रीति सिद्धान्त
प्रश्न 4. रीति सिद्धान्त पर प्रकाश डालते हुए उसका संक्षेप में परिचय दीजिए।
उत्तर - रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा माना है -
'रीतिरात्मा काव्यस्य ।'
रीति के अर्थ के सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न मत है।
वामन इसे विशिष्ट पद-रचना मानते हैं। विशिष्ट से उनका अर्थ गुणयुक्तता से
है -
'विशिष्टा पद रचना रीतिः।'
गुण को वे काव्य का शोभाकारक गुण मानते हैं। वामन के अनुसार वह काव्य शोभाकारक शब्द और अर्थ के धर्मों से युक्त पद रचना है।
डॉ. कृष्णदेव झारी ने आचार्य वामन की परिभाषा को इस प्रकार प्रस्तुत किया है—“उनके अनुसार पद रचना की विशिष्टता का आधार गुण है - विशेषो गुणात्मा। विशेष गुणों के प्रयोग से पद-रचना (रीति-शैली) में विशिष्टता आती है। गुण को वामन ने काव्य-शोभा का कारक कहा है।"
रीति शब्द की व्युत्पत्ति
संस्कृत की रीड् धातु से बना शब्द 'रीति' गति, चलन, मार्ग, पथ, बीथी, शैली, ढंग, कार्यविधि आदि अर्थों का वाचक है। 'सरस्वती-कंठाभरण' के रचयिता भोजदेव ने रीति की व्युत्पत्ति के विषय में निम्न प्रकार लिखा है -
वैदर्भादिकृतः पन्थाः काव्यमार्ग इति स्मृतः।
रीङगताविति घातोः सा व्युत्पत्या रीतिरुच्यते।।
वैदर्भादि (वैदर्भी एवं गौडी) काव्य-मार्ग कहे जाते हैं। गत्यर्थक रीड् धातु से व्युत्पत्ति होने के कारण इसे रीति कहा जाता है।
भोजदेव ने रीति के विषय में 'वैदर्भादि काव्य-मार्ग' शब्द का प्रयोग इसलिए किया है कि भामह, दण्डी आदि आचार्यो ने रीति के लिए 'काव्य-मार्ग अथवा गिरा-मार्ग' शब्द का प्रयोग किया है। काव्यशास्त्र के आदिआचार्य भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रीति के लिए 'कृति-प्रकृति' शब्द का प्रयोग किया है।
रीति का विकास - डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा' के अनुसार रीति के विकास की तीन स्थितियाँ हैं - (1) पहली का सम्बन्ध भौगोलिक दृष्टि से निरूपित काव्यालोचना से ही है। (2) दूसरी में रीति-तत्त्व का सम्बन्ध काव्य-गुणों एवं विषय के साथ स्थापित किया गया है। (3) कुन्तक के अनुसार इसे कवि का वैयक्तिक गुण होने का अवसर प्राप्त हुआ है -
(1) "महीव रीतिः श्वसासरत् पृथक् ।”
यहाँ इसका प्रयोग धारा के अर्थ में है।
(2) “तामस्य रीतिः परशोरिव ।"
भरतमुनि के 'नाट्य शास्त्र' में रीति शब्द के लिए 'प्रकृति' शब्द का प्रयोग है। उन्होंने भारतवर्ष में प्रचलित चार प्रकृतियाँ- आवंती, दक्षिणात्या, पाञ्चाली एवं औडुमागधी का वर्णन किया है जो क्रमशः पश्चिम, दक्षिण, मध्यप्रदेश तथा उड़ीसा मगध में प्रचलित थीं।
बाणभट्ट ने अपने समय में प्रचलित चार दिशाओं की चार शैलियों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार उदीच्य (उत्तर भारत) निवासी श्लेष की, प्रतीच्य लोग अर्थमात्र अथवा अर्थगौरव को, दक्षिणात्य उत्प्रेक्षा को एवं गौड़ या पूर्वी भारत के लोग अक्षराडंबर को अधिक महत्व देते हैं।
भामह के 'काव्यालंकार' में दो प्रमुख मार्गों - वैदर्भी एवं गौड़ीय का उल्लेख किया गया है। उन्होंने दोनों का वर्णन रीति के अर्थ में न करके काव्य-भेद के अन्तर्गत किया है।
दण्डी ने रीति-सिद्धान्त का विशद् विवेचन किया। उन्होंने रीति में व्यक्तित्व की सत्ता स्थापित करते हुए प्रत्येक कविता की विशिष्ट रीति मानने का विचार व्यक्त किया। उनके अनुसार जिस प्रकार कवि अनेक हैं, उसी प्रकार रीतियों की संख्या भी अनेक है।
इसके अतिरिक्त भी अनेक आचार्यों ने इसका विवेचन किया है -
(1) रुद्रट - डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा' के अनुसार उनके रीति-निरूपण की तीन विशेषताएँ है। उन्होंने रीति के भौगोलिक महत्व को हटाकर उनका सम्बन्ध रस के साथ स्थापित किया तथा विषय-भेद या वर्ण्य के औचित्य के आधार पर रीतियों का नियोजन किया। उन्होंने 'लाटीया' नामक चतुर्थ रीति की उद्भावना करके, उनकी संख्या चार कर दी - वैदर्भी, गौड़ीय, पञ्चाली और लाटीया ।
(2) अग्निपुराण - इस पुराण में चार प्रकार की रीतियों का उल्लेख है और सम्मत तथा असम्मत पदों के आधार पर ही उनका विभाजन किया गया है।
(3) आनन्दवर्धन - इन्होंने रीति को 'संघटना' की संज्ञा प्रदान की है और उसे रस, ध्वनि आदि काव्य के आत्मभूत तत्वों का उपकारक स्वीकार किया है। उनके अनुसार रीति और गुण में न तो अभेद होता है और न ही संघटना या रीति को गुणाश्रित माना जा सकता है। उन्होंने रीति या संघटना के स्वरूप का आधार समास को माना है।
(4) राजशेखर - इन्होंने रीति के साथ-ही-साथ प्रवृत्ति एवं वृत्ति का भी निरूपण किया है। उन्होंने तीन रीतियाँ मानी हैं - गौडीया, पांचाली एवं वैदर्भी। ये वन-विन्यास को पद-रचना मानते हैं।
(5) भोज - इन्होंने रीतियों की संख्या में वृद्धि करते हुए 'आवंतिका' और 'मागधी' नामक दो वृत्तियों का और छ रीतियों का उल्लेख किया - वैदर्भी, गौडीया, पाञ्चाली, लाटीया, आवंतिका एवं मागधी।
(6) मम्मट - इन्होंने उपनागरिका, परूषा एवं कोमल वृत्तियों के नाम से रीतियों का उल्लेख करते हुए कहा है कि.. वामनादि ने इन्हें ही वैदर्भी, गौड़ी एवं पाञ्चाली कहा है।
(7) विश्वनाथ - इन्होंने वृत्तियों को अधिक महत्व दिया है और रीति का रस एवं गुण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है।
वामन का रीति-सिद्धान्त - वामन ने 'रीति' को काव्य की आत्मा माना है-
'रीतिरात्मा काव्यस्य।'
इन्होंने रीति की व्याख्या भी 'विशिष्ट पद-रचना ही रीति है' कहकर की है -
'विशिष्टा पद रचना रीतिः।'
इन्होंने शब्द 'विशिष्ट' की व्याख्या की है इसका सम्बन्ध गुणों से है-
'विशेषो गुणात्मा।'
वामन ने रीति तीन प्रकार की ही मानी है - वैदर्भी, गौड़ी और पाञ्चाली। उनके अनुसार वैदर्भी अधिकाधिक गुणसम्पन्न रीति है। गौड़ी में वे ओज और कान्ति - गुण को स्वीकार करते हैं तथा पाञ्चाली में माधुर्य और सुकुमारता को मानते हैं।
डॉ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार, आचार्य वामन ने गुणों पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार गुण काव्य के नित्य धर्म है। उनकी अनुपस्थिति में काव्य का अस्तित्व असम्भव है। अलंकारों को वामन ने काव्य का अनित्य धर्म माना। उनके अनुसार गुण तो वैशिष्ट्य की रचना कर सकते हैं, पर केवल अलंकार नहीं। वे काव्य के समस्त सौन्दर्य की रीति में आश्रित मानते हैं। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि यह दोषों के बहिष्कार और अलंकारों के प्रयोग से आता है। इस प्रकार वामन के अनुसार रीति पद-रचना का यह प्रकार है जो दोषों से मुक्त हो एवं गुणों से अनिवार्यतः तथा अलंकारों से साधारणतः सम्पन्न हो।
रीति का स्वरूप
(1) वैदर्भी -
"अपुष्टार्थमवक्रोक्तिः प्रसन्नमृजु कोमलम्,
भिन्नं गेयमिवेदं तु केवलं श्रुति पेशलम्।"
अर्थात् अलंकार से रहित, वक्रोक्ति से हीन, अपुष्ट, अर्थ वाली वैदर्भी रीति सरल, कोमल, ऋजु पदावली से युक्त, गेय एवं कर्णसुखद होता है।
(2) गौडी - भामह के अनुसार गौडी रीति इस प्रकार है -
"अलंकार वदग्राम्यमर्थ न्याय्यमनाकुलम्,
गौडीयमपि साधीयो वैदर्भमिति नान्यथा ।"
अर्थात् अलंकारयुक्त, ग्राम्यदोष से हीन, अर्थ से पुष्ट औचित्य एवं समन्वित एवं शांत गौड़ी रीति (शैली) में रचना करनी चाहिए, किन्तु वैदर्भी भी व्यर्थ अर्थात् काव्य के लिए अनुपयुक्त नहीं है।
दण्डी ने रीति अथवा गिरा मार्ग की संख्या दो (वैदर्भी एवं गौडी) मानने का तीखे शब्दों में खण्डन करके प्रत्येक कवि की भिन्न रीति मानते हुए रीतियों की संख्या असीमित बताई।
आचार्य रुद्रट ने रीतियों की संख्या चार करके उनका रसों से इस प्रकार सम्बन्ध स्थापित किया है -
"वैदर्भी पांचाल्यौ प्रेयसि करुण भयानका वुभयोः।
लाटीयगौडीये रौद्री यदि च औचित्यम् ।।"
अर्थात् वैदर्भी तथा पांचाली रीति का प्रयोग श्रृंगार, करुण, भयानक एवं अद्भुत रसों में करना चाहिए। लाटी तथा गौड़ी रीतियाँ रौद्र रस के अनुकूल हैं।
भोजदेव ने रीतियों की संख्या 105 तक पहुँचा दी है। दण्डी ने भी कवि स्वभाव के कारण रीतियों की संख्या अनन्त स्वीकार की।
कुन्तक ने रीति को कवि मार्ग बताते हुए उसके निम्न भेद किये हैं -
(क) सुकुमार मार्ग - इसमें शब्दार्थ के सामंजस्य से पूर्ण सरस पदावली का प्रयोग होता है।
(ख) विचित्र मार्ग - इसमें अलंकरण की अधिकता एवं वचन-विदग्धता की प्रकृति होती है।
(ग) मध्यम मार्ग - इन दोनों की विशेषताओं का सम्मिलित रूप मध्यम मार्ग है।
रीति सम्प्रदाय है या सिद्धान्त - रीति को काव्य की आत्मा बताकर भी वामन किसी सम्प्रदाय के उद्भावक अथवा प्रतिष्ठापक की प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सके। उनका रीतिवाद सम्प्रदाय नहीं बन सका, मात्र सिद्धान्त रह गया। कोई मान्यता सम्प्रदाय तब बनती है, जब उसके अनेक अनुयायी होते हैं एवं लम्बे समय तक चलती रहती है। वामन के पश्चात् किसी भी आचार्य ने काव्य को रीति की आत्मा स्वीकार नहीं किया। वामन ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन इतने सशक्त रूप में किया है कि उनकी मान्यता पर्याप्त समय तक चर्चा का विषय बनी रही।
रीति एवं शैली - रीति एवं शैली को समानार्थक माना गया है, पर इनमें अन्तर है। रीति शब्द-पद रचना का वाचक होने के कारण पद्धति परम्परा, ढंग, तरीका, रिवाज आदि के अर्थ का द्योतक है। इसीलिए रीति शब्द गिरा मार्ग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
शैली शब्द 'शील' से बना है। शील का सम्बन्ध स्वभाव से है। स्वभाव प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न होता है। रीति में जहाँ परम्परा की प्रधानता है, वहीं शैली शब्द कवि के व्यक्तित्व को रेखांकित करता है। शैली को कवि या लेखक का स्वभाव; चरित्र, रुचि एवं व्यक्तित्व प्रभावित करते हैं। शैली के तीन तत्व माने गये हैं - वस्तु, रूप और व्यक्ति। दो का विवेचन हमारे यहाँ भी है, पर तीसरे की उपेक्षा की गयी है। पाश्चात्य विद्वानों ने इसे 'स्टाइल' कहकर इसमें व्यक्तित्व की महत्ता समाहित की, जिसे कवि का आत्म-तत्व (Style is the man himself) भी माना जा सकता है।
विलियम हडसन के अनुसार साहित्य में तीन तत्व हैं - बुद्धि-तत्व (Intellectual element), भाव-तत्व (Emotional (element) एवं सौन्दर्य तत्व (Aesthetic element ) डॉ. नगेन्द्र के अनुसार रीति-आचार्य भी इन तत्वों को स्वीकार करते हैं, पर आत्म-तत्व के प्रति उनकी उदासीनता रही है। नगेन्द्रजी का मत है - "रीति सम्प्रदाय ने काव्य के बाह्य पक्ष, रचना - चमत्कार को विशेष महत्व दिया है, इसमें सन्देह नहीं, परन्तु यह भी सत्य है कि उसके मानस-पक्ष की भी उपेक्षा इसमें नहीं की गई। हाँ, कवि की आत्माभिव्यक्ति को महत्व नहीं मिला, यद्यपि बहिष्कार उसका भी नहीं हुआ।"
रीति सम्प्रदाय और अन्य सम्प्रदाय
(1) रीति एवं अलंकार - रीति और अलंकारवादी दोनों ही इन्हें काव्य के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। वामन रीति को काव्य की आत्मा मानते हैं, पर आगे वह रसानुभूति में सहायक ही मानी गयी, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार परवर्ती आचार्यों ने अलंकार को काव्य का अस्थिर धर्म या बाह्य शोभा का कारण माना।
डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा' के अनुसार, रीति और शब्दालंकार का काव्य के शरीरभूत-धर्म, शब्द और अर्थ में से शब्द के साथ सम्बन्ध है, पर रीति का धरातल अलंकार की अपेक्षा अधिक विस्तृत दिखाई पड़ता है, क्योंकि इसका विभाजन रस के आधार पर होता है - अर्थात् प्रत्येक रस की प्रकृति के अनुकूल पद-विन्यास में रीतियों का सौन्दर्य निहित है, अतः ये गुण के अति निकट पहुँच जाती हैं। स्वयं वामन ने भी गुण को काव्य का नित्य धर्म मानकर रीति का गुण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है।
(2) रीति और रस - रीति सम्प्रदाय में वामन ने रीति को अंगी मानकर रस की महत्ता कम की है, पर बाद के आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा माना। रीतिवादी आचार्य गुण की महत्ता स्वीकार करते हैं और गुण रस का ही धर्म है। अतः विद्वानों ने रीति को 'रसाश्रितः' और रसानुभूति में सहायक भी माना है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, "सुन्दर शरीर-रचना जिस प्रकार आत्मा का उत्कर्ष वर्धन करती है, उसी प्रकार रीति भी रस का उपकार करती है।"
रीति और ध्वनि - इन दोनों के सिद्धान्तों में विषमता है। ध्वनिकार रीति को वर्ण-योजना एवं समास का समाहार वर्ण ध्वनि में करते हुए रीति को ध्वनि का अंग मानते हैं। डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा' के अनुसार-रीति गुण पर आश्रित और गुण के दस भेदों का अन्तर्भाव तीन गुणों में करते हुए ध्वनिकार ने उसे असंलक्ष्य क्रम ध्वनि में अंतर्भूत इसका समाहार किया है। इस प्रकार रीति, जो स्वतः गुणाश्रित है, ध्वनि का अंग बन जाती है और उसकी आत्मा के रूप में स्थापना खंडित हो जाती है।
रीति और वक्रोक्ति - कुन्तक रीति का समाहार वक्रोक्ति में करते दिखाई देते हैं। डॉ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार - वस्तुतः वक्रोक्ति का धरातल रीति की अपेक्षा अधिक व्यापक है। वक्रोक्ति कवि-स्वभाव को मूर्धन्य स्थान प्रदान करती है, जबकि रीति में काव्य को सर्वस्व मानकर व्यक्तित्व की लगभग उपेक्षा की गई है। इसके अतिरिक्त वक्रोक्ति में प्रकरण-वक्रता तथा प्रबन्ध-वक्रता की भी व्यवस्था है, जबकि रीति में वक्रोक्ति के केवल चार आरम्भिक प्रकार आ पाते हैं - वर्णविन्यास-वक्रता, पदपूर्वार्द्ध-वक्रता, पदपरार्द्ध-वक्रता और वचन वक्रता। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, "वक्रोक्ति वास्तव में काव्य-कला (Poetic art) की समानार्थी है और रीति काव्य-शिल्प (Poetic craft) की ।" इस प्रकार वामन की रीति वक्रोक्ति का एक अंग मात्र रह जाती है। इन दोनों सिद्धान्तों के अन्तर का सार यही है।
रीति सिद्धान्त की समीक्षा - यह सिद्धान्त परवर्ती आचायों द्वारा मान्य न हो सका, क्योंकि इसमें रस की महत्ता स्वीकार नहीं की गयी। इसे रीति का एक अंग माना गया, वह भी कम महत्वपूर्ण। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, "रीति-सिद्वान्त रीति की आत्मा और रस को एक साधारण अंग मात्र मानकर प्रकृत क्रम का विपर्यय कर दिया और परिणामतः उसका पतन हुआ।"
फिर भी रीति-सिद्धान्त का अपना महत्व है। रीति में वचन-विन्यास-क्रम को महत्व दिया जाता है, जो काव्याभिव्यंजना का एक महनीयत तत्व है। इसके समावेश से ही काव्य आकर्षक बन पाता है, अन्यथा इसके अभाव में वह इतिहासादि की भाँति विषय का ही प्रतिपादन मात्र बनकर रह जायेगा। यह बात दूसरी है कि रीति काव्य में अंग-रूप में ही स्वीकार हो सकती है, अंगी रूप में नहीं।
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Riti siddhant par prakash dalte huye uska sankshep me parichay dijiye?
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