हिन्दी साहित्येतिहास के काल विभाजन के प्रयासों की समीक्षा कीजिए।

एम. ए. हिंदी 

(प्रथम सेमेस्टर)

आदिकाल एवं पूर्व मध्यकाल 

(प्रथम प्रश्न-पत्र)

 इकाई-1. आदिकाल-इतिहास दर्शन और साहित्येतिहास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न  

प्रश्न 1. हिन्दी साहित्येतिहास के काल विभाजन के प्रयासों की समीक्षा कीजिए।

अथवा

हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन पर विभिन्न विद्वानों का मत देते हुए संक्षिप्त निबन्ध लिखिए। 

अथवा 

हिन्दी साहित्य के काल विभाजन पर अपने विचार व्यक्त कीजिए ।

उत्तर- 

हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन

हिन्दी साहित्य का काल विभाजन हम निम्न प्रकार कर सकते हैं-

Table of Content

I. काल विभाजन की आवश्यकता

II. काल विभाजन के विविध आधार

III. काल विभाजन प्रस्तुत मत

IV. आदर्श काल विभाजन 

V. निष्कर्ष 

I. काल विभाजन की आवश्यकता - किसी भी देश के साहित्य के इतिहास को निश्चित कालों में वर्गीकृत करना बहुत ही कठिन कार्य है। इसका प्रमुख कारण यह है कि साहित्य के इतिहास की प्रामाणिक और उपयुक्त आधारभूत सामग्री का अभाव होना। साहित्य के विभिन्न अंगों का समग्र रूप में ग्रहण करने तथा सुव्यवस्थित ढंग से अध्ययन करने हेतु काल-विभाजन आवश्यक है। डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ने काल विभाजन की आवश्यकता के सम्बन्ध में लिखा है, “किसी भी - विषयवस्तु का बौद्धिक एवं वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए उसे किन्हीं काल्पनिक पक्षों, खण्डों, वर्गों या तत्वों में विभक्त कर लिया जाता है, जिससे कि उसके विभिन्न अवयवों को समग्र रूप से ग्रहण किया जा सके। इतिहास में हम मुख्यतः देश (Space) के स्थान पर काल (Time) का अध्ययन करते हैं। अतः अध्ययन की सुव्यवस्था की दृष्टि से उसे विभिन्न कालखण्डों में बाँट लेना सुविधाजनक एवं उपयोगी सिद्ध होता है।" इस प्रकार साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से काल-विभाजन अति आवश्यक है। साहित्य में समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहते है। इन परिवर्तनों को काल-विभाजन के आधार पर ही सरलता से समझा जा सकता है।

II. काल विभाजन के विविध आधार - काल विभाजन का सही आधार क्या हो ? यह विचारणीय प्रश्न है, क्योंकि काल-विभाजन करते समय निम्नलिखित समस्याएँ उपस्थित होती हैं -

1. काल विभाजन करते समय रचनाओं का समय अथवा रचनाओं की प्रवृत्ति में से कौन-सा आधार ग्रहण किया जाय ?

2. काल विभाजन की अवधि अथवा सीमा का निर्धारण किस आधार पर किया जाय?

3. विविध कालों के नामकरण का आधार क्या हो?

4. विविध रचनाओं का उल्लेख करने के लिए उनकी प्रमाणिकता का आधार क्या हो? 

काल विभाजन के विविध आधार हो सकते हैं। डॉ. शिवकुमार शर्मा ने 'हिन्दी साहित्य युग एवं प्रवृत्तियाँ' नामक ग्रंथ में स्पष्ट किया है- “सामान्यतः साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन, कृति, कर्ता, पद्धति और विषय की दृष्टि से कर लिया जाता है। कभी-कभी नामकरण का किसी सुदृढ़ आधार उपलब्ध न होने पर उस काल के किसी अत्यन्त प्रभावशाली साहित्यकार के नाम पर उसका नामकरण कर दिया जाता है; जैसे - भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग तथा प्रसाद युग आदि। कभी-कभी साहित्य सृजन की प्रमुख शैलियों के आधार पर काल-विभाजन कर लिया जाता है; जैसे - छायावादी युग, प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी युग आदि। इसके अतिरिक्त, कभी-कभी मानव मनोविज्ञान और तत्कालीन साहित्य की किसी प्रमुख प्रवृत्ति को नामकरण का आधार बना लिया जाता है।"

