सूफी काव्यधारा के प्रमुख कवियों पर सविस्तार एक लेख लिखें।

1. सूफी काव्यधारा के प्रमुख कवियों पर सविस्तार एक लेख लिखें। 

उत्तर -

सूफी काव्यधारा के प्रमुख कवि

  1. मलिक मुहम्मद जायसी
  2. कुतुबन 
  3. मंझन 
  4. उसमान
  5. शेख नबी 
  6. निष्कर्ष 

(1) मलिक मुहम्मद जायसी - जायसी भक्तिकालीन प्रेमाख्यान-काव्य के प्रमुख कवि माने जाते हैं। अन्तः साक्ष्य के आधार पर जायसी का जन्म सन् 1498 ई. तथा मृत्यु 1542 ई. में मानी जाती है। इनका परिवार जायस (रायबरेली) में रहता था। जायसी के दाम्पत्य जीवन के सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद हैं, कुछ विद्वानों का कहना है कि जायसी का विवाह हुआ था, उनके पुत्र भी थे, लेकिन वे किसी दीवार के नीचे दबने या अन्यत्र किसी दुर्घटना में मर गये, जिसके प्रभाव से जायसी विरक्त हुए और घर छोड़कर सैयद असरफ जहाँगीर तथा मुहीउद्दीन चिश्ती से दीक्षित हो गये। कुछ विद्वानों के मत में माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् ये बचपन से ही साधुओं को संगति में रहने लगे थे। इनका विवाह नहीं हुआ था। जायसी बहुत कुरूप थे, लेकिन उनका अंतरिक व्यक्तित्व अत्यधिक सुन्दर था। वे उदार प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, इसीलिए लोगों में इनकी बड़ी मान्यता थी। जायसी के सम्बन्ध अमेठी के राजा से बहुत घनिष्ठ थे और वे इनका बड़ा मान करते थे। अपने अन्तिम दिनों में वे अमेठी के पास जंगल में अपनी कुटिया में रहे थे। कहा जाता है कि इनकी मृत्यु शिकारी की गोली लगने से हुई उसी स्थान पर अमेठी के राजा ने उनकी कब्र बनवा दी। 

विभिन्न विद्वानों ने जायसी की 21 रचनाओं का उल्लेख किया है- 'पद्मावत', 'अखरावत' और 'आखिरी कलाम ये तीन रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। अन्य रचनाओं में 'सखरावत', 'चम्पावत', 'दरावत', मटकावत', 'चित्रावत', 'मोराईवत', 'स्फुट छन्द', 'कहरनामा' 'मेखरावटनामा', 'धनावत', 'सोरठ' और 'परमार्थ' का उल्लेख किया जाता है। प्राकशित रचनाओं में 'अखरावत' में सूफी मत के दार्शनिक पक्ष की चौपाइयों द्वारा प्रकाश डाला गया है। 'आखिरी कलाम' फारसी की रचना है, जिसमें सृष्टि के अन्तिम दृश्य (प्रलय) का वर्णन है। प्रेमाख्यान की दृष्टि से उनका 'पद्मावत' एक मानक कृति मानी जा सकती है।

