नक्सलवाद और छत्तीसगढ़
Hello and Welcome Friends आज के इस पोस्ट में हम बात करने वाले हैं यार, नक्सलवाद औरे छत्तीसगढ़ पर निबन्ध के बारे में, साथ ही यह छत्तीसगढ़ राज्य की बहोत बड़ी समस्या रही है, जिसको हम यहाँ के प्रमुख समस्या के रूप में देखते हैं।
इस पोस्ट के माध्यम से हम समझने की कोशिस करेंगे की इस निबंध को किस प्रकार से लिखने पर हमें अच्छे नंबर मिल सकते हैं और निबन्ध लिखेंगे चलिए जान लेते हैं हमारे इस निबन्ध सीरिज निबंध लेखन Class 12 के अन्य पोस्ट के बारे में जिसे हमने पिछले पोस्ट में लिखा था वे टॉपिक्स हैं –
- आधुनिक भारतीय नारी पर निबंध
- जीवन में खेलों का महत्व पर निबंध
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- विद्यार्थी जीवन और अनुशासन पर निबंध
कोई भी निबन्ध लिखने से पहले हमें उसकी रूपरेखा तैयार कर लेनी चाहिए क्योंकि निबन्ध का अर्थ ही होता है नियम से बंधकर लिखा हुआ कोई जानकारी से भरा ज्ञानवर्धक बातें चलिए शुरू करते हैं –
रुपरेखा -
- प्रस्तावना
- छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद
- नक्सलवाद के कारण और शासन
- उपसंहार
1. प्रस्तावना – अगर हम बात करें इनके विचारधारा की तो नक्सलवाद और माओवाद लगभग एक ही विचारधारा से मिलते जुलते हैं। इन नक्सली और माओवादी गतिविधियों में शामिल लोगों को यही लगता है की यह लोकतंत्र एक मात्र दिखावा है जैसे माओत्से तुंग ने बंदूक की नोंक पर चीन की सत्ता को हथियाया, वैसे ही भारत में होना चाहिए इनका कहना है। आज नक्सलाद एक विचारधारा न होकर हिंसा बन गई है।
शुरुआत की बात करें तो इस नक्सलवाद रूपी आन्दोलन का केंद्र पश्चिम बंगाल था। सन 1967 में विभाजन के समय मार्क्सवादी विचारधारा के लोग जिनका नेत्रित्व कनु सान्याल इत्यादि ने किया। इन्होने किसानों के अधिकारों तथा स्थानीय अधिकारियों से शोषण के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ी। धीरे-धीरे इसका विस्तार होने लगा। आज यह आन्दोलन विकराल रूप ले चूका है और देश के लिए एक गम्भीर चुनौतीभरा समस्या बनता जा रहा है। इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ आतंक फैलाना है।
आइये अब ये तो हुई देश की बात अब बात क्र्रते हैं जिस राज्य को ध्यान में रखते हुए निबन्ध लिखने हैं उस राज्य के निबंध की बात।
2. छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद –
करीब तीन दशक पूर्व या कहें तो सन 1971 के आस-पास से नक्सली समस्या ने छत्तीसगढ़ में अपने पैर पसारने शुरू किये। बस्तर से आए नक्सलियों ने यहाँ अपनी तीसरी पीढी तैयार कर ली है। ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू होने के बाद नक्सलियों के डिवीजन स्तर तक की कमान स्थानीय आदिवासियों को सौंप दी गई है। जिनका प्रमुख बस्तर के जंगलों में अतंका का पर्याय बन चुका है। दक्षिण बस्तर में क्रांतिकारी मजदूर संघ, क्रांतिकारी आदिवासी, महिला संघ, चेतना नाट्य मंच आदि विभिन्न नक्सली संगठनों में हजारों आदिवासी सदस्य हैं, जो जनता में हिले मिले हुए हैं और उन्हें पहचानना सुरक्षा बलों के लिए टेढ़ी खीर है। मतलब की यह सिर्फ अनुमान लगाने वाली बात है जिसमें किसी पर सक तो किया जा सकता है लेकिन उसे तभी साबित किया जा सकता है। जब उसे वह काम करते हुए पकड़ा जाए।
3. नक्सलवाद के कारण और शासन – नक्सलियों ने अपनी इस लम्बी यात्रा में जितनी तेजी से पैर पसारे उनमें आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, ओड़िसा, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड जैसे राज्य शामिल हैं। शासन के द्वारा समस्याओं के निवारण हेतु किए गए प्रयत्न असफल साबित हो रहे हैं।