काल - विभाजन के आधार के सम्बन्ध में डॉ. नगेन्द्र द्वारा संपादित 'इतिहास' में यह निष्कर्ष दिए गए है -

(i) काल - विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों और रीति आदर्शों की समानता के आधार पर होना चाहिए। 

(ii) युगों का नामकरण यथासंभव मूल साहित्य चेतना को आधार मानकर साहित्यिक प्रवृत्ति के अनुसार करना चाहिए। किन्तु जहाँ ऐसा नहीं हो सकता, वहाँ राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति को आधार बनाया जा सकता है, या फिर कभी-कभी विकल्प न होने पर निर्विशेष काल-वाचक नाम को भी स्वीकार किया जा सकता है। नामकरण में एकरूपता काम्य है, किन्तु उसे सायास सिद्ध करते हुए भ्रांतिपूर्ण नामकरण उचित नहीं है। 

(iii) युगों का सीमांकन मूल प्रवृत्तियों के आरम्भ और अवसान के अनुसार होना चाहिए। जहाँ साहित्य के मूल स्वर अथवा उसकी मूल चेतना में परिवर्तन लक्षित हो और नए स्वर एवं चेतना का उदय हो, वहाँ युग की पूर्व सीमा और जहाँ वह समाप्त होने लगे, वहाँ उत्तर-सीमा माननी चाहिए।

वास्तव में उपर्युक्त निष्कर्ष मान्य हैं।

III. हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल - विभाजन में अनेक जटिल समस्याओं के होते हुए भी विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत प्रस्तुत किए हैं। यथा - 

1. डॉ. ग्रियर्सन का काल - विभाजन - सर्वप्रथम है डॉ. ग्रियर्सन ने 'द मॉडर्न वर्नेक्युलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दुस्तान' में काल-विभाजन का प्रयास किया है। डॉ. ग्रियर्सन विदेशी थे। अतः उन्होंने सन् के अनुसार काल - विभाजन प्रस्तुत किया, जो निम्न प्रकार है-

1. चारणकाल (सन् 700-1300 ई.)।

2. पंद्रहवीं शताब्दी का धार्मिक पुनर्जागरण।

3. जायसी की प्रेम कविता।

4. ब्रज का कृष्ण सम्प्रदाय। 

5. मुगल दरबार।

6. तुलसीदास। 

7. रीतिकाव्य।

8. तुलसी के अन्य परवर्ती। 

9. अट्ठारहवीं शताब्दी ।

10. कम्पनी - शासन में हिन्दुस्तान ।

11. महारानी विक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान ।

    1. डॉ. ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल विभाजन अधिक स्पष्ट एवं वैज्ञानिक नहीं है उनके द्वारा दिए गए नाम युग-विशेष के प्रतीक न होकर अध्यायों के शीर्षक से नामकरण के आधार में साम्य नहीं है तथा 14 वीं शताब्दी को उन्होंने इतिहास में सम्मिलित ही नहीं किया है।

    2. मिश्र बन्धुओं द्वारा किया गया काल विभाजन - डॉ. ग्रियर्सन के पश्चात् मिश्र बन्धुओं ने हिन्दी साहित्य के काल विभाजन का प्रयास किया। उन्होंने अपने ग्रन्थ 'मिश्रबन्धु विनोद' में निम्न प्रकार का विभाजन किया - 

1. आरम्भिक काल - 

पूर्वारम्भिक काल (सम्वत् 700-1343 वि.)

उत्तरारम्भिक काल (सम्वत् 1344-1444 वि.)

2. माध्यमिक काल -

पूर्वमाध्यमिक काल (सम्वत् 1445-1560 वि.)