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'पद्मावत' को प्रेमगाथा-परम्परा की सबसे प्रौढ़ और सरस रचना कहा है। इसमें राजा रत्नसेन और रानी पद्मावती की लौकिक प्रेम कहानी के द्वारा अलौकिक प्रेम की व्यंजना की गयी है। डॉ. राजकुमार वर्मा ने लिखा है—“अभी तक के सूफी कवियों ने केवल कल्पना के आधार पर प्रेमकथा लिखकर अपने सिद्धान्तों का प्रकाशन किया था, पर जायसी ने कल्पना के साथ-साथ ऐतिहासिक घटनाओं की श्रृंखला सजाकर अपनी कथा को सजीव कर दिया। यह ऐतिहासिक कथावस्तु चित्तौड़गढ़ के हिन्दू आदर्शों के साथ थी, जिसमें हिन्दू जनता का विशेष आकर्षण था। यही कारण है कि जायसी की कथा विशेष लोकप्रिय हो सकी।" पद्मावत का कथासूत्र इस प्रकार है कि सिंहलद्वीप के राजा गंधर्वसेन की पुत्री पद्मावती अत्यधिक सुन्दर थी। गन्धर्वसेन को अपनी सत्ता और ऐश्वर्य पर घमंड था, इसीलिए वह अपनी सुन्दर पुत्री का विवाह किसी साधारण राजपुत्र से नहीं करना चाहता था पद्मावती के युवती हो जाने पर वह उस पर अनेक प्रतिबन्ध लगा देता है। एक दिन पद्मावती मानसरोवर पर क्रीड़ा कर रही थी, उसी समय उसका प्यारा हीरामन तोता (सुआ) पिंजड़े से निकलकर जंगल में चला जाता है। वहाँ उसे व्याघ पकड़कर चित्तौड़ के एक ब्राह्मण को बेच देता है और वह ब्राह्मण उसे चित्तौड़ के युवा राजा रत्नसेन को भेंट कर देता है। रत्नसेन की पत्नी नागमती इस तोते से जलती थी, क्योंकि तोता राजा को पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन करके उसकी ओर आकर्षित कर रहा था। इसीलिए एक दिन जब राजा शिकार के लिए चला गया, तब वह तोते से पूछने लगी -

"बोलहु सुआ पियारे नाहाँ। मोरे रूप कोइ जग माहाँ।"

    तब पद्मावती की स्तुति करते हुए उसने कहा -

    का पूछहु सिंघल कै नारी। दिनहि न पूजै निसि अँधियारी।। 
    पहुप सुवास सो तिन्ह कै काया। जहाँ माथ का बरनौ पाया।

    तोते की बातों को सुनकर नागमती अत्यन्त क्षुब्ध हो जाती हैं और तोते को मरवा डालने का प्रयास करती है। शिकार से लौटने पर जब यह सब राजा को विदित होता है तो वह अत्यधिक क्रोधित हो जाता है। राजा-सुआ-संवाद में तोता गंधर्वसेन का परिचय देते-देते उसकी पुत्री पद्मावती का नखशिख वर्णन करता है, जिससे राजा इतना प्रभावित होता है कि राज-पाट त्यागकर पद्मावती की प्राप्ति के लिए जोगी बन जाता है तथा अनेक विपत्तियों को झेलते हुए सात समुन्दर-पार-खीर दधि, उदधि, सुरा, बेड़ा, कील और मानसर समन्दर को पार करके सिंहलद्वीप पहुँचता है। तोता हीरामन की सलाह के अनुसार राजा सुमेरु पर्वत पर महादेव के मण्डप पर पद्मावती को प्राप्त करने के लिए जाप करने बैठ जाता है। इस जाप के परिणामस्वरूप पद्मावती के मन में भी प्रेमांकुर उगने लगते हैं और वह भी विरह वेदना का अनुभव करने लगती है। ऐसी दशा में हीरामन तोता उसके पास जाकर राजा रत्नसेन की तथा अपनी कहानी बता देता है। बसन्त की श्रीपंचमी के दिन महादेव पूजा के समय दोनों का साक्षात्कार हुआ, लेकिन पद्मावती को देखते ही राजा अचेत होकर गहरी नींद में सो गया। पद्मावती चली गयी, तब उसकी निद्रा टूटी। राजा उदास होकर अग्नि में जलकर प्राण त्यागने के लिए उद्यत हुआ, लेकिन महादेव प्रगट होकर उसे सांत्वना देते हैं और सिद्धिगुटका प्रदान करते हैं, जिसके सहारे वह राजा के गढ़ में प्रवेश कर जाता है और गन्धर्वसेन को समझा-बुझाकर तथा रत्नसेन का सही परिचय देकर रत्नसेन-पद्मावती का विवाह करवा देते हैं। इसके बाद जायसी ने रत्नसेन- पद्मावती के षटऋतु भोग-विलास का विस्तृत और सुन्दर वर्णन किया है। उधर नागमती प्रिय-वियोग में व्याकुल है, विरह-वेदना में वह इतनी जल रही है कि - 

    जेहि पंछी के निअर होइ, कहै विरह की बात। 
    सोइ पंछी जाई जरि, तरुवर होई निपात।। 

    नागमती की करुणापूर्ण दारुण दशा का सन्देश एक पंछी के द्वारा रत्नसेन को मिल जाता है और वह पद्मावती को लेकर अपने देश की ओर लौटता है। लौटते समय समुन्दर में फिर से कई विपत्तियों का सामना करते हुए, वे सागर-पुत्री लक्ष्मीजी की सहायता से सागर पार करके चित्तौड़ पहुँचते हैं। चित्तौड़ पहुँचने के बाद पद्मावती और नागमती को क्रमशः पद्मसेन और नागसेन नामक पुत्रों की प्राप्ति होती है।

    रत्नसेन के दरबार में राघवचेतन नामक एक पण्डित था। ज्योतिष विद्या के प्रपंचपूर्ण प्रयोग के कारण रत्नसेन उसका अपमान कर अपने देश से निष्कासित कर देते हैं। अपमान से आहत राघवचेतन दिल्ली दरबार में शरण पाकर अलाउद्दीन खिलजी के सामने पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन करके उसे पद्मावती के प्रति आसक्त बनाता है। पहले अलाउद्दीन खिलजी पत्र के द्वारा रत्नसेन को पद्मावती को सौंप देने के लिए सन्देश भेजता है, जिसके अस्वीकार होने पर तुरन्त चित्तौड़ पर धावा बोल देता है। कई वर्ष तक युद्ध चलता है। इसी बीच अलाउद्दीन को पता चलता है कि दिल्ली पर कोई आक्रमण होने वाला है। वह रत्नसेन से सन्धि करना उचित समझता है। रत्नसेन-अलाउद्दीन की सन्धि होती है, लेकिन षड्यन्त्र के सहारे किले के बाहर निकलते ही रत्नसेन को बन्दी बनाकर अलाउद्दीन दिल्ली ले जाता है। इसके बाद अलाउद्दीन दूती के द्वारा पद्मावती को फुसलाने का प्रयत्न करता है, लेकिन वह अपने प्रेम पर अटल रहती है। इतना ही नहीं, गोरा-बादल के सहयोग से एक योजना बनाकर रत्नसेन को दिल्ली से छुड़ा लाती है। रत्नसेन के बन्दी बनाये जाने पर देवपाल ने भी पद्मावती को फुसलाने की कोशिश की थी इसीलिए मुक्त हो जाने पर रत्नसेन क्रोधित होकर द्वन्द्व युद्ध में देवपाल का सर काट देता है, पर देवपाल की सांग से स्वयं भी मर जाता है। रानी पद्मावती और नागमती सती हो जाती है। अलाउद्दीन फिर से चित्तौड़ पर आक्रमण करता है। बादल की युद्ध में हार हो जाती है। चित्तौड़ अलाउद्दीन के हाथों में चला जाता है, किन्तु पद्मावती को वह प्राप्त नहीं कर पाता।

    इस विस्तृत कथावस्तु का अधिकांश भाग काल्पनिक है। रत्नसेन की सिंहलद्वीप यात्रा काल्पनिक है और अलाउद्दीन का पद्मावती के आकर्षण में चित्तौड़ पर चढ़ाई करना ऐतिहासिक है। रत्नसेन की मृत्यु सुल्तान के हाथों न होकर देवपाल के हाथों से होना भी कवि की अपनी कल्पना है। इस काव्य की समस्त कथावस्तु को रूपक-तत्व में बाँधने का प्रयास कई विद्वानों ने किया है। स्वयं जायसी ने ग्रन्थ समाप्ति पर इस बात का संकेत दिया है -

तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल, बुद्धि पद्मिनी चीन्हा।।
गुरु सुआ जेहि पंथ देखावा। बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा।।

