राम-काव्य-धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।

1. राम-काव्य-धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय दीजिये। 

राम-काव्य-धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय

उत्तर - राम-काव्य-धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय कुछ इस प्रकार है-

    राम काव्यधारा के अग्रिम पंक्ति में गिने जाने वाले कवि तुलसीदास को कौन नहीं जानता आइये जाने उनके संक्षिप्त जीवन परिचय। 

    गोस्वामी तुलसीदास - गोस्वामी तुलसीदास राम-काव्य-धारा के ही नहीं वरन् समूचे हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि कवियों में से एक हैं। इनका संक्षिप्त जीवन परिचय निम्न प्रकार हैं-

    जन्म संवत् - तुलसीदास के जन्म संवत् के सम्बन्ध में विद्वानों में मत-वैषम्य अर्थात एकमत नहीं है। विभिन्न मतों के अनुसार 1554, 1600, 1581 तथा 1589 जन्म-संवत् माने गये हैं। अधिकांश विद्वानों के अनुसार जन्म संवत् 1554 और मृत्यु संवत् 1680 माना गया है।

    जन्म-स्थान- जन्म-संवत की ही भाँति गोस्वामीजी का जन्म-स्थान भी विवादग्रस्त है। तारी, चित्रकूट, राजापुर तथा सोरों आदि स्थानों में से कोई एक इनका जन्म-स्थान हो सकता है। अधिकांश मत बाँदा जिले के राजापुर गाँव को इनका जन्म-स्थान मानने के पक्ष में हैं। 

    जीवन-वृत्त - गोस्वामीजी के पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था। विद्वानों ने इन्हें सर्यूपारीय ब्राम्हण माना है। 'मातु-पिता जग जाय तज्यो' के अनुसार ज्ञात होता है कि जन्म देते ही माता-पिता ने इनका परित्याग कर दिया था। 

फलतः नरहरिदास नाम के एक साधु ने इनका पालन-पोषण किया और पावन राम-चरित्र की शिक्षा दी। सौभाग्य से शेष सनातन नाम के विद्वान ने काशी में इन्हें वेद, उपनिषद अदि का अध्ययन कराया। युवा होने पर गोस्वामी जी का दीनबंधु पाठक की विदुषी कन्या रत्नावली के साथ विवाह हुआ। 

पत्नी प्रेम में आसक्त तुलसी एक दिन रत्नावली के मायके चले जाने पर, घोर अँधेरी रात में ही अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में पहुँच गये। जिसकी वजह से पत्नी ने उनकी भर्त्सना की जिससे लज्जित होकर ये पूर्ण विरक्त हो गये। 

वीतरागी तुलसी ने वर्षों तीर्थाटन किया। चित्रकूट, अयोध्या आदि अपने आराध्यदेव राम से संबद्ध स्थानों में उनका मन अधिक रमा। अंत में राम-भक्त तुलसी की वाणी से राम-भक्ति की पावनधारा प्रस्फुटित होकर लोक-जीवन तक आ पहुँची।

'रामचरितमानस' जैसे महाकाव्य की रचना कर इन्होने लोक का मंगलमय पथ प्रशस्त किया। तुलसी की अद्भूत प्रतिभा से सृजित यह ग्रंथ सर्वदा जन-समुदाय का कण्ठहार रहेगा। 

रचनाएँ - 

(1) रामचरितमानस - तुलसी का सर्वश्रेष्ठ काव्य-ग्रन्थ 'रामचरितमानस' है, जिसमें उन्होंने अपने इष्टदेव 'दाशरथि राम' के समूचे जीवन का चित्रण किया है। इस ग्रंथ की रचना संवत 1631 में हुई। यह हिंदी का सर्वाधिक प्रमुख प्रबंध काव्य है। तुलसी के काव्य-यश का यह अमर स्तम्भ है। 

(2) रामलला नहछू - इस ग्रंथ रचना-काल संवत 1643 है। यह 20 मनोहर छंदों का एक छोटा-सा ग्रंथ है। इसका विषय नायक द्वारा रामलला के नख छूने से संबद्ध है। 

(3) वैराग्य सन्दीपनी - यह 62 छंदों का एक छोटा-सा ग्रंथ है। इस ग्रंथ में वीतरागी संतों के लक्षण वर्णित हैं। 

(4) बरवै रामायण - बरवै छंद में रचित इस ग्रंथ की रचना संवत 1679 में हुई। इसमें सात काण्ड और 69 छंद हैं। 