प्रौढ़ माध्यमिक काल (सम्वत् 1561-1680 वि.) 

3. अलंकृत काल -

पूर्वालंकृत काल (सम्वत् 1681-1790 वि.) 

उत्तरालंकृत काल (सम्वत् 1791-1889 वि.)

4. परिवर्तन काल (सम्वत् 1890-1925 वि.)

5. वर्तमान काल (सम्वत् 1926 वि. से अब तक)।

    यह काल विभाजन स्पष्ट अवश्य है, परन्तु वैज्ञानिक नहीं है। इसमें समय की अवधि दोषपूर्ण है। जैसे आरम्भिक काल को तो 700 - 800 वर्षों में विभाजित किया है, जबकि माध्यमिक काल को सौ वर्षों में। इसके अतिरिक्त मिश्रबन्धुओं के द्वारा किये गये हिन्दी साहित्य के काल विभाजन में 35 वर्ष के लिए परिवर्तन काल नाम देना भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। इस आधार पर मिश्र बन्धुओं के काल विभाजन को कई विद्वानों ने सिरे से नकार दिया।

3. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा प्रस्तुत काल विभाजन - हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन में मिश्र- बन्धुओं के प्रयासों के पश्चात् इस दिशा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कदम बढ़ाया। उनके द्वारा प्रस्तुत काल विभाजन अधिक वैज्ञानिक, स्पष्ट, व्यवस्थित और प्रमाणित रहा।

यह विभाजन निम्नांकित है-

1. आदिकाल - (वीरगाथा काल, सम्वत् 1050-1375 वि.)

2. पूर्व मध्यकाल - (भक्तिकाल सम्वत् 1375-1700 वि.)

3. उत्तर मध्यकाल - (रीतिकाल, सम्वत् 1700-1900 वि.)

4. आधुनिक काल - (गद्यकाल, सम्वत् 1900 वि. से अब तक)। 

    शुक्ल जी ने प्रथम काल का नामकरण प्रवृत्ति विशेष के आधार पर किया है, क्योंकि आदिकाल में वीरगाथाएँ बहुतायत में लिखी गई। पूर्व मध्यकाल में भक्ति की प्रवृत्तियों की अधिकता है। पहले उसे निर्गुण और सगुण दो धाराओं में या दो शाखाओं में विभाजित किया। तत्पश्चात् निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी, सगुण की रामाश्रयी तथा कृष्णाश्रयी दो-दो शाखाएँ की गई। रीतिकाल में एक ही प्रवृत्ति की प्रधानता रही, इसलिए उसे रीतिकाल (उत्तर मध्यकाल) की संज्ञा दी गई। शुक्ल जी रीतिकाल के नामकरण से स्वयं सन्तुष्ट नहीं हुए। "रीतिकाल के भीतर रीतिबद्ध रचना की जो परम्परा चली है, उसका उप-विभाग करने का कोई संगत आधार मुझे नहीं मिला।" आधुनिक काल में गद्य का अविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है। इसलिए इस काल का नामकरण उन्होंने 'गद्यकाल' किया। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि आचार्य शुक्ल द्वारा प्रस्तुत किया गया काल विभाजन अधिक स्पष्ट एवं वैज्ञानिक है। 

4. डॉ. श्यामसुन्दर दास का काल - विभाजन- डॉ. श्यामसुन्दर दास ने लगभग आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काल विभाजन को ही स्वीकारा है। अन्तर केवल इतना है कि आचार्य शुक्ल ने वीरगाथा काल को सम्वत् 1050 से 1375 वि. तक माना है जबकि श्यामसुन्दर दास ने सम्वत् 1050 से 1400 वि. तक माना है। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रत्येक युग की विचारधारा का विकास आधुनिक काल तक खोजने का प्रयत्न किया है। 

5. डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा प्रस्तुत काल विभाजन - डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपने काल विभाजन में नवीनता का समावेश करते हुए हिन्दी साहित्य को पाँच कालों में विभाजित किया है- 

1. सन्धिकाल (सम्वत् 750 से 1000 वि.)

