काव्य के विभिन्न लक्षणों को दृष्टि में रखते हुए उनके स्वरूप का व्यापक निर्णय कीजिए, जिनमें उनके आभ्यन्तर और बाह्य दोनों पक्षों का समुचित समन्वय हो।

प्रश्न 1. काव्य के विभिन्न लक्षणों को दृष्टि में रखते हुए उनके स्वरूप का व्यापक निर्णय कीजिए, जिनमें उनके आभ्यन्तर और बाह्य दोनों पक्षों का समुचित समन्वय हो।

उत्तर - आप सभी का स्वागत है यार हमारे ब्लॉग में आज हम आपके लिए लेकर आये हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा पूछे जाने वाले सवाल के जवाब लेकर जिसमें पूछा जाता है की काव्य का लक्षण क्या है? काव्य के लक्षण के बारे में इस पोस्ट में हम डिटेल में जानेंगे तो चलिए शुरू करते हैं यहाँ मैंने सारणी बना दिया है आप जिस भी पार्टिकूलर टॉपिक में जाकर पढ़ना चाहते हैं सीधे क्लिक करके जा सकते हैं...

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काव्य के विभिन्न लक्षण


काव्य लक्षण परिचय 

भारतीय साहित्य में कवि एवं काव्य शब्दों का प्रयोग अति प्राचीन काल से हो रहा है। 'ऋग्वेद' में इन दोनों शब्दों का प्रयोग क्रमशः ईश्वर एवं संसार के लिए हुआ है -

'कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः ।"

यह विश्व उसी की रचना है। यदि ईश्वर कवि है तो विश्व उसका काव्य है — 'पश्य देवस्य काव्यम् ।' वेदों में उसकी पर्याप्त प्रशंसा करते हुए कहा गया है — "कवयति सार्वं जानाति सर्वं वर्णयतीति कविः" (जो कविता करता है, सबको जानता है और सबका वर्णन करता है, वही कवि है), इसी सन्दर्भ में यह भी कहा गया है कि कवि का कर्म ही काव्य है —

'कविः कवयतीति तस्य कर्मम् काव्यम् ।'

अग्निपुराण में कवि को प्रजापति कहा गया है -

अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः,
यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते।

(काव्य संसार का पार नहीं है। एकमात्र कवि ही इसका सृष्टा प्रजापति है। इसे जैसा रूचिकर होता है, उसी प्रकार यह काव्य रूप संसार का परिवर्तन कर देता है।)

विद्वानों ने काव्य की विभिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं, जिनमें से कुछ काव्य की आत्मा पर आधारित हैं और कुछ स्वतंत्र भी हैं।

संस्कृत आचार्य

(1) भरतमुनि -आचार्य भरतमुनि ने 'नाट्यशास्त्र' में लिखा है -

मृदुललित-पादाढ्यं गूढ़ शब्दार्थहीनम्,
जन-पद सुखबोध्यं युक्तिमन्नृत्य-योज्यम्।
बहुकृत रसमार्गं सन्धि-संधानयुक्तम्
स भवित शुभकाव्यं नाटकं प्रेक्षकाणाम्।।

उनके अनुसार शुभ काव्य में मृदुललित पदावली, गूढ़ शब्दार्यहीनता, सर्वसुगमता, युक्तिमत्ता, नृत्य में उपयोग करने की क्षमता, रस के अनेक स्रोत और संधियुक्तता होनी चाहिए। भरतमुनि ने नाटक की दृष्टि से यह विचार किया है, अतः नृत्य के उपयोग की क्षमता और संधियुक्तता उसी दृष्टि से मान्य है।

(2) भामह - भामह के अनुसार- 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम् ।'

(3) रुद्रट — 'काव्यालंकार' में रुद्रट ने काव्य की परिभाषा निम्न प्रकार दी है -

'ननु शब्दार्थौ काव्यम् ।'

वे शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को ही काव्य मानते हैं। उन्होंने शब्द और अर्थ की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए चारुतापूर्ण शब्द और अर्थ के उपादान पर बल दिया है।

डॉ. रामदत्त भारद्वाज के अनुसार, इन दोनों परिभाषाओं में शब्द और अर्थ की संपृवित स्पष्ट है, किन्तु ये परिभाषाएँ अतिव्याप्ति दोष से दूषित हैं, क्योंकि शब्दार्थ के सद्भाव में ऐसे वाङ्मय का भी समावेश हो सकता है, जिससे काव्य नहीं कहा जा सकता।

(4) दण्डी - 'काव्यादर्श' में दण्डी ने लिखा है -

'इष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली।'

(इष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली पदावली है।)

डॉ. नगेन्द्र, भामह और दण्डी की काव्य - परिभाषाओं की समीक्षा करते हुए भामह की परिभाषा की व्याख्या करते हैं -

“सहित अर्थात् सामंजस्यपूर्ण शब्द - अर्थ को काव्य कहते हैं।" वे यह भी स्वीकार करते हैं कि, "भामह ने शब्द और अर्थ के सामंजस्य को काव्य की संज्ञा दी है।" दण्डी ने अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली पदावली को काव्य माना है। उपर्युक्त दोनों अर्थों में मात्र शब्दावली का भेद है, अन्यथा भाव एक ही है।

(5) वामन — इन्होंने 'काव्यालंकार सूत्रवृत्ति' में रीति को काव्य की आत्मा माना है और गुण एवं अलंकार से युक्त शब्दार्थ को काव्य कहा है -

'स दोष-गुणाऽलंकारहानादानाभ्यम्।'

(6) आनन्दवर्धन- इनके अनुसार काव्य की आत्मा 'ध्वनि' और शब्दार्थ 'शरीर' है -

(क) 'काव्यस्यात्मा ध्वनिः ।'

(ख) 'शब्दार्थ शरीरं तावत्काव्यम् ।

(7) भोज - 'सरस्वती कण्ठाभरण' में भोज लिखते हैं -

निर्दोषं गुणवत् काव्यमलं कारैरलं कृतम्।
रसान्वितं कविं कुर्वन् कीर्तिं प्रीतिञ्च विन्दति।।
(अर्थात् काव्य दोषरहित, गुणयुक्त, अलंकारयुक्त, रसयुक्त कीर्ति और सुख प्रदाता है।)

(8) अग्निपुराण -

संक्षेपाद् वाक्यमिष्टार्थ व्यवच्छिन्न पदावली।
'काव्यं स्फुटदलंकार गुणवद्दोष वर्जितम् ।।'

जिसमें अभीष्ट अर्थ संक्षेप में व्यक्त हो, पदावली अविच्छिन्न हो और दोषरहित गुणसहित हो, ऐसी अलंकारों से युक्त पदावली काव्य है।

(9) कुन्तक - इनकी काव्य - परिभाषा भामह पर आधारित मानी गई है। इनके अनुसार आनन्दकारक, व्यवस्थित शब्दार्थ से युक्त, कवि व्यापार से युक्त सुन्दर रचना को काव्य कहते हैं -

शब्दार्थौ सहितौ वक्र कविव्यापारशालिनि ।
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि । ।

(10) मम्मट - ये 'काव्यप्रकाश' में लिखते हैं -

'तदोषी शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।'

(अर्थात् दोषरहित गुणों और अलंकारों से युक्त शब्दार्थ ही काव्य है।)

डॉ. रामदत्त भारद्वाज के अनुसार विश्वनाथ, जयदेव और पंडितराज जगन्नाथ ने इस परिभाषा पर आपत्तियाँ की हैं। उनके अनुसार सदोष काव्य तो सदा त्याज्य है, किन्तु सेठ कन्हैयालाल पोद्दार ने इस परिभाषा को सर्वाधिक सम्मान प्रदान किया है, क्योंकि मम्मट ने अपनी परिभाषा में प्रत्यक्ष रूप से रस का कोई उल्लेख नहीं किया, परोक्ष रूप से मान्यता अवश्य दी है -

"ये रसास्याङ्गिनोधर्माः शौर्यादय इवात्मनः।"

(11) बाणभट्ट - इन्होंने वामन और मम्मट के मतों का समन्वय करते हुए लिखा है -

'गुणालंकार रीति-रासोपेतः ।

(अर्थात् रीति, रस, अलंकार, गुणयुक्त शब्दार्थ समूह ही काव्य है।)

(12) जयदेव – इन्होंने 'चन्द्रालोक' में यह घोषणा की है कि दोषविहीन, गुण और अलंकारों से युक्त, लक्षण, रस, रीति और वृत्ति से समुपेत वाक्य ही काव्य है -

'निर्दोषगुणालंकार लक्षणरीतिवृत्तं वाक्यं काव्यम् ।'

(13) जगन्नाथ - 'रसगंगाधर' में पण्डितराज जगन्नाथ ने लिखा है -

'रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम् ।'

(अर्थात् रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द-समूह ही काव्य है)

डॉ. रामदत्त भारद्वाज के अनुसार, जगन्नाय का 'रमणीयता' से तात्पर्य उससे है, जिसे दण्डी ने 'इष्टार्थ' वामन ने 'सौन्दर्य', आनन्दवर्धन एवं कुन्तक ने 'लोकोत्तर आह्लाद के उत्पादक ज्ञान की गोचरता लिखा है -

'रमणीयता च लोकोत्तराह्लादजनक-ज्ञान-गोचरता।"

(14) विश्वनाथ- 'साहित्य दर्पण' में आचार्य विश्वनाथ ने काव्य को रसात्मक वाक्य माना है -

'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।"

डॉ. भारद्वाज इसे अव्याप्ति दोष से दूषित स्वीकार करते हैं, क्योंकि रस के अतिरिक्त उन्होंने काव्य के अन्य तत्वों की उपेक्षा की है।

संस्कृत आचायों के मतों की समीक्षा —यह बात निर्विवाद सत्य है कि उपर्युक्त विभिन्न परिभाषाओं में 'भिन्न रुचिर्हि लोकः' की स्थिति चरितार्थ होती है, फिर भी इनमें कतिपय तत्व समान रूप से समाहित दिखाई देते हैं। डॉ. गुलाबराय (सिद्धान्त और अध्ययन) के अनुसार, "जहाँ दण्डी, म्म्मटादि ने पत्ते और शाखाओं को सींचने की कोशिश की है, वहीं विश्वनाथ ने जड़ को सींचा है। गुण, अलंकारादि सभी रस के पोषक हैं। 'वाक्य' शब्द में शब्द के साथ अर्थ भी शामिल हो जाता है, क्योंकि सार्थक शब्द ही वाक्य बन जाते हैं। इनके 'रसात्मक' शब्द से काव्य का अनुभूति-पक्ष या भाव पक्ष आ गया है और 'वाक्य' शब्द में अभिव्यक्ति पक्ष अथवा, कला-पक्ष आ गया है। इस परिभाषा में केवल यह दोष बताया जाता है कि रस की परिभाषा अपेक्षित रहती है, किन्तु मोटे तौर पर ये सब लोग जानते हैं कि रस क्या चीज है। वैसे तो 'गुण' और 'दोष' भी व्याख्या की अपेक्षा रखते हैं।"

डॉ. सत्यदेव चौधरी (भारतीय काव्यांग) जगन्नाथ के काव्य-लक्षण को सर्वोत्कृष्ट मानते हैं, परन्तु कन्हैयालाल पोद्दार (संस्कृत साहित्य का इतिहास) आचार्य मम्मट को महत्व देते हैं।

हिन्दी आचार्य  

(1) केशवदास-

जदपि सुजाति सुलच्छिनी, सुबरन सरस सुवृत्त
भूषन बिनु न बिराजई; कविता, बनिता मित्त।।
राजत रंच न दोषयुत; कविता, बनिता मित्र ।
बुन्दक हाला परत ज्यों, गंगाघट अपवित्र । ।

दोषरहित, गुणसहित अलंकारयुक्त, रसमयी रचना ही काव्य है।

(2) चिन्तामणि — ये 'कविकुल- कल्पतरु' में मम्मट का भाव ग्रहण करते हुए दिखाई देते हैं -

सगुनालंकारन सहित, दोषरहित जो होइ ।
शब्द अर्थ ताको कवित्त, कहत बिबुध सब कोई।।

(3) देव- ये 'शब्द-रसायन' में काव्य-लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं

शब्द सुमति मुख ते कढ़ै, लै पद वचननि अर्थ ।
छन्द, भाव, भूषण, सरस, सो कहि काव्य समर्थ ।।

(4) कुलपति - इनके 'रस-रहस्य' के अनुसार -

जग तें अद्भुत सुख सदन, शब्दरु अर्थ कवित्त।
यह लच्छन मैंने कियो, समुझि रान्य बहु चित्त ।।

(5) श्रीपति - इनके 'काव्य-सरोज' के अनुसार -

शब्द अर्थ विनदोष गुन, अलंकार रसवान।
ताको काव्य बखानिए, श्रीपति परम सुजान ।।

(6) भिखारीदास - इनके 'काव्य निर्णय' के अनुसार -

रस कविता कौ अंग, भूषन हैं भूषन सकल।
गुन सरूप औ रंग, दूधन करै कुरूपता । ।

(7) सोमनाथ - इनके 'रस-पीयूष निधि' के अनुसार -

सगुन पदारथ दोष बिनु, पिंगल मत अविरुद्ध ।
भूषन जुत कवि कर्म जो, सो कवित्त कहिं सुद्ध ।।

(8) प्रतापसाहि— इनके 'काव्य-विलास' के अनुसार -

व्यंग्य जीव कवि कवित्त को, हृदय सो धुन पहिचानि
शब्द अर्थ कहि देह पुनि, भूषन भूषन जानि ।।

(9) आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इनके अनुसार-

सुरम्यता ही कमनीय कान्ति है, अमूल्य आत्मा रस है मनोहरे।
शरीर तेरा शब्दार्थ मात्र है, नितान्त निष्कर्ष यही यही यही ।।

(10) डॉ. श्यामसुन्दर दास के अनुसार - "पद्य में संगीत कला की छाया अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली दीख पड़ती कल्पना का अधिक अनिवार्य रूप दीख पड़ता है और उसकी रसमयता भी अधिक बलवती समझ पड़ती है।"

(11) जयशंकर प्रसाद - "काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है, जिसका सम्बन्ध विश्लेषण विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेम-रचनात्मक ज्ञान-धारा है। वह सत्यं शिवं सुन्दरं, सार्वजनीनता, चिरन्तनता, अनुभूति और आदर्श की समष्टि है।"

(12) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - "जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस-दशा कहलाती है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं।"

(13) डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र -'भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा' के अनुसार "गुणाधिक्य, अलंकार बाहुल्य, रस-परिपाक एवं भाव-चमत्कार कविता की उत्तमता की कसौटी रहनी चाहिए।"

(14) डॉ. गुलाबराय -"काव्य-संसार के प्रति कवि की भाव-प्रधान (किन्तु क्षुद्र, वैयक्तिक सम्बन्धों से मुक्त) मानसिक प्रतिक्रियाएँ, कल्पना के ढाँचे में ढली हुई हैं, श्रेय की प्रियरूपता प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है।"

(15) सुमित्रानन्दन पन्त - "कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है।"

हिन्दी आचार्यों के मतों की समीक्षा

हिन्दी आचार्यों ने अपनी ओर से किसी नवीन तथ्य को प्रस्तुत न करके संस्कृत के आचायों के मतों का अनुवाद ही किया है। यह अनुवाद भी पद्य में होने के कारण स्पष्टताविहीन है। छन्द का निर्वाह करने के लिए हिन्दी के आचार्यों ने शब्दों की कंजूसी भी की है। उदाहरण के रूप में श्रीपति मिश्र का काव्य लक्षण ले सकते हैं, उन्होंने काव्य प्रकाशकार आचार्य मम्मट के काव्य-लक्षण का अनुवाद किया है। मम्मट का काव्य-लक्षण इस प्रकार है -

"तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।"

(दोषरिहत, गुणसहित एवं कहीं-कहीं अलंकाररहित शब्दार्थ काव्य होता है।) जो स्पष्टता इसके हिन्दी गद्यानुवाद में है, वह श्रीपति के शब्द-अर्थ आदि में नहीं है। इसी प्रकार 'वाक्य रसात्मक काव्यम्' में जो स्पष्टता है वह रस को कविता का 'अंग' मानने में नहीं है। हिन्दी के रीतिकालीन कवि यदि गद्य में अनुवाद करते तो उसमें स्पष्टता होती। हिन्दी में जिन आचार्यों ने काव्य का लक्षण वर्णित किया है, उनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को अधिक सफलता मिली है। सुमित्रानन्दन पन्त ने तो ऐसी गोल-मोल बात कही है, जिसकी व्याख्या परम आवश्यक है। 'परिपूर्ण क्षय' से कोई स्पष्ट संकेत प्राप्त नहीं होता। हिन्दी के सभी आचायों ने एक-दूसरे से भिन्न लक्षण प्रस्तुत किया है, इसी कारण वे बहक गये हैं। संस्कृत के आचायों के समान सूत्रात्मकता और स्पष्टता किसी में नहीं है।

पाश्चात्य आचार्य (पाश्चात्य काव्य-लक्षण)

(1) मैथ्यू आर्नोल्ड — ये काव्य को जीवन की आलोचना मानते हैं -

"Poetry is at bottom a criticism of life."

(2) कार्लाइल - ये काव्य को संगीतमय विचार मानते हैं -

"Poetry, we will call musical thought."

(3) वसवर्थ - ये काव्य को नैसर्गिक भावोद्रेक मानते हैं, जिसकी उत्पत्ति अनुभूति से होती है।

"Poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings. It takes its origin from emotion recollected on tranquility."

(4) डब्ल्यू. एच. हडसन -ये कविता को जीवन की व्याख्या जो कल्याण की भावना द्वारा की जाती है, मानते हैं।

"Poetry is interpretation of life through imagination and feeling."

(5) ड्राइडन — ये काव्य को संगीत मानते हैं-

"Poetry is articulate music."

(6) डॉ. जॉनसन - ये कविता को सत्य और आनन्द के मिश्रण की कला मानते हैं, जिसमें बुद्धि की सहायता से कल्पना का प्रयोग होता है।

"Poetry is the art of uniting pleasure with truth by calling imagination to help of season."

(7) चैम्बर्स शब्द कोष - इसके अनुसार, "कविता अनुभूति से उत्पन्न विचारों को संगीत्मिक शब्दों में व्यक्त करने की कला है।"

"Poetry is the art of expressing in melodious words, thoughts which are the creation of imagination feelings."

(8) एडलर ऐलन पो इनके अनुसार, “सौन्दर्य की लयात्मक सृष्टि ही काव्य है।"

"It is the rythmic creation of beauty."

(9) रस्किन – इनके अनुसार, यह (कविता) "कल्पना के द्वरा सुन्दर मनोवेगों के लिए रमणीय क्षेत्र प्रस्तुत करती हैं।

"It is the suggestion by the imagination of the noble ground for the noble emotions."

(10) पी. बी. शैली - इनके अनुसार, "कल्पना की अभिव्यक्ति ही कविता है ।"

"Poetry in a general sense may be defined as the expression of the imagination."

(11) विलियम हैजलिट - इनके अनुसार, "कविता भाव और कल्पना की भाषा है।"

"Poetry is the language of the imagination and passions."

(12) जॉन स्टुअर्ट मिल - इनके अनुसार, "जिसमें भाव स्वतः मूर्तिमान होते हैं, वह कविता है।"

"What is poetry but the thought and words in which emotion spontaneously embodies itself."

(13) प्रो. कोर्टहोप – इनके अनुसार, "छन्दोबद्ध भाषा में भाव, कल्पना की आनन्दमय अभिव्यक्ति ही काव्य है।"

"The art of producing pleasure by the just expression of imaginative thought in metrical language."

पाश्चात्य आचार्यों के मतों की समीक्षा

पाश्चात्य काव्यशास्त्र में छब्द और अलंकार हैं। हो सकता है कि गुण भी हों, पर उसमें रस की मान्यता नहीं है। मैथ्यू आर्नोल्ड का काव्य को जीवन की आलोचना मानना अव्याप्ति-दोषयुक्त है। पूरा साहित्य ही जीवन की आलोचना है। क्या नाटक, उपन्यास और कहानियाँ जीवन की आलोचना नहीं करते ? यही बात वर्ड्सवर्थ के काव्य लक्षण 'कविता को नैसर्गिक भावोद्रेक मानने में हैं' क्या कहानी, उपन्यास आदि में भाव नहीं होते ? यदि होते हैं तो क्या वे नैसर्गिक नहीं होते। कार्लाइल का काव्य-लक्षण संगीतमय विचार को काव्य कहना भी अधूरा है। काव्य में विचारों का नहीं, भावों का महत्व होता है। क्या भाव या विचार को संगीतमय बनाने से काव्य बन जाता है ? हडसन और ड्राइडन की स्थिति भी इसी प्रकार की है। जीवन की आलोचना और व्याख्या में विशेष अन्तर नहीं है। जॉन्सन ने बुद्धि की सहायता से कल्पना के प्रयोग की बात कही है, काव्यशास्त्र की दृष्टि से यह भी असंगत है। कल्पना बुद्धि का नहीं, हृदय या मन का कार्य है। प्रो. कोर्टहोय, रस्किन तथा विलियम हैजलिट के काव्य-लक्षण किसी प्रकार माने जा सकते हैं।

समग्र समीक्षा

संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी के कवियों और काव्यशास्त्रियों के काव्य-लक्षण अथवा काव्य की परिभाषा पर विचार करने पर पूर्णता और श्रेष्ठता का निर्णय संस्कृत के आचायों के ही पक्ष में जाता है। कविता या काव्य के लिए छन्द, अलंकार या तुक की कोई अनिवार्यता नहीं है। आचार्य विश्वनाथ ने 'वाक्यं रसात्मक काव्यम्' कहकर छन्द और अलंकार की आवश्यकता अमान्य कर दी है। अंग्रेजी के जो आचार्य कविता में संगीत अथवा गेयता के पक्षधर हैं, वे रस का अपमान करते है। गेयता अथवा संगीतात्मकता तो गलियों में भी हो सकती है। प्रयोगवादियों और नयी कविता वालों के रसमय वाक्य, जिन्हें गद्य कहकर हँसी का पात्र बनाया जाता है, निश्चित रूप से काव्य हैं। काव्य के लिए 'रामचरितमानस', 'वाल्मीकि रामायण' और 'महाभारत' जैसी विशालता अपेक्षित नहीं है। रसात्मक वाक्य एक पंक्ति का भी हो सकता है। रसात्मकता के लिए कल्पना और भाव आवश्यक है, गेयता और छन्द नहीं। संस्कृत और अंग्रेजी कविता में तुक का अभाव क्या उसे कविता नहीं रहने देता ? क्या गद्य काव्य नहीं होता ? काव्य के लिए रसमयता आवश्यक है।

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