    साथ ही कवि ने कई प्रसंगों में ऐसे विशेषणों का प्रयोग किया है, जिनसे सूफी साधना स्पष्ट हो जाती है, इसलिये इसे केवल लौकिक प्रेम कथा कहना उचित नहीं जान पड़ता है। सम्पूर्ण कथा को सूफी रूपकों में बाँधना संगत नहीं होगा, लेकिन प्राप्त तथ्यों की उपेक्षा करना कहाँ तक संगत कहा जा सकता है ? इधर आधार्य शुक्ल की धारणाओं पर जो एकांगी हमला करने की प्रवृत्ति आलोचकों में दिखाई देती है, वह जायसी को भी एकांगी रूप में प्रस्तुत करती है।

जहाँ तक पद्मावती के शिल्प-पक्ष का सम्बना है, सभी आलोचक इसे 'महाकाव्य' स्वीकार करते हैं। वस्तु-विन्यास और चरित्र चित्रण की दृष्टि से यह एक सफल महाकाव्य है। 52 खण्डों में सुगठित कथावस्तु मंगलाचरण, सज्जन प्रशंसा तथा दुर्जन निन्दा, श्रृंगार रस की प्रधानता और अन्य रसों की यथायोग्य निष्पत्ति, नायक-नायिका के चरित्रों का सूक्ष्म अंकन, सदृष्यमूलक अलंकारों का सफल प्रयोग, दोहा-चौपाई, छन्दों का उचित और ठेठ अवधी भाषा इसकी शैल्पिक विशेषताएँ कही जा सकती हैं।

(2) कुतुबन - कुतुबन शेख बुरहान के शिष्य थे। शेरशाह के पिता हुसैनशाह के समकालीन माने जाते हैं, इसीलिए इनका आविर्भाव-काल 1493 ई. माना जाता है। सन् 1501 ई. (सं. 1558) में दोहे-चौपाइयों में कुतुबन ने 'मृगावती' प्रेमाख्यान की रचना की थी। इसमें चन्द्रनगर के राजा गणपति देव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारी की कन्या मृगावती की सरस प्रेमकथा वर्णित है। कंचनपुर की राजकुमारी मृगावती पर मोहित राजकुमार प्रेम-योगी बनकर कई कष्ट झेलने के उपरान्त उसे प्राप्त करता है। इस कार्य में रुक्मिनी नामक सुन्दरी उसकी विपदा के दिनों में सहायता करती है। कहानी के अन्त में राजकुमार की आखेट में मृत्यु और दोनों पत्नियों का सती हो जाना वर्णित है। डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार, "मृगावती की कथा लौकिक प्रेम की कथा है, जिसमें अलौकिक प्रेम का सम्पूर्ण संकेत है।"

    इस काव्य (मृगावती) में कवि ने प्रेम के लिये किये गये त्याग और प्रेमिका की प्राप्ति में उठाये गये कष्टों द्वारा प्रतीकात्मक धरातल पर साधक और ईश्वर के सम्बन्ध को स्पष्ट किया है। कथा-प्रवाह के बीच सूफी शैली के आधार स्थान-स्थान पर रहस्यात्मक चित्रण भी मिल जाता है।

(3) मंझन - कवि मंझन के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो पायी। रामपुरा स्टेट लाइब्रेरी से मंझन की सुप्रसिद्ध कृति 'मधुमालती' की अधूरी पांडुलिपि प्राप्त हुई है। इस कृति का रचना-काल सन् 1545 ई. माना जाता है। यह कृति 'मृगावती' से कहीं अधिक आकर्षक और भावात्मक है। इसमें कनेसर नगर के राजकुमार मनोहर और महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती की प्रेमकथा द्वारा निस्वार्थ प्रेम की सुन्दर अभिव्यंजना हुई। अप्सराओं द्वारा मधुमालती से साक्षात्कार के बाद राजकुमार मनोहर उसकी प्राप्ति के लिए समुद्र-मार्ग से यात्रा करके उसके नगर तक पहुँचना चाहता है। बीच सागर में ही दुर्घटना हो जाती है, किसी तरह बचकर मनोहर जंगल में पहुँचता है, वहाँ राक्षस को मारकर मधुमालती की सखी प्रेमा का उद्धार करता है। प्रेम के सहारे वह मधुमालती तक पहुंचता है लेकिन मधुमालती की माता प्रेममंजरी को मनोहर एवं मधुमालती का प्रेम भाता नहीं है, इसीलिए वह मधुमालती को मनोहर के प्रेम से विमुख करना चाहती है। जब यह नहीं मानती, तब वह उसे चिड़िया बनने का शाप दे देती है। चिड़िया बनी मधुमालती को ताराचंद पकड़कर सोने के पिंजरे में बन्द कर देता है। एक दिन चिड़िया तारांचद को अपनी प्रेम-कहानी सुनाती है। उस कहानी से ताराचंद द्रवित हो उठता है और उसे लेकर मधुमालती के माता-पिता के पास जाता है। वहाँ माता उस पर जल छिड़ककर फिर से उसे 'मधुमालती' के रूप में बदल देती है। योगी के रूप में मनोहर भी आ जाता है और ताराचंद के प्रयास से मनोहर एवं मधुमालती का विवाह हो जाता है। ताराचंद प्रेमा पर मोहित होता है। आगे की पांडुलिपि फट गयी है। सम्भव है कि ऐसा- ताराचंद का विवाह उसमें वर्णित हुआ हो। प्रस्तुत कृति में वर्णनात्मकता का अंश अधिक है। प्रेम के चित्रण मे | विरह को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। विषय-निरूपण, भाषा सौन्दर्याभिव्यक्ति, भावाभिव्यंजना-शैली, अलंकार विधान आदि की दृष्टि से यह उच्च कोटि की कृति मानी जा सकती।

(4) उसमान - उसमान जहाँगीरकालीन सूफी कवि थे। चिश्ती सम्प्रदाय के हाजी बाबा इनके गुरु थे। इनका 'चित्रावली' नाम का प्रेमाख्यान प्राप्त हुआ है, जिसका सम्पादन श्री जगमोहन वर्मा ने किया है। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार इसका रचना-काल 1613 ई. है। यह प्रेमाख्यान जायसी के 'पद्मावत' का अनुकरण करता हुआ जान पड़ता है। कवि ने उन सभी विषयों का अपनी रचना में समावेश किया है, जो 'पद्मावत' में हैं।

कथानक सर्वथा कल्पित है, परन्तु उसे बड़ी कुशलता के साथ सूफी-साधना के आध्यात्मिक स्वरूप से जोड़ा गया है। इसमें नेपाल के राजा धरणीधर पंवार के पुत्र सुजान और रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली की प्रेम-कथा वर्णित है। यहाँ दोनों के मन में प्रेमांकुर एक-दूसरे के 'चित्र' देखने से ही उगते हैं। दोनों एक-दूसरे को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। राजकुमारी के भेजे हुए जोगी के सहारे राजकुमार रूपनगर पहुंचता भी है, लेकिन वहाँ उसे कई यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

कुटनीचर उसे अन्धा बना देती है और अजगर उसे निगल लेता है, लेकिन फिर भी वह बच निकलता है। वनमानुष से आँखों की ज्योति पाता है। इसी बीच सासरगढ़ नगर की राजकुमारी कवँलावती उस पर मोहित हो जाती है और उससे विवाह करती है। बाद में योगियों के सहारे वह फिर से रूपनगर पहुंचता है और अनेक आपत्तियों, मुसीबतों का सामना करके वह चित्रावली को प्राप्त करता है। इधर कवँलावती सुजान के वियोग में व्याकुल हो रही थी। अपने हंस के द्वारा वह सुजान को अपना सन्देश देता है। सुजान को कवँलावती का स्मरण होता है और वह चित्रावली तथा कवँलावती को लेकर नेपाल आ जाता है। उसमान ने सूफी-प्रणीत प्रेमतत्व की महिमा इस कहानी द्वारा अभिव्यक्त की है। पद्मावत का अनुकरण करने पर भी कवि ने अपनी मौलिकता बनाये रखी है। इसकी ओर संकेत करते हुए डॉ. हंस ने लिखा है---- "उसमान ने अपनी काव्य-कृति द्वारा विश्व को वही संदेश दिया है जो सदैव से सूफी संतों का जीवन-सूत्र रहा है, किन्तु इनके इस सन्देश देने का ढंग अन्यों से पृथक है। उन्होंने प्रत्येक बात इस ढंग से कही है, जैसे यह बात इनके पूर्व अन्य किसी ने कही हो। यही कारण है कि 'चित्रावली' पूर्ववर्ती सूफी-काव्य की एक कड़ी के रूप में ही प्रस्तुत हुई है, परन्तु उसकी चमक इस काव्य की अन्य कड़ियों से अलग ही दिखाई देती है।"

(5) शेख नबी - शेख नबी जिला जौनपुर के रहने वाले थे। सन् 1619 में उन्होंने 'ज्ञानद्वीप' की रचना की थी। इस प्रेमाख्यान में राजा शिरोमणि के पुत्र ज्ञानद्वीप और राजकुमारी देवयानी के प्रेम की कथा वर्णित है। इस काव्य में नायक के स्थान पर नायिका की सखी का योगी वेश धारण करना नायिका की सहचरी का नायक से विवाह नहीं होना आदि नये प्रयोग मिलते हैं। इसमें नायक की खोज के लिए स्वयंवर का आयोजन होता है। कथा का अन्त सुखमय है। इसमें भी वर्णनात्मकता का बाहुल्य पाया जाता है।

(6) निष्कर्ष -

आचार्य शुक्ल 'ज्ञानद्वीप' को सूफी प्रेमाख्यान धारा की अन्तिम कृति मानते हैं—“यहीं प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चाहिए, पर जैसा कहा जा सकता है, काव्य-क्षेत्र में जब कोई परम्परा चल पड़ती है, तब उसके बाद पर्याप्त-काल के पीछे भी कुछ दिनों तक समय-समय पर उस शैली की रचनाएँ थोड़ी-बहुत होती रहती है, पर उनके बीच कालान्तर अधिक रहता है और जनता पर उसका प्रभाव भी वैसा नहीं रह जाता। अतः शेख नबी से प्रेमगाथा-परम्परा समाप्त समझनी चाहिए।" शुक्लजी ने कासिमशाह-कृत 'हंस जवाहर', नूर मुहम्मद कृत 'इन्द्रावती', 'अनुराग बाँसुरी आदि का परवर्ती सूफी प्रेम-काव्यों के रूप में उल्लेख किया है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इस कालखण्ड की अन्य अनेक रचनाएँ प्राप्त हुई हैं। इनमें से कुछ रचनाएँ सूफी और कुछ असूफी कवियों की लिखी हुई है। इन रचनाओं में सूफी प्रेमाख्यानों के समान सूफी दर्शन का स्पष्ट रूप में अंकन भले ही न हो, लेकिन प्रेम-तत्व की महत्ता अवश्य प्राप्त होती है। ऐसी रचनाओं में जन-कवि रचित 60 ग्रन्थों में से कथा-रत्नावली, कथा-कनकावती, कथा-कवँलावती, कथा-नल-दमयन्ती आदि 29 प्रेम-कथाएं, कुशल राय- कृत 'माधवानल कामकन्दला', 'नन्ददास कृत' 'रूपमंजरी' पुहकर-कृत 'रसरतन', दुखहरण दास-कृत 'पद्मावती' शेख निसार-कृत 'यूसुफ जुलेखा' चतुर्भुजदास-कृत 'मधुमालती' नजफअली-कृत 'प्रेम चिनगारी', मृगेन्द्र-कृतः ‘प्रेम पयोनिधि' आदि उल्लेखनीय है।

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