ध्वनि सिद्धांत के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालते हुए ध्वनि सम्प्रदाय की मान्यताओं का विवेचन कीजिए।

प्रश्न 10. ध्वनि सिद्धान्त के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालते हुए ध्वनि सम्प्रदाय की मान्यताओं का विवेचन कीजिए।

ध्वनि सिद्धान्त परिचय

उत्तर- 'ध्वनि' से तात्पर्य स्वर अथवा आवाज से है अर्थात् जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे ही 'ध्वनि' कहते हैं -

'ध्वन्यते अनने इति ध्वनि।'

इसकी व्युत्पत्ति 'ध्वन्' धातु में 'ड' के प्रत्यय के जुड़ने से होती है। इसका प्राचीनतम प्रयोग अथर्ववेद में मिलता है -

'ध्वनयो यन्तु शोभम्।"

अलंकारवादियों ने ध्वनि का प्रयोग पाँच अर्थों में किया है - 

ध्वनयति यः व्यञ्जक शब्दः स ध्वनिः - उस व्यंजक शब्द को ध्वनि कहते हैं, जो ध्वनित करे या कराये।

ध्वनति ध्वनयति या यः स व्यश्यकः अर्थ ध्वनिः - वह व्यंजक अर्थ ध्वनि है, जो ध्वनि करे या कराये।

ध्वन्यते इति ध्वनिः - जो ध्वनित हो, उसे ध्वनि कहते हैं। 

ध्वन्यते अनने इति ध्वनिः - जिसके द्वारा ध्वनि की उत्पत्ति होती है, वही ध्वनि है।

ध्वन्यतेऽस्मिन्निति ध्वनिः - उस काव्य को ध्वनि कहते हैं, जिसमें वस्तु, अलंकार एवं रस ध्वनित होते हैं।

(भारतीय आलोचनाशास्त्र)

ध्वनि सम्प्रदाय

ध्वनि सिद्धान्त की स्थापना करने वाले आचार्य आनन्दवर्धन है। यद्यपि आनन्दवर्धन ने अपने कुछ पूर्ववर्ती आचार्यों को ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने वाला बताया है -

काव्यास्यात्मा ध्वनि रिति बुधैर्यः समाम्नात पूर्वः,

तस्याभावं जगदुरपरे भाक्तमाहुस्तमन्ये ।

(काव्य की आत्मा ध्वनि है, यह सिद्धान्त कुछ विद्वान स्वीकार कर चुके हैं। कुछ ने इस सिद्धान्त का विरोध किया है एवं कुछ ने इसका अन्तर्भाव अन्य सिद्धान्तों में किया है।) 

वस्तुतः आनन्दवर्धन के पूर्ववर्ती आचार्यों - भरत मुनि, भामह, दण्डी, वामन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार किया है। सम्भवतः आनन्दवर्धन अपने सिद्धान्त की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए यह स्वीकार करते हों।

आनन्दवर्धन की स्थापना

यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थौ ,

व्यक्तः काव्यविशेषः स ध्वनिरितिसुरभिः कथितः ।

अर्थात् जहाँ शब्द अथवा अर्थ अपने अर्थ का त्याग करके किसी विशेष अर्थ (व्यंग्यार्य) की प्रतीति कराते हैं, विद्वानों ने उसे ध्वनि कहा है।

संस्कृत आचार्य

(1) आनन्दवर्धन - इन्होंने प्रतीयमान अर्थ को ही ध्वनि माना है। वह अंगनाओं के लावण्य के समान अलग ही झलकता है -

प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्। 

यत्तत् प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवागंनासु ।।

उनके अनुसार- "महाकवियों की वाणी में वाच्यार्थ से भिन्न प्रतीयमान (अर्थ) कुछ और ही वस्तु है जो प्रसिद्ध अलंकारों अथवा प्रतीत होने वाले अन्य गुणादि तत्वों के भिन्न सुन्दरियों के लावण्य के समान (अलंकारादि से अलग ही) प्रकाशित होता है। जिस प्रकार सुन्दरियों का सौन्दर्य समस्त अंगों से पृवक दिखाई देता है और सहृदय नेत्रों के लिए अमृत-सा कुछ और ही होता है, उसी प्रकार वह प्रतीयमान अर्थ कुछ और ही होता है। (डॉ. कृष्णदेव झारी) 

(2) अभिनवगुप्त - 'ध्वन्यालोक' की लोचन नाम्नी व्याख्या में अभिनवगुप्त ने ध्वनि-सम्बन्धी समस्त भ्रान्तियों का निराकरण किया है। उन्होंने रस और ध्वनि के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते हुए रस के कारण ही ध्वनि को महत्व दिया और यह भी कहा कि व्यंजना व्यापार के द्वारा ही रस की सिद्धि सम्भव है। उनके अनुसार रस का बोध व्यंग्य द्वारा होता है और रस का रहस्योद्घाटन व्यंजनावृत्ति द्वारा ही हो सकता है। अभिनवगुप्त रसात्मक सौन्दर्य से युक्त ध्वनि को ही काव्य मानने के पक्ष में अपना मत व्यक्त करते हैं और केवल ध्वनि में काव्य-सौन्दर्य स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार वस्तु तथा अलंकार ध्वनियों में अन्ततः रस की ही प्रतीति होती है। ये ध्वनि को काव्य की आत्मा मानकर भी उसे काव्य का सर्वस्व स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार काव्य में - 'शब्दार्थ गुणालंकार संयुक्त रसात्मकता' की चारुता का होना अत्यन्त आवश्यक है। (ही. हीरा-भारतीय आलोचनाशास्त्र) 

(3) भोजराज - इन्होंने 'श्रृंगारप्रकाश' में ध्वनि का विवेचन किया है। इन्होंने तात्पर्या शक्ति को ध्वनि से अभिन्न मानकर, इसके अन्तर्गत ही ध्वनि का विवेचन किया है। 

(4) मम्मट - ध्वनि-सिद्धान्त को व्यवस्थित करने का श्रेय इन्हीं को है। इन्होंने ध्वनि की प्रधानता के आधार पर काव्य का वर्गीकरण किया है। इनके अनुसार जहाँ वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ में चमत्कार हो, वहीं उत्तम (ध्वनि) काव्य होता है। मध्यम काव्य में व्यंग्यार्थ या तो वाच्यार्थ के समान चारु होता है या वाच्यार्थ से कम चमत्कारक होता है। अधम काव्य में व्यंग्यार्थ का नितांत अभाव रहता है और उसमें शब्द एवं अर्थगत चारुता रहती है।

(डॉ. 'हीरा' भारतीय आलोचनाशास्त्र) 

(5) विश्वनाथ - इन्होंने 'साहित्य-दर्पण' के चतुर्थ परिच्छेद में ध्वनि और गुणीभूत व्यंग्य का विस्तृत विवेचन किया है और ध्वनि तथा व्यंजना की महत्ता स्वीकार की है। 

(6) पंडितराज जगन्नाथ - इन्होंने अपना स्वतंत्र मत व्यक्त किया है और रसादि ध्वनि को असंलक्ष्य-क्रमहीन मानकर संलक्ष्य-क्रम भी स्वीकार किया है।

हिन्दी आचार्य

(1) चिंतामणि त्रिपाठी - इन्होंने ध्वनि की व्याख्या की और ध्वनि काव्य को उत्तम माना। साथ ही ध्वनि के भेदों की भी व्याख्या की -

प्रतिशब्दकृत लब्धक्रम, व्यंग्य सु त्रिविधि बखानि। 

शब्द, अर्थ, जुग सक्ति भव, इति ध्वनि भेद सुजानि ।।

(2) कुलपति मिश्र - इन्होंने अपने 'रस-रहस्य' में 'काव्य-प्रकाश' के आधार पर ध्वनि का निरूपण किया है और काव्य के तीन भेदों का भी उल्लेख किया है। उनका मत है -

व्यंग जीव ताको कहत, शब्द अर्थ है देह।

गुण-गुण भूषण भूषणौ, दूषण-दूषण एह।।

अर्थात् वे काव्यात्मा ध्वनि को मानते हैं तथा उसकी महत्ता स्वीकार करते हुए गुण, अलंकारादि को ध्वनि की सिद्धि का साधन मानते हैं। इन्होंने उसके भेद भी गिनाये हैं। 

(3) भिखारीदास - इन्होंने 'काव्य-निर्णय' में ध्वनि का विवेचन किया है -

वाच्य अरब ते व्यंग्य में, चमत्कार अधिकार।

धुनि ताही को कहत हैं, उत्तम काव्य- विचार।।

इन्होंने भेदों का वर्णन मम्मट के आधार पर किया है - 

(4) प्रतापसाहि - इन्होंने 'काव्य-विलास' में 118 छंदों में ध्वनि का विवेचन किया है। इनके अनुसार -

वाच्य अपेक्षा अरथ को, व्यंग चमत्कृत होइ।

शब्द अर्थ में प्रकट जो, धुनि कहियत है सोई।।

इन्होंने ध्वनि के भेद भी किये हैं। 

ध्वनि सिद्धान्त का विरोध

  1. मुकुलभट्ट - इन्होंने केवल अभिधा को मान्यता दी और उसी के छः भेदों में ध्वनि को समाहित कर दिया। 
  2. प्रतिहारेन्दुराज - इन्होंने ध्वनि सिद्धान्त का खण्डन करते हुए इसका अन्तर्भाव अलंकार में माना। इन्होंने समस्त ध्वनि-प्रपंच का अलंकारों में समावेश कर 'ध्वन्यालोक' के अनेक उदाहरणों को अलंकार का रूप मान लिया। 
  3. भट्टनायक - इनका ग्रंथ 'हृदयदर्पण' है जिसमें इन्होंने ध्वनि सिद्धान्त का खण्डन किया है जो अब उपलब्ध नहीं है।
  4. धनंजय धनिक - इन्होंने अभिया और लक्षणा शक्तियों की तो मान्यता दी है, पर व्यंजना को अमान्य घोषित किया है। ये रस को व्यंजना का व्यापार नहीं मानते। इनके अनुसार 'व्यंजना' में 'ध्वनि' का होना भी आवश्यक नहीं है। इनका निष्कर्ष है - काव्य न तो व्यंजक है और न रसादि व्यंजक है। काव्य भावक है और रसादि भाव्य हैं। सहृदय के मन में होने वाले स्थायी भाव की चर्वणा को ही 'भावना' कहते हैं। सहृदय के हृदय में रसादि स्वतः स्फुरित होते हैं और काव्य उनके (रसों) विशिष्ट विभावों द्वारा उनकी भावना करता है। (डॉ. हीरा- भारतीय आलोचनाशास्त्र)
  5. कुन्तक - इन्होंने ध्वनि का समाहार वक्रोक्ति में करने का प्रयास किया। अतः वे उसकी मान्यता भले ही न कर सके हों, पर खंडन भी नहीं किया है।
  6. महिमभट्ट - ये तो ध्वनि के प्रबल विरोधी है। इन्होंने अनुमान या अनुमति में ही ध्वनि के समस्त भेदों का अंतर्भाव कर उसके अस्तित्व पर ही आघात किया है। इन्होंने मात्र अभिधा को ही महत्व दिया है।

ध्वनि के भेद 

(1) लक्षणा - मूल या अविवक्षित वाच्य-ध्वनि - इसके मूल में लक्षणा को स्वीकार किया गया। इसके भी दो भेद माने गये।

(क) अर्थान्तर-संक्रमित वाच्य ध्वनि - इसके मूल में उपादान लक्षणा को मानकर यह कहा गया है कि जहाँ वाच्यार्थ अन्यार्थ में संक्रमण कर जाये, वहाँ यह ध्वनि होती है -

सीताहरण न तात जनि, कहेउ पिता सन जाय।

जो मैं राम तो कुल सहित, कहहि दसानन आय।। 

(ख) अत्यन्त तिरस्कृत ध्वनि - जहाँ मुख्यार्थ का एकदम तिरस्कार हो जाय या वाच्यार्थ का सर्वथा त्याग हो -

'सकल रोओं से हाथ पसार, लूटता इधर लोभ गृहद्वार ।'

(2) अभिधामूला ध्वनि - इसके मूल में तो अभिधा का होना स्वाभाविक है। इसके भी दो भेद माने गये - 

(क) असंलक्ष्य-क्रम व्यंग्य-ध्वनि - जहाँ वाच्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ का पूर्वापर क्रम स्पष्ट न हो या दिखाई न पड़े।

(ख) संलक्ष्य-क्रम व्यंग्य-ध्वनि - जिस ध्वनि के वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ का क्रम अच्छी तरह दिखाई पड़े। 

(3) अलंकार ध्वनि - जहाँ व्यंग्यार्थ का कारण अलंकार हो - 

'सुबरन को ढूँढ़त फिरत, कवि, व्यभिचारी, चोर।'

(4) रस-ध्वनि - इसके अन्तर्गत-भाव, भावाभास, रसाभास, भाव-संधि एवं भाव-शांति की चर्चा की गयी है। यह ध्वनि महत्वपूर्ण है। 

(5) वस्तु ध्वनि - इसमें वस्तु (तथ्य) की व्यंजना होती है।

ध्वनि और अन्य सम्प्रदाय

(1) ध्वनि और रस सम्प्रदाय - ध्वनि सम्प्रदाय की 'रस ध्वनि' रस-सिद्धान्त की मान्यता प्रस्थापित करती है। उनके अनुसार ध्वनि काव्य की आत्मा और रस ध्वनि की आत्मा है। रस को ध्वनि से पृथक नहीं किया जा सकता है और न ध्वनि के बिना रस की कल्पना की जा सकती है; क्योंकि रस ध्वनित होता है। यह व्यंग्य है, उसकी अभिव्यक्ति वाचक शब्दों के द्वारा नहीं हो सकती। ध्वनि के द्वारा ही रस का विस्तार होता है और उसे महत्व प्राप्त होता है। रस भावना का विषय है तो ध्वनि कल्पना का। ध्वनि अपने में एक विराट काव्य-तत्व है, जिसमें रस, अलंकारादि सभी समाविष्ट हो जाते हैं; किन्तु रस अपेक्षाकृत परिमित तत्व है जो ध्वनि के अभाव में नहीं चल सकता। रस तो सर्वथा ध्वनित ही होता है और ध्वनि के बिना इसकी अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है अर्थात् रस की अभिव्यक्ति ध्वनि पर ही आश्रित है।

डॉ. नगेन्द्र के अनुसार - "दोनों में भेद केवल यही है कि रस-सिद्धान्त जहाँ कल्पनात्मक भावना को कवित्व का प्राण-तत्व मानता है, वहाँ ध्वनि-सिद्धान्त भाव-रंजित कल्पना को; और यह भेद वास्तव में इतना सूक्ष्म है कि कालांतर में इसका एक प्रकार से लोप हो जाता है।"

(2) ध्वनि और अलंकार - ध्वनिवादी आचार्य अलंकारों को ध्वनि का अंग ही स्वीकार करते हैं। इन्होंने अलंकारों में शब्दार्थ की चारुता सिद्ध कर ध्वनि को महान् कहते हुए अलंकारों का समाहार ध्वनि में किया है। ध्वनि की चारुता व्यंग्य-व्यंजक भाव पर आश्रित है तो अलंकार का चमत्कार शब्दार्यगत होता है। अतः अलंकार ध्वनि का अंग है और ध्वनि अंगी। आनन्दवर्धन ध्वनि को काव्य की आत्मा मानकर उसे अलंकार्य सिद्ध करते हैं। ध्वनिकार के अनुसार रसादि के अंग-रूप में ही अलंकार की विवक्षता होती है; अलंकार प्रधान साधन मानकर उसे काव्य में स्थान नहीं देना चाहिए। बिना किसी प्रयत्न के ही यदि काव्य में अलंकारों का विधान हो, तो वे ही अलंकार ध्वनि-सिद्धान्त में मान्य होंगे।

(3) वक्रोक्ति और ध्वनि - वक्रोक्तिवादी आचार्य कुन्तक अभिचा के पक्षधर हैं, जबकि ध्वनि सिद्धान्त व्यंजना के महत्त्व को स्वीकार करता है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार आनन्दवर्धन कल्पना को आत्मगत मानते हैं अर्थात् कल्पना का तात्पर्य प्रमाता की कल्पना से है। सत्काव्य प्रमाता की कल्पना को उद्बुद्ध कर सिद्धि-लाभ करता है। कुन्तक कल्पना को वस्तुगत मानते हैं, उनकी दृष्टि से यह है तो मूलतः कवि की ही कल्पना, किन्तु रचना के उपरान्त कवि के भूमिका से हट जाने के कारण, वह अब काव्य में सन्निविष्ट हो गयी है, अतः उसकी स्थिति काव्य में वस्तुगत ही रह जाती है। ('वक्रोक्ति जीवितम्' की भूमिका)

(4) औचित्य और ध्वनि - आनन्दवर्धन ने ध्वनि को काव्य का आत्म-तत्त्व मानते हुए रस, अलंकार, गुण, वृत्ति आदि के साथ ही साथ औचित्य को भी उसका एक गुण स्वीकार किया है। उनकी मान्यता है कि काव्य में रस, अलंकार आदि के विधान हेतु औचित्य आवश्यक है। 

(5) रीति और ध्वनि - ध्वनिकार ने रीति की वर्ण-योजना एवं समास का समाहार वर्ण ध्वनि में करते हुए रीति को ध्वनि का अंग माना है। रीति-गुण पर आश्रित है और गुण के दस भेदों का अंतर्भाव तीन गुणों में करते हुए ध्वनिकार ने उसे असंलक्ष्य-क्रम ध्वनि में अंतर्भूत किया है। इस प्रकार रीति, जो स्वतः गुणाश्चित है, ध्वनि का अंग बन जाती है और उसकी आत्मसंस्थापनीयता खंडित हो जाती है।

उपसंहार -

ध्वनिवादी आचार्य यह स्वीकार करते हैं कि रस, अलंकार, रीति, गुण, औचित्य आदि सभी ध्वनि के सहायक एवं उसके अंग है तथा काव्य में उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। उन्होंने ध्वनि का विभाजन किया-वस्तु ध्वनि, अलंकार ध्वनि एवं रस ध्वनि, अलंकार ध्वनि एवं रस ध्वनि कुल मिलाकर ध्वनि सिद्धान्त की स्थापना के द्वारा न केवल ध्वनि के निक्षत रूप की स्थापना हुई, अपितु अन्य काव्य-सिद्धान्तों के स्वरूप का भी सम्यक विश्लेषण कर काव्य में उनकी उपयोगिता का स्थान निर्धारित किया गया। वस्तुतः ध्वनि सिद्धान्त के दो मुख्य उद्देश्य थे - ध्वनि की स्थापना एवं अन्य सिद्धान्तों के स्वरूप का निर्धारण और इन कार्यों के सम्पादन में ध्वनि सिद्धान्त पूर्ण समर्थ हुआ है। 

इंटरनेट पर लोगों के द्वारा पूछे जाने वाला प्रश्न

1. ध्वनि सम्प्रदाय क्या है?

उत्तर - ध्वनि सिद्धांत की स्थापना करने वाले आचार्य आनंदवर्धन हैं। जिन्होंने ध्वनि को काव्य की आत्मा है कहा था और इसे पूर्वर्ती आचार्यों के द्वारा भी कहा गया है यह सिद्ध किया था इस प्रकार ध्वनि सिद्धांत को ही ध्वनि सम्प्रदाय कहा जाता है। क्योंकि इसमें विभिन्न पूर्वर्ती आचार्यों के मत भी प्रकट किये गए हैं जिन्होंने ध्वनि को काव्य की आत्मा कहा है। 

2. ध्वनि सिद्धांत क्या है विस्तारपूर्वक समझाइये?

उत्तर - ध्वनि सिद्धांत आचार्य आनंदवर्धन के द्वारा दिया गया सिद्धांत है इसके बारे में ही हमने यह पूरा पोस्ट लिखा है ध्यान से पढ़ें यदि भाषा कठिन लगे या समझ में न आये तो इसे हम और सरल माध्यम में प्रस्तुत करेंगे कमेंट करें धन्यवाद चलिए चलते हैं तीसरे प्रश्न की तरफ। 

3. ध्वनि सिद्धांत का मुख्य आधार कौन सी शब्द शक्ति है?

उत्तर - ध्वनि सिद्धांत का मुख्य आधार आवाज है जो व्यंग्यार्थ उत्पन्न होता है वही ध्वनि है इसकी शब्द शक्ति ध्वनि है क्योंकि इसके द्वारा ही उस काव्य को ध्वनि कहते हैं, जिसमें वस्तु, अलंकार एवं रस ध्वनित होते हैं।   

4. ध्वनि सिद्धांत के कितने भेद होते हैं?

उत्तर - ध्वनि सिद्धांत के जन्मदाता आनंदवर्धन ने ध्वनि सिद्धांत के तीन भेद किये हैं ध्वनि काव्य, गुणीभूत व्यंग्य काव्य और चित्र काव्य इसके अलावा अन्य आचार्य हैं जिन्होंने इस पर अपने अनेक मत प्रस्तुत किये हैं किसी ने ध्वनि को काव्य का अनिवार्य तत्व माना है किसी ने इसे काव्य की आत्मा कहा है। 

5. ध्वनि सिद्धांत के जन्मदाता कौन हैं?

उत्तर - ध्वनि सिद्धांत के जन्मदाता आनंदवर्धन हैं।

आपको पोस्ट जरा सा भी पसंद आया हो या कोई भी कमीं हो कमेट में जरुर लिखें हम उसे पूरा करने की कोशिस जरुर करेंगे धन्यवाद !

Dhwani siddhant ke udbhav ewam vikas par prakash dalte huye dhwni sampraday ki manytao ka vivechan kijiye?

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