प्रश्न 11. ध्वनि सिद्धान्त की प्रमुख स्थापनाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ध्वनि सिद्धान्त की प्रमुख स्थापनाओं पर प्रकाश डालिए।
ध्वनि सिद्धान्त की प्रमुख स्थापनाएँ
Table of Content |
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सिद्धांत की प्रमुख स्थापनाएँ |
उत्तर :
परिचय - आचार्य आनन्दवर्धन को ध्वनि सिद्धान्त का संस्थापक माना जाता है। वैसे आचार्य आनन्दवर्धन ने यह संकेत किया है कि प्राचीन आचार्य भी ध्वनि को काव्य की आत्मा मानते थे, पर न तो आचार्य आनन्दवर्धन ने उन आचार्यो का उल्लेख किया है तथा न ही किसी अन्य आचार्य ने ऐसे काव्यशास्त्री का नाम लिया है, जिसने ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार अथवा घोषित किया हो। 'ध्वन्यालोक' का पहला छन्द इस प्रकार है -
काव्यास्त्मा ध्वनिरति बुधैर्यः समाम्नातपूर्वः,
तस्याभावं जगदुरपरे भाक्तमाहुस्तथान्ये।
केचिद् वाचां स्थितिमविषये तत्वमूचुस्तथान्ये,
तेन ब्रूमः सहृदयमनःप्रीतये तत्वरूपम।।
अन्वय - काव्यस्य आत्मा ध्वनिः इति बुधैः यः समान्नातपूर्वः अपरेतस्य अभावं जगद्गुणं अन्ये तं भाक्तम् आहुः।। केचित् तदीयं तत्त्वं वाचाम् अविषये स्थितम् अचः। ते सहृदयमनः प्रीतये तत् स्वरूपं ब्रूमः ।
(काव्य की आत्मा ध्वनि है, इस प्रकार विद्वानों ने जिस ध्वनि का पहले चयन किया था। दूसरे विद्वान उस ध्वनि का अभाव बताते हैं। अन्य विद्वान् इस ध्वनि को भाक्त अर्थात् लक्षणागम्य मानते हैं। कुछ विद्वानों का कथन है कि इस ध्वनि का तत्त्व वाणी का विषय नहीं है। इस कारण हम सहृदयों के मन की प्रसन्नता के लिये इस ध्वनि को स्वीकार करते हैं।)
इस छन्द के आधार पर ध्वनि सिद्धान्त की निम्नलिखित प्रमुख स्थापनाओं का ज्ञान होता है -
1. आनन्दवर्धन से पूर्व अनेक आचायों द्वारा ध्वनि को काव्य की आत्मा घोषित करना
- आनन्दवर्धन ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि पूर्ववर्ती आचार्य ध्वनि को काव्य की आत्मा मानते रहे हैं। आनन्दवर्धन की इस स्थापना का किसी ने समर्थन नहीं किया है। डॉ. कृष्णकुमार शर्मा ने इस स्थापना का विरोध करते हुए कहा है -"आनन्दवर्धन ने ध्वनि के सिद्धान्त को अपने से पूर्ववर्ती स्वीकार किया है; परन्तु आनन्दवर्धन से पूर्व यह सिद्धान्त किसी प्राचीन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। इससे यह प्रतीत होता है कि आनन्दवर्धन से पहले ध्वनि सिद्धान्त काव्य के तत्त्व के रूप में मौखिक रूप से वाद-विवाद का विषय रहा होगा। कुछ आचार्य इसका प्रतिपादन करते होंगे तथा कुछ इसका विरोध करते होंगे। आनन्दवर्धन ने सबसे पूर्व इस सिद्धान्त को लिखित रूप में प्रतिपादित किया तथा ध्वनि के विरोध में जो युक्तियाँ थीं, उन सबका खण्डन करके ध्वनि सिद्धान्त की असन्दिग्ध रूप में स्थापना की।"
ध्वनि सम्प्रदाय आचार्य आनन्दवर्धन से पहले भी प्रचलित था और पूर्ववर्ती आचार्यों ने भी ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार किया, इस विषय में डॉ. रामसागर त्रिपाठी की मान्यता इस प्रकार है
"जिस परम्परा द्वारा ध्वनि सम्प्रदाय में प्राचीन-काल में सामाम्नात किया जा सका। आनन्दवर्धन ने आचायों द्वारा जिसके किंचित स्पर्श की बात कही है, उसका अनुसंधान किया जा सकता है। आनन्दवर्धन से पहले आलोचना-जगत् में काव्य के क्षेत्र में तीन सम्प्रदाय प्रतिष्ठित हो चुके थे - काव्य के क्षेत्र में अलंकार-सम्प्रदाय तथा रीति-सम्प्रदाय और नाट्य के क्षेत्र में रस-सम्प्रदाय। "
अलंकार सम्प्रदाय का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ आचार्य भामह का 'काव्यालंकार'
है। इस ग्रन्थ के व्यवस्थित प्रतिपादन को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह
किसी पूर्ववर्तिनी परम्परा पर आधारित है। भामह के मत से काव्यत्व के
निमित्त अलंकार प्रयोग में एक प्रकार का उक्ति-वैचित्र्य अपेक्षित होता है,
जिसका सम्पादन कवि प्रतिभा से किया जा सकता है। भामह के मत में उक्ति-वैचित्र्य ही काव्य का प्राण है और उक्ति-वैचित्र्य का प्राण है वक्रोक्ति। भामह ने कहा है कि -
सैवा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते।
यत्नोस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोनया विना।।
अर्थात् काव्य में वक्रोक्ति की सत्ता पाई जाती है। इस वक्रोक्ति के द्वारा अर्थ विभाजन किया जाता है। कवि को वक्रोक्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि कोई भी अलंकार वक्रोक्त्ति के अभाव में नहीं हो सकता। परवर्ती आचायों ने रुद्रट के अनुकरण पर पहेली बुझाने वाले एक विशेष प्रकार के अलंकार को ही वक्रोक्ति माना और आज के साहित्यशास्त्र में रुद्रट की वक्रोक्ति ही मानी जाती है, किन्तु भामह की वक्रोक्ति इससे भिन्न है। वक्रोक्ति की परिभाषा करते हुए भामह ने लिखा है -
"वक्राभिधेय शब्दोक्तिरिष्ट वायामलंकृतिः ।"
रीति सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हैं - वामन। इस सम्प्रदाय का प्रथम संकेत दण्डी के 'काव्यादर्श' में मिलता है। वामन की अपेक्षा दण्डी की मान्यताओं में यह अन्तर है कि वामन ने रीति को गुण पर आश्रित बताया है और अलंकार को रीति का अनित्य सम्बन्धी माना है। इसके प्रतिकूल दण्डी ने गुण और अलंकार दोनों से रीति का समान सम्बन्ध स्वीकार किया है। इस प्रकार रीति सम्प्रदाय भी ध्वनि सम्प्रदाय का स्पर्श अवश्य करता है।
रस - सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ - भरतमुनि का 'नाट्यशास्त्र' है। इसकी प्रधानता नाट्य में ही मानी जाती है, इसलिए कहीं-कहीं नाट्यरस शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। काव्य में रस की सत्ता आरम्भ से ही मानी जा रही है। आनन्दवर्धन से पहले भी रस सर्वदा काव्य में गौण स्थान का अधिकारी या भामह ने रसवत् आदि अलंकारों में रस, भाव आदि के समावेश की चेष्टा की। रस को अलंकारों की दासता से मुक्ति दिलाने का श्रेय उद्भट को प्राप्त है। भरतमुनि ने आरम्भ में ही 'रस-निष्पत्ति' शब्द का प्रयोग किया। इस प्रकार अलंकार, रीति तथा रस - इन तीनों पूर्ववर्ती सिद्धान्तों ने ध्वनि सम्प्रदाय का स्पर्श अवश्य किया, पर सिद्धान्त के रूप में ध्वनि सम्प्रदाय का आरम्भ नहीं किया।"
2. बारह विप्रतिपत्तियों की स्वीकृति और खण्डन – जयरथ ने 'अलंकार- सर्वस्व' की टीका में निम्नलिखित दो श्लोक उधृत किये हैं, जो ध्वनि को विरोधियों द्वारा ध्वनि में दोष के रूप में माने गये हैं -
तात्पर्या शक्तिरभिधा लक्षणानुमितिद्विधा,
अर्थापत्तिः क्वचित्तत्रं समासोक्त्याद्यलंककृतिः।
रसस्य कार्यताभोगो व्यापारान्तर बाघनम्,
द्वादशेत्यं ध्वनेरस्य स्थितः विप्रतिपत्तयः ।।
'ध्वनि के सम्बन्ध में 12 प्रकार की विप्रतिपत्तियों कही जाती है। इनका विवरण प्रस्तुत है -
(1) तात्पर्य - यह अभिहितान्यवयवादी मीमांसकों का मत है।
(2) अभिधा - यह अन्विताभिधानवादी मीमांसकों का मत है।
(3)- (4) लक्षणा - लक्षणा के दो भेद हैं - जहत स्वार्था और अजहत्स्वार्या।
(5)-(6) अनुमिति - अनुमान के दो भेद।
(7) अर्थापत्ति - यह अनुमान पक्ष का ही परिष्कार है।
(8) तन्त्र - यह पक्ष श्लेष अलंकार के समान है।
(9) समासोक्ति आदि अलंकार - यह प्राचीन अलंकारवादियों का मत है, जिसका खण्डन आचार्य आनन्दवर्धन ने किया है।
(10) रसकार्यता - यह प्राचीन रसवादी आचायों का मत है, जिसका खण्डन आनन्दवर्धन ने अपने 'ध्वन्यालोक' के प्रथम उद्योत में किया है।
(11) भोग - यह पक्ष - भोगवादी आचार्य भट्टनायक का मत है।
(12) व्यापारान्तर बाधन- इस पक्ष के विषय में मतभेद है। ध्वनिविरोधी इस प्रकार के पक्षों को देखकर यह अनुमान होता है कि ध्वनिकार आनन्दवर्धन से पहले भी और उनके समय में भी ध्वनि का प्रबल विरोध होता रहा। आनन्दवर्धन के बाद भी ध्वनि का विरोध होता रहा, पर अभिनवगुप्त, मम्मट आदि आचायों ने उनका प्रबल रूप से खण्डन करके ध्वनि-सिद्धान्त की निर्विवाद रूप से स्थापना की।
3. ध्वनि सिद्धान्त का अभाव मानने वालों के तीन विकल्प - ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने ध्वनि का अभाव मानने वालों के तीन मार्ग माने हैं -
(क) काव्य का सौन्दर्य अलंकार, गुण, वृत्ति और रीति के द्वारा ही प्रकट हो जाता है। काव्य की शोभा का अन्य कोई हेतु नहीं है।
(ख) काव्य के जिन हेतुओं की गणना हो चुकी है, उनसे भिन्न अन्य कोई हेतु नहीं हो सकता।
(ग) यदि अन्य कोई हेतु हो भी तो उसकी गणना इन अलंकार आदि बारह हेतुओं में हो जायेगी। इस प्रकार ध्वनि का कोई अपूर्व पृथक तत्व नहीं है, ऐसा अभाववादियों का मत है।
इसी प्रकार के अन्य ध्वनि विरोधी मतों को प्रस्तुत करके अन्त में ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने ध्वनि का लक्ष्य प्रस्तुत करने से पूर्व इतना कहा है -
"तस्य हि ध्वनेः स्वरूपं सकलसत्कवि काव्योपनिषद् भूतम्, अतिरमणीयम्, अणीयसीभिरपि चिरन्तन काव्यलक्षण विधायिनां बुद्धिभिरनुमीलित पूर्वम्। अथ च रामायण महाभारत प्रभृतीनि लक्ष्ये काव्ये सर्वत्र प्रसिद्ध व्यवहार लक्ष्यतां सहृदयानाम् आनन्दो मनसि लभतां प्रतिष्ठामिति प्रकाशते।"
(उस ध्वनि का स्वरूप निश्चय ही सभी श्रेष्ठ कवियों के काव्यों का परम रहस्य है, अत्यधिक रमणीय है और प्राचीन काव्य लक्षणकारों की अति सूक्ष्म बुद्धियों द्वारा उसका पहले उन्मूलन नहीं किया गया है, इसके अतिरिक्त रामायण, महाभारत आदि लक्षण काव्यों में सभी स्थानों पर इसका व्यवहार हुआ है। उसको लक्षित करने वाले सहृदयों के मन में आनन्द प्रतिष्ठा को प्राप्त करे, इस उद्देश्य से ध्वनि के स्वरूप को प्रकाशित किया जा रहा है।)
ध्वनिकार आचार्य आनन्दवर्धन ने अपने इस कथन के द्वारा ध्वनि सम्बन्धी निम्नलिखित स्थापनाएँ की हैं-
4. उपनिषद्भूतम् - आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि को सभी श्रेष्ठ कवियों के काव्यों की उपनिषद् बनी हुई बताया है।
इस शब्द का अर्थ है - सभी काव्यों का जो सारभूत और छिपा हुआ तत्व है, वह उपनिषद् है। डॉ. कृष्ण कुमार के अनुसार, इस शब्द की व्याख्या 'बाल-प्रिया' टीका में इस प्रकार की हुई है—
"उपनिषद् भूतेतिः काव्यतत्वानभिज्ञदुर्जेयत्वादरिहरस्यभूतमित्यर्थः।।"
(उपनिषद्भूत पद का यह अभिप्राय है कि जो लोग काव्य के तत्व से अनभिज्ञ व्यक्ति हैं, उनके लिए कठिनता से जाना जा सकने के कारण अत्यधिक रहस्य बना हुआ है। इस प्रकार आनन्दवर्धन ने ध्वनि के रहस्य होने की स्थापना की है। वेदान्त आदि अध्यात्म विषयों में जो स्थान उपनिषदों का है, वही काव्यशास्त्र में ध्वनि का है।)
5. मन में आनन्द की प्रतिष्ठा का कारण - आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि
की मन में आनन्द की स्थापना करने वाले तत्त्व के रूप में
स्थापना प्रस्तुत की है। आनन्द पद में श्लेष है। इसका पहला अर्थ है - सहृदयों
के मन में काव्य-रचना का आनन्द प्रतिष्ठित हो। काव्य के अनेक लक्ष्य हैं।
इनमें आनन्द की प्राप्ति ही सबसे श्रेष्ठ है। यह आनन्द सहृदयों को तभी
प्राप्त होता है जब वे ध्वनि के मर्म को समझने में समर्थ हो जाते हैं। यह
आनन्द मानव-जीवन के चार पुरुषायों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी अधिक
चमत्कारी है। 'वक्रोक्ति जीवितं' में आचार्य कुन्तक ने कहा है -
चतुवर्ग फलस्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदाम्।
काव्यामृत रसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते।।
(चारों वर्गों अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के फल के स्वाद से भी बढ़कर काव्य के जानने वालों के अन्तःकरण को काव्यरूपी अमृत के रस से चमत्कार का विस्तार किया जाता है।)
आचार्य भामह ने भी अपने 'काव्यालंकार' में स्वीकार किया है -
धर्मार्थ काममोक्षेषु वैचक्षण्यम् कलासुख,
करोति प्रीतिं कीर्ति च साधुकाव्यनिषेवणम्।
(उत्तम काव्य का सेवन अर्थात् अध्ययन, मनन और चिन्तन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और कलाओं में कुशलता प्रदान करने के अतिरिक्त कीर्ति और प्रेम का विस्तार करता है।)
कविवर कर्णपूर अर्थात् मयूर ने 'काव्यकौस्तुभ' में लिखा है -
यशः प्रभृत्येव फलं नास्य केवलमिष्यते,
निर्माणकाले श्रीकृष्ण गुणलावण्य केलिषु।
चित्तस्याभिनिवेशेन सान्द्रानन्दलयस्तु यः,
स एव परमो लाभः स्वादकानां तथैव च।।
(इस काव्य का फल केशव यश-प्राप्ति आदि ही नहीं है, इसके निर्माण के समय श्रीकृष्ण की लावण्यमयी लीलाओं में जो चित्त का अभिनिवेश और सान्द्र आनन्द में लीनता होती है, काव्य के आस्वाद लेने वालों को उसी प्रकार के आनन्द का लाभ होता है।)
आनन्द पद का दूसरा अभिप्राय यह है कि ध्वनि तीन प्रकार की होती है - वस्तु ध्वनि, अलंकार ध्वनि और रस ध्वनि। इन तीनों में आनन्द स्वरूप होने के कारण रस ध्वनि सबसे प्रधान है।
आनन्द पद से तीसरा
अभिप्राय ग्रन्थ के रचयिता आचार्य 'आनन्दवर्धन' से है। इस ग्रन्थ का
प्रतिपादन करके. आचार्य आनन्दवर्धन सहृदयजनों के हृदयों में आनन्द को
प्रतिष्ठित करके शाश्वत यश को प्राप्त करना चाहते हैं। कहा भी गया है -
उपेयुषामपिदिवं सन्ति बन्ध विधायिनाम्।
आस्त एवं निरातकं कान्तं काव्यमयं पपुः।।
(उत्तम कवि निबन्धों की रचना करके स्वर्ग में पहुँच जाते हैं, फिर भी उनका काव्यमय शरीर यहाँ बिना कष्ट के विद्यमान रहता है।)
'नीतिशतक' के रचयिता महाराज भर्तृहरि ने भी इसका अनुमोदन करते हुए लिखा है -
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ।।
(उत्तम कृतियों की रचना करने वाले वे रससिद्धकवीश्वर सबसे उत्कृष्ट हैं, जिनके यश-रूपी शरीर को जरा अर्थात् वृद्धावस्था और मृत्यु से उत्पन्न भय नहीं है।)
6. ध्वनि के दो भेदों की स्थापना - आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि के दो भेदों की स्थापना करते हुए कहा है -
योऽर्थः सहृदयश्लाघ्य: काव्यात्मेति व्यवस्थितः
वाच्य प्रतीयमानाख्यौ तस्य भेदावुभौ स्मृतौ ।।
(जो अर्थ सहृदयों द्वारा प्रशंसित है तथा जो काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित है, उस ध्वनि के वाच्य और प्रतीयमान नाम के दो भेद बताये गये हैं।)
डॉ. कृष्ण कुमार ने ध्वनिकार की इस स्थापना पर आपत्ति प्रस्तुत करते हुए लिखा है -
"इस
कारिका में ध्वनिकार ने काव्य के दो प्रकार के अर्थों का कथन किया है तथा
दोनों अयों को काव्य की आत्मा-रूप तथा सहृदयों द्वारा प्रशंसित बताया गया
है। इस प्रकार ध्वनिकार के कथन में ही परस्पर विरोध प्रतीत होता है।
ध्वनिकार पहले तो कहते हैं कि ध्वनि जो कि प्रतीयमान अर्थ है, काव्य की
आत्मा है। अब वे कहते हैं कि वाच्य अर्थ भी काव्य की आत्मा है। इस प्रकार
ध्वनिकार के पहले कथन- 'तेन ब्रूमः सहृदय मनः प्रीतये तत्स्वरूपम्' और इस
कारिका में परस्पर असंगति उत्पन्न हो जाती है। आचार्य विश्वनाथ ने
'साहित्य-दर्पण' में इस असंगति को उठाकर इस प्रकार आपत्ति की है -
यच्च ध्वनि कारिणोक्तम् -
अर्थः सहृदयश्लाघ्यः काव्यात्मा यो व्यवस्थितः।
वाव्य प्रतीयमानाख्यौ, तस्य भेदावुभौस्मृतौ ।।
(सहृदयों द्वारा प्रशंसित हो अर्थ काव्य की आत्मा निश्चित किया गया है, उसके वाच्य और प्रतीयमान दो भेद बताये. गये हैं, वहाँ काव्य की आत्मा ध्वनि स्वीकार की गयी है। उसके दो भेद अपने ही कथन का विरोध हैं।)
परन्तु यह असंगति जो विश्वनाथ द्वारा भी प्रदर्शित की गयी है, वास्तविक नहीं है। ध्वनिकार ध्वनि को ही काव्य का आधारभूत तत्त्व मानते हैं। काव्य का यहाँ जो उन्होंने कयन किया है, वह ध्वनि के लक्षण की भूमिका को बनाने के लिए ही किया है। ध्वनिकार स्वयं वृत्ति में यह कहते हैं कि इस कारिका की रचना ध्वनि के लक्षण की भूमिका को बनाने के लिए की गयी है।
'ध्वनेरेव' में 'एव' पद इस
तथ्य को स्पष्ट कर देता है कि यह कारिका भूमिका के रूप में है। वाच्य अर्थ
के बिना व्यंस्य अर्थ की प्रतीति नहीं होती, क्योंकि व्यग्यं अर्थ के बोध
के लिये पहले वाच्य अर्थ का जानना अनिवार्य है। इसीलिए ध्वनिकार ने वाच्य अर्थ का यहाँ उल्लेख किया है। इसको अग्निपुराण में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है -
"ननु ध्वनिरूपं बूमः । इति प्रतिज्ञाय वाच्य प्रतीयमानाख्यौ द्वौ भेदावर्थस्येति वाच्याभिधाने का संगतिः कारिकायाः इत्याशंक्य संगतिः कर्तुमवताणिकां करोति ध्वनेरेवेति । "
7.
ध्वनि की प्रतीयमानता की स्थापना - प्रतीयमान अर्थ ही ध्वनि है। यह बात
उदाहरण के द्वारा ध्वनिकार आचार्य आनन्दवर्धन ने निम्न प्रकार स्पष्ट की है -
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्।
यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु।।
प्रतीयमानं पुनरन्येदव वाच्यात् वस्तु अस्ति ।
(महाकवियों की वाणियों में यह प्रतीयमान अर्थ पुनः कुछ ही अन्य वस्तु है। यह प्रतीयमान इस प्रकार का है, जो सहृदयजनों में प्रसिद्ध है और लोक-प्रसिद्ध अवयवों गुणालंकार आदि से भिन्न है और इसी प्रकार शोभायमान है, जिस प्रकार अंगनाओं में लावण्य शोभायमान होता है।)
ध्वनिकार का तात्पर्य यह है कि लावण्य अंगनाओं के किसी अंग विशेष तक सीमित नहीं रहता, अपितु सारे शरीर में व्याप्त रहता है। उसे अंगना के शरीर से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह उसके शरीर का अंग न होकर उसमें व्याप्त है। इसी प्रकार ध्वनि को काव्य से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह काव्य के अंग के समान नहीं है, अपितु आत्मा के समान पूरे काव्य में व्याप्त रहता है।
डॉ. कृष्णचन्द्र शर्मा ने भी ध्वनि-विरोधियों की इस मान्यता का विरोध किया है कि काव्य में चारुता के लिए ध्वनि की आवश्यकता नहीं है -
"ध्वनि के महत्वपूर्ण अस्तित्व को न मानने वाले कहा करते हैं कि काव्य शब्दार्थ शरीर वाला है। उसमें शब्दगत-चारुत्व हेतु अनुप्रासादि शब्दालंकार होते हैं और अर्थगत-चारुत्व हेतु उपमादि अर्थालंकार प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त वर्ण-संघटनादि धर्म के हेतु माधुर्यादि गुण होते हैं।
वे भी चारुत्व प्रतीति का विषय होते हैं। अतः इन तत्त्वों से भिन्न अन्य कौन-सा पदार्थ चारुत्व का हेतु है? यदि वह कोई पदार्थ हो भी तो गुण अलंकार आदि चारुत्व हेतुओं में उसका अन्तर्भाव हो जायेगा।
इस धारणा का आनन्दवर्धन ने स्पष्ट खण्डन किया है और कहा है कि ध्वनि ही काव्य का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, क्योंकि जहाँ काव्य में अलंकार आदि नहीं होते वहाँ भी वह व्यंग्यार्य की विशिष्टता से काव्य होता है। दूसरी बात यह है कि काव्य में रस, भाव आदि कथित नहीं होते, ध्वनित होते हैं। यदि ये कवित होने लगे, तो काव्य की शोभा पूर्णतः नष्ट हो जायेगी। इसलिए व्यंग्यार्थ रस, अलंकार, भाव आदि से भिन्न कोई अन्य विलक्षण जो तत्त्व है, वह ध्वनि ही है।"
8. आत्मा की स्थापना तत्त्व के रूप में - अलंकार, रस, रीति, औचित्य आदि को अनेक आचार्यों ने काव्य की आत्मा कहा है, पर आत्म-तत्त्व क्या है, इसकी व्याख्या किसी ने नहीं की है। एकमात्र ध्वनिकार आनन्दवर्धन ही ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने आत्मा की तत्त्व-रूप में स्थापना की है। इस बात को स्पष्ट करते हुए. डॉ. पारसनाथ जी द्विवेदी ने लिखा है -
"काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैर्यः समाम्नातपूर्वः ।।
आनन्दवर्धन ने यहाँ आत्मा का अर्थ तत्त्व किया है और तत्त्व का अर्थ किया है - जिसके स्वरूप का कभी नाश न हो। अर्थात् जिस प्रकार आत्मा के स्वरूप का कभी नाश नहीं होता, उसी प्रकार ध्वनि के स्वरूप का भी नाश नहीं होता। इस प्रकार ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने आत्मा को अर्थ के रूप में स्वीकार किया है। काव्य का यह आत्मस्थायी अर्थ है प्रतीयमान। यही प्रतीयमान अर्थ काव्य की आत्मा है। यह अर्थ आदिकवि वाल्मीकि की वाणी में काव्य-रूप में प्रस्फुटित हुआ था। जब क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से एक को व्याघ्र के द्वारा बिद्ध देखकर और दूसरे साथी का विलाप सुनकर उनके मन के शोक ने श्लोक का रूप धारण कर लिया था -
काव्यास्यात्मा स एवार्थस्तथा चादिकवेः पुरा।
क्रॉश्चदुवन्दू वियोगोत्थः शोकः श्लोकत्त्वमागतः ।।
(काव्य की आत्मा का वही अर्थ है जो प्राचीन काल में आदिकवि वाल्मीकि के मन में वियोग द्वारा उत्पन्न शोक था, उसने श्लोक का रूप धारण कर लिया है।)
आचार्य आनन्दवर्धन के अनुसार यह प्रतीयमान कुछ अन्य ही तत्त्व है जो अंगना के प्रसिद्ध अवयवों से भिन्न लावण्य के समान महाकवियों की वाणी वाच्यार्थ से भिन्न भासित होता है।"
इस प्रकार ध्वनिवादी आचायों ने अनेक स्थापनाएँ की है।
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