प्रारम्भ में नक्सलवाद जो अधिकारों व अन्याय के लिए शुरू हुआ एक आन्दोलन था आगे चलकर वह अपने उद्देश्यों से भटक गया, आदिवासियों के मन में प्रशासनिक अधिकारियों, ठेकेदारों के प्रति गहराता असंतोष, उनकी स्वार्थ लोलुपता और आदिवासियों के अधिकारों का हनन, स्त्रियों का दैहिक शोषण इत्यादि ऐसे अनेक कारणों ने इन भोले-भाले आदिवासियों को इन नक्सलियों से जुड़ने पर मजबूर कर दिया . इनकी इन मासूमियत का सीधा लाभ इन्होने उठाया और फिर स्वयं उनका शोषण करने लगे, बलपूर्वक उन्हें अपने साथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं किया। इससे निपटने के लिए भी प्रशासनिक स्तर पर भी अनेक प्रयास किये गये जिसमें सबसे प्रमुखता से ‘सलवा जुडूम’ की शान्ति प्रक्रिया थी, लेकिन किन्हीं न किन्हीं कारणों से इसमें भी सरकार पूरी तरह सफल नहीं हो पाई और इसका खामियाजा सरकार को ही भुगतना पडा।
‘ सलवा जुडूम अभियान के संस्थापक या जनक कहे जाने वाले महेंद्र कर्मा व् उनके अन्य साथी नेताओं को 25 मई, 2013 को शाम करीब 5:30 बजे कांग्रेस की परिवर्तन-यात्रा की बैठक कर सुकुमा से लौटते हुए करीब 200 कांग्रेसी नेताओं, कार्यकर्ताओं व् उनके 25 वाहनों के एक काफिले पर 250 माओवादियों ने जिसमें अधिकांश संख्या में महिला नक्सलियों की बताई जाती है। लगभग 90 मिनट से अधिक फायरिंग की और मौत का तांडव खेला, जिसमें कर्मा की जघन्य हत्या के साथ मानवता भी शर्मसार हुई, क्योंकि उनके शव पर नक्सलियों की बर्बरता का जघन्य रूप दृष्टिगत हुआ। कांग्रेस अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल उनके पुत्र दिनेश पटेल, वी.सी. शुक्ल, उदय मुदलियार, गोपी माधवानी, फूलो देवी नेताम इत्यादि अनेक कार्यकर्ता व् सुरक्षा बल के लोग इस बर्बरता के शिकार हुए हालाँकि कुछ लोग बच भी गए।
इस हमले की जिम्मेदारी माओवादी की प्रवक्ता की ओर से गुड्सा उसैंदी द्वारा हस्ताक्षरित एक चार पेज के मीडिया ब्यान जारी कर ली गई।
यह पहली बार नहीं है की जब माओवादियों के 2004 में भारत के खिलाफ युद्ध का ऐलान करने के बाद इतना बड़ा हमला हुआ है। 2009 में उन्होंने छत्तीसगढ़ में चिंतलनार में सी. आर. पी. एफ. के 76 जवानों को मार डाला था। अक्तूबर 2003 में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू के काफिले पर घात लगाकर उन्हें बुरी तरह से जख्मी किया था। लेकिन बस्तर की इस घटना में पहली बार इतने सारे नेताओं को निशाना बनाया गया जिन्हें माओवादी प्रवक्ता गुडसा उसैंदी ने 26 मई को प्रेस विज्ञप्ति में जनता का दुश्मन बताया था।
छतीसगढ़, झारखंड और ओड़िसा के कुछ इलाकों में जमीनी हकीकत से साफ है कि इन राज्यों में सशस्त्र माओवादी का डर और उनके समर्थक जंगलों के अंदरुनी हिस्से या आस-पास के कम विकसित इलाकों से अपना अभियान चलातें हैं, जहाँ सड़कों, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे बुनियादी ढाँचे की हालत खस्ता है। माओवादियों के खिलाफ ढुल-मूल रवैया अपनाती केंद्र सरकार के लिए यह समय अब कुछ कर गुजरने का है।
छत्तीसगढ़ के पूर्व डी.जी.पी. विश्वरंजन सुझाव देते हैं कि – “प्रभावी नतीजों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को लौंग टर्म के आधार पर आक्रामक रणनीति तैयार करनी होगी। ”
4. उपसंहार – बेगुनाहों के खून की होली कब तक खेली जाएगी? यह लड़ाई इतनी बड़ी तो नहीं कि इस पर नियंत्रण न पाया जा सके. दलगत राजनीति से ऊपर उठकर हमें कार्य करना होगा। माओवादी 2050 तक भारत की राजसत्ता पर कब्जा करने की खूनी जंग लड़ रहे हैं लेकिन हमारी सरकार यही नहीं तय कर पा रही है कि यह कानून व्यवस्था की समस्या है या विकास हीनता की। माओवादियों के प्रयत्नों को तत्काल विफल करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
गुरुबार 13 जून को धनबाद-पटना इंटरसिटी एक्सप्रेस पर बिहार के जमुई में रेलगाड़ी नम्बर 13331 पर हमला किया गया और निर्दोषों का खून बहा। नक्सलियों के बढ़ते इन हौसलों पर, राष्ट्र की अस्मिता पर उठते प्रश्न चिन्हों के लिए हमें राष्ट्र या राज्य के पास उपलब्ध संसाधनों के निर्द्वन्द प्रयोग से इन्हें नेस्तनाबूत करना होगा। जब माओवादियों ने गृह युद्ध-सा छेड़ दिया हो, तो यह बात बेमानी हो जाती है कि सुरक्षा के उपाय कागजी धरातल तक ही सीमित रखे जाएँ माओवादियों के प्रयत्नों को तत्काल विफल करना आज भी सबसे बड़ी आवश्यकता है। केंद्र और राज्य सरकारों को यह दायित्व लेना ही होगा, क्योंकि जन सुरक्षा जनतंत्र का आधार है।
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