2. चारणकाल (सम्वत् 1000 से 1375 वि.) 

3. भक्तिकाल (सम्वत् 1375 से 1700 वि.)

4. रीतिकाल (सम्वत् 1700 से 1900 वि.)

5. आधुनिक काल (सम्वत् 1900 से अद्यतन) ।

    डॉ. रामकुमार वर्मा ने आदिकाल को संधिकाल तथा चारणकाल दो भागों में विभाजित किया है तथा हिन्दी साहित्य का आरम्भ सम्वत् 1050 से न मानकर सम्वत् 750 से माना है जो अधिक उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि यह समय तो निश्चित रूप से उपभ्रंश भाषा का रचना काल है।

6. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रस्तुत काल विभाजन - डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का काल-विभाजन निम्नांकित है-

1. हिन्दी साहित्य का आदिकाल - (10वीं से 14वीं सदी) -

2. भक्ति साहित्य - (14वीं सदी से 16वीं सदी मध्य भाग तक)

3. रीति-काव्य - (16वीं सदी के मध्य भाग से 19वीं सदी के मध्य भाग तक)

4. आधुनिक काल - (19वीं शती के मध्य भाग से आज तक)। 

    डॉ. द्विवेदी का मत आचार्य शुक्ल से मिलता है। अन्तर यह है कि द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ शुक्ल जी से 50 वर्ष पूर्व माना है तथा प्रारम्भिक काल को वीरगाथा काल की अपेक्षा आदिकाल नाम देना उचित समझा। 

7. डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त द्वारा प्रस्तुत काल विभाजन - डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ने हिन्दी साहित्य का सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन कर नवीन तथा वैज्ञानिक ढंग से हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन किया है। उनका काल विभाजन निम्न प्रकार है-

1. प्रारम्भिक काल - (सन् 1184-1350 ई.)

2. पूर्व मध्य काल - (सन् 1350-1600 ई.)

3. उत्तर मध्य काल - (सन् 1600-1857 ई.)

4. आधुनिक काल (सन् 1857 ई. से अब तक)

    डॉ. गुप्त का काल - विभाजन यद्यपि स्पष्ट और व्यापक है परन्तु यह भ्रमित करने वाला प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने आदिकाल में दो परम्पराएँ- 1. धार्मिक रास काव्य परम्परा, तथा 2. संत काव्य परम्परा और मध्यकाल में 11 परम्पराएँ दिखाई हैं। यथा-

(क) धर्माश्रय में-

1. संत - काव्य परम्परा ।

2. पौराणिक गीति परम्परा ।

3. पौराणिक प्रबन्ध-काव्य परम्परा ।

4. रसिक भक्ति-काव्य परम्परा।

(ख) राज्याश्रय में- 

1. मैथिली गीति परम्परा ।

2. ऐतिहासिक रास काव्य परम्परा । 

3. ऐतिहासिक चरित-काव्य परम्परा ।

4. ऐतिहासिक मुक्तक परम्परा ।

5. शास्त्रीय मुक्तक परम्परा।

(ग) लोकाश्रय में-

1. रोमांसिक कथा-काव्य परम्परा ।

2. स्वच्छन्द प्रेम-काव्य परम्परा ।

द्विवेदी जी ने आधुनिक काल को पाँच भागों में विभाजित किया गया है-

1. भारतेन्दु युग - (सन् 1857-1900 ई.)

2. द्विवेदी युग - (सन् 1900-1920 ई.)

3. छायावाद युग - (सन् 1920-1937 ई.)

4. प्रगतिवाद युग - (सन् 1937-1945 ई.)

5. प्रयोग युग - (सन् 1945-1965 ई.) ।

8. डॉ. नगेन्द्र द्वारा प्रस्तुत काल विभाजन - डॉ. नगेन्द्र ने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए तथा ऐतिहासिक कालक्रम व साहित्यिक विधा दोनों का आधार ग्रहण करते हुए हिन्दी साहित्य का काल विभाजन निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है-

1. आदिकाल - सातवीं सदी के मध्य से चौहवीं सदी के मध्य तक (सन् 650 से 1350 ई.)

