सामाजिक कुरीतियों तथा धार्मिक विडंबनाओं का चित्रण वैयक्तिक साधना में लोक-संग्रह की भावना को भुला दिया है। वस्तुतः वे कृष्ण-भक्ति के माध्यम से लोक-मंगल ही करना चाहते थे। 

10. ऐतिहासिक पक्ष - कृष्ण-भक्त कवियों में दिल्ली के प्रशासन की ऐतिहासिकता तो नहीं, किन्तु अपने ढंग की ऐतिहासिकता अवश्य है। भक्तों की स्तुतियाँ एवं प्रशस्तियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। अष्टछाप के कवियों ने वल्ल्भ कुल का परिचय दिया है। राधावल्ल्भ सम्प्रदाय के कवियों ने हितहरिवंश का परिचय दिया है। इन भक्त-कवियों ने अनेक हरि-भक्तों का गुणगान किया है। ये सब परिचय ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। 

11. काव्य-रूप - कृष्ण-काव्य-धारा का काव्य गेय एवं मुक्त रूप में रचित है। इसका कारण यह है कि कृष्ण के जिस कोमलतम अंश को इन्होने ग्रहण किया, वह मुक्तक काव्य के लिए उपर्युक्त था। कृष्ण-कथा का प्रत्येक पद अपने आप में स्वतंत्र है, फिर भी कृष्ण-कथा की क्रम-बद्धता भी किसी न किसी रूप में मिल ही जाती है। कृष्ण-जन्म, गोकुल-आगमन, नामकरण, अन्न-प्राशन आदि में कथात्मकता है। ब्रज-विलासदास ने अपने 'ब्रज-विलास' में सम्पूर्ण कृष्ण-कथा को देने का प्रयास किया है। इसी प्रकार नंददास के 'रास पंचाध्यायी' आदि में कथानक मनोवृत्ति का परिचय मिलता है, किन्तु प्रधानता गेय मुक्तक-काव्य की ही है। इस धारा में प्रबंध-काव्य का सर्वथा अभाव है। 

12. शैली - कृष्ण-काव्य-धारा में गीति-शैली प्रयुक्त हुई है। इनकी गीति-शैली में भावात्मकता, संगीतात्मकता, वैयक्तिकता, संक्षिप्तता तथा भाषा की कोमलता विद्ध्यमान है। डॉ. ब्रजेश्वर शर्मा के शब्दों में - "जहाँ एक ओर वर्णात्मक प्रसंगों में विषय के अनुकूल सरल ग्रामीण अथवा धार्मिक पदावली में वाच्यार्थ ही प्रधान है, वहाँ दूसरी ओर गम्भीर भाव-चित्रण में, विशेष रूप से विरह के प्रसंग में लाक्षणिकता की भरमार है तथा अत्यंत सरल और ठेठ शब्दों में भी ऐसी गूढ़  और मार्मिक व्यंजनाएँ की गई हैं कि कवि की अनुभूति की गंभीरता तथा उसके भाषाधिकार पर आश्चर्य  होता है।"

13. छंद - कृष्ण-काव्य के भावात्मक होने के नाते उसमें गीति-पदों का प्रयोग हुआ है। यत्र-तत्र चौपाई, चौबोला, सार तथा सरसी छंदों का भी प्रयोग मिलता है। रोला, कवित्त, सवैया, छप्पय, कुण्डलिया, गीतिका, हरिगीतिका तथा अरिल्ल आदि छंदों के प्रयोग भी मिलते हैं। 

14. अलंकार-योजना - कृष्ण-काव्य-धारा के कवियों के काव्य में अलंकार-साधन-मात्र है, अतः उनका स्वभाविक रूप से प्रयोग हुआ है। अधिकांश अलंकार उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि समतामूलक हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्वेदी ने इस प्रसंग में लिखा है - "जब अपने प्रिय विषय का वर्णन करते हैं तो मानों अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे दौड़ा करता है। उपमानों की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।"

15. वाग्विदग्धता -  कृष्ण-भक्ति-काव्यधारा में जहाँ भावात्मकता तथा सरसता है, वहाँ वाग्विदग्धता भी है। सूर के 'भ्रमरगीत' में गोपियों के माध्यम से इस वाग्विदधता का अच्छा परिचय मिलता है। गोपियों की उक्तियों में अद्भूत व्यंग्य है। उद्धव के निर्गुण ब्रम्ह पर गोपियों का व्यंग्य देखिये -

"निर्गुण कौन देस कौ बासी। 

मधुकर हँसि समुझाय सौंह दै बूझति साँच न हाँसी।"

16. भाषा - ब्रज प्रदेश में जन्में कृष्ण के लीला-गान में इन कवियों ने ब्रज-प्रदेश की भाषा ब्रजभाषा का ही अपने काव्य में  प्रयोग किया है। इनके द्वारा प्रयुक्त ब्रजभाषा इतनी लोकप्रिय हो गई है कि हिंदी-साहित्य ने उसे साहित्य-भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है। रीतिकालीन कवियों ने भी बाद में इसी सरस् भाषा को अपनी काव्य-रचना का माध्यम बनाया है। आधुनिक युग में भी भारतेन्दु हरिश्चंद्र तथा हरिऔध जी ने अपनी काव्य-रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग किया। अन्य ब्रज-भाषा-कवियों की अपेक्षा नंददास की भाषा अधिक परिमार्जित रही। 

    त्रुटियों पर ध्यान देवे और अवगत कराएं ताकि हम और अच्छे से लिख सकें। 

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