(5) पार्वती मंगल - इस ग्रंथ में शिव-पार्वती का विवाह वर्णित है। छंद संख्या 164 और रचना-काल संवत 1643 है। 

(6) जानकी मंगल - इस ग्रंथ का रचना-काल भी संवत 1643 है। इसमें 216 छंदों में सीता की कथा वर्णित है। 

(7) रामाज्ञा - इस ग्रंथ की रचना संवत 1669 में हुई। उक्त ग्रंथ का प्रमुख विषय है - शकुन विचार। इसमें उनंचास-उनंचास दोहों के सात सर्ग हैं। 

(8) दोहावली - इस ग्रंथ का रचना-काल संवत 1640 विक्रमी है। 500 दोहों के इस ग्रंथ में रामचितमानस के आधार पर भगवद भक्ति तथा उपदेशों की ओर संकेत किया गया है। 

(9) कवित्त रामायण - कवित्त रामायण को कवितावली भी कहा गया है। इस रचना में कवित्त-सवैया आदि छंदों का प्रयोग है। छंद संख्या 345 है। काव्य-विषय रामचरित है। 

(10) गीतावली - इस ग्रंथ का रचना-काल संवत 1627  है। इसमें राग-रागनियों से संबद्ध छंदों का समावेश है। 

(11) श्रीकृष्ण-गीतावली - इस ग्रंथ का प्रणयन-काल वि. सं. 1626 है। इसमें ब्रज-भाषा में कृष्ण-कथा वर्णित है। सूर के 'भ्रमरगीत' में भी इस ग्रंथ के छंदों का समावेश है। 

(12) विनय-पत्रिका - इसमें देवी-देवताओं से संबद्ध विनय के पद हैं जो कि गेय हैं। इसकी पद-संख्या 300 है। 

(13) तुलसी सतसई - बाबा वेणी माधवदास 'तुलसी सतसई' को भी गोस्वामी तुलसीदास की रचना मानते हैं। इस ग्रंथ का रचना-काल 1624 बताया जाता है। 

    काव्य-समीक्षा-भाव-पक्ष - तुलसी की अनुभूति, अध्ययन, चिंतन एवं प्रतिभा सभी की अभिव्यक्ति उनके काव्य में है। उन्होंने रामचरित मानस के रूप में एक ऐसे महाकाव्य की रचना की है, जिसमें मानव-जीवन की समस्त दशाओं एवं व्यपारों का चित्रण है। भारतीय धर्म, दर्शन, राजनीति, समाज और वेदशास्त्र सभी दृष्टिकोणों से तुलसी का यह ग्रंथ साहित्य की अनुपम निधि है। तुलसी ने अपने काव्य में सभी रसों का सुन्दर चित्रण किया है। 

    श्रृंगार की व्यंजना में मर्यादा का जितना ध्यान तुलसी को रहा है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। प्रबंध-काव्य में कथा के संबंध में अपेक्षित प्रबंध-पटुता तुलसी में पूरी तरह विध्यमान है। मानव-मन एवं प्रवृत्तियों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चित्रण भी इन्होने मनोविज्ञानवेत्ता एवं कुशल भाव-शिल्पी की भाँति किया है।

    कला-पक्ष - भाव-शिल्पी तुलसी जिनके काव्य में कला-पक्ष भी अपने उत्कृष्ट रूप में विध्यमान है। इनके काव्य में अलंकार अनायास ही आ गए हैं। जिनमें समतामूलक अलंकारों की प्रधानता है। काव्य में प्रचलित सभी छंदों तथा काव्य-शैलियों को इन्होने अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। दोनों हरिजन-भाषाओँ ब्रज तथा अवधी का इन्होने अपने काव्य-ग्रंथों में परिष्कृत रूप से प्रयोग किया है। 'रामचरितमानस' के प्रत्येक काण्ड के प्रारम्भ में संस्कृत श्लोकों की रचना की गई है। 

    स्थान - 'रामचरितमानस' जैसे महाकाव्य की रचना करने वाले तुलसी अपने क्षेत्र में वाल्मीकि तथा वेदव्यास से कम महत्वपूर्ण नहीं है। वे अपनी विलक्षण काव्यप्रतिभा, समन्वयात्मक दृष्टिकोण, भक्ति-भावना एवं प्रबंध-पटुता के लिए प्रसिद्ध रहेंगे। हिंदी-कवियों में उनका वही स्थान है जो पर्वतों में नागराज हिमालय का तथा नदियों में भागीरथी गंगा का है। हिमालय की पुत्री गंगा जिस प्रकार अपने पवित्र जल से तन को पवित्र करती हैं, 'रामचरितमानस' की पावन कथा उसी प्रकार जन-मानस को पवित्र करती है। 

