हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल के विभिन्न नामों की विवेचना करते हुए सर्वाधिक उपयुक्त नाम के सम्बन्ध में तर्क प्रस्तुत कीजिए।

एम. ए. हिंदी 

(प्रथम सेमेस्टर)

आदिकाल एवं पूर्व मध्यकाल 

(प्रथम प्रश्न-पत्र)

 इकाई-1. आदिकाल-इतिहास दर्शन और साहित्येतिहास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1. के बारे में पढ़ना चाहते हो तो यहाँ क्लिक करो -

हिन्दी साहित्येतिहास के काल विभाजन के प्रयासों की समीक्षा कीजिए।

प्रश्न 2. हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल के विभिन्न नामों की विवेचना करते हुए सर्वाधिक उपयुक्त नाम के सम्बन्ध में तर्क प्रस्तुत कीजिए। 

अथवा 

हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रदत्त नामों की विवेचना करते हुए अपनी दृष्टि में उपयुक्त नाम के सम्बन्ध में तर्क दीजिए।

अथवा

हिन्दी साहित्य के आदिकाल के लिए अनेक नाम सुझाए गए हैं। उन नामों पर विवेचना करते हुए बताइए कि आपको कौन सा नाम उचित प्रतीत होता है ?

उत्तर- 

हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल का नामकरण

हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल का नामकरण निम्न प्रकार है- -

Table of Content

  1. प्रस्तावना
  2. प्रारम्भिक काल का नामकरण
  3. 'वीरगाथा काल' नामकरण एवं वीरगाथा साहित्य
  4. समीक्षा
  5. निष्कर्ष

    1. प्रस्तावना - हिन्दी साहित्य का प्रथम काल यानि कि प्रारम्भिक काल- आदिकाल का प्रादुर्भाव रणभेरी के तुमुलनाद तथा शस्त्रों की प्रबल झंकार से हुआ। राजनीतिक दृष्टि से यह काल बहुत उथल-पुथल का काल था। इसी समय विदेशी आक्रमण का सूत्रपात हुआ। देश की सुव्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। एक साथ अनेक धर्मों एवं सम्प्रदायों का जन्म हुआ। जैसे-वैष्णव, जैन, कौल, पाँचरात्र, शैव, कापालिक, शक्ति, सिद्ध व नाथ आदि। साहित्य के क्षेत्र में भी परस्पर विरोधी तत्त्व दिखाई दिये। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य का आदिकाल में अक्षरशः सत्य ही लिखा है- "शायद ही भारतवर्ष के साहित्य के इतिहास में इतने विरोधी और स्वतोव्याघातों का युग कभी आया होगा। इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए जिनकी रचनाएँ अलंकृत काव्य परम्परा की चरम सीमा पर पहुँच गईं थीं और दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि जो अत्यन्त सहज, सरल भाषा में अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अपने मनोभाव प्रकट करते थे। फिर भी धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में भी महान् प्रतिभाशाली आचार्यों का उद्भव इसी काल में हुआ था और दूसरी ओर निरक्षर सन्तों के ज्ञान प्रचार का बीज भी इसी काल में बोया गया। संक्षेप में इतना जान लेना यहाँ पर्याप्त है कि यह काल भारतीय विचारों के मन्थन का काल है, इसलिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है।”

    2. प्रारम्भिक काल का नामकरण - आदिकाल के नामकरण के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। इस काल को डॉ. गियर्सन ने 'चारण काल' मिश्र बन्धुओं ने 'प्रारम्भिक काल', राहुल सांकृत्यायन ने 'सिद्ध सामन्त युग', आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने 'आदिकाल' (वीरगाथा काल), आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र व डॉ. रसाल ने 'आदिकाल', डॉ. रामकुमार वर्मा ने 'सन्धिकाल एवं चारणकाल', विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने 'वीरकाल' तथा डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ने 'प्रारम्भिक काल', 'अविभक्तिकाल' के नाम से सर्वदा विभूषित किया कुछ अन्य विद्वानों ने इसे 'उत्तर- अपभ्रंश काल, जैन काल' आदि नामों से भी पुकारा। 

