प्रश्न 3. काव्य-प्रयोजन से क्या तात्पर्य है ? भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रस्तुत काव्य प्रयोजनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर -
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काव्य प्रयोजन
संस्कृत आचार्य गद्य को भी काव्य मानते थे। यह उक्त्ति सर्वविदित है -
'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति ।'
(गद्य कवियों की कसौटी है ।)
नाटक को तो संस्कृत के आचायों ने स्पष्ट शब्दों में काव्य कहा है -
'काव्येषु नाटकं रम्यम् ।'
मानव-जीवन के सभी क्रिया-कलाप उद्देश्यपूर्ण होते हैं। संस्कृत की यह लोकोक्ति इसी तथ्य को प्रमाणित करती है-
"प्रयोजनमनुदिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते।" अर्थात् बिना प्रयोजन के मन्दबुद्धि (मूर्ख) भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते। साहित्यकार अपनी सृजन-क्षमता के कारण ब्रह्मा के समान माना गया है, फिर उसका कार्य प्रयोजनविहीन कैसे हो सकता है ? प्रयोजन के विषय में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि साहित्यकार क्यों लिखता है? साहित्य-सृजन में साहित्यकार के जो भी उद्देश्य रहते हैं, वे ही साहित्य अथवा काव्य के प्रयोजन कहलाते हैं।
इन प्रयोजनों की चर्चा विभिन्न विद्वानों ने अनेक प्रकार से की है। यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है -
संस्कृत आचार्यों द्वारा बताये गये प्रयोजन
(1) भरतमुनि - नाट्य और काव्य में भरतमुनि के काल तक कोई अन्तर नहीं था। उनके द्वारा बताये गये प्रयोजन नाट्य-रचना से ही सम्बन्धित हैं, परन्तु उन्हें 'साहित्य' के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है। वे अपनी ग्रन्थ-रचना का प्रयोजन निम्न प्रकार बताते है -
"दुःखार्त्तानां श्रमार्त्तानां शोकार्त्तानां तपस्विनाम्।
विश्रामजननं लोके नाट्यमेतद् भविष्यति ।"
(अर्थात्, यह बाट्य शास्त्र भविष्य में संसार के दुःख से, श्रम से तथा शोक से पीड़ित तपस्वियों या लोगों को सुख प्रदान करने वाला होगा।)
इस प्रकार भरतमुनि 'लोकहित' या 'लोकमंगल' को ही महत्व देते प्रतीत होते हैं। उन्होंने "स्वान्तः सुखाय' का उल्लेख नहीं किया है। यह बात दूसरी है कि ये 'रसास्वादन' का विवेचन करते समय 'हर्षाद्यधि गच्छन्ति' कहकर आनन्द को पूर्ण रूप से स्वीकार करते हैं।
(2) भागह - अलंकारवादी भामह के अनुसार -
"धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति प्रीति कीर्ति च साधुकाव्य निबन्धम्।।"
(अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति काव्य का प्रयोजन है। साथ ही कलाओं में कुशलता, कीर्ति और प्रीति भी इसके प्रयोजन है, जिससे कवि रचना करके अपने यश को संसार में अगर रखना चाहता है।)
(3) वामन - वामन ने दो काव्य-प्रयोजन बतायें हैं - कीर्ति और प्रीति (आनन्द)। उन्होंने कर्ता की दृष्टि से ही विचार किया है। ये काव्य-प्रयोजन के दो रूप मानते हैं -
(क) दृष्ट प्रयोजन - यह आनन्द अथवा प्रीति की उपलब्धि कराता है।
(ख) अदृष्ट प्रयोजन - इससे यश अथवा कीर्ति प्राप्त होती है -
"काव्यं सद्दृष्टादृष्टार्थ प्रीति-कीर्ति-हेतुत्वात् ।"
