काव्य कितने प्रकार का होता है? | Kavya kitne prakar ka hota hai?

प्रश्न 4. काव्य कितने प्रकार का होता है ? उसके सभी प्रकारों का संक्षेप में परिचय दीजिए। 

अथवा 

काव्य के भेदों पर प्रकाश डालिए। 

उत्तर - संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं के आचायों तथा समालोचकों ने काव्य की अनेक परिभाषाएँ 

'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।" 

(अर्थात् रसात्मक वाक्य ही काव्य होता है)। 

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काव्य कितने प्रकार का होता है? | Kavya kitne prakar ka hota hai?
Kavya ke bhed

 

 काव्य के भेद 

परिचय

यहाँ वाक्य का तात्पर्य कर्ता, कर्म, करण, क्रिया आदि से निर्मित सार्थक अक्षर समूह से नहीं है। यहाँ वाक्य का तात्पर्य रचनाकार के कथ्य की समाप्ति से है जिस वाक्य को काव्य कहा गया है, वह संस्कृत की 'वाल्मीकि रामायण' तथा 'महाभारत' को और हिन्दी के 'रामचरितमानस को भी अपने में समाविष्ट करने की क्षमता रखता है। 

काव्य के परम्परागत रूप से प्रबन्ध और मुक्तक दो भेद माने जाते हैं। प्रबन्ध के भी दो भेद किये गये हैं- 

महाकाव्य और खण्डकाव्य संस्कृत के आचायों ने गद्य और पद्य दोनों के रूप में मिश्रित विरचित काव्य को चम्पू नाम दिया है। चम्पू का लक्षण भी यही है - 

'गद्य-पद्य मयं काव्यं चम्पू इत्यभिधीयते। 

संस्कृत भाषा में विरिचत अनेक चम्पू ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। हिन्दी भाषा में प्राप्त होने वाले चम्पू काव्यों की संख्या कम काव्य के भेदों अथवा है। प्रकारों का सामान्य परिचय प्रस्तुत है - 

(क) महाकाव्य 

बन्ध अर्थात् एक सुनिश्चित क्रम के आधार पर रचित भाव-प्रधान तथा विषय-प्रधान काव्य के दो प्रमुख भेद माने जाते है - प्रबन्ध-काव्य और मुक्तक-काव्य प्रबन्ध-काव्य के भी दो भेद माने जाते हैं - महाकाव्य एवं खण्डकाव्य 'महाकाव्य' शब्द 'महत्' और 'काव्य' दो शब्दों से मिलकर बना है। इनमें पहला शब्द विशेषण और दूसरा विशेष्य है। महाकाव्य शब्द में विशेष्य का अधिक महत्व होता है। अतः इस शब्द में भी 'काव्य' ही प्रमुख है और दोनों शब्दों का अर्थ होता है 'बड़ा काव्य' क्योंकि 'महत् से विशाल', 'उत्कृष्ट' का भी भाव प्रकट होता है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि महाकाव्य जीवन के महत का विवेचन होता है। जहाँ तक काव्य की परिभाषा का प्रश्न है - विद्वानों ने काव्य की अनेक परिभाषाएँ दी हैं, जिनका निष्कर्ष इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है - 

(1) नैसर्गिक भावोद्रेक के साथ भावों की मार्मिक व्यंजना, (2) रसयुक्त प्रवाहयुक्त पद्य (3) चमत्कार और ध्वनियुक्त-पद्य रचना, (4) अलंकार, काव्य-गुण, उक्ति- वैचित्र्य, वाग़वैदग्ध्य, औचित्य के अधिकाधिक निर्वाह से युक्त, (5) आंतरिक और बाह्य स्थितियों का बिम्बात्मक वर्णन, (6) शब्द और अर्थ का रमणीय सम्बन्ध, (7) कलात्मकता से युक्त आदि-आदि। 

महाकाव्य का 'महा' शब्द - काव्य के लिए 'महत्' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 'वाल्मीकि रामायण' में हुआ है। श्री राम ने अपनी कथा का वर्णन सुनने के बाद लव कुश से कहा- इस विशाल आकार वाले काव्य के कर्ता कौन हैं - 

'किम् प्रमाणमिदम् काव्यम् का प्रतिष्ठा महात्मनः। 

कर्ता काव्यस्य महतः वच चासौ मुनि पुंगवः।।' 

इस श्लोक में यह तो स्वतः ध्वनित है कि इसमें किसी महान् व्यक्तित्व के चरित्र की प्रतिष्ठा होती है। 

महाकाव्य का स्वरूप - महाकाव्य के स्वरूप पर भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही आचार्यों ने विचार किया है। यहाँ संक्षेप में उनके मतों की समीक्षा करना उपयुक्त रहेगा - 

भारतीय आचार्यों के मत

(क) आचार्य भामह के अनुसार - भामह सर्वप्रथम भारतीय आचार्य हैं, जिन्होंने महाकाव्य के लक्षणों पर विचार किया है। उनके अनुसार महाकाव्य - 

  1. सर्गबद्ध होना चाहिए और महान चरित्रों से संबद्ध होना चाहिए। 
  2. उसका आकार भी बड़ा होना चाहिए। 
  3. वह ग्राम्य-शब्दों से रहित तथा अर्थ-सौष्ठव सम्पन्न अलंकारयुक्त हो। 
  4. वह सत्पुरुष आश्रित हो। 
  5. वह मंत्रणा, दूतप्रेषण, अभिमान, युद्ध, नायक का अभ्युदय, पंच-संधि-समन्वित हो। 
  6. उसमें चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) का वर्णन होने पर भी अर्थ - निरूपण का प्राधान्य हो। 
  7. वह लौकिक आचार एवं सभी रसों से युक्त हो। 
  8. महाकाव्य के नायक का प्रथम वर्णन किया जाय, उसके बल, वेग, ज्ञान आदि का भी वर्णन रहे। 
  9. प्रतिनायक का वर्णन बाद में हो। 
  10. यदि नायक को कथा के आरम्भ से अन्त तक न दिखाया जा सके या उसके अभ्युदय का वर्णन न हो तो उसे नायक नहीं बनाना चाहिए।
  11. नायक का वध न हो। यथा - 

सर्गबन्धो महाकाव्यम् महताम् च महत्व यत्, 

अग्राम्यशब्दमर्थ्यम् च सालङ्कारम् सदाश्रयम्। 

मन्त्रदूतप्रयाणादिनायकाभ्युदयैश्च यत्,

 पञ्चभिः सर्व सन्धिभिर्युक्तम् नीति व्याख्येयमृद्धिमत्। (काव्यालंकार) 

(ख) आचार्य दण्डी - 'काव्यादर्श' में दण्डी ने कुछ नवीन तथ्यों को और जोड़ दिया है -

  1. महाकाव्य के प्रारम्भ में आशीर्वाद, नमस्कार एवं वस्तु-निर्देश की योजना होनी चाहिए। 
  2. विरहजन्य प्रेम विवाह, कुमारोत्पत्ति, विचार-विमर्श, राजदूतत्व, अभियान, युद्ध तथा नायक की विजय आदि का वर्णन अपेक्षित है। 
  3. प्राकृतिक चित्रण एवं सामाजिक विधि-विधानों का संयोजन अपेक्षित है। 
  4. नायक के उत्कर्ष के लिए प्रतिनायक के वंश तथा पराक्रम का भी वर्णन आवश्यक है, क्योंकि नायक का वास्तविक उत्कर्ष गुणवान प्रतिपक्षी की ही पराजय में निहित है। 
  5. नायक का चतुर और उदात्त होना आवश्यक है। 
  6. चतुर्वर्ग का विधान उनके संयोजन के साथ आवश्यक है। 

(ग) आचार्य रुद्रट - इन्होंने 'काव्यालंकार' में पूर्ववर्ती आचायों के मत को स्वीकार करते हुए कुछ नवीन तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं -

  1. रुद्रट ने नायक के गुणों का अपेक्षाकृत अधिक विस्तार किया है। उनके अनुसार उसे त्रिवर्ग-प्राप्ति (धर्म, अर्थ, काम) में संलग्न, शक्ति-त्रय से सम्पन्न (प्रभु-शक्ति या प्रभाव शक्ति, मंत्र शक्ति तथा उत्साह शक्ति), सम्पूर्ण राज्य का विधिवत् पालनकर्ता, सर्वगुण सम्पन्न, विजिगीषु, परहित-निरत, धर्मपरायण होना चाहिए। 
  2. वे प्रतिपक्षी के भी गुणवान होने की बात स्वीकार करते हैं। 
  3. वे कथावस्तु में कल्पना के समावेश को स्वीकार करते है - अतः ऐतिहासिक कथानक की अनिर्वार्यता नहीं मानते। 
  4. विविध वर्णन - वे प्राकृतिक परिवेश, गीत, नृत्य, श्रृंगार, वर्चा आदि के समावेश के पक्षधर हैं। 
  5. वे अति-मानवीय, अतिप्राकृतिक एवं असंभव घटनाओं के समावेश की अनुमति नहीं देते। 

(घ) आचार्य विश्वनाथ - इसका ग्रन्थ 'महाकाव्य-लक्षण' पूर्ववर्ती विचारों का समन्वय प्रतीत होता है। इन्होंने "साहित्य-दर्पण" में भी महाकाव्य के लक्षणों पर इस प्रकार विचार किया है - 

  1. महाकाव्य सर्गबद्ध हो। 
  2. इसका नायक देवता या कुलीन क्षत्रिय, धीरोदात गुणों युक्त हो। एक सदवंश के अनेक राजा भी नायक हो सकते हैं। 
  3. इसमें शांत, वीर, श्रृंगार में से कोई एक अंगी (प्रधान) रस तथा शेष रस गौण रूप में आते हैं।
  4. इसमें सभी नाट्य-संधियों की योजना होती है। 
  5. कथानक लोकप्रसिद्ध ऐतिहासिक होना चाहिए। 
  6. इसका उद्देश्य या फल पुरुषार्थ चतुष्ट्य में से एक होना चाहिए। 
  7. प्रारम्भ में नमस्कार, वस्तु-निर्देश, आशीर्वाद होता है। 
  8. खल-निन्दा तथा सज्जन प्रशंसा होती है। 
  9. आठ सर्ग का होना चाहिए और प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिए। इसे बहुत बड़ा और छोटा नही होना चाहिए। सर्गान्त में भावी सर्ग की सूचना होती है। 
  10. विविध प्रकार के वर्णन, प्राकृतिक पदार्थों, ऋतु, शिकार, विवाह, प्रेम, विरह आदि का होना जरूरी है। 
  11. इसका नामकरण कवि, वस्तु या नायक-नायिका के आधार पर होना चाहिए। 

'सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुरः, 

सद्ववंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्त-गुणान्वितिः। 

एकवंशभवा भूपा कुलजा बहवोऽपिवा, 

श्रृंगार वीरशान्तानामेकोऽङ्ग रस इष्यते।।" 

(ङ) आचार्य कुन्तक - कुन्तक ने 'प्रकरण-वक्रता' का उल्लेख करते हुए प्रबंध-काव्य या महाकाव्य के लक्षणों का  उल्लेख किया है। उनके अनुसार -

  1. प्रबंध का प्रत्येक प्रकरण प्रधान कार्य से सम्बद्ध एवं अंगी का उत्कर्ष हो। 
  2. जल-क्रीड़ा, उत्सव आदि रोचक प्रसंगों का विशेष विस्तार के साथ वर्णन हो। 
  3. किसी उद्देश्य सिद्धि का विधान हो। 
  4. कई रस हो। 
  5. नायक का चरित्र उत्कृष्ट हो। 

आधुनिक काल के विचारक - हिन्दी के कुछ विद्वानों ने भी महाकाव्य के लक्षणों पर विचार किया है - 

  1. गुलाबरायजी के अनुसार, "महाकाव्य का विषय-प्रधान काव्य है, जिसमें अपेक्षाकृत बड़े आकार में जाति में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय नाटक के उदात्त कार्यों द्वारा जातीय भावनाओं, आदशों और आकांक्षाओं का उदघाटन किया जाता है।" 
  2. डॉ. शम्भूनाथ सिंह के अनुसार, "महाकाव्य वह छन्दबद्ध रचना है जो तीव्र कथा-प्रवाह के साथ-साथ मानवीय अनुभूतियों का भी लेखा-जोखा रखता है।" उन्होंने बन्धन को स्वीकार न करते हुए कवि की किसी महती प्रेरणा के वशीभूत होकर किसी जाति-विशेष का स्वानुभूत अथवा कल्पनासिद्ध नाना-रूपों में वर्णन होना स्वीकार किया है। वे शैली की उदात्तता को भी स्वीकार करते हैं। 
  3. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - शुक्लजी चार तत्वों को महत्व देते हैं - (i) इतिवृत - वह व्यापक तथा सुसंगठित होना चाहिए। (ii) वस्तु-व्यापार वर्णन - यह वर्णन विस्तृत तथा भावों को तरंगित करने वाला हो। (iii) भाव-व्यंजना - भाव-व्यंजना वैविध्यपूर्ण एवं तीव्र हो (iv) संवाद - संवाद रोचक और नाटकीय हों।
  4. डॉ. नगेन्द्र - इन्होंने पाँच तत्वों पर बल दिया है। ये तत्व हैं - (i) उदात्त कथानक, (ii) उदात्त कार्य-व्यापार, (iii) उदात्त भाव-व्यंजना, (iv) उदात्त चरित्र, (v) उदात्त शैली। 
  5. सुमित्रानंदन पंत के अनुसार, "महाकाव्य मानव-सभ्यता के संघर्ष तथा सांस्कृतिक विकास में जीवन्त पर्वताकार दर्पण है, जिसमें मुख देखकर मानवता अपने को पहचानने में समर्थ होती है।" 

(ख) खण्डकाव्य 

संस्कृत आचायों ने महाकाव्य पर पर्याप्त विस्तार से विचार किया है, परन्तु खण्ड-काव्य पर केवल छुट-पुट चर्चा ही हो सकती है। 

(क) आचार्य रुद्रट - इन्होंने प्रबन्धों के दो भेद किये - महान और लघु। इन्होंने इनका अन्तर इस प्रकार किया है - 

"तत्र महान्तो येषु चवितस्तेधवभिधीयते चतुर्वर्गः सर्वे रसाः क्रियते काव्य-स्थानानि सर्वाणितेलपो विज्ञेया तेष्वन्यतमो भवेच्चतुर्वर्गात्, असमग्रानेकम् रसाये च समग्रैक रसयुक्ताः।" 

(अर्थात् महाकाव्य में चतुर्वर्ग - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का वर्णन होता है एवं सभी रसों को प्रमुख अथवा आश्रित रूप में प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है, इसके विपरीत लघु-काव्य में चतुर्वर्ग में से किसी एक का और रसों में से किसी एक का समावेश होता है) 

इस प्रकार चतुर्वर्ग फल में से फल, रसों में से रस के अपनाये जाने के कारण लघु-काव्य में खण्ड-काव्य के आंतरिक गठन की झलक मिलती है। 

(ख) आचार्य विश्वनाय - इनके अनुसार - 

'खडकाव्यं भवेत् काव्यस्य एकदेशानुसारि च ।' 

(अर्थात् खण्डकाव्य महाकाव्य का एकदेशीय रूप होता है।) 

हिन्दी विचारक 

(क) आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - "महाकाव्य के ही ढंग पर जिस काव्य की रचना होती है, पर जिसमें पूर्ण जीवन न ग्रहण करके खण्ड-जीवन ही ग्रहण किया जाता है, उसे खण्डकाव्य कहते हैं। यह खण्ड-जीवन इस प्रकार व्यक्त किया जाता है, जिससे वह प्रस्तुत रचना के रूप में स्वतः पूर्ण होता है।" 

(ख) डॉ. शम्भूनाथ सिंह - "सीमित दृष्टिपय से जीवन का जितना दृश्य दिखाई पड़ता है, उसी का चित्रण कहानी और खण्ड-काव्य दोनों में होता है।" 

(ग) शकुन्तला दुबे – “खण्ड-काव्य की प्रेरणा के मूल में अनुभूति का स्वरूप एक सम्पूर्ण जीवन खण्ड की प्रभावात्मकता से बनता है।" 

(घ) डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत - इलका मत है - 

  1. खण्ड-काव्य में जीवन के किसी एक पक्ष का चित्रण किया जाता है। 
  2. इसमें महाकाव्य के लक्षण संकुचित रूप में स्वीकार किये जाते हैं। 
  3. खण्ड-काव्य रूप और आकार में महाकाव्य से छोटा होता है। 
  4. कुछ अन्य विशेषताएँ - प्रभावान्विति, वर्णन प्रवाह आदि हैं। 

(ङ) डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा - इनके द्वारा बतायी गयी विशेषताओं का डॉ. देवीशरण रस्तोगी ने इस प्रकार उल्लेख किया है - 

  1. खण्ड-काव्य में कथा की एकात्मक अन्विति अनिवार्य है। इसके लिए एक ओर तो खण्ड-काव्य की कथा में एकदेशीयता का अर्थात् नितांत प्रासंगिक उपकथाओं का होना तथा दूसरी ओर उसमें आरम्भ, विकास और चरमावस्था की व्यवस्था आवश्यक है। 
  2. खण्ड-काव्य का कोई एक निश्चित उद्देश्य होना चाहिए और उसकी परिणति तीव्रगामी होनी चाहिए। 
  3. जीवन और कया की सीमितता के कारण खण्ड-काव्य के उद्देश्य में महाकाव्य की सी महनीयता का समावेश सम्भव नही है और साथ ही उसके आकार का संक्षिप्त हो जाना स्वाभाविक है। 
  4. खण्ड-काव्य का उद्देश्य चाहे कोई चरित्र, घटना-प्रसंग, परिस्थिति- विशेष या कोई सामयिक दर्शन हो, कवि के व्यक्तित्व का उसके साथ अधिकाधिक तादात्म्य स्थापित हो जाना भी स्वाभाविक है। (डॉ. देवीशरण रस्तोगी - साहित्यशास्त्र) 
इन सब परिभाषाओं पर विचार करते हुए संक्षेप में कहा जा सकता है जिस काव्य की रचना महाकाव्य के ही ढंग पर होती है, परन्तु जिसमें पूर्ण जीवन न ग्रहण करके खण्ड-जीवन ही ग्रहण किया जाता है, जिससे वह प्रस्तुत रचना के रूप में स्वतः पूर्ण प्रतीत होता है, उसे ही खण्डकाव्य" कहा जाता है। 

(ग) मुक्तक-काव्य 

'बंध' की दृष्टि से प्राचीन भारतीय समीक्षकों नें श्रव्य काव्य के दो भेद माने हैं - प्रबन्ध और मुक्तक। प्रबन्ध में कथा होने से पूर्वापर-सम्बन्ध रहता है, परन्तु मुक्तक में पूर्वापर-सम्बन्ध का निर्वाह आवश्यक नहीं रहता, क्योंकि इसका प्रत्येक छंद स्वतन्त्र रहता है और प्रबन्ध-काव्य की भाँति इसमें कोई कथा नहीं होती। हाँ, कुछ मुक्तक अवश्य ऐसे होते हैं, जिनका प्रत्येक छंद स्वतंत्र अथवा अपने आप में पूर्ण भी होता है और उनमें एक कथा सूत्र भी अनुस्यूत होता है। सूर का ''भ्रमर-गीत', तुलसी की "विनय पत्रिका' एवं 'गीतावली' इसके उदाहरण है। 

मुक्तक का स्वरूप - आधुनिक समीक्षकों के अनुसार काव्य के दो भेद होते हैं - व्यक्तित्व-प्रधान अर्थात् विषयीगत (Subjective) तथा विषय-प्रधान (Objective)। इन्हें क्रमशः भाव-प्रधान और विषय-प्रधान भी कहते हैं। इस दृष्टि से मुक्तक भाव-प्रधान काव्य की श्रेणी में आता है। भाव-प्रधान कविता में कवि की वैयक्तिक अनुभूतियों, भावनाओं और आदर्शों की प्रधानता रहती है, भाव-प्रधानता के कारण इसमें गीतात्मकता का विशेष स्थान रहता है। हेमचन्द्र ने 'शब्दानुशासन में 'अनिबद्ध मुक्तादि' कहकर यह भाव व्यक्त किया है कि मुक्तादि अनिबद्ध होते हैं। 

मुक्तक शब्द के अर्थ भी कोशकारों ने कई प्रकार से किये हैं, यथा -"जो काव्य अर्थ - पर्यवसान के लिए किसी का मुखापेक्षी न हो, वह मुक्तक कहलाता है।"

 मुक्तक का शाब्दिक अर्थ है - मुक्त रहने वाला, स्वतन्त्र रहने वाला या मोक्ष प्राप्त कर लेने वाला। इस दृष्टि से मुक्तक वह काव्य-रचना है जो पूर्वापर-सम्बन्ध की अपेक्षा न रखती हो, जो रचना अपने में स्वतन्त्र हो तथा पूर्ण अर्थ देने में समर्थ हो। 

आचार्य दण्डी के अनुसार - 

'मुक्तक वाक्यान्तर निरपेक्षो वा श्लोकः।' 

(अर्थात् मुक्तक यह काव्य-रचना है, जो पूर्वापर-प्रसंग की अपेक्षा न रखती हो । 

मुक्तक की परिभाषा 

 (1) अग्निपुराण 'मुक्तकं श्लोक एकैकश्चमत्कार क्षमतः सताम् ।" 

(अर्थात् सहृदयों को चमत्कृत करने में समर्थ श्लोक ही मुक्तक है। ) 

(2) आचार्य दण्डी - 'मुक्तकं वाक्यांतर निरपेक्षो यः श्लोकः।' 

(अर्थात् मुक्तक वह श्लोक है जो वाक्यांतर-निरपेक्ष हो ।) 

(3) अभिनवगुप्त - 'पूर्वापर निरप्रेक्षेणापि हि येन रसचवर्ण  क्रियते तदेव मुक्तकम् ।

(अर्थात् मुक्तक आगे-पीछे के पदों से सम्बन्ध न रखकर भी, एक ऐसा निरपेक्ष छन्द है, जो स्वतः रसोद्रेक कराने में पूर्णतः समर्थ होता है।) 

(4) आनन्दवर्धन - 'तत्र मुक्तेषु प्रबन्धेष्वव रस बन्धानिनिवेशिनः कवयोऽश्यते।'

 (अर्थात् प्रबन्ध के अनुसार मुक्तक में भी रस को उत्पन्न करने वाले कवि पाये जाते हैं।) 

(5) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - "मुक्तक में प्रबन्ध के समान रस की धारा नहीं रहती, जिसमें कथा प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं, जिनमें हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है।" 

(6) डॉ. रामदत्त भारद्वाज - "प्रबन्धहीन स्फुट पद्ध (कभी-कभी गद्य रचना को मुक्तक कहा जाता है।" 

(घ) नाटक 

काव्य से प्रायः और साधारण रूप से पद्य का ही बोध होता है। संस्कृत के आचायों ने नाटकों को भी काव्य के अन्तर्गत स्थान दिया है। संस्कृत काव्यशास्त्र से सम्बन्धित यह उक्ति अत्यधिक प्रचलित है - 

'काव्येषु नाटकं रम्यम्, तत्र रम्या शकुन्तला ।' 

(काव्यों में नाटक रमणीय है और नाटकों में शकुन्तला अर्थात् कालिदास द्वारा रचित 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' रमणीय है।)

    संस्कृत के नाटकों में जो संवाद होते थे, उनमें पद्धों की अधिकता के कारण उन्हें काव्य में सम्मिलित किया गया था कुछ संवाद तो दो-दो, तीन-तीन पथों वाले होते थे। 

हिन्दी साहित्य में रीति-काल तथा आधुनिक काल के आरम्भ में जो नाटक लिखे गये, उनके सम्वाद या तो पूर्णतः पद्यात्मक थे अथवा संवादों में गद्य के साथ पद्यों को भी स्थान दिया गया था। जयशंकर प्रसाद के अधिकांश नाटकों में गीतों की अधिकता भी नाटक को काव्य के अन्तर्गत मानने को विवश करती है। प्रसादजी के समकालीन एवं उनसे पूर्ववर्ती नाटककारों ने साहित्य सेवा काव्य-रचना के रूप में आरम्भ की इस कारण उन्हें मधुर और रसमय गीतों की रचना में कोई असुविधा नहीं हुई। इस प्रकार नाटक में गीतों का निर्वाह भी हो गया और उनको अपने कवित्व के प्रदर्शन का अवसर भी प्राप्त हो गया। जब हिन्दी के नाटककार अंग्रेजी नाटकों से प्रभावित हुए तो नाटकों में से गीत निकाल दिये गये। 

    भरतमुनि ने नाटक को दृश्य-काव्य माना है। श्रव्य-काव्य को रूपक कहा गया है। रूपक के अनेक भेदों में से नाटक प्रमुख है। भरतमुनि ने नाटक शब्द का प्रयोग न करके 'नाट्य' शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने नाटक में अभिनय को प्रधानता देते हुए नाट्य को अवस्था का अनुकरण कहा है -

 'अवस्थानुकृतिर्नाटयम् ।' 

(अर्थात् अभिनय वास्तव में उस पात्र की अवस्था का अनुकरण ही होता है।) 

 महाकवि कालिदास के अनुसार -

'त्रैगुण्योद्भवमत्र लोकचरितम् नानारसम् दृश्यते। 

नाट्य भिन्नरुचेर्जनस्य बहुधा रुचये समाराधानम् ।।' 

नाटक में तीनों गुणों (सत्, रज, तम) का उद्भव, नाना प्रकार के स्वभाव तथा चरित्रों के व्यक्तियों का वर्णन एवं विविध रसों का चित्रण होता है। अतः भिन्न-भिन्न रुचि के व्यक्तियों को समान रूप से आनन्द देने का एक साधन नाटक है। 

इस प्रकार जहाँ नाटक की महत्ता है, वहाँ यह अति प्राचीन विद्या भी है। इसकी महत्ता का आधार यह भी है कि संसार की प्रत्येक वस्तु का प्रदर्शन करने के अतिरिक्त नाटक में वास्तविकता का अनुकरण सजीवता के साथ जीते-जागते साधनों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार लोकहित तथा लोकरंजन के उद्देश्य को लिए हुए शिक्षित-अशिक्षित सबका समान रूप से मनोरंजन करने वाला तथा विविध कलाओं से संयुक्त होने के कारण नाटक को साहित्य का सर्वश्रेष्ठ अंग माना गया है।

 नाटक की परिभाषा - भरतमुनि ने नाटक की परिभाषा इस प्रकार की है - 

 

'त्रैलोकस्यास्य सर्वस्य नाट्यभावानुर्कीनम् ।' 

(अर्थात् नाटक तीनों लोकों के भावों का अनुकरण है।) 

आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार, "प्रत्यक्षं कल्पनाध्वसाय विषयो लोकप्रसिद्धः" के आधार पर "नाटक वह दृश्य-काव्य है जो प्रत्यक्ष कल्पना एवं अध्यवसाय का विषय बनकर सत्य एवं असत्य से समन्वित, विलक्षण रूप धारण करके सर्वसाधारण को आनन्दोपलब्धि प्रदान करता है।" 

नाटक के तत्व - भारतीय आचार्यों के आधार पर विद्वानों ने नाटक के पाँच तत्वों का उल्लेख किया है - 

(1) कथा, कथानक या कथावस्तु, (2) नेता या पात्र, (3) रस, (4) उद्देश्य, तथा (5) अभिनय। 

(ङ) रूपक और उपरूपक 

रूपक - शब्द अलंकार के लिए प्रयुक्त होता है। एक वस्तु में अन्य वस्तु के आरोप को रूपक कहते हैं। नाट्यशास्त्र में अभिनेयता या नटक के ऊपर के पात्रों के रूप, अवस्था या उनके व्यक्तित्व का आरोप किया जाता है, क्योंकि नाटक के विकास में अनुकरण वृत्ति ही प्रधान रही है। इस प्रकार रूपक में मानव या मानवेत्तर प्रकृति का अनुकरण कर उसके द्वारा रसोद्बोध होता है। दशरूपककार के. अनुसार -

"अवस्थानुकृतिर्नाट्यम् ।" 

(अर्थात् अवस्था के अनुकरण को ही नाट्य कहते हैं।) 

अवस्थानुकरण से तात्पर्य है - चाल-ढाल, वेश-भूषा, अलाप-प्रलाप आदि के द्वारा पात्रों की प्रत्येक अवस्था का अनुकरण इस ढंग से किया जाय कि नटों में पात्रों की तादात्म्य-अनुभूति हो जाये; जैसे - नट दुष्यन्त की प्रत्येक प्रवृत्ति की ऐसी अनुकृति (अनुकरण) करे कि सामाजिक (दर्शक) उसे दुष्यन्त ही समझे, अभिनय में यह भेद लुप्त हो जाए। 

नाट्य को ही रूप और रूपक कहा जाता है। नाट्य 'रूपक' इसलिए कहलाता है, क्योंकि वह दृश्य होता है - 

'रूपं दृश्यतयोच्यते' 

नाट्य केवल श्रव्य न होकर रंगमंच के ऊपर अभिनीत भी होता है, अतः यह दृश्य है अर्थात् देखा जा सकता है। हम अपनी नेत्र-इन्द्रिय के विषय को 'रूप' कहते हैं, उसी प्रकार नेत्रों से ग्राह्य होने के कारण नाट्य को रूप या रूपक कहा जाता है। 

इसमें यह आरोप भी पाया जाता है - 

'रूपके तत् समारोपात।'

जैसे रूपक अलंकार में हम देखते है कि मुख पर चन्द्रमा का आरोप कर दिया जाता है, वैसे ही नाट्य में नट पर रामादि पात्रों की अवस्था का आरोप किया जाता है, अतः उसे रूपक कहते है। नाट्य, रूप, रूपक से शब्द पर्या जाते हैं। 

नाटक और रूपक - संस्कृत-साहित्य में दो प्रकार की नाट्य विद्याएँ मिलती हैं - (1) रूपक तथा (2) उपरूपक। दशरूपककार धनंजय ने रूपक को नाट्य कहा है। उपरूपक को नृत्य माना गया है। नाटक का नाम रूपकों में सर्वप्रथम लिया जाता है, क्योंकि प्रकरणादिक अन्य रूपकों के लक्षण नाटक के आधार पर ही निर्धारित किए गये है। इसके अतिरिक्त रूपक के प्राणभूत तत्व रस की पूर्ण प्रतिष्ठा भी इसी में पायी जाती है। रूपक के अनेक भेद भी गिनाये गये हैं। उनमें से नाटक को सर्वाधिक प्रमुख माना गया है। कालान्तर में नाटक रूपक का एक भेद न रहकर स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में समर्थ हुआ है। 

उपरूपक 

उपरूपक से तात्पर्य रूपक के उपभेदों से है अर्थात् रूपक के जो दस भेद किये गये हैं, वे ही उपरूपक हैं। इनके भी भेद माने गये हैं - 

(1) नाटिका - इसकी कथावस्तु कल्पित एवं चार अंकों की होती है। इसमें दो नायिकाएँ होती हैं। ज्येष्ठा नायिका देवी या महारानी होती है। कनिष्ठ-नायिका के साथ नायक का मिलन बड़े कष्ट से होता है। यह संगम ज्येष्ठा के अधीन होता है। कनिष्ठा राजवंश की होकर भी मुग्धा और अत्यधिक रूपवती होती है। 

(2) मोदक - इसमें विषम अंकों की योजना होती है (सात, नौ, पाँच)। इसके पात्र देवता या मनुष्य होते हैं। यह श्रृंगार रस-प्रधान होता है और प्रत्येक अंक में विदूषक की योजना होती है। 

(3) गोष्ठी - इसमें नौ या दस पुरुष पात्र तथा पाँच या छः स्त्री पात्र होते हैं। इसे एकांकी भी कह सकते हैं। इसमें श्रृंगार की प्रधानता रहती है। 

(4) सट्टक - इसकी रचना प्राकृत में होती है और अद्भुत रस की प्रधानता होती है। यह नाटिका से मिलता-जुलता है। 

(5) नाट्य रासक - यह एकांकी ताल और लय-प्रधान होता है। इसका नायक उदात्त तथा नायिका वासकसज्जा होती है। 

(6) प्रस्थानक - यह दो अंक तथा दस नायकों वाला उपरूपक है, जिसका उपनायक हीन व्यक्ति होता है और नायिका दासी। 

(7) उल्लाप्य - इसमें दिव्यकथा के साथ धीरोदात्त नायक होता है और चार नायिकाएँ होती हैं। इसमें श्रृंगार, हास्य और करुण रसों का प्रयोग होता है। इसका अंक एक ही होता है। 

(8) काव्य - हास्य रस- प्रधान, उदात्त नायक और नायिका से युक्त, गीतिबाहुल्य रूपक ही काव्य माना गया है। 

(9) रासक - एकांकी, पाँच पात्रों वाला, मूर्ख नायक और प्रसिद्ध नायिका से युक्त रूपक को ही रासक कहा जाता है। 

 (10) प्रेक्षण - इसमें एक ही अंक होता है और प्रायः नायकहीन पात्र होते हैं। इसमें युद्ध का वर्णन होता है। 

 (11) संलापक - यह तीन या चार अंकों का होता है। इसका नायक पाखण्डी होता है। इसमें श्रृंगार एवं करुण रस की प्रधानता होती है। इसमें नगरावरोध, युद्ध तथा भगदड़ का वर्णन भी होता है। 

(12) श्रीगादित - इसमें एक अंक होता है। इसका नायक धीरोदात्त और कथा इतिहास-प्रसिद्ध होती है। इसमें नटी लक्ष्मी का रूप धारण करती है और कुछ गाती है। 

(13) शिल्पक - यह चार अंकों से युक्त होता है। इस उपरूपक में हास्य के अतिरिक्त सभी रसों का प्रयोग होता है। इसका नायक ब्राह्मण होता है तथा उपनायक कोई हीन पात्र इसमें मुर्दों और मरघट का वर्णन होता है। 

(14) विलासिका - यह एक अंक का होता है। इसका नायक हीन गुणयुक्त, किन्तु सुन्दर वेशभूषा वाला होता है। 

(15) प्रकरणिका - यह सेठ-व्यापारी नायक का उपरूपक है। इसमें शेष प्रकरण के समान ही होता है। 

(16) दुर्मल्लिका - यह चार अंक से युक्त होता है। इसका नायक निम्न जाति का होता है, पर शेष पुरुष पात्र चतुर होते हैं। 

(17) हल्लीश - इसमें एक ही अंक होता है और गान, लय तथा ताल का आधिक्य रहता है। इसमें दस स्त्रियाँ होती हैं, किन्तु पुरुष एक ही होता है और वह उदात्त वचन बोलने वाला होता है। 

(18) भाणिका – इसमें एक अंक होता है। इसका नायक मन्द बुद्धि तथा नायिका उदात्त-प्रगल्भा होती है। 

काव्य में गद्य का समायोजन - यदि काव्य के प्रमुख लक्षणों पर विचार करें तो प्रतीत होगा कि किसी ने छन्द के महत्व को स्वीकार नहीं किया है। कुछ आचायों के महाकाव्य के लक्षणों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। 

(1) रुद्रट - इन्होंने शब्दार्थ को काव्य माना है - 

'ननु शब्दार्थो काव्यम्।' 

(2) भामह - इनका काव्य लक्षण रुद्रट से मिलता-जुलता है। इन्होंने मिले हुए शब्द और अर्थ को काव्य माना है - 

"शब्दार्थो सहितौ काव्यम् ।" 

शब्द और अर्थ दोनों गद्य में भी होते हैं, इसलिए गद्य में निर्मित रचना को भी काव्य माना जा सकता है। 

 (3) दण्डी - इन्होंने अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली पदावली को काव्य माना है - 

'इष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली।' 

 डॉ. नगेन्द्र के अनुसार भामह और दण्डी के काव्य-लक्षणों का तात्पर्य एक है, केवल शब्दावली का अन्तर है। 

(4) आनन्दवर्धन - इनके अनुसार शब्द और अर्थ काव्य के शरीर है तथा ध्वनि उसकी आत्मा है। 

(5) मम्मट - इन्होंने दोषरहित, गुणों और अलंकारों से युक्त शब्दार्थ को ही काव्य माना है - 

"तदने शब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।" 

अलंकारों के प्रयोग के लिए पद्म की बाध्यता नहीं है। गद्य में भी अलंकारों का प्रयोग हो सकता है। गुणयुक्त शब्दार्थ गद्य में समाविष्ट हो सकते हैं ? जिन अलंकारवादी आचार्यों ने अलंकार को काव्य की आत्मा माना है, उन्हें भी गद्य में विरचित रचना का काव्य स्वीकार करने में आपत्ति नहीं रही होगी। 

आचार्य विश्वनाथ - इन्होंने रसात्मक वाक्य को काव्य स्वीकार किया है - 

'वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।' 

वाक्य-रचना पद्य की अपेक्षा गद्य में अधिक सार्थक, पूर्ण एवं व्याकरणसम्मत बनायी जा सकती है। जहाँ तक रस का प्रश्न है, उसके साथ भी छन्द की अनिवार्यता नहीं है। 

आलोचकों और समीक्षकों में पर्याप्त समय से प्रचलित यह उक्ति गद्य का सम्बन्ध कवियों से स्थापित करती है - 

'गद्य कवीनां निकथं वदन्ति ।' 

(अर्थात् गद्य को कवियों की कसौटी कहा जाता है।) 

यहाँ कवि शब्द का अर्थ साहित्य-रचनाकार है तथा पद्य-रचना की अपेक्षा गद्ध-रचना को अधिक श्रमसाध्य एवं प्रतिभा की अपेक्षा करने वाला बताया गया है। 'गद्यकाव्य' शब्द का प्रचलन हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में कुछ गद्य रचनाओं के लिए हुआ है। आज जो ललित निबन्ध कहलाते हैं, उनकी वचन वक्रता पद्य रचना से कम रसात्मक नहीं होती प्रयोगवादियों एवं नयी कविता के रचविताओं ने तो कविता में छन्द का बन्धन अस्वीकार ही कर दिया है। 

(च) गीति - काव्य 

गेय-पद रचना को गीतिकाव्य कहा जाता है। गीति प्रत्येक देश और प्रत्येक जाति में अति प्राचीन काल से गाये जाते हैं और आज भी गाये जाते हैं, किन्तु साहित्य में उन गीतों को गीतिकाव्य की संज्ञा दी जाती है, जिनको साहित्य के अन्तर्गत गिना जा सकता है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने कविता के दो रूपों का उल्लेख किया है -"एक तो वह (काव्य) जिसमें कवि अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश करके अपने अनुभवों तया भावनाओं से प्रेरित होता तथा अपने प्रतिपाद्य विषय को ढूँढ निकालता है और दूसरा वह जिसमें वह अपनी अन्तरात्मा से बाहर जाकर सांसारिक कृत्यों और रागों में बैठता है और जो कुछ ढूंढ निकालता है, उसका वर्णन करता है। पहले विभाग को 'भावात्मक व्यक्तित्व प्रधान' अथवा 'आत्माभिव्यंजक' कविता कह सकते हैं, दूसरे विभाग को हम विषय-प्रधान' अथवा भौतिक कविता कह सकते हैं।" 

इस प्रकार जिस कविता में भावात्मक वैयक्तिक अनुभूतियों और भावनाओं की प्रचुरता होती है, उसमें गीतात्मकता का आ जाना स्वाभाविक है। अतः उसे ही गीतिकाव्य कहा जाता है। इसे प्रगीत काव्य के नाम से भी पुकारा जाता है। 

आधुनिक गीत को अंग्रेजी के 'लिरिक' (Lyric) के साथ जोड़ा गया और 'लिरिक' की उत्पत्ति 'लायर' नामक वाद्ययंत्र से मानी गयी, जिस पर गीत गाये जाते थे। 

भारत में वैदिक-काल से ही गीत प्रचलित हैं। इसका प्राचीनतम रूप 'संहिताओं' में देखा जा सकता है। सामवेद के मंत्र तो गेय हैं ही और 'गीता' का तो अर्थ ही यही है जो कि गाई गयी हो। इसके साथ ही 'गीत-गोविन्द' में तो गीति-काव्य का परिष्कृत निखरा रूप ही है। 

हिन्दी के आदिकाल में चार गीतों की परम्परा और वीर-काव्य गेय ही है। विद्यापति की पदावली पर तो 'गीत-गोविन्द' का प्रभाव मान्य है ही। भक्तिकाल में सूर के पद राग-रागनियों से युक्त हैं, मीरा के पद तो आज तक गाये जाते हैं। इस प्रकार हिन्दी में भी आदिकाल से ही गीत-काव्य के दर्शन होते हैं। 

गीति-काव्य का स्वरूप - गीति-काव्य के स्वरूप पर पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने पर्याप्त मात्रा में विचार किया है। यहाँ उनमें से प्रमुख का ही उल्लेख करना सम्भव है।

(छ) गद्य-काव्य 

'गध-काव्य' आज एक नयी विधा है। इसे गद्य-पद्य मिश्रित रचना या निबन्ध और प्रगीत के मध्य की रचना स्वीकार किया जाता है। इन रचनाओं को 'गद्य-गीत' भी कहा जाने लगा, किन्तु डॉ. पद्मसिंह शर्मा के अनुसार "गद्य-गीत और गद्यकाव्य में थोड़ा-सा अन्तर है। गद्य-गीत में एक भाव या विचार रहता है जो कल्पानाश्रित होता है, जबकि गद्य-काव्य एकाधिक भावों-विचारों को समाहित करता है, जिसका कल्पनाश्रित होना आवश्यक नहीं है।" 

 गद्य-काव्य और निबन्ध की समानता का उल्लेख करते हुए बाबू गुलाबरायजी ने स्पष्ट किया है - "दोनों में भावना का प्राधान्य तो अवश्य है, परन्तु भावात्मक निबन्धों की अपेक्षा गद्य-काव्य में कुछ वैयक्तिकता और एकतथ्यता अधिक होती है। इसमें एक ही केन्द्रीय भावना का प्राधान्य होने के कारण यह निबन्ध की अपेक्षा आकार में छोटा होता है और इसमें अन्विति भी कुछ अधिक होती है। निबन्धकार विचार-श्रृंखला के सहारे इधर-उधर लटक भी सकता है, किन्तु गद्य-काव्यकार एक निश्चित ध्येय की ओर जाता है और इसमें इधर-उधर विचरण की गुंजायश नहीं है।" 

वस्तुतः गद्य-काव्य के वर्तमान स्वरूप को निबन्ध के अन्तर्गत स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज वह भाव और अनुभूति की गहनता से ओत-प्रोत हो चुका है। 

गद्य-काव्य का स्वरूप - गद्यकाव्य पर संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी - तीनों साहित्य में विचार हुआ है। यहाँ उसकी संक्षिप्त चर्चा अपेक्षित है -

(1) संस्कृत साहित्य 

डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार संस्कृत में गद्य काव्य शब्द का प्रयोग कथा और आख्यायिकाओं के अर्थ में मिलता है -

'पद्यं गद्ध्यं मिश्रं च तत् चिधैव व्यवस्थितम् ।'

(काव्यादर्श) 

साथ ही 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' वाली उक्ति गद्य-काव्य की महत्ता को प्रकट करती है। बाणभट्ट की 'कादम्बरी'  को गद्यकाव्य माना जाता है। 

(2) अंग्रेजी साहित्य 

अंग्रेजी में इसे Poetic Prose (पोयटिक प्रोज अर्थात् पद्यात्मक गद्य) कहा जाता है, परन्तु इसकी वहाँ कोई शास्त्रीय व्याख्या उपलब्ध नहीं है। 

(3) हिन्दी साहित्य 

(1) डॉ. रामकुमार वर्मा - "गद्य-गीत साहित्य की भावात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें कल्पना और अनुभूति काव्य उपकरणों से स्वतंत्र होकर मानव जीवन के रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए उपयुक्त और कोमल वाक्यों की धारा में प्रवाहित होती है।" 

(2) डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा - "जो गद्य कविता की तरह रमणीय, सरस, अनुभूतिमूलक और ध्वनि-प्रधान हो, साथ ही उसकी अभिव्यंजना-प्रणाली अलंकृत एवं चमत्कारी हो, उसे गद्य-काव्य कहना चाहिए।" 

 (3) डॉ. पद्मसिंह शर्मा 'कमलेश' - "छन्द बन्धनरहित और इतिवृत्तहीन ऐसी भावपूर्ण कल्पना प्रधान रचना को गद्य-काव्य कहेंगे, जिसमें बुद्धि-तत्व को विशेष महत्व दिया गया हो।" 

(4) डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी - "इस प्रकार के गद्य (गद्य-काव्य) में भावावेग के कारण एक प्रकार झंकार होती है जो सहृदय पाठक के चित्त को भाव-ग्रहण के लिए अनुकूल बनाती है।" 

(5) डॉ. ओमप्रकाश सिंहल - “गद्य-काव्य से अभिप्राय उस रचना से है, जिसमें वैयक्तिक आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि घनीभूत भावनाओं को साधारण गद्य से भिन्न भावपूर्ण गद्य में व्यक्त किया जाता है - उसमें संवेदनशीलता एवं रसात्मकता तो छन्दोबद्ध काव्य के समान होती है, किन्तु माध्यम गद्य होता है।" 

(6) डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत - "मैं हिन्दी गद्य-काव्य को किसी व्यक्त या रहस्यमय आधार से अभिव्यक्त होने वाली कवि के भाव-जगत् की कल्पना-कलित निर्वाध गद्यात्मक अभिव्यक्ति मानता हूँ।" 

इस प्रकार संक्षेप में गद्यकाव्य की विशेष प्रकार ठहरती हैं - 

  1. इसमें अभिव्यक्ति का माध्यम गद्य होता है। 
  2. इसमें भावना और कल्पना की प्रधानता होती है। 
  3. इसमें रमणीयता, सरसतायुक्त पद्य की सी आत्मा होती है। 
  4. इसका आकार लघु होता है। 
  5. इसमें अनुभूति प्रधानता भाव-प्रवणता काल्पनिकता एवं रसात्मकता की स्थिति होती है। 
  6. इसमें संक्षिप्तता (कम शब्दों में अधिक कहने की सामर्थ्य), भाषा-प्रवाह, भाषा की सरसता और संगीतमयता तथा चित्रात्मकता और ध्वन्यात्मकता अपेक्षित है। 
  7. इसमें बुद्धि-तत्व की प्रधानता, इतिवृत्तहीनता के साथ भावमग्न करने की सामर्थ्य अपेक्षित है। 
  8. इसमें प्रतीकात्मकता, रूपकात्मकता, अन्योक्तिपरकता आदि विशेषताएँ भी अपेक्षित हैं। 

(ज) चम्पू-काव्य 

संस्कृत काव्यशास्त्र में गद्य और पद्य के मिले-जुले काव्य रूप को चम्पू-काव्य कहते हैं। 

गद्य पद्य मयं काव्यं चम्पू इत्यभिधीयते । 

संस्कृत साहित्य में तो चम्पू-विधा पर पर्याप्त रचनाएँ प्राप्त होती है, परन्तु हिन्दी-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की 'यशोधरा' जैसी कुछ ही रचनाएँ हैं। 

FAQ

  1. काव्य के कितने भेद होते हैं 
  2. श्रव्य काव्य के कितने भेद होते हैं 
  3. प्रबंध काव्य किसे कहते हैं 
  4. काव्य कितने प्रकार के होते हैं ?

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