डॉक्टर नरेंद्र देव वर्मा ने छत्तीसगढ़ी साहित्य परंपरा को इस प्रकार विभाजित किया है -
1. गाथा युग - (आदि युग) - 1000 ईस्वी से 1500 ईसवी तक
- प्रेम प्रधान गाथाएं,
- धार्मिक और पौराणिक गाथाएं
2. भक्ति युग - (मध्यकाल) - 1500 ई. से 1900 ईसवी तक
- मध्य युग की वीर कथाएं
- धार्मिक एवं सामाजिक धारा
- संत धारा
इसके अलावा सतनाम पंत की रचनाएं स्फुट रचनाएँ
3. आधुनिक युग - सन 1900 ईसवी से वर्तमान समय तक
छत्तीसगढ़ी कविता - प्रथम पड़ाव, द्वितीय पड़ाव, तृतीय पड़ाव
गद्य - कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी और निबंध अनुवाद, लघुकथा, हाइकु व व्यंग्य, संस्मरण पत्र पत्रिकाएं।
1. आदिकाल : गाथा युग
इतिहास की दृष्टि से छत्तीसगढ़ी का गाथा युग स्वर्ण युग कहा जा सकता है। ऐसे तो महाभारत में 5000 वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ अन्य प्रमुख राज्यों के साथ चित्रित है तथा यहां 2000 वर्ष पूर्व की समृद्ध संस्कृति के प्रमाण भी मिलते हैं, तथापि गाथा युग की सामाजिक राजनीतिक स्थिति भी आदर्श मानी जा सकती है। गाथा युग के पूर्व छत्तीसगढ़ में पाली भाषा का विशेष प्रचार हुआ था, क्योंकि बौद्ध धर्म का यह एक महान केंद्र माना जाता था तथा प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने यहीं बैठ कर अपने चिंतन के आरंभ-सूत्र खोजे थे। बौद्ध धर्म के पतन के साथ ही कुछ राजनीतिक उलटफेर भी हुए गाथा युग के प्रारंभ में सन 875 ई. के लगभग चेदिराज कोकल के पुत्र कलिंग राज ने इसे पुनः व्यवस्था प्रदान की। कलिंगराज के पुत्र रत्नसे ने ही रतनपुर की नींव डाली थी। सन 1000 से 1500 वी तक छत्तीसगढ़ी में अनेकानेक गाथाओं की रचना हुई, जिसमें प्रेम और वीरता का अपूर्व विन्यास हुआ है। यद्यपि इन गाथाओं की लिपिबद्ध परंपरा नहीं रही है तथा यह पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से अभी रक्षित होती आई है। तथापि इस काल में घटी घटनाओं का वर्णन यहां इतना जीवंत रूप में हुआ है कि जिसके आधार पर इनका काल-निर्धारण किया जा सकता है। आधुनिक युग के पूर्वार्ध में ही इन घटाओं को लिपिबद्ध किया जा सकता है। इन गाथाओं को इस युग की रचना मानने के कुछ वैज्ञानिक कारण भी हैं। इनकी भाषा अनेकानेक परिवर्तन-परिष्करण के बावजूद अपने अनूठे आर्य प्रयोगों से युक्त है। इन गाथाओं के आधार पर ही इस युग को गाथा युग कहा गया है। विषयों के अनुसार इन गाथाओं का विवेचन प्रेमप्रधान, पौराणिक और धार्मिक गाथाओं के रूप में किया जा सकता है-
1.1 प्रेम प्रधान गाथाएं -
छत्तीसगढ़ी की प्राचीन प्रेम प्रधान गाथाओं में अहिमन रानी, केवला रानी, रेवा रानी और राजा वीर सिंह की गाथाएं प्रमुख हैं। इन गाथाओं का आकार पर्याप्त दीर्घ है। इनके वस्त्र-विन्यास तथा घटनाक्रम के नियोजन की शैली हिंदी के वीरगाथाकालीन ग्रंथों की शैली का स्मरण करा देती है। लोकगाथाकार इन गाथाओं को तीन से पांच दिनों में सुनाकर पूर्ण करते हैं। मेरा अनुमान है कि ये गाथाएँ प्रारंभ में प्रबंध-काव्य की शैली पर रची गई होंगी। इन गाथाओं में वीरगाथा-कालीन-प्रबंध काव्य की कथा रूढ़ियों का भी परिपालन किया गया है तथा इनमें प्रायः तुकांतता का अभाव भी है। ऐसा सोचा जा सकता है कि यह गाथाएँ 'बैलेड्स' या चारण-काव्य की परंपरा का द्योतन करती हैं। यह सभी गाथाएं नारी प्रधान है तथा नारी जीवन के असहाय और दुख मंत्र-तंत्र तथा पारलौकिक शक्तियों का भी बड़े विस्तार से चित्रण करती है। ऐसा लगता है कि इनमें परवर्ती बौद्ध परंपराओं से प्रभावित समाज की मनः स्थिति का चित्रण है।
1.2 धार्मिक और पौराणिक गाथाएं
छत्तीसगढ़ी कि प्रायः सभी गाथाओं में धार्मिक सूत्र गुम्फित है, फुलबासन और पंडवानी में विशिष्ट पौराणिक पात्रों का, कल्पना का पुट देकर नियोजन किया गया है। 'फूलबासन' में सीता और लक्ष्मण की गाथा है। जिसमें सीता लक्ष्मण के स्वप्न में देखे गए कुल 'फूलबासन' नामक फूल लाने का अनुरोध करती है। लक्ष्मण अनेक कठिनाइयों को पार करने के उपरांत पूर्णकाम होकर वापस लौटते हैं। यहां यद्यपि पात्रों का नियोजन प्राचीन है, तथापि घटनाक्रम पूर्णतया स्वच्छंद है। इसी स्थल पर हिंदी के उन सूफी कवियों की स्मृति भी हो जाती है, स्वच्छल नियोजन किया था। ठीक ऐसी ही स्वच्छल दृष्टि पंडवानी की रचना में दिखाई देती है। इसमें पांडवों की कथा के आलंबन से हरतालिका व्रत या तीजा के अवसर पर, द्रोपति के मायके जाने की अमृत गाथा के माध्यम से, छत्तीसगढ़ की नारी की सास्वत आकांक्षा का चित्रण किया गया है। द्रौपती के अनुरोध पर अर्जुन उसे उसके मायके पहुंचाने के लिए उद्धत तो होते हैं, किंतु मार्ग में ही उन्हें बंदी बना लिया जाता है अनेकानेक घटनाक्रमों के माध्यम से यह कथा आगे बढ़ती है। यह घटनाएं पौराणिक नहीं है। इनके माध्यम से लोक जीवन की मौलिक गाथाओं का ही वर्णन किया गया है। इस दृष्टि से अलौकिक तथा चमत्कारपूर्ण घटनाओं का चयन विशेष उल्लेखनीय है, जो वीरगाथा कालीन प्रबंध-काव्यों की एक सुविख्यात कथा-रूठी है। गाथाओं की यह परंपरा संपूर्ण मध्ययुग में व्याप्त है।
2. मध्यकाल : भक्ति युग
सन 1500 से 1900 ईसवी तक का युग छत्तीसगढ़ की दृष्टि से राजनीति कौशल उलट-फेर और अशांति का युग रहा है। मध्यकाल के प्रारंभ में ही छत्तीसगढ़ पर बाहरी नरेशों के आक्रमण होने लगे थे तथा संभवतः छत्तीसगढ़ पर मुसलमानों का सर्वप्रथम आक्रमण रतनपुर के राजा बाहरेंद्र के काल में 1536 ईस्वी में हुआ था। यद्यपि इस युद्ध में मुसलमानों की पराजय हुई थी, फिर भी उनका आतंक छत्तीसगढ़ में सैकड़ों वर्षो तक बना रहा यही कारण है कि इस काल में रचित गाथाओं में मुस्लिम आक्रांताओं के वर्णन के साथ ही शौर्य और पराक्रम के भाव भी सिंचित हैं। इस युग की साहित्य चर्या मूलतः तीन धाराओं में प्रवाहित होती है। पहली धारा गाथा युग की गाथा-परंपरा से विकसित गाथाओं की है, दूसरी धारा धार्मिक और सामाजिक गीतों की है, तथा तीसरी धारा स्फूट रचनाओं की है जिसमें अनेकानेक भावनाएं व्यंजित हैं।
2.1 मध्य युग की वीरगाथाएं
मध्य युग की वीरगाथाओं में 'फूलकुंवर', 'देवी गाथा' और 'कल्यानसाव की गाथाएँ प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त 'गोपल्ला गीत', 'रायसिंघ के पवार', 'ढोला मारु' और 'नागेशर कईना' के नाम से प्रचलित लघु गाथाएं भी विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय है। 'लोरिक चंदैनी', 'सरवन गीत' और 'बोधरु गीत' की शैली भी इन्हीं लोक गाथाओं के समान हैं। फूलकुँवर की गाथा में वीरांगना फूलकुँवर के मुसलमानों से किए गए युद्ध का चित्रण किया गया है। यद्यपि गाथा में फूलकुँवर को राजा जगत की पुत्री बताया गया है, तथापि इतिहास में इस बात का प्रमाण नहीं मिलता। गाथा में जिस प्रकार फूलकुँवर का पराक्रम चित्रित है, वह झांसी की रानी की वीरता के मुकाबले कम नहीं है। कल्याणसाव की गाथा में रतनपुर के सम्राट बाहरेन्द्र के पुत्र कल्याण साय की वीरता का भी आकलन किया गया है। राजा कल्याणसाय मुगल सम्राट जहांगीर का समकालीन था इस गाथा में कल्याण सहाय के वीर भट्ट गोपाल राय का शौर्य भी व्यंजित हुआ है। 'गोपाला गीत' में भी इसी कथानक उपयोग किया गया है। ये सभी गाथाएँ प्रबंध काव्य की शैली में लिखी गई है तथा इसमें मध्य युग कि प्रायः सभी कथानक रूढ़ियों का परिपाक हुआ है। 'देवी गाथा' में मध्य युग के इतिहास से संबंधित अनेक रूप मिलते हैं जिनमें अकबर का चरित्र विशिष्ट रूप से उभरता है। अकबर को यहां देवी के पुजारी के रूप में चित्रित किया गया है। यह भावात्मक ऐक्य बहुत-कुछ अकबर की उदार नीति तथा निर्गुण मातावलंबी संतो के हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों के परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुआ है।
2.2 धार्मिक एवं सामाजिक गीत धारा -
छत्तीसगढ़ी के मध्य युग की धार्मिक और सामाजिक गीत धारा का समारंभ कबीर प्रभावित आंचलिक संप्रदायों एवं पंथो के माध्यम से होता है। इनमें कबीर पंथ की छत्तीसगढ़ी शाखा तथा सतनाम पंथ प्रसिद्ध हैं। इस युग की जनपदीय संस्कृति के उत्तोलन में इन दोनों पंथों ने अत्यधिक योगदान दिया है तथा इनके साथ ही इन्हीं पंथों के माध्यम से निर्गुण मतावलंबी रचनाएं भी प्रचुरता से उत्कृष्ट हुई हैं। कबीर पंथ का निर्माण संत कबीर के शिष्य धर्मदास की प्रेरणा से हुआ था। छत्तीसगढ़ में स्थापित कबीर पंथ का योगदान छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास के संदर्भ में इसलिए भी अतिशय महत्वपूर्ण हो जाता है, कि इसी के माध्यम से छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रथम लिपिबद्ध स्वरूप प्राप्त करते हैं।
2.3 संत धर्मदास -
संत धर्मदास कबीर दास के पठ्ठ शिष्य थे। उनका जन्म वैश्य परिवार में हुआ था। संत धर्मदास के छत्तीसगढ़ी गीत छत्तीसगढ़ी जनता के कंठों में बसे हुए हैं। कबीर की वाणी में उच्च वर्गों के प्रति जो आक्रोश व्यक्त हुआ है तथा बाह्य आडंबरों के प्रति तीक्षण व्यंग भाव मिलता है, वह संत धर्मदास में अतिशय विरल और विनम्र है। संत धर्मदास में कबीर की आत्मानुभूति, ईश्वरीयविरह तथा परमतत्व के साक्षात्कार से उत्पन्न आत्मोत्फुल्ल्ता के भावों का ही अग्रिम विकास हुआ है। इनके अतिरिक्त उनके गीत उच्च कोटि के काव्यात्मक उद्गारों से भी संपृक्त है। यदि हम विविध गाथाओं के रचयिता जन कवियों को छोड़ दें, तो संत धर्मदास का गीत साहित्य विपुल है तथा उनमें एक साधक के आध्यात्मिक विकास की समग्र स्थितियों के दर्शन हो जाते हैं। अन्य भक्त कवियों के समान संत धर्मदास भी सतगुरु को प्रणिपात करते हैं, मायारूपी बंधन से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। कानों से ईश्वर के पवित्र नाम का सुधापान करने के अभिलाषी हैं, तथा ईश्वर-साक्षात्कार के रत्न-पदार्थ को प्राप्त करने के आकांक्षी हैं-
जमुनिया की डार मोरी टोर देव हो।
एक जमुनिया के चउदा डारा, सार सबद ले के मोड़ देव हो।
काया कंचन गजब पियारा, अमरित रस मां बोर देव हो।
सतगुरु हमरे ज्ञान जौहरी, रतन पदारथ जोर देव हो।
धरमदास के अरज गोसाई, जीवन के बाँधे डोर छोरे देव हो।
ईश्वरीय अनुभूति को लौकिक प्रतीकों के माध्यम अभिव्यक्ति देते हैं -
सँइया महरा, मोरी डोलिया फ़ंदावौ।
काहे के तोर डोलिया, काहे के तोर पालकी, काहे के ओमा बांस लगाओ।
आव भाव के डोलिया पालकी, मत नाम के बांस लगावौ।
परेम के डोर जतन से बांधो, ऊपर खलीता लाल ओढ़ावौ।
ज्ञान दुली झारी दसावो, नाम के तकिया अरध लगावौ।
धरमदास बिनवै कर जोरी, गगन मंदिर मा पिया दुलरावौ।
जहां धर्मदास ईश्वरीय साक्षात्कार के चरम क्षणों को प्रत्यक्षतः काव्यात्मक निवेदन करते हैं, वहां उनकी आत्मोत्फुल्ल्ता शब्दों की संकीर्ण सीमाओं को तोड़कर बाहर छलक पड़ती है -
आज घर आवे साहब मोर।
हुलसि-हुलसि घर अंगना बहारी, मोतियन चउँक पुराई।
चरन धोय चरणामृत लीहैं, सिंघासन बईठाई।
पांच सखी मिल मंगल गाहैं, सबद ला सूरत समाई।
संत धर्मदास छत्तीसगढ़ के प्रथम कवि हैं। जिन्होंने लोकगीतों की सहज सरल शैली में न्यूनतम दार्शनिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की और छत्तीसगढ़ी की शक्तियों को आत्मसात करते हुए उसे उच्चतर मानवीय भावों के संवहन के योग्य बनाया। किंतु उनकी यह उदात्त परंपरा आगे विकसित नहीं हो पाई। यद्यपि सतनाम पंथ के अंतर्गत भी कतिपय काव्य रचनाएं विशेष रूप से प्रचलित हो रहे हैं, तथापित यह पंथ सतनाम पर आस्था रखने वाले संत धर्मदास के समान विपुल मात्रा में काव्य सृजन करने वाला समर्थ व्यक्तित्व प्रदान नहीं कर सका।
सतनाम पंथ की रचनाएं
सतनाम पंथ की स्थापना छत्तीसगढ़ के महान संत घासीदास ने की थी। संत घासीदास छत्तीसगढ़ के 'गिरौद' नामक गांव में कृषक परिवार में जन्मे थे। कहा जाता है कि उनकी भेंट एक बार संत जगजीवनदास से हुई, जिन्होंने उन्हें सतनाम प्रदान किया। मंत्र-दीक्षा के बाद संत घासीदास विरक्त हो उठे और घर-बार छोड़कर कोमाखान के जंगलों में विलीन हो गए। यहां एक तेंदू के वृक्ष के नीचे उन्होंने सतनाम की साधना की और पूर्णकाम होकर वापस लौटे। उनका जीवन अध्यात्मिकता के आलोक से भास्वर हो चुका था।
काल-क्रम में कई ऐसे अलौकिक घटनाएं भी घटