विभिन्न आचार्यों द्वारा किये गये अलंकारों के वर्गीकरण का परिचय दीजिए।

अलंकारों का वर्गीकरण

प्रश्न 3. विभिन्न आचार्यों द्वारा किये गये अलंकारों के वर्गीकरण का परिचय दीजिए।

 

उत्तर - काव्यशास्त्र में रस सूत्र चाहे भरतमुनि का प्रचलित हो और उन्हें रसवादी आचार्य माना जाता हो, परन्तु काव्य की आत्मा सबसे पहले अलंकार को माना गया। सबसे पहले अलंकारवादी आचार्य भामह हैं। 

प्रमुख अलंकारवादी आचार्य दण्डी माने जाते हैं। इन्होंने अलंकारों की संख्या 37 मानी है। इनके बाद अलंकारवादी आचार्य भामह हुए। इन्होंने दण्डी के कुछ अलंकारों को माना और कुछ को नहीं माना। इन्होंने अपनी ओर से निम्नलिखित 6 अलंकार प्रस्तुत किये - (1) अनुप्रास, (2) उपमारूपक, (3) उत्प्रेक्षावयव, (4) उपमेयोपमा, (5) सन्देह, तथा (6) अनन्वय । 

    इसके बाद अलंकारवादी आचार्य उद्द्भट का नाम आता है। इन्होंने दण्डी और भामह के कुछ अलंकारों को स्वीकार किया और कुछ को अमान्य कर दिया। इन्होंने अपनी ओर से निम्नलिखित सात नये अलंकार प्रस्तुत किये -

(1) पुनरुक्तवदाभास, (2) छेकानुप्रास, (3) लाटानुप्रास, (4) प्रतिवस्तूपमा, (5) काव्यलिंग, (6) दृष्टान्त, तथा (7) संकर। 

    उद्भट के पश्चात् अलंकारवादी आचार्य वामन हुए। इन्होंने अपने ग्रन्थ अलंकार सूत्रवृत्ति में आचार्य भामह की अलंकार सम्बन्धी मान्यता को महत्त्व दिया है। इन्होंने दण्डी के 13 तथा भागह के दो अलंकारों को अमान्य किया। इन्होंने दण्डी के 24 और भामह के 4 अलंकारों को मान्य किया। इनके द्वारा कल्पित नये निम्नलिखित तीन अलंकार है -

(1) वक्रोक्ति, (2) ब्याजोक्ति, तथा (3) प्रतिवस्तूपमा। 

ऐसे पहले अलंकारवादी आचार्य रुद्र हैं, जिन्होंने पहली बार अलंकारों का वर्गीकरण किया। इन्होंने दण्डी के 13, भामह के 4, उद्भट के 6 तथा वामन के 2 अलंकारों को अमान्य कर दिया। इन्होंने दण्डी के 24, भामह के 2 तथा उद्भट के 1 अलंकार को स्वीकारा। इन्होंने वामन आचार्य का कोई अलंकार स्वीकार नहीं किया। रुद्रट ने अग्रलिखित 35 अलंकारों की उद्भावना की और इनके अनुसार अलंकारों की संख्या 62 हो गयी -

 (1) व (2) समुच्चय, (3) भाव, (4) पर्याय, (6) विषम, (6) अनुमान, (7) परिकर, (8) परिसंख्या, (9) हेतु अथवा नवीन, (10) कारणमाला, (11) अन्योन्य, (12) एवं (13) उत्तर (14) सार, (15) मीलित, (16) एकावली (17) मत, (18) प्रतीप, (19) उभयन्यास (20) भ्रान्तिमान, (21) प्रत्यनीक, (22) तथा (23) पूर्व, (24) ग्राम्य, (25) स्मरण, (26) विशेष (27) तद्गुण, (28) पिहित, (29) असंगति, (30) व्याघात, (31) अहेतु, (32) अधिक, (33) वक्रोक्ति, ((34) सहोक्तितथा (35) श्लेष

    आचार्य रुद्रट ने पहले अलंकारों का वर्गीकरण दो रूप में अर्थात् शब्दालंकार एवं अर्थालंकार के रूप में किया। इसके बाद उन्होंने शब्दालंकार के अन्तर्गत निम्नलिखित पाँच अलंकारों का समावेश किया - 

(1) वक्रोक्ति, (2) अनुप्रास, (3) यमक, (4) श्लेष, तथा (6) चित्र

अर्थालंकारों का वर्गीकरण आचार्य रुद्रट ने इस रूप में किया है -

(1) वास्तव वर्ग - ( 1 ) सहोक्ति, (2) समुच्चय, (3) जाति अथवा स्वाभावोक्ति, (4) यथासंख्य, (5) भाव, (6) पर्याय, (7) विषम, (8) अनुमान, (9) दीपक, (10) परिकर (11) परिवृत्ति, (12) परिसंख्या, (13) हेतु, (14) कारणमाला, (15) व्यतिरेक, (16) अन्योन्य, (17) उत्तर, (18) सार, (19) सूक्ष्म (20) श्लेष, (21) अवसर (22) मीलित तथा (23) एकावली। 

(2) औपम्य वर्ग - (1) उपमा, (2) उत्प्रेक्षा (3) रूपक, (4) अपद्धति, (5) संशय, (6) समासोक्ति, (7) मत, (8) उत्तर (9) उन्मीलित (10) प्रतीप, (11) अर्थान्तरन्यास, (12) उभयन्यास, (13) भ्रान्तिमान, (14) आक्षेप, (15) प्रत्यनीक, (16) दृष्टान्त (17) पूर्व, (18) सहोक्ति, (19) समुच्चय, (20) साम्य, तथा (21) स्मरण।

(3) अतिशय वर्ग - ( 1 ) वर्ग, (2) विशेष (3) उत्प्रेक्षा, (4) विभावना, (5) तद्गुण, (6) अधिक, (7) विरोध, (8) विषम, (9) असंगति, (10) पिहित, (11) व्याघात, (12) अहेतु 

(4) श्लेष वर्ग - (1) श्लेष।

    इस विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य रुद्रट ने सहोक्ति समुच्चय, पूर्व, श्लेष तथा उत्तर अलंकारों की गणना दो-दो बार की है। सहोक्ति समुच्चय अलंकारों को वास्तव वर्ग और औपम्य वर्ग दोनों में परिगणन किया है। इनका पूर्व अलंकार औपम्य वर्ग और अतिशय वर्ग दोनों में समाविष्ट है। इसी प्रकार श्लेष वास्तव वर्ग एवं श्लेष वर्ग दोनों में सम्मिलित हुआ है।

    आचार्य उद्भट ने अनुप्रास के भेदों को स्वभेद अलंकार स्वीकार किया है। इस प्रकार रुद्रट के अनुसार भी अलंकारों की संख्या 62 होना सम्भव है। जब राजा भोज के 'सरस्वती कंठाभरण और आचार्य मम्मट के काव्य-प्रकाश' के अलंकार - निरूपण पर ध्यान देते हैं, तब हमें आचार्य रुद्रट का महत्त्व स्वीकार करना पड़ता है।

    इस प्रकार स्पष्ट है कि अलंकारों के वर्गीकरण का साहस सबसे पहले आचार्य रुद्रट ने किया। उन्होंने अर्थालंकार से वास्तव, औपम्य, अतिशय तथा श्लेष चार वर्गों की कल्पना की। यद्यपि आचार्य रुद्रट ने अपने इस विभाजन का कोई वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत नहीं किया। फिर भी उन्हें एक नयी परम्परा आरम्भ करने के कारण महत्त्व प्राप्त होना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि रुद्रट के अलंकारों का यह वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं है। आचार्य रुद्रट अपने औपम्य वर्ग के अन्तर्गत सादृश्यमूलक सभी अलंकारों को स्थान देने से चूक गये हैं। वे शब्दालंकारों का भी ढंग से विभाजन नहीं कर सके हैं। उत्प्रेक्षा अलंकार सादृश्यमूलक है। इसे आचार्य रुद्रट में अतिशय वर्ग में स्थान दिया है। इसी प्रकार उन्होंने व्यतिरेक अलंकार को वास्तव वर्ग में स्थान दिया है, जबकि इसे अतिशय वर्ग में स्थान मिलना चाहिए था। 

आचार्य महाराज भोज का वर्गीकरण

    आचार्य रुद्रट के पश्चात् दूसरे आचार्य महाराज भोज ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अलंकारों के वर्गीकरण का साहस किया है। महाराज भोज ने पूर्व आचार्यों के चालीस अलंकारों को अमान्य कर दिया। इनका विवरण इस प्रकार है -

अमान्य - 

(क) दण्डी - (1) आवृत्ति, (2) प्रेम (3) रसवत्, (4) ऊर्जस्वित्, (5) पर्यायोक्त, (6) उदात्त, (7) व्याजस्तुति तथा (8) आक्षीः।

(ख) भामह - (1) उपमारूपक, (2) उत्प्रेक्षावयव, (3) उपमेयोपमा तथा (4) अनन्वय 

(ग) उद्भट - (1) पुनरुक्तवदाभास, (2) छेकानुप्रास, (3) लाटानुप्रास, (4) प्रतिवस्तूपमा, (5) दृष्टान्त तथा (6) संकर।

(घ) वामन - (1) वक्रोक्ति तथा (2) ब्याजोक्ति।

(ङ) रुद्रट - (1) उभयन्यास (2) प्रतीप, (3) प्रत्यनीक, (4) पूर्व, (5) पिहित, (6) मत, (7) विषम, (8) व्याघात, (9) विशेष (10) सार, (11) अधिक, (12) असंगति, (13) एकावली, (14) कारणमाला (15) हेतु (16) तद्गुण (17) परिसंख्या, (18) सहोक्ति, (19) उत्तर तथा (20) समुच्चय।     महाराज भोज ने अपने पूर्ववर्ती आचायों के निम्नलिखित अलंकारों को स्वीकार किया -

मान्य -

 (क) दण्डी - (1) यमक, (2) श्लेष, (3) चित्र (4) विभावना, (5) हेतु (काव्यलिंग सहित) (6) सूक्ष्म, (7) विरोध, (8) परिवृत्ति (9) निदर्शना, (10) व्यतिरेक (भेद नाम से), (11) सूक्ष्म, (12) विरोध, (13) विरोध, (14) परिवृत्ति, (15) निदर्शना, (16) व्यतिरेक (भेद-नाम से), (17) समाहित, (18) उपमा, (19) रूपक, (20) अपद्धति (21) समासोक्ति, (22) उत्प्रेक्षा, (23) अप्रस्तुत प्रशंसा, (24) तुल्योगिता, (25) श्लेष, (26) सहोक्ति, (27) आक्षेप, (28) अर्थान्तरन्यास, (29) विशेषोक्ति, (30) दीपक, (31) क्रम, (32) अतिशयोक्ति, (33) भाषिक तथा (34) संसृष्टि।

(ख) भामह - (1) अनुप्रास, तथा (2) सन्देह (संशय-नाम से)।

(ग) उद्भट - (1) काव्यलिंग (हेतु नाम से)।

(घ) रुद्रट - (1) अहेतु, (2) उत्तर, (3) अन्योन्य, (4) भ्रान्ति, (5) मीलित, (6) भाव, (7) स्मृति (स्मरण), (8) शब्दश्लेष, (9) अनुमान, (10) साम्य, (11) समुच्चय, (12) परिकर, (13) पर्याय तथा (14) वक्रोक्ति (काकोक्ति)।

(3) स्वकल्पित - महाराज भोज ने निम्नलिखित नवीन अलंकारों की उद्भावना की है - 

(1) जाति (शब्दालंकार), (2) मति, (3) रीति, (4) वृत्ति, (5) छाया, (6) मुद्रा, (7) उक्ति, (8) युक्ति, (9) भणिति, (10) गुम्फना, (11) शय्या, (12) पठिति, (13) वाकोवाक्य, (14) प्रहेलिका (15) मूढ़, (16) प्रश्नोत्तर (17) अध्येय, (18) श्रव्य, (19) प्रेक्ष्य, (20) अभिनीति (21) सम्भव (22) वितर्क, (23) प्रत्यक्ष, (24) आगम, (25) उपमान, (26) अर्थापत्ति, (27) अभाव तथा (28) समाधि।

    इस प्रकार 28 नवीन अलंकारों की कल्पना करने वाले अलंकारवादी आचार्य महाराज भोज ने अलंकारों के वर्गीकरण का दूसरा प्रयास किया। भोजराज ने अलंकारों का विभाजन निम्नलिखित तीन वर्गों में किया है - 

(क) शब्द वर्ग- (1) जाति, (2) गति, (3) रीति, (4) वृत्ति, (5) छाया, (6) मुद्रा, (7) उक्ति, (8) उक्ति, (9) भणिति, (10) गुम्फना, (11) शय्या, (12) पठति, (13) यमक, (14) श्लेष, (15) अनुप्रास, (16) चित्र (17) वाकोवाक्य, (18) प्रहेलिका, (19) गूढ़ (20) प्रश्नोत्तर (21) अध्येय, (22) श्रव्य, (23) प्रेक्ष्य तथा (24) अभिनीति ।

(ख) अर्थवर्ग - (1) जाति, (2) विभावना, (3) हेतु, (4) अहेतु, (5) सूक्ष्म, (6) अपह्नुति, (7) निदर्शना, (8) भेद (व्यतिरेक), (9) समाहित, (10) भ्रान्ति, (11) वितर्क, (12) मीलित, (13) स्मृति (14) स्मृति (15) स्मृति (16) भाव, (17) प्रत्यक्ष, (18) अनुमान, (19) आगम, (20) आगम, (21) उपमान, (22) अर्थापति तथा (23) अभाव। 

(ग) उभय वर्ग - (1) उपमा, (2) रूपक, (3) साम्य, (4) संशय, (5) अपह्नुति, (6) समाधि, (7) समासोक्ति, (8) उत्प्रेक्षा, (9) अप्रस्तुत प्रशंसा, (10) तुल्ययोगिता, (11) श्लेष, (12) सहोक्ति, (13) समुच्चय, (14) आक्षेप, (15) अर्थान्तरन्यास, (16) विशेषोक्ति, (17) परिकर, (18) दीपक, (19) क्रम, (20) पर्याय, (21) अतिशयोक्ति, (22) श्लेष, (23) भाविक तथा (24) संसृष्टि

    आलोचना - इस वर्गीकरण में श्लेष और जाति अलंकार दो-दो बार आये हैं। इन दोनों में श्लेष के दो रूप तो रुद्रट ने भी मान्य किये हैं। रुद्रट ने श्लेष को वास्तव वर्ग और श्लेष वर्ग दो वर्गों में स्थान दिया है। जाति और स्वभावोक्ति अलंकार के सूत्र में एक ही हैं, जबकि भोजराज ने जाति को शब्द वर्ग और अर्थ वर्ग दोनों में स्थान दिया है। राजा भोज इनमें से एक को स्वभावोक्ति मान सकते थे। इस प्रकार शब्द जाति की कल्पना भोजराज की व्यक्तिगत उद्द्भावना है। 

    इस प्रकार भोजराज के समय तक अलंकारों की संख्या 105 हो गयी थी। इनमें 87 अलंकार प्राचीन तथा 28 राजा भोज के द्वारा कल्पित होने के कारण नवीन कहे जा सकते हैं। राजा भोज ने जो प्राचीन अलंकार स्वीकार किये हैं, वे दण्डी से कम और रुद्रट से अधिक ग्रहण किये हैं। रुद्रट के काव्यालंकारों में से राजा भोज ने 16 अलंकारों के उदाहरण भी ग्रहण किये हैं। 

    देखा जाये तो भोजराज का अलंकार विवेचन, अलंकारों का वर्गीकरण और अलंकारों की कल्पना अपने आप में विशाल प्रयत्न है तथा इनकी स्थापनाओं की मौलिकता स्पष्ट है। उन्होंने जिन अलंकारों को अमान्य कर दिया है, केवल उनके विषय में विचार अपेक्षित है। 

    'काव्य-प्रकाश' के रचयिता आचार्य मम्मट के समय तक अलंकारों की संख्या 118 हो गयी थी। आचार्य सम्मट ने महाराज भोज के सभी अलंकार स्वीकार कर लिये तथा अपने तीन अलंकार - (1) विनोक्ति, (2) सम तथा (3) आदगुण की रचना की। आचार्य मम्मट में इन 118 अलंकारों में से केवल 68 अलंकारों को स्वीकार किया है और 50 को अमान्य कर दिया है। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि आचार्य मम्मट ने आचार्य भोज के अलंकार- विवेधन को सर्वया अमान्य कर दिया है। उन्होंने आचार्य रुद्रट के 24 अलंकारों को स्वीकार किया है। आचार्य मम्मट ने अलंकारों का कोई वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं किया है। 

आचार्य रुय्यक - अलंकारों का वर्गीकरण करने वाले तीसरे और अन्तिम आचार्य रुय्यक हैं। आचार्य दण्डी से आचार्य सम्मट तक अलंकारों की संख्या 118 हो गयी थी। आचार्य रुय्यक ने 75 अलंकार स्वीकार किये। 

(1) अमान्य - आचार्य रुय्यक ने भिन्न-भिन्न आचायों के जिन अलंकारों को अमान्य किया, उनका विवरण निम्नलिखित है-

(क) दण्डी - (1) आवृत्ति, (2) हेतु, (3) लेश तथा (4) आक्षी 

(ख) भामह - (1) उत्प्रेक्षा के भेद तथा (2) उपमा रूपक।

(ग) वामन - (1) वक्रोक्ति।

(घ) भोज - (1) जाति (शब्दगत), (2) गति, (3) रीति, (4) वृत्ति, (5) छाया, (6) मुद्रा, (7) उक्ति, (8) युक्ति, (9) भणिति (10) गुम्फना, (11) शय्या, (12) पठिति, (13) वकोवाक्य, (14) प्रहेलिका (15) गूढ़, (16) प्रश्नोत्तर, (17) अध्येय, (18) श्रव्य, (19) प्रेक्ष्य, (20) अभिनीत (21) संभव, (22) वितर्क, (23) प्रत्यक्ष, (24) आगम, (25) उपमान तथा (26) अभाव।

(ङ) रुद्रट - (1) प्रभाव, (2) हेतु, (3) गत, (4) उपन्यास, (5) व (6) पूर्व (दोनों), (7) अहेतु, (8) सहेतु, (9) उत्तर, (10) समुच्चय तथा (11) अर्थश्लेष।

(2) मान्य - आचार्य रुय्यक ने भिन्न-भिन्न आचायों के जो अलंकार स्वीकार किये हैं, उनका विवरण निम्नलिखित है - 

(क) दण्डी - (1) स्वभावोक्ति, (2) उपमा, (3) रूपक, (4) दीपक, (5) आक्षेप, (6) अर्थान्तरन्यास, (7) व्यतिरेक, (8) विभावना, (9) समासोक्ति, (10) व (11) अतिशयोक्ति (दोनों), (12) उत्प्रेक्षा (13) सूक्ष्म, (14) क्रम (ययासंख्य), (15) रसवत् (16) प्रेय, (17) ऊर्जस्वी, (18) समाहित (समाधि), (19) पर्यायोक्त, (20) उदात्त, (21) अपह्नुति, (22) श्लेष, (23) विशेषोक्ति, (24) तुल्ययोगिता, (25) विरोध, (26) अप्रस्तुत प्रशंसा, (27) ब्याजस्तुति, (28) निदर्शना, (29) सहोक्ति (30) परिवृत्ति, (31) संसृष्टि, (32) भाविक, (33) यमक तथा (34) चित्र।

(ख) भामह - (1) अनुप्रास, (2) उपमेयोपमा, (3) अनव्यय तथा (4) सन्देह।

(ग) उद्भट - (1) पुनरुक्तवदाभास, (2) छेकानुप्रास, (3) लाटानुप्रास, (4) प्रति वस्तूपमा, (5) काव्यलिंग, (6) दृष्टान्त तथा (7) संकर 

(घ) वामन - (1) ब्याजोक्ति।

(ङ) रुद्रट - (1) समुच्चय, (2) पर्याय, (3) विषम (4) अनुमान, (5) परिकर, (6) परिसंख्या, (7) काव्यमाला, (8) अन्योन्य, (9) उत्तर (10) सार, (11) मीलित, (12) एकावली (13) प्रतीप, (14) भ्रांतिमान, (15) प्रत्यनीक, (16) स्मरण, (17) विशेष (18) तद्गुण, (19) पिहित (सामान्य), (20) असंगति, (21) व्याघात, (22) अधिक तथा (23) वक्रोक्ति।

(च) भोज - (1) अर्थापति।

(छ) मम्मट - (1) विनोक्ति, (2) सम, तथा (3) अतद्गुण 

(3) स्वकल्पित - (1) परिणाम, (2) उल्लेख (3) विचित्र (4) विकल्प, (5) भावोदय, (6) भावसन्धि तथा (7) भावशवलता।

    आलोचना - इस प्रकार स्पष्ट है कि रुय्यक तक अलंकारों की संख्या 125 हो गयी थी। इनमें आचार्य राय्यक ने 43: अलंकारों का निषेध करके 82 अलंकारों को मान्यता प्रदान की। रुय्यक को 'भावोदय' अलंकार के रूप में स्वीकार नहीं है। यही कारण है कि उन्होंने भावोदय का लक्षण दिया है और न उदाहरण प्रस्तुत किया है। रुय्यक ने रसवत, प्रेय, ऊर्जस्व और समाहित को भी अलंकार स्वीकार नहीं किया है।

    आचार्य राय्यक ने अलंकारों का वर्गीकरण शुद्ध खण्ड और मिश्र खण्ड दो भागों में किया है। उसके बाद प्रत्येक खण्ड का विभाजन वर्गों में किया है।

1. शुद्ध खण्ड

वर्ग-एक : शब्दालंकार वर्ग या पौनरुक्त्य वर्ग-

(अ) सादृश्य विच्छिति- 

 (1) अर्थपौनरुक्त्यः   (1) पुनरुक्तवदाभास।

(2) व्यंजन पौनरुवत्यः (2) ऐकानुप्रास, 

(3) नृत्यनुप्रास। (3) स्वरव्यंजन पौनरुक्त्यः

(4) यमक   (4) शब्दार्थौमयपौनरुक्त्यः 

(5) लायनुप्रास। (5) स्थानविशेष रिलेष्टवर्णपौनरुक्त्यः।

(6) चित्र।

वर्ग-दो : अर्थालंकार वर्ग - 

(अ) सादृश्य विच्छत्ति - 

(6) भेदाभेदतुल्यतमूलकः (7) उपमान, (8) अनन्वय, 

(9) उपमेयोपमा, (10) स्मरण।

(7) अभेदप्राधान्यमूलक । 

(क) अरोपाश्रितः

 (11) रूपक, (12) परिणाम,

(13) सन्देह, (14) भ्रान्तिमान,

(15) उल्लेख (16) अपहयुती ।

 (ख) अध्यवसायाश्रितः

(17) उत्प्रेक्षा, (18) अतिशयोक्ति ।

 (ग) गम्यौपम्यमूलकः

(19) तुल्ययोगिता, (20) दीपक,

(21) प्रतिवस्तूपमा, (22) दृष्टान्त,

(23) निदर्शना।

(घ) भेदप्रधानमूलकः

(24) व्यतिरेक, (25) सहोक्ति।

(ब) विशेषण विच्छत्ति -

(क) केवल विशेषण विच्छतिः 

(26) समासोक्ति, (27) परिष्कर। 

(ख) सविशेष विशेषण विच्छत्तिः:

(28) श्लेष।

(स) गम्यार्थता विच्छत्ति -

(29) पर्यायोक्त, (30) ब्याजस्तुति,

(31) आक्षेप।

(द) विरोध विच्छत्ति -

(क) शुद्ध विरोधः

(32) विरोध,

(ख) कार्यकारण भावाश्रितः

(33) विभावना, (34) अतिश्योक्ति।

(ग) आश्रयाश्रयित्वमूलकः

(35) अधिक, (36) विशेष

(घ) व्यतिहारमूलकः

(37) अन्योन्य।

(य) श्रृंखला विच्छत्ति

(38) कारणमाला, (39) एक खोली,

(40) मालादीपक, (41) सार,

(42) काव्यलिंग, (43) अनुभाव,

(44) यथासंख्य (45) पर्याय,

(46) परिवृत्ति।

(र) न्याय विच्छत्ति -

(क) तर्क न्यायमूलकः

(47) परिसंख्या, (48) स्नापिति, (49) विकल्प।

(ख) वाक्यव्यायमूलकः 

 (50) समुच्चयः, (51) समाधि ।

(ग) लोकन्यायमूलकः

(52) प्रत्यनीक, (53) प्रतीप

(54) मीलित, (55) तद्गुण, (56) अंतद्गुण।

(ल) पूर्णार्थपरता विच्छित्ति -

(क) शुद्ध:

(57) सूक्ष्म, (58) व्याजोक्ति, (59) वक्रोक्ति, (60) स्वभावोक्ति

(ख) स्फुटार्थताः

(61) भविक। 

 (ग) उदात्तताः

(62) उदात्त ।

 (घ) चित्तवृत्याश्रितः

(63) संवत्, (64) श्रेय,

(65) ऊर्जस्वित्, (66) समाहित,

(67) भावोदय, (68) भावशबलता।

2. मिश्र खण्ड -

(1) संसृष्टि - (क) शब्दालंकार संसृष्टि।

(ख) अर्थालंकार संसृष्टि। 

(ग) उभयालंकार संसृष्टि।

(2) संकर।

    इस प्रकार आचार्य राय्यक ने अलंकारों का विभाजन केवल दो खण्ड - (1) शब्द खण्ड, तथा (2) मिश्र खण्ड में किया है। उन्होंने शब्दार्थों भाव खण्ड की कल्पना का खण्डन किया है। यह बात अलग है कि आचार्य रुय्यक ने शब्दार्थोभाव खण्ड को आचार्य मम्मट के समान अंकुरमाला तक सीमित रखा है। 

आलोचना - इस वर्गीकरण में समासोक्ति, प्रतीप, सामान्य और मीलित सादृश्यमूलक अलंकार है। इन्हें गम्योगम्य के अन्तर्गत रखना चाहिए था। इनमें से समासोक्ति को परिकर और श्लेष के साथ रखा गया है। इनमें से श्लेष को तो किसी प्रकार सादृश्यमूलक माना जा सकता है, परन्तु परिकर को किसी भी प्रकार सादृश्यमूलक नहीं माना जा सकता। विकल्पालंकार भी सादृश्यमूलक है। अतिशयोक्ति के समान अप्रस्तुत प्रशंसा को भी दो भागों में विभाजित करके उसके सादृश्यमूलक भेद को भी आचार्य रुय्यक पृथक रख सकते थे, पूर्वाचार्यों के समान रुय्यक ने अन्योक्ति अलंकार को भी मान्यता प्रदान नहीं की है।

हिन्दी के आचार्यों ने अलंकारों के निम्नलिखित तीन भेद किये हैं- 

(1) शब्दालंकार - जहाँ चमत्कार शब्द पर आश्रित हो अर्थात् शब्द का परिवर्तन होने पर अलंकार न रहे वहाँ, शब्दालंकार माना जाता है। अनुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति, पुरुक्तवदाभास, वीप्सा, ध्वनिचित्र अथवा ध्वन्यर्थ व्यंजना शब्दालंकार है। 

(2) अर्थालंकार - जहाँ चमत्कार शब्द पर आश्रित हो अर्थात् शब्द का परिवर्तन होने पर अलंकार न रहे वहाँ, शब्दालंकार माना जाता है। अनुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति, पुनराक्तवदाभास, वीप्सा, ध्वनिचित्र अथवा ध्वन्यार्थ व्यंजना शब्दालंकार है।

(3) उभयालंकार - जहाँ चमत्कार का आश्रय शब्द और अर्व दोनों होते हैं, वहाँ उभयालंकार माना जाता है। हिन्दी के आचायों ने एक अन्य प्रकार से भी अलंकारों का वर्गीकरण किया है -

पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों का अलंकार वर्गीकरण

ऑक्सफोर्ड एनसाइक्लोपीडिया में अलंकारों का वर्गीकरण आठ भागों में प्राप्त होता है - 

(1) तुलनात्मक अलंकार, (2) नामविपर्यययुक्त अलंकार, (3) विषमतामूलक अलंकार, (4) अतिशयोक्तिमूलक अलंकार, (5) प्रश्नोत्तर-रूप अलंकार (6) विपर्ययमूलक अलंकार, (7) शब्द-वैचित्र्यपरक अलंकार, तथा (8) क्रम-वैचित्र्यपस्क अलंकार। 

    भारतीय और पाश्चात्य वर्गीकरण में साम्य - अलंकारों में भारतीय और पाश्चात्य वर्गीकरण में पर्याप्त समानता है। पाश्चात्य अलंकारों में शब्द-वैचित्र्य अलंकार भारतीय काव्यशास्त्र का शब्दालंकार ही है। पाश्चात्य वर्गीकरण के तुलनात्मक अलंकारों को भारतीय वर्गीकरण का समतामूलक वर्ग मानना उचित है। पाश्चात्य वर्गीकरण के विषमतामूलक अलंकार भारतीय वर्गीकरण के विरोधमूलक अलंकारों के समान कहे जा सकते हैं। पाश्चात्य वर्गीकरण के प्रश्नोत्तरमूलक अलंकारों की समानता भारतीय वर्गीकरण के तर्कमूलक अलंकारों से हो सकती है। पाश्चात्य वर्गीकरण के क्रम-वैचित्र्यमूलक अलंकार भारतीय वर्गीकरण के श्रृंखलामूलक अलंकार कहे जा सकते हैं। 

इस प्रकार संस्कृत के, हिन्दी के और पाश्चात्य भाषाओं के आचार्यों ने अपनी-अपनी प्रतिभा और मान्यता के अनुसार अलंकारों का वर्गीकरण किया है। कहने के लिए सभी वर्गीकरणों में कोई-न-कोई दोष या न्यूनता सम्भव है। कोई भी वर्गीकरण अन्तिम नहीं है।

    तो ये था अलंकारों का वर्गीकरण यदि इससे संबंधित कोई प्रश्न हों तो कमेंट में लिखें। 

Vibhinna aacharyon dwara kiye gaye alankaro ke vargikaran ka parichay dijiye.

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