    यद्यपि विद्वानों ने इस काल को अनेक नामों से पुकारा परन्तु इनमें कोई भी ऐसा नहीं जो युग का वास्तविक प्रतिनिधित्व कर सके। इस युग का नामकरण प्रवृत्ति विशेष के आधार पर न करके इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह समग्र युग को अपने में समेट सके। इन नामों में प्रारम्भिक काल अथवा आदिकाल नाम उपयुक्त प्रतीत होता है।

3. 'वीरगाथा काल' नामकरण एवं वीरगाथा साहित्य - आदिकाल में अधिकांशतः वीरगाथा साहित्य लिखा गया। इसलिए सर्वप्रथम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे 'वीरगाथा काल' नाम दिया। डॉ. शिवकुमार शर्मा ने 'हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियों में लिखा है- शुक्ल जी के नामकरण के सम्बन्ध में तीन प्रमुख बातों का ध्यान देना आवश्यक होगा। पहली इसी काल में वीरगायात्मक ग्रन्थों की प्रचुरता, दूसरी जैनों द्वारा प्राचीन ग्रन्थों को धार्मिक साहित्य घोषित करके उसे रचनात्मक साहित्य की परिधि से निकाल देना और इस प्रकार नाथों और सिद्धों की रचनाओं को शुद्ध साहित्य में स्थान न देना। तीसरी मुख्य बात उन रचनाओं की है जिनमें भिन्न-भिन्न विषयों पर फुटकर दोहे मिलते हैं, किन्तु उनसे किसी विशेष प्रवृत्ति का काव्य निर्मित न हो सकता।

    आचार्य शुक्ल ने कुल बारह पुस्तकों के आधार पर काल का वीरगाथा काल नामकरण किया। इन बारह पुस्तकों में से चार उन्होंने अपभ्रंश भाषा की तथा आठ देशी भाषा के काव्य माने हैं। जो निम्न प्रकार हैं- 

अपभ्रंश भाषा के काव्य- 1. विजयपाल रासो 2. हमीर रासो 3. कीर्तिलता 4. कीर्तिपताका।

देशभाषा की रचनाएँ- 1. खुमान रासो, 2. बीसलदेव रासो, 3. पृथ्वीराज रासो, 4. जयचंद प्रकाश, 5. जयमयंक जसचन्द्रिका, 6. परमाल रासो (आल्हा का मूलरूप), 7. खुसरो की पहेलियाँ, 8. विद्यापति पदावली आदि।

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे वीरगाथा काल नाम देते हुए बताया है- "राज्याश्रित कवि और चारण जिस प्रकार नीति, श्रृंगार आदि के फुटकर दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे। यही प्रबन्ध परम्परा राजाओं (आश्रयदाताओं के पराक्रमपूर्ण चरित्रों या गाथाओं का वर्णन) 'रासो' के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने वीरगाया काल कहा है। "

4. समीक्षा - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिन 12 ग्रन्थों के आधार पर इस काल का नामकरण किया है, उनमें से अधिकांश; जैसे- बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो व परमाल रासो आदि। अपभ्रंश की महत्वपूर्ण ग्रन्थों की दृढ़ता उन्होंने हिन्दी में ग्रहण किया तथा कुछ अपभ्रंश की रचनाओं को धार्मिक तथा दार्शनिक बताकर उपेक्षित कर दिया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को इस पर आपत्ति है। उनका मत है कि धार्मिकता को साहित्य के क्षेत्र में बाधा नहीं मानना चाहिए तो सिर्फ होने मात्र से कोई कृति साहित्यिक क्षेत्र से बाहर नहीं की जा सकती। यदि ऐसा किया गया तो सिर्फ आदिकाल की कुछ पुस्तकें ही नहीं, अपितु भक्तिकाल की भी पुस्तकें साहित्य के बाहर कर दी जायेंगी- "केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रन्थों को साहित्य-सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो हमें आदिकाव्य से भी हाथ धोना पड़ेगा, तुलसी रामायण से भी अलग होना पड़ेगा और जायसी को भी दूर से दण्डवत् करके विदा कर देना होगा। मध्य युग के साहित्य की प्रधान प्रेरणा धर्म साधना ही रही है।" अतः द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य का आदिकाल में स्पष्ट किया कि जैनों, सिद्धों और नाथों का साहित्य उपेक्षणीय नहीं है, उसे आदिकाल में स्थान मिलना चाहिए। शुक्ल जी ने जिन रचनाओं का उल्लेख किया है, उन्होंने उन सभी को महत्वपूर्ण माना है, जबकि उन सबको ही महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता। उन्होंने सर्वत्र वीरात्मक प्रवृत्ति को स्वीकार किया है, जबकि खुसरो की पहेलियों में वीरात्मक प्रवृत्ति के दर्शन नहीं होते।

    इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शुक्ल जी द्वारा दिया गया नाम वीरगाथा काल अधिक उपयुक्त नहीं है। यह नाम इस युग का सच्चा प्रतिनिधित्व नहीं करता। रचनाओं की संख्या गिनाकर वीरगाथा काल नाम सिद्ध नहीं किया जा सकता। शुक्ल जी द्वारा यह नामकरण किए जाने का प्रमुख कारण यह है कि उस समय पर्याप्त सामग्री का अभाव था। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक 'हिन्दी काव्य धारा' में बौद्ध तथा नाथ, सिद्धों और जैनियों की अनेक रचनाओं का संकलन किया है, जो उपदेशमूलक और हठयोग की महिमा एवं क्रिया का विस्तार से प्रचार करने वाली रहस्यमूलक रचनाएँ है। महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने बौद्ध, सिद्धों की सहजयान और वज्रयान के अनुयायियों की रचनाओं का एक वृहद्, प्रकाशन कराया है। इसके अतिरिक्त हिन्दी में कुछ गोरखनाथ की रचनाएँ प्राप्त होती हैं। इतना ही नहीं, कुछ नवीन ग्रन्थों की खोज हुई है। शुक्ल जी ने जिन ग्रन्थों को धर्म से सम्बन्धित देखकर साहित्य कोटि से निकाल दिया था, उनको भी साहित्य परिधि के अन्दर ले लिया गया है।

    इस प्रकार सम्पूर्ण साहित्य का अध्ययन करने के उपरान्त चार प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं- 

  1. बौद्ध और नाथ सिद्ध तथा जैन मुनियों के उपदेशात्मक रूक्ष रचनाएँ।
  2. वीरत्व के नवीन स्वर को मुखरित करने वाले चारण चरित्र काव्य ।
  3. लौकिक रस अनुप्रमाणित अन्य रचनाएँ-जैसे विरह काव्य (संदेह रासक) । 
  4. फुटकर अन्य विषयों की कविता- अमीर खुसरो की पहेलियाँ।

5. निष्कर्ष - इन समग्र प्रवृत्तियों का अध्ययन करने के उपरान्त, प्रारम्भिक काल का नामकरण आदिकाल ही अधिक तर्कसंगत एवं उपयुक्त प्रतीत होता है। साहित्य की परम्परा तो पूर्ववर्ती परिनिष्ठित उपभ्रंश के साहित्य में खोजी जा सकती है जिसका विकास आदि कालीन साहित्य में मिलता है। निष्कर्ष देते हुए डॉ. नगेन्द्र ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा- "वास्तव में आदिकाल' ही ऐसा नाम है जिसे किसी-न-किसी रूप में सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है, तथा जिससे हिन्दी साहित्य के इतिहास की भाषा भाव, विचारणा, शिल्प-भेद आदि से सम्बद्ध सभी गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं। इस नाम से उस व्यापक पृष्ठभूमि का बोध होता है जिस पर आगे का साहित्य खड़ा है। भाषा की दृष्टि से इसमें भक्तिकाल से आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के आदिम बीज खोज सकते हैं। जहाँ तक रचना शैलियों का प्रश्न है, उनके भी वे सभी रूप, जो परवर्ती काव्य में प्रयुक्त हुए, अपने आदि रूप में मिल जाते हैं। इस काल की आध्यात्मिक, श्रृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य में मिलता है। अतः आदिकाल ही सबसे अधिक उपयुक्त एवं व्यापक नाम है।"

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    Hindi sahitya ke aarambhik kal ke vibhinna naamo ki vivechna karte huye sarvadhik upyukta naam ke sambandh me tark prastut kijiye?

hindi sahitya ke aarambhik kal ka naamkaran

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