कृष्ण-काव्यधारा के श्रेष्ठतम कवि सूर
1. सूर-काव्य की विशेषताओं का उद्घाटन करते हुए सिद्ध कीजिए कि सूर कृष्ण-भक्ति परम्परा के श्रेष्ठतम कवि है।
उत्तर - सूर-काव्य में कवि की भावमयी भक्ति की प्रेरणा ही कार्य कर रही है। उन्होंने कृष्ण-चरित्र के केवल उन भावात्मक स्थलों को ही चुना है, जिनमें उनकी अन्तरात्मा की अनुभूति गहरी उतर सकी है। अतएव उनके काव्य में भावमय स्थल ही रसात्मक हैं, इतिवृत्तात्मक स्थल नीरस हैं। वस्तुतः भक्त कवि सूर की मानसिक वृत्ति जिस लीला में रमी है, उसी का इन्होंने तन्मयता के साथ चित्रण किया है। सूर ने बाह्य विषयात्मक शैली का अनुकरण न करके आत्मविषयात्मक शैली का प्रयोग किया है। यही कारण है कि उनके काव्य में हृदय को स्पर्श करने वाली द्रावक शक्ति विद्यमान है।
भाव-चित्रण - सूर-काव्य में भाव-चित्रों के आध्यात्मिक और लौकिक दोनों रूप अंकित हुए हैं। वे प्रचुर तथा विशद हैं और उनके द्वारा कवि को भाव के प्रभावपूर्ण चित्र खींचने में प्रशंसनीय सफलता भी मिली है।
विनय - सूर के प्रायः सभी विनय के पदों में आत्मदीनता का भाव लिपटा हुआ है। कुछ पद उनके ऐसे हैं, जहाँ उनकी विजय मुँह-लगे सेवक की विनय के समान प्रकट हुई है। इन पदों में उन्होंने विनोद और हठपूर्वक समर्थ स्वामी के अधिकारी सेवक के समान विनय की है। इन पदों में दास की माँग दृढ़ता और अधिकार के साथ सामने रखी है।
बाल-भाव चित्रण - वात्सल्य रस के पदों की विशेषता यह है कि ये हमारे कल्पना जगत् में भी थोड़ी देर के लिए उसी वात्सल्य भाव का वातावरण और चलचित्र-सा उपस्थित कर देते हैं और हम इन्हीं पदों को सरस मन से गाने लगते हैं।
गोचारण प्रसंग - सूर के काव्य की पृष्ठभूमि श्रीमद्भागवत से आये हुए कृष्णचरित में गोपालन, गोचारण आदि व्यापारों का समावेश पहले से ही है, जितना कि इन प्रसंगों से सम्बन्धित दृश्यों के सजीव, भावपूर्ण तथा विनोदकारी चित्रण में है।
रति-प्रेमभाव-चित्रण - कवि अपनी सूक्ष्म निरीक्षण-शक्ति, कल्पना और अनुभूति द्वारा मानव-आत्मा को समेटकर उसे भाव-चित्रों में रख दिया करता है। उधर पाठक या श्रोता बिना किसी क्लिष्ट कल्पना के कवि की आत्मा में से एकाकार होता हुआ उन चित्रों की विश्वात्मा में निमग्न हो जाया करता है। ऐसी स्थिति में वह ब्रह्मानन्द सहोदर काव्य-रस का आस्वादन करता है। सूर-काव्य में सार्वजनिक परन्तु सीमित भाव को उपस्थित करने वाले चित्र अपने सौन्दर्य के प्रभाव में हिन्दी-जगत् में अद्वितीय हैं।
पूर्व-राग अवस्था - पूर्व राग अवस्था की वियोग-वेदना और मिलन की उत्कृष्ट कामना के भावों की व्यंजना सूर के पदों में बहुत प्रभावशालिनी है। इस स्थिति में प्रेमी की विभिन्न दशाओं, जैसे-मिलन-उत्कंठा, हृदय की लालसाभरी तड़पन, प्रिय का ध्यान और उसकी याद, प्रेम की कसक-भरी उमंग आदि का 'सूर-काव्य' में चित्रण हुआ है।
संयोग-शृंगार - संयोग-शृंगार की उद्दीपक ऋतुओं में हमारे साहित्य में दो-वर्षा और वसंत का विशेष महत्त्व है और प्रेम-भाव-चित्रण में इन्हीं दोनों का प्रचुर वर्णन हमारे देश के कवियों ने किया है। दोनों ऋतुओं में प्रकृति की शोभा लुभावनी होती है, प्राणी का हृदय उमंग से भर जाता है और मानव-वर्ग तो इन्हीं दिनों अनेक उत्सव मनाने का आयोजन करता है। सूरदास ने भी वर्षा और वसंत ऋतुओं में राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंगों का बड़े उत्साह से वर्णन किया है।
वियोग-प्रेम - भक्त कवियों का ध्येय काव्यशास्त्र में गिनायी हुई विरह की दशा और परिस्थिति के अनुसार विरह भाव चित्रण करके तत्सम्बन्धी विविध अवस्थाओं के उदाहरण उपस्थित करना नहीं रहा है, जैसा कि बहुधा हिन्दी के रीतिकालीन कवियों ने किया है। कृष्ण भक्तों की भाव-व्यंजना कृत्रिम नहीं है। वस्तुतः यह उनकी स्वानुभूति है।
वियोग में प्राकृतिक व्यापार - प्रकृति के व्यापारों में मानवीय भावों का आरोप तथा उसको सजीव सृष्टि का एक रूप मानकर सम्बोधन के साथ उससे वार्तालाप करना बुद्धिवाद की दृष्टि से पागलपन कहा जायेगा, परन्तु भाव-जगत् में जहाँ जड़-चेतन का कोई भेद नहीं है और जहाँ सम्पूर्ण सृष्टि एक जीवन-सूत्र से ही बँधी दिखायी देती है, इस प्रकार के व्यापार और वर्णन प्रकृति मानव-जीवन के घनिष्ठ रागात्मक सम्बन्ध की याद दिलाते हैं। ये हमको अपने व्यक्तिगत जीवन के संकुचित दायरे से निकालकर प्रकृति के व्यापक प्रांगण में अनेक रूपों के साथ आत्म-विस्मृत करके एकरूपता तथा एक जीवन की फिर से अनुभूति कराते हैं। उस समय हम मानो प्रकृति के नाना रूपों के साथ सजातीयता में स्वच्छन्द प्रेमालिंगन करते प्रतीत होते हैं।
भ्रमरगीत - सूरदास के 'भ्रमरगीत' में केवल दार्शनिकता और आध्यात्मिक मार्ग विशेष की साधना ही नहीं है, उसमें भाव-सबलता और काव्य-सरसता भी है। सूर-काव्य में भी श्रीकृष्ण के रूप वर्णन और प्रकृति-वर्णन के प्रसंग मिलते हैं। सूर ने वर्षा के उत्सवों का भी वर्णन किया है। उनमें श्रीकृष्ण चरित्र के कथानक का समावेश है, स्वतन्त्र रूप से त्योहारों के उल्लास का अंकन नहीं है। सूर ने कृष्ण के बाल-चरित्र के वर्णन के साथ बालकों के खेल, जैसे-आँख-मिचौनी, भँवरा, चकडोरी, आदि का भी वर्णन किया है।
रूप-वर्णन - बाल-रूप-चित्रण के पश्चात्, कृष्ण के किशोर-रूप में यशोदा जैसी मातृ-हृदया ब्रजांगनायें वात्सल्य भाव-भरी सुकुमारता पाती हैं और युवती गोपियाँ माधुर्य भाव की मोहिनी तथा रूप-रस के उपासक भक्त उस रूप की कल्पना में विश्व-सौन्दर्य तथा विश्व कोमलता का विराट स्रोत देखते हैं।
प्रकृति-वर्णन - प्रकृति के विभिन्न रूपों और पदार्थों का प्रयोग वर्णित भाव की प्रभावात्मकता को बढ़ाने तथा वर्णित वस्तु के स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए उपमान रूप में भी होता है। उन्होंने अनेक उपमानों का प्रयोग परम्परा के कोष में से निकालकर ही किया है, जैसे-सौन्दर्य-वर्णन में उन्होंने चरणों को कमल और मुख को चन्द्र कहा है। फलतः सूरदास भी उक्त मार्ग के ही अनुगामी हैं।
उपर्युक्त विवेचना में अनुभूति पक्ष का वर्णन किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि सूरदास की भावानुभूति में | गाम्भीर्य है। अब कलापक्ष अर्थात् अभिव्यक्ति पक्ष का अवलोकन करना उचित है। उसमें प्रौदता और सौन्दर्य के दर्शन होते हैं।
अभिव्यक्ति (कलापक्ष) में प्रौढ़ता और सौन्दर्य - सूरदास के काव्य में प्रौढ़ता और सौन्दर्य के लिए कलापक्ष के समस्त बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है, तभी कहा जा सकता है कि सूरदास के काव्य में भावपक्ष और कलापक्ष दोनों का उत्कृष्ट सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है।
अलंकार - अप्रस्तुत योजना और अलंकार-विधान एक ही वस्तुएँ हैं। प्रो. जगन्नाथ तिवारी ने लिखा है कि "सूरदासजी ने अपनी कल्पना के आधार पर जो अप्रस्तुत विधान किया है, वह प्रस्तुत के वर्णन मेल में है और भावाभिव्यंजना की दृष्टि से उत्कृष्ट है। सूर के उपमानों का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और वे सभी उपमान अर्थ को अधिक स्पष्ट रूप में तथा भाव को और अधिक तीव्र रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।"
शब्दों के उच्चारण में सरसता तथा प्रवाह के गुणों को देने वाला अनुप्रास अलंकार सूर-काव्य में प्रायः सर्वत्र मिलता है।
(क) अनुप्रास -
"मनहुँ ज्ञान पन प्रकास, बीते सब भव बिलास।
आस बास तिमिर तोष तरनि तेज जारे।।"
(ख) उत्प्रेक्षा -
कुलह लसत सिर स्याम सुभग अति, बहु विधि सुरंग बनाई।
मानहुँ नव घन ऊपर राजत, मघवा धनुष चढ़ाई ||
अति सुदेस मृदु चिकुर हरत मन, मोहन-सुख बगराई।
मानहुँ प्रगट कंज पर मंजुल, अलि अबली घिरि आई।।
(ग) रूपक -
(अ) चकई री चलि चरन सरोवर, जहाँ न प्रेम वियोग।
जहँ भ्रम-निसा होति नहि कबहूँ, सोई सायर सुख जोग।।
(आ) देखो भाई सुन्दरता कौ सागर।
बुधि विवेक बल पार न पावत, मगन होत मन नागर।।
तनु अति स्याम अगाध अंबु-निधि, कटि-पटपीत तरंग।
चितवत चलत अधिक रुचि उपजति भँवर परत अंग-अंग।।
(घ) रूपकातिशयोक्ति-
अद्भुत एक अनूपम बाग।
जुगल कमल पर गजबर क्रीडत ता पर सिंह करत अनुराग।।
(ङ) प्रतीप -
उपमा हरि-तन देखि लजाने।
कोउ जल में कोऊ वन में रहे दुरि कोऊ गगन समाने ।।
मुख निरखत ससि गयो अँबर को तड़ित दसन छबि-हेरो।
मीन कमल कर चरन नयन उर जल में कियो बसेरो।।
भुजा देखि अहिराज लजाने बिवरन बैठे धाइ।
कटि निरखन कैं हरि डर मान्यो वन-वन रहे दुराइ।।
इसी प्रकार निदर्शना, तुल्योगिता, अर्थान्तरन्यास, स्वभावोक्ति, विरोधाभास, दृष्टान्त आदि के उदाहरण भी उनके काव्य में प्रचुरता से मिलते हैं। उनके भ्रमर-गीत सम्बन्धी पदों में अन्योक्तियों के उदाहरण भरे पड़े हैं।
प्रतीक योजना प्रो. जगन्नाथ तिवारी ने लिखा है कि, “सूर की कविता में अर्थ-व्यंजक स्वाभाविक प्रतीकों का विधान भी मिलता है। सूर के ये प्रतीक आधुनिक कवियों के समान उलझन में डालने वाले नहीं हैं, प्रस्तुत अर्थ को और अधिक मनोरम रूप में प्रस्तुत करने वाले हैं।" मायाबद्ध जीवात्मा के लिए चकई और शुक का प्रतीक और मुक्तात्मा के लिए हंस का प्रयोग मार्मिक है।
भाषा-शैली - 'सूरसागर' ब्रजभाषा की प्रथम रचना होने के कारण उसमें काव्य-भाषा के सभी गुण विद्यमान हैं।
भावात्मकता - भाषा में भावात्मकता लाने के लिए कवि ने मानव जीवन से इतर सम्पूर्ण सृष्टि के पदार्थों में मानवीय भावों का आरोप भी किया है और उनको मनुष्यवत् सम्बोधन करके भाव के उत्कर्ष को बढ़ाया है।
चित्रमयता प्रो. जगन्नाथ तिवारी ने लिखा है कि, “सूर की कल्पना की अन्य, विशेषता यह है कि इसकी सहायता से सूर को संश्लिष्ट योजना द्वारा बिम्ब ग्रहण कराने में अधिक सफलता मिली है। बाल-लीला के वर्णन में और सौन्दर्य-चित्रण में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनमें चित्रमयता आ गई है जो पाठक की मानसिक दृष्टि में पूरे दृश्य का चित्र-सा उपस्थित कर देती है।
उदाहरणार्थ -
(1) किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत।
मनिमय कनक नन्द के आंगन मुख प्रतिबिम्ब पकरिवै धावत।।
(2) सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुवन चलत रेनु तन-मण्डित मुख दधि लेप किए।
(3) बनी मोतिन की माल मनोहर ।
सोभित श्याम-सुभग-उर-ऊपर मनु गिरि तें सुरसरी धँसी धर।।
आलंकारिकता - कहीं-कहीं शब्दों में अर्थ का संकेत और लाक्षणिक ध्वनि का चमत्कार भी सूर-काव्य में मिलता है, परन्तु उन स्थलों पर भी क्लिष्ट कल्पना नहीं है और न व्यंग-ध्वनि लाने के लिए श्लेष आदि अलंकारों का सप्रयास सहयोग लिया गया है। स्वाभाविक अलंकार और सरल सुपरिचित शब्दों के सतर्क प्रयोग ने ही कवि के भाव को ध्वनित कर दिया है।
कल्पना – सूर की कल्पना शक्ति अत्यन्त प्रबल है। इसका सूर ने उचित प्रयोग किया है। इन नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के द्वारा ही सूर ने नए-नए प्रयोगों की मनोरम उद्भावनायें भी की है। बाल-लीला और प्रेम-लीला के अन्तर्गत ऐसे अनेक प्रसंग है।
माधुर्य - ब्रजभाषा पर सूरदास का पूर्ण अधिकार है। भाषा उनकी वशवर्तिनी है। बोल-चाल में व्यावहारिक माधुर्यपूर्ण ब्रज-भाषा के प्रयोग में सूर सिद्धहस्त हैं। यह भाषा सूर के मधुर-भाव, भक्ति-वात्सल्य और दाम्पत्य रति की व्यंजना में पूर्ण समर्थ है।
वक्रता और वाग्विदग्धता - सूर कथन की वक्रता और वाग्विदग्धता के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। किसी बात को कहने के न जाने कितने सीधे-टेढ़े ढंग उनको ज्ञात थे। इस विदग्धता या वक्रता या प्रयोग सूर ने कही आलंकारिक कौतुहल उत्पन्न करने के लिए किया है और कहीं भाव की गम्भीर व्यंजना के लिए। उदाहरणार्थ -
(1) निर्गुन कौन देस को बासी।
मधुकर! हँसि समुझाय, सौह दे बूझति साँच, न हाँसी।
(2) ऊधौ! दीनी प्रीती-दिनाई।
बातनि सुहृद, करम कपटी के, चले चोर की हाई।।
सजीवता - ब्रजभाषा में प्रायः 'ण' के बदले 'न' का प्रयोग किया जाता है। यही नियम कंकण, मणि, निर्गुण, चरण, रेणु आदि के स्थान में कंकन, मनि, निर्गुन, चरन, रेनु के प्रयोग में मिलता है। विभक्तियों के प्रयोग में ब्रजभाषा में कर्म कारक में 'कों' या 'कूँ' प्रयुक्त होते हैं और साथ-साथ 'को' के स्थान पर संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्द में ही 'ए' या 'एँ' जोड़कर अथवा 'हि' लगाकर कर्मकारक का रूप बन जाता है। सूर-काव्य में भी ऐसे ही प्रयोग पाये जाते हैं। कवि ने द्वितीया के कारक चिन्ह 'कों' का भी प्रयोग किया है तथा शब्द में 'ए' या 'हि' जोड़कर उन्हें द्वितीया रूप भी बनाया है। विदेशी शब्दों का प्रयोग-ब्रजभाषा के स्वरूप की रक्षा करते हुए सूरदास ने हिन्दी की अन्य प्रान्तीय बोलियों और अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी किया है। सूर द्वारा प्रयुक्त अरबी-फारसी के कुछ शब्द निम्न प्रकार हैं -
तऊ न आयौ बाज।
तुम हौ सदा गरीबनिवाज।
* * * * * * * * * * * * *
प्रभू जू में ऐसौ अमल कमायौ।
साविक जमा हुती जो जोरी मिनजातिक तल लायौ।
* * * * * * * * * * * * * * * * *
इन पापिन तें क्योंहुँ न उबरों दामन गीर तिहारे।
* * * * * * * * * * * * * * * * *
ता दिन सूर सहर सब चकृत।
* * * * * * * * * * * * * * * * *
* * * * * * * * * * * * * * * * *
आजु कहा ब्रज सोर मचायौ
* * * * * * * * * * * * * * * * *
सूरदास जहँ स्याम सबनि को देखि यहै सिरताज।
दक्षिण के मन्दिरों में देवदासी प्रथा पनपी तथा उत्तर भारत में भक्ति के क्षेत्र में प्रेम और शृंगार की प्रबलता हुई। सूफियों के इश्क ने भक्ति भाव समर्थित प्रेम और शृंगार का रूप बहुत कुछ विकृत कर दिया। इस युग की सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत नारी-जीवन की सार्थकता पुरुष को आकर्षित करके उसकी विलास-क्रीड़ा का साधन बनने एवं उसके द्वारा भोग किए जाने में मानी जाने लगी।
इस प्रकार शासक वर्ग एवं समाज की प्रवृत्ति के रूप में जो शृंगार भावना उभरी, वह तत्कालीन धर्म-साधना का आश्रय मिल जाने के कारण सम-सामयिक समाज की एक प्रमुख एवं व्यापक प्रवृत्ति बन गई। ज्यों-ज्यों विलास के साधन बढ़ते गये, त्यों-त्यों समाज का मानस विकृत होता गया। इन परिस्थितियों का आवश्यक परिणाम नैतिक पतन या बेईमानी और रिश्वत का बाजार गर्म था। भाग्यवाद एवं नैराश्य का साम्राज्य या पूरे समाज का बौद्धिक ह्रास होने लगा था। मौलिक प्रतिभा कुण्ठित हो गई थी, केवल विलास की रमणीयता शेष रह गई थी।
काव्य-कला पर परिस्थितियों का प्रभाव - मुगल आक्रमणकारियों के भय से वृन्दावन और गोवर्धन के मन्दिर खाली गये थे। सिसौदिया वंश के राजसिंह की कृपा से सिहोर में नाथद्वारा की स्थापना हुई तथा राजस्थान वैष्णव धर्म का केन्द्र बन गया।
मुगल दरबारों में फारसी कला एवं काव्य परम्पराओं को प्रश्रय प्राप्त हुआ। राजस्थान के नरेशों और सामंतों की छत्र-छाया में हिन्दी कविता का दरबारी रूप पनपा। ओरछा, कोटा, बूंदी, जयपुर, जोधपुर और यहाँ तक कि महाराष्ट्र के राजदरबारों में भी प्रदर्शन-प्रधान श्रृंगारपूर्ण जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति करने वाली काव्यधारा चलती रही।
स्थापत्य कला, चित्रकला, संगीत कला एवं काव्य कला - प्रत्येक की प्रवृत्ति मौलिक उद्भावना की ओर न होकर अलंकरण और रसीलेपन की ओर हो गई थी। सारांश यह है कि सभी कला रूपों में विदेशी प्रभाव मुखर था। उनमें चमत्कार उत्पन्न करने वाले पाण्डित्य के निखार की प्रवृत्ति प्रमुख थी। इसके साथ ही फारसी साहित्य की शोखी, चटक एवं अन्दाजे-बयाँ ने भी हमारे काव्य को प्रभावित किया।
उपसंहार - रीतिकाल का आरम्भ जहाँगीर के शासन के उत्तरार्द्ध से होता है। उन दिनों अलंकरण तथा प्रदर्शन का स्वर प्रधान हो गया था। "प्रदर्शन प्रधान, रीतिय काव्य-शैली तथा काव्य में शृंगार-परक जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति का श्रेय काफी सीमा तक इस युग में प्रधानतः इसी प्रवृत्ति को है।" (हिन्दी साहित्य का वृहद् इतिहास, षष्ठ भाग) डॉ. सावित्री सिन्हा के शब्दों में, "मुगल दरबार में पोषित दरबारी काव्य का गहरा प्रभाव हिन्दी साहित्य पर पड़ा। जीवन के व्यापक उपादानों को छोड़कर वह राज-प्रशस्ति और श्रृंगार-वर्णन तक ही सीमित रह गया। x x x पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए समसामयिक भारतीय ईरानी काव्य परम्परा ने फारसी की प्राचीन परम्पराओं से प्रेरणा ली। x x x फारसी काव्य की विलासमयी नायिकाओं की तुलना में नायिक-भेद की श्रेणियों में बद्ध नारी सौन्दर्य को ही रखा जा सकता था।" अतः स्पष्ट है कि रीति-काव्य सर्वथा अपने युग की परिस्थितियों के अनुरूप है।
Sur-kavya ki visheshtao ka udghatan karte huye siddha kijiye ki sur krishna-bhakti parampra ke shreshthatam kvi hain?
Post a Comment