(4) दण्डी - आचार्य दण्डी ने प्रयोजन की चर्चा की है, परन्तु उन्होंने शब्द के महत्व की चर्चा ज्ञान का प्रकाश देने वाला, यश को स्थायित्व प्रदान करने वाला कहकर की है। इस आधार पर साहित्य का प्रयोजन ज्ञान और यश की प्राप्ति स्वीकार किया जा सकता है -
'इदमन्धं तमः कृत्स्नं जायेत भुवनप्त्रयम्।
यदि शब्दाहृयं ज्योतिरासान्न दीप्यते।।'
(5) कुन्तक - इनके अनुसार -
'धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः।
काव्यबन्धोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारकः ।।'
अर्थात् काव्य आह्लाद उत्पन्न करने वाला तथा धर्मादिक की सिद्धि का मार्ग है। ये आगे यह भी कहते हैं कि काव्यामृत सहृदयों के अन्तःकरण में चतुर्वर्ग रूप फल के आस्वाद से भी बढ़कर चमत्कार उत्पन्न करने वाला होता है -
'चतुर्थर्ग फलास्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदाम् ।
काव्यामृतरसेसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते ।। '
इस प्रकार काव्य के प्रयोजन तीन माने गये हैं (1) चतुर्वर्ग की प्राप्ति, (2) व्यवहार और औचित्य का परिज्ञान, (3) अद्वितीय अंतश्चमत्कार की प्राप्ति। कुन्तक यह तो मानते हैं कि चतुर्वर्ग की प्राप्ति अन्य शास्त्रों से भी हो सकती है, किन्तु काव्य से कोमल बुद्धि के लोग भी लाभ उठा सकते हैं, जबकि शास्त्र के द्वारा यह सबके लिए सम्भव नहीं हो सकता।
(6) रुद्रट - 'काव्यालंकार' में रुद्रट ने काव्य के प्रयोजनों की चर्चा की है। उनके अनुसार - युगान्त तक रहने वाला यश, स्तुत्यादि द्वारा धन प्राप्ति, विपत्ति-नाश, आनन्द प्राप्ति, आप्तकामना और पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति ही काव्य का प्रयोजन है।
(7) आनन्दवर्धन - ये ध्वनिवादी थे, अतः इन्होंने काव्य-प्रयोजनों का पृथक रूप से कोई विचार नहीं किया है। इन्होंने मात्र संकेत दिया है -
'तेन ब्रूमः सहृदय मनः प्रीयते तत्स्वरूपम्।'
'मनः प्रीयते' कहकर ये मनोरंजन को ही महत्व देते हैं।
(8) अभिनवगुप्त - इन्होंने भी ध्वनि सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा है कि कवि को दो फल प्राप्त होते हैं- कीर्ति और प्रीति । कीर्ति भी प्रीति (आनन्द) का कारण है। अतः ये 'प्रीति' को ही अधिक महत्व देते हैं।
(9) राजशेखर - ये भी काव्य के प्रयोजनों की चर्चा कवि और सामाजिक दोनों दृष्टियों के आधार पर करते हैं - सामाजिक (सहृदय की दृष्टि से काव्य का प्रयोजन आनन्द की प्राप्ति है और कवि की दृष्टि से अक्षय कीर्ति।
(10) पंडितराज जगन्नाथ - इन्होंने प्रीति (आनन्द) तथा गुरु, राजा एवं देवता की प्रसन्नता को काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है-
'तत्र कीर्तिः परमाह्लाद गुरुराज देवता।
प्रसादाद्यनेक प्रयोजकस्य काव्यस्य व्युत्पत्तेः।।'
(11) मम्मट - भारतीय काव्यशास्त्र में इस दृष्टि से मम्मट की सर्वाधिक मान्यता है। 'काव्यप्रकाश' में उन्होंने काव्य-प्रयोजन का इस प्रकार उल्लेख किया है -
'सकल प्रयोजन-मौलिकभूतं समन्तरमेव रसास्वादन-समुद्भूत विगलित वेद्यान्तरमानन्दम्।'
(अर्थात् यह प्रयोजन जो संसार के सभी प्रयोजनों में मुख्य है, जो प्राप्त होते ही तुरन्त रस का स्वाद चखाकर आनन्द अनुभव कराता है ।)
इस आनन्द के सामने शेष ज्ञेय वस्तुओं का ज्ञान तिरोहित हो जाता है। यह प्रयोजन सृष्य और सहृदय दोनों के लिए है।
इसके अतिरिक्त मम्मट ने 6 प्रयोजनों की चर्चा की है, जो सर्वाधिक मान्य हुए हैं -
'काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृत्तये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ।।'
यहाँ संक्षेप में जिन प्रयोजनों की व्याख्या करने का प्रयास किया जा रहा है। वे हैं - यश-प्राप्ति, धन प्राप्ति, व्यवहार कुशलता, अनिष्ट निवारण, आनन्द और कान्ता-सम्मत उपदेश
(1) यश - यश की कामना, जिसे लोकैषणा की भावना भी कहा गया है, मानव की महत्वपूर्ण कामना है। अतः यश काव्य-सृजन की प्रमुख प्रेरक-शक्ति स्वीकार की जा सकती है। मिल्टन भी यह स्वीकार करते हैं कि अन्तिम निर्बलता यश है। जायसी की यह पंक्ति भी इस तथ्य को प्रमाणित कर रही है -
'औ मन जानि कवित्त अस कीन्हा।
मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा।।'
(2) अर्थ - यह पुरुषार्य चतुष्ट्य का एक भाग है और लौकिक जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। अतः अर्थ-प्राप्ति की कामना काव्य-सृजन की प्रेरणा बन सकती है। डॉ. गुलाबराय वह स्वीकार करते हैं कि लेखकों का ध्येय अपने-अपने ग्रन्थों को पाठ्यक्रमों में लगवाकर अथवा जनता के मनोरंजनार्थ कहानी, उपन्यास आदि लिखकर उनकी बिक्री से अर्थोर्पाजन करना होता है।
(3) व्यवहार ज्ञान - लोक व्यवहारशून्य व्यक्ति समाज में आदर नहीं पाता। यह ज्ञान उसे शास्त्र से ही प्राप्त हो सकता है। कहानी, उपन्यास, काव्य-सूक्तियाँ आदि पाठ को रीति-व्यवहार का ज्ञान सहजता से कराते दिखायी देते हैं।
(4) अशिव की क्षति - इसके दो रूप माने गये हैं - (क) स्रष्टा द्वारा अनिष्ट निवारण के बाद कल्याण की कामना - यह देवस्तुति आदि से सम्भव होती है। आचार्य मम्मट के अनुसार मयूर कवि ने सूर्य से अपने कोढ़-निवारण की प्रार्थना करते। हुए 'सूर्यशतक' की रचना की। तुलसी ने 'हनुमानबाहुक' अपनी बाहु-पीड़ा-निवारणार्थ इसकी रचना की थी ।
(ख) समाज कल्याण की भावना - इसमें देश और समाज का हित निहित होता है। इसमें प्राचीन काल से लेकर आज तक का उपदेशात्मक, नीतियुक्त, राष्ट्रीय भावना से युक्त और वर्तमान काल का प्रगतिवादी साहित्य और साधारण आदमी की समस्याओं का वर्णन करते हुए समांतर कहानी आदि विधाएँ समाहित होती हैं।
(5) सद्यः परिनिर्वृत्ति - डॉ. रामदत्त भारद्वाज इसे काव्य का मुख्य उद्देश्य मानते है। काव्य के आस्वादन से जो रस-रूपी आनन्द मिलता है, वही इसका लक्ष्य है। यह आनन्द पाठक और स्रष्टा दोनों को ही प्राप्त होता है।
(6) कान्तासम्मित उपदेश - प्रिय के मधुर शब्दों का प्रभाव शीघ्र होता है। शास्त्र में तीन प्रकार के वचनों का उल्लेख है - (क) प्रभु सम्मत - इसमें उपदेश, लोक-व्यवहार की नीति रहती है जो वेदादि में पायी जाती है।
(ख) सहृदय-सम्मत - इसमें पुराणों के उपदेश गिने जा सकते हैं।
(ग) कान्ता-सम्मत - इसमें प्रेम-मिश्रित उपदेश रहता है। काव्य में मधुरता होती है, वह शीघ्र प्रभाव डालती है। बिहारी के दोहों ने जयसिंह पर विलक्षण प्रभाव डाला था, यह सर्वविदित है। नादिरशाह के कत्लेआम को रोकने में मुहम्मद शाह के वजीर का यह शेर पूर्णतः समर्थ हुआ था -
'कसे न मांद कि रीगट व तेगेनाज कुशी।
मगर कि जिंदा कुनी खल्क रॉव बाज कुशी।।'
(तेरी तलवार ने न मार गिराया हो, ऐसा कोई शेष नहीं बचा है। अब तो यही रह गया है कि तू मुर्दों को जीवित करके अपनी तलवार से कत्ल कर।)
(7) चतुर्वर्ग फलप्राप्ति - इसकी चर्चा अलग से भी हुई है, परन्तु डॉ. रामदत्त भारद्वाज 'काव्यशास्त्र की रूपरेखा' में इसे 'शिवेतर क्षति' के अन्तर्गत ही स्वीकार करते हैं।
हिन्दी आचार्यों द्वारा बताये गये प्रयोजन
(1) कुलपति - इनके प्रयोजन सम्बन्धी लक्षण मम्मट के आधार पर ही हैं -
'जस, सम्पत्ति, आनन्द अति, दुक्खनि डारै खोइ।
होत कवित्त तें चतुरई, जगत बाम बस होइ।।'
(2) देव - ये यश को महत्व प्रदान करते हैं -
"ऊँच-नीच अरु कर्मबस, चलौ जात संसार।
रहत भव्य भगवंत जस, नव्य काव्य सुखसार।।'
(3) भिखारीदास - ये अर्थ, यश और आनन्द को महत्व देते हैं। ये कवियों के जीवन की स्थिति प्रस्तुत करते हुए कहते हैं -
'एक लहै तप पूंजन के फल, ज्यों तुलसी अरु सूर गुसाईं।
एक लहैं बहु-सम्पत्ति केशव, भूपन ज्यों बर बीर बड़ाई।।
एकन्ह को जस ही सौ प्रयोजन, है रसखानि रहीम की नाई।
दास कवित्तन्ह की चरचा, बुद्धिबन्तन को सुखदै सब ठाई।।'
(4) तुलसीदास - यद्यपि तुलसी काव्यशास्त्र परम्परा में नहीं गिने जाते, फिर भी उन्होंने 'रामचरितमानस' का आरम्भ करते समय अपने ग्रंथ का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए 'स्वान्तः सुखाय' की चर्चा की है और उसे 'लोकहित' के लिए समर्पित माना है।
(5) सुमित्रानन्दन पन्त - पन्तजी भी 'स्वान्तः सुखाय' और 'परजनहिताय' के समर्थक हैं। उनके अनुसार, "एक विकसित कलाकार के व्यक्तित्व में स्वान्तः और बहुजन में आपस में वही सम्बन्ध होता है जो गुण और राशि में एक और एक के बिना दूसरा अधूरा है।"
(6) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - प्रायः सुनने में आता है कि कविता का उद्देश्य मनोरंजन है, परन्तु कविता का अन्तिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण, उनके साथ मनुष्य-हृदय का सामंजस्य स्थापन है।
(7) डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी - "मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न कर सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।"
(8) डॉ. गुलाबराय - "सब प्रयोजनों में वही उत्तम है, जो आत्मा की व्यापक से व्यापक और अधिक-से-अधिक अनुभूति में सहायक होता है।"
(9) आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी - "काव्यानुभूति स्वतः एक अखण्ड आत्मिक व्यापार है। काव्य का प्रयोजन मनोरंजन, सामाजिक वैषम्य से दूर भागना अथवा पलायन भी नहीं हो सकता, क्योंकि वैसी अवस्था में आत्मानुभूति के प्रकाशन का पूरा अवसर रचयिता को नहीं मिल सकेगा।"
(10) डॉ. नगेन्द्र - "साहित्य का प्रयोजन आत्माभिव्यक्ति है। कवि या लेखक के हृदय में जो भाव या विचार उठते हैं, उन्हें वह प्रकाशित करना चाहता है।"
(11) डॉ. रामधारीसिंह दिनकर - इनके अनुसार भी काव्य का प्रयोजन आत्माभिव्यक्ति ही है - "मैं यह मानता हूँ कि बसन्त का गुलाब और कवि का स्वप्न अपने मन में पूर्ण होता है, वह किसी को कुछ सिखाने के लिए नहीं होता।"
पाश्चात्य आचार्यों द्वारा बताये गये प्रयोजन
(1) अरस्तू - ये काव्य का प्रयोजन 'आनन्द' को स्वीकार करते हुए उसे समाजोन्मुखी बनाने के पक्षधर है।
"The pleasure it affords in an enduring pleasure, an aesthetic employment which is not divorced from scenic ends."
(2) प्लेटो - ये सौन्दर्य और नैतिकता को आधार मानकर भारतीय सौन्दर्य एवं शिवम् के निकट दिखाई देते हैं।
(3) होरेस - ये आनन्द और लोक-कल्याण को ही साहित्य का प्रयोजन स्वीकार करते हैं।
"The poet's aim is to profit or to please, or to blend in on the delightful and the useful."
(4) मैथ्यू आर्नोल्ड - ये जीवन की व्याख्या करना ही साहित्य का प्रयोजन स्वीकार करते हैं।
"The end and aim of all literature is, if one considers it attentively, nothing but a criticism of life."
(5) ड्राइडन - ये स्वान्तः सुखाय और परजनहिताय के पक्षधर हैं -
"To teach delightful is the function of poetry."
(6) जे. ई. स्पिनगार्न - ये 'कला, कला के लिए' के पक्षधर थे -
"Romantic criticism first enunciated the principle that art has no aim except expression, i that its aim is complete when expression is complete."
हलोकमंगल और साहित्य-प्रयोजन
लोकमंगल से तात्पर्य लोक-कल्याण से ही है। साहित्यकार रचना क्यों करता है? इस पर अनेक विद्वानों के विचारों की चर्चा हो चुकी है, जिनमें दो बातें मूल रूप में सामने आयी हैं - पहली, 'स्वान्तः सुखाय' या आनन्द की प्राप्ति तथा दूसरी जनहित की भावना मम्मट द्वारा गिनाये गये प्रयोजनों में से 'व्यवहार-ज्ञान', 'शिवेतरथति' और 'कान्तासम्मित उपदेश' सीधे लोकमंगल से सम्बन्ध रखते हैं, जिनकी चर्चा पीछे की जा चुकी है। इसके साथ ही कुछ विद्वान 'उदबोधन' को भी साहित्य का प्रयोजन स्वीकार करते है, पर यह प्रयोजन ऊपर गिनाये गये प्रयोजनों-व्यवहार ज्ञान और कान्तासस्मित उपदेश के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है।
यह बात तो सर्वमान्य है कि कलाकार सेवा का उद्देश्य लेकर नहीं लिखता यदि वह इस उद्देश्य को सामने रखकर लिखेगा तो कृति उत्कृष्ट कलाकृति नहीं बन सकेगी। वह युगानुरूप स्थिति से प्रभावित होकर जो भी लिखता है, उससे मानव कल्याण स्वतः हो जाता है। टॉलस्टाय में 'What is Art ?' में कला का उद्देश्य मानव-कल्याण ही स्वीकार किया है। तुलसी ने तो स्पष्ट ही कहा है -
'कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।'
अतः साहित्य के अनेक प्रयोजनों की लोकमंगल की साधना से सीधी संगति बैठती है।
हस्वान्तः सुखाय
स्वान्तः सुखाय - यह प्रश्न पर्याप्त विवाद ग्रहण कर चुका है कि काव्य का प्रयोजन स्वान्तः सुखाय है या परजनहिताय, किन्तु यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि कलाकार पर किसी प्रकार का विचार आरोपित नहीं किया जा सकता। यह अपने आनन्द के लिए आनन्द में ही डूबकर लिखता है। कलाकार विशिष्ट होता है। वह जीवन एवं जगत् के प्रति सचेष्ट होता है। अतः वह मात्र स्वान्तः सुखाय में नहीं डूब सकता। विश्व का कोई चिन्तक सर्वथा आत्मकेन्द्रित, स्वार्थकेन्द्रित एवं निजी सुखभोग को मान्यता नहीं देता। अपने सुखोपभोग के साथ जनकल्याण अपेक्षित है। अतः तुलसी जहाँ यह कहते हैं— 'स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा', वहीं यह भी घोषणा करते हैं - 'सुरसरि सम सब कहँ हित होई' अतः काव्य-रचना में स्वान्तः सुखाय प्रयोजन के साथ परजनहिताय का भाव भी अपेक्षित है।
काव्य प्रयोजन कितने प्रकार के होते हैं? वामन के अनुसार काव्य के कितने प्रयोजन हैं? प्रयोजन से आप क्या समझते हैं? पाश्चात्य काव्यशास्त्र में काव्य प्रयोजन के स्वरूप का उल्लेख कीजिए? कान्तासम्मित उपदेश को काव्य प्रयोजन किस आचार्य ने माना है? |
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