2. भक्तिकाल - चौदहवीं सदी से सत्रहवीं सदी के मध्य तक (सन् 1350 से 1650 ई. तक) 

3. रीतिकाल - सत्रहवीं सदी के मध्य से उन्नीसवी सदी के मध्य तक (सन् 1650 से 1850 ई. तक)

4. आधुनिक काल - उन्नीसवीं सदी के मध्य से अब तक (सन् 1850 ई. से अब तक)। 

(क) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल सन् 1857-1900 ई.)

(ख) जागरण सुधार काल (द्विवेदीकाल सन् 1900-1918 ई.) 

(ग) छायाकाल (सन् 1918-1938 ई.)

(घ) छायावादोत्तर काल-

1. प्रगति प्रयोग काल (सन् 1938-1953 ई.) 

2. नवलेखन काल (सन् 1953 ई. से अब तक) ।

    डॉ. नगेन्द्र का काल विभाजन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुरूप ही रहा है। अन्तर यह है कि डॉ. नगेन्द्र ने आदिकाल का प्रारम्भ सातवीं सदी के मध्य से माना है, जबकि शुक्ल जी ने सम्वत् 1050 से तथा आचार्य द्विवेदी ने 10वीं सदी से डॉ. नगेन्द्र ने आधुनिक काल में कुछ संशोधन किया है, उन्होंने पच्चीसी का हिसाब रखा है, पर वह यथार्थ स्थिति के अनुकूल नहीं है, अतः उसमें थोड़ा-बहुत संशोधन कर देना अनुचित न होगा ।

[ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि कुछ विद्वानों ने सम्वत् के अनुसार और कुछ ने सन् के अनुसार काल विभाजन प्रस्तुत किया है। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व हमारे यहाँ सम्वत् ही चलता था आंग्ल- शासन में सन् का प्रारम्भ हुआ। सन् | तथा सम्वत् में 57 वर्ष का अन्तर है। जैसे सन् 1318 का सम्वत् होगा 1375 सन् के साथ ई. (ईस्वी) और सम्वत् के साथ वि. (विक्रमी) का प्रयोग मिलता है। ]

IV. आदर्श काल विभाजन - विभिन्न विद्वानों के मतों का अवलोकन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, कि हिन्दी साहित्य के काल विभाजन के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद रहा है। इसमें हमें समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अब तक की प्राप्त सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है, कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ. नगेन्द्र का काल-विभाजन अधिक स्पष्ट, वैज्ञानिक और सुव्यवस्थित रहा है। इन तीनों के समन्वयात्मक रूप को हमें स्वीकार करना चाहिए। अतः हिन्दी साहित्य के इतिहास को निम्नांकित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(क) आदिकाल - (सम्वत् 1050 से 1375 वि. तक) 

(ख) भक्तिकाल - (सम्वत् 1375 से 1700 वि. तक)

(ग) रीतिकाल अथवा शृंगार काल- (सम्वत् 1700 से 1900 वि.)

(घ) आधुनिक काल - (सम्वत् 1900 से अद्यतन) ।

V. निष्कर्ष - सत्यता यह है, कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी द्वारा प्रस्तुत काल-विभाजन अधिक स्पष्ट माना जाता है। डॉ. गणपति चन्द्रगुप्त के शब्दों में कह सकते हैं - हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की उपर्युक्त दीर्घ परम्परा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कार्य उसका वह मध्यवर्ती प्रकाश स्तम्भ है, जिसके समक्ष सभी पूर्ववर्ती प्रयास आभारशून्य प्रतीत होते हैं, तो साथ ही परवर्ती प्रयास उसके आलोक से आलोकित हैं।

Hindi sahityetihas ke kal vibhajan ke prayason ki samiksha kijiye

आगे के अन्य प्रश्न उत्तरों के लिंक जल्द ही उपलब्ध होंगे धन्यवाद !

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