    नाभादास - नाभादास जो की तुलसीदास के समकालीन कवि थे। इन्होने अपने गुरु अग्रदास जी की प्रेरणा से 'भक्तमाल' की रचना की है। इस ग्रंथ की बात करें तो इस ग्रंथ में 316 छप्पय छंदों पर निष्पक्ष भाव से 200 भक्तों के जीवन पर प्रकाश डाला है। भक्तमाल के अतिरिक्त नाभादास ने अपयामा संबंधी दो ग्रंथों की रचना भी की है। नाभादास को कुछ लोग डोम और कुछ क्षत्रिय मानते हैं।

    प्राणचंद चौहान - प्राणचंद चौहान ने संस्कृत के रामायण से संबंधित नाटकों की पद्धति में हिंदी-पद्य पर संवत 1680 में कवित्त-सवैया में हनुमन्नाटक का प्रणयन किया है। 

    अग्रदास - राम-काव्य-धारा के कवियों में अग्रदासजी की रचनाएँ विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन्होने 'अग्र अली' के नाम से रचनाएँ की हैं, जिनमें माधुर्य भाव की प्रमुखता है। इन्होंने सीता की एक सखी की भावना से राम-भक्ति की है। अग्रदास की इस भावना से संबंधित दो रचनाएं हैं - 'रामाष्टयाम' और 'राम-ध्यान-मंजरी।'

    केशवदास - वैसे तो केशवदास की गणना रीतिकालीन कवियों में की जाती है, किन्तु राम-काव्य परम्परा में तुलसी के बाद इन्हीं का नाम आता है। इनका प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ 'रामचंद्रिका' राम-भक्ति पर ही आधारित है। इनका जन्म संवत 1612 में और मृत्यु सम्वत 1676 के लगभग मानी जाती है। इनके पिता पंडित काशीनाथ थे। केशव ओरछा नरेश इंद्रजीत के दरबारी कवि थे। 

तुलसीदास में अंतर् तारागण और चन्द्रमा का नहीं, तारागण और सूर्य का है। तुलसी की अपूर्व आभा के सामने वे साहित्यकाश में रहते हुए भी चमक न सके। इसीलिए इस धारा का अध्ययन मुख्यतः तुलसीदास में ही केंद्रित करना होगा। 

राम काव्य-धारा की विशेषताएँ एवं सामान्य प्रवित्तियाँ - 

    राम-भक्ति शाखा की अपनी स्वतंत्र प्रवित्तियाँ हैं जो तुलसीदास की काव्य रचनाओं पर आधारित हैं। राम-भक्ति का सारा साहित्यिक महत्व अकेले गोस्वामी तुलसीदास के ही कारण है। अतः तुलसी साहित्य के आधार पर राम काव्य-धारा की प्रमुख प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -

    (1) राम का स्वरूप - राम-काव्य-धारा के राम-भक्त कवियों के आराध्य देव राम विष्णु के औतार और परम ब्रम्ह हैं। राम जो हैं अनंत शील-शक्ति-सौंदर्य से मण्डित हैं, स्वभाव से विनम्र हैं, दुष्ट-दलन की उनमें अपरिमित शक्ति है और उनका सौंदर्य तो त्रैलोक्य को विमुग्ध करने वाला है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम, भक्त-भयहारी एवं लोक-रक्षक हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम होने के कारण ही बहुत समय तक राम-काव्य में उच्छृंखल प्रेम की प्रतिष्ठा नहीं हो पाई। बाद में कृष्ण-भक्ति के अनुकरण पर राम-काव्य में भी रसिकता का सन्निवेश हुआ, जिसके परिणामस्वरूप राम-भक्ति परम्परा में सखी-सम्प्रदाय का उदय हुआ। 

    (2) समन्वयात्मकता -राम-काव्य में विराट् समन्वय की भावना है। इसमें न केवल राम की उपासना है, वरन् शिव, गणेश आदि देवताओं की भी स्तुति की गई है। राम द्वारा सेतु बाँधने पर शिव की पूजा कराके वैष्णवों तथा शैवों का भेदभाव दूर कराया गया है। 'रामचरितमानस' के प्रारम्भ में पहले शिव-पार्वती तथा बाद में राम-सीता का विवाह सम्पन्न कराया गया है। राम की शक्ति को श्रेष्ठ मानते हुए भी राम-काव्यधारा की भक्ति-भावना अत्यन्त उदार है। भक्ति की प्रधानता स्वीकार करते हुए भी राम-भक्त कवियों ने ज्ञान, कर्म और भक्ति में समन्वय की प्रतिष्ठा की है। इसके अतिरिक्त उन्होंने सगुण तथा निर्गुण की एकरूपता स्थापित की है। राम-भक्तों को ईश्वर के सगुण तथा निर्गुण दोनों रूप ग्राह्य हैं, किन्तु सगुण रूप को भक्ति-सुलभ माना है। इस धारा के कवियों ने ब्रज तथा अवधी दोनों जन-भाषाओं का प्रयोग किया है और काव्य की सभी प्रचलित शैलियों में काव्य-रचना की है। इस प्रकार राम-काव्य-धारा में निस्सन्देह समन्वयात्मक वैशिष्ट्य के दर्शन होते हैं।

    (3) लोक-संग्रह की भावना - राम-काव्य-धारा के भक्त कवियों ने काव्य-रचना के द्वारा लोक-संग्रह का पुनीत कार्य किया है। लोक-मंगल की दृष्टि से राम-काव्य अत्यन्त उपादेय है। इसमें जीवन की अनेक उच्च भूमियाँ प्रस्तुत की गई हैं तथा राम-सीता को लोक-सेवी एवं आदर्श गृहस्थ के रूप में प्रस्तुत किया गया है। राम-काव्य का आदर्श पक्ष अत्यन्त उच्च है। राम आदर्श पुत्र, पति एवं राजा है। सीता आदर्श पत्नी है तथा कौशल्या आदर्श माता है। लक्ष्मण तथा भरत आदर्श भाई है। हनुमान आदर्श सेवक है और सुग्रीव आदर्श सखा। इसमें सामाजिक आधार पर विशेष बल दिया गया है, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, राजा प्रजा, स्वामी सेवक सबको विशुद्ध आधार की कसौटी पर कसा गया है और सम्बन्धों का आदर्श रूप प्रस्तुत किया गया है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। आदर्श-स्थापना उनके जीवन का अथ और इति है।

    (4) भक्ति का स्वरूप - राम-काव्यधारा में राम के चरित की उच्चतम भूमि के कारण सेवक-सेव्य भाव की भक्ति का प्राधान्य रहा है। गोस्वामी तुलसीदास का मत है की - 

"सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगरि।"

    राम-भक्ति में नवधा भक्ति के सभी अंगों का समावेश किया गया है। इनके लिए जीव और ब्रह्म दोनों ही सत्य हैं। जीव और ब्रह्म में अंश-अंशी भाव है।

    (5) रस - राम-काव्य में जीवन की विविध दशाओं के व्यापक चित्रण के कारण समविभक्तांगता आ गई है और सभी रसों का प्रयोग हुआ है। दास्य-भाव की भक्ति के कारण निर्वेदजन्य शान्त रस की प्रधानता है। राम के मर्यादा पुरुषोत्तम होने के कारण काव्य में सीता और राम के प्रसंग को लेकर श्रृंगार के संयोग तथा वियोग पक्ष का सम्यक परिपाक नहीं हो पाया। बाद में कृष्ण-काव्य के आधार पर सखी सम्प्रदाय के माध्यम से इसमें माधुर्य भावना का उदय हुआ। अन्तरवर्ती रसिक सम्प्रदाय में शृंगार रस का यथेष्ठ परिपाक हुआ है। तुलसी-साहित्य में, विशेषकर 'रामचरितमानस' में सभी रसो का परिपाक हुआ है। उदाहरणार्थ नारद मोह में हास्य रस, यु में वीर तथा रौद्र रस, लक्ष्मण-मूर्च्छा में करूण, राम के ब्रह्मत्व प्रतिपादन में अद्भुत रस का परिपाक हुआ है। सारा काव्य वस्तुतः राम-रस में सराबोर है।

    (6) पात्र तथा चरित्र चित्रण - राम-काव्य-धारा के पात्र आचार और लोक मर्यादा की व्याख्या करते हैं। इनका चरित्र आदर्श एवं अनुकरणीय है। इनके जीवन में सभी वृत्तियों का समावेश होने के कारण सर्वांगीणता है। प्रस्तुत पात्र रजोगुणी, तमोगुणी तथा सतोगुणी कोटियों में विभक्त हैं। राम का ईश्वरत्व अक्षुण्ण है। वे ब्रह्म होकर भी मानव रूप में लीला कर रहे है और लोक-जीवन में आदर्श जीवन का पथ प्रशस्त कर रहे हैं। सर्वत्र सत्य की असत्य पर समत्व की रामणत्व पर विजय दिखाई गई है। सर्वत्र राम का ईश्वर होना ध्वनित है।

    (7)राम-भक्ति में मधुर रस का सन्निवेश - यद्यपि तुलसी से पूर्व तथा उनके समय में ही राम-काव्य में मधुर रस का संचार हो चुका था, किन्तु तुलसी के मर्यादावाद के कारण वह कुछ समय तक दबा रहा। सोलहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-भक्ति की लीलाओं के अनुकरण पर राम को ही रसिक रूप मिला और राम तथा जानकी के प्रणय-विलास वन तथा जल-विहारों का उन्मुक्त चित्रण हुआ। मर्यादावाद की प्रतिक्रिया में राम-भक्ति में रसिकता का सन्जिवेश हुआ। तुलसी के परवर्ती साहित्य में मर्यादावाद की पूरी-पूरी अवहेलना की गई है।

    (8) काव्य-शैली - राम-काव्य-धारा के कवियों का प्रायः समस्त प्रचलित काव्य-शैलियों पर अधिकार था 'रामचरितमानस' और अष्टयाम में वीरगाथाओं की प्रबन्ध-पद्धति को स्थान मिला है। 'राम-गीतावली' और 'राम-ध्यान मंजरी' में विद्यापति की गीति-पद्धति को प्रश्रय प्राप्त हुआ है। रामायण, महानाटक और हनुमन्नाटक' में संस्कृत के राम-भक्त कवियों की संवाद-पद्धति अपनाई गई है। रामचन्द्रिका में रीति पद्धति ग्रहण की गई है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार तुलसी के काव्य में उक्त सभी शैलियाँ उपलब्ध हैं। दोहा-चौपाइयों में चरित-काव्य, कवित- सवैया और दोहों में आध्यात्म और धर्म, नीति के उपदेश प्रस्तुत किये गये हैं। बरवै छन्द, मोहर छन्द, विजय के पद, लीला के पद, छप्पय तोमर, नाराच आदि पद्धतियों को भी ग्रहण किया गया है।

    (9) छन्द - राम-काव्य में छंद-भेद को भी ग्रहण किया गया है। दोहा, चौपाई छन्दों को प्रमुखता दी गई है। इनके अतिरिक्त छप्पय, कुण्डलियाँ, सोरठा, सवैया, घनाक्षरी तोमर, त्रिभंगी आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। तुलसी के काव्य के सभी छन्दों का प्रयोग है। केशव ने अनेक छन्दों में अपनी कला का प्रदर्शन किया है। 

    (10) अलंकार - राम काव्य-धारा के विद्वान भक्त-कवियों ने अलंकार प्रयोग में बड़ी विदग्धता प्रदर्शित की है। केशव के अतिरिक्त किसी कवि ने शब्दालंकारों पर बल नहीं दिया। इनके प्रयुक्त अलंकार प्रायः समतामूलक है। तुलसी के उपमा तथा उत्प्रेक्षा का विशेष प्रयोग किया है। वैसे उनके काव्य में सभी अलंकार उपलब्ध हैं।

    (11) भाषा - राम काव्य में प्रमुखता तो अवधी भाषा की ही है, किन्तु ब्रजभाषा का भी पुष्कल प्रयोग हुआ है। तुलसी ने अपने काव्य में ब्रज तथा अवधी दोनों भाषाओं का सफल प्रयोग किया है। वैसे राम-काव्य में भोजपुरी, दुब्देलखणी, राजस्थानी, संस्कृत और फारसी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। तुलसी ने सर्वथा परिष्कृत भाषा का प्रयोग किया है। डॉ. हरदेव बाहरी के शब्दों में-"उसमें न तो वीरगाथाओं की कर्कशता है, न प्रेम-काव्य की ग्रामीणता, असंगति तथा विश्रृंखलता। तुलसी का शब्द चयन पांडित्यपूर्ण है। उनमें वह शब्द-चमत्कार तो नहीं है जो केशव अथवा सूर में है, परन्तु उनकी भाषा की भावात्मकता, रसानुकूलता अथवा उपयुक्तता में किसी को सन्देह नहीं हो सकता। तुलसी की भाषा अलंकृत न होकर स्वाभाविक, सरल और भाव-व्यंजक है। भाषा की दृष्टि से राम-काव्य साहित्य सर्वथा महान् है। इसमें व्रज तथा अवधी दोनों जन-भाषाओं को उचित स्थान मिला है।

    अगर आपके कोई सुझाव हो तो कमेंट में जरूर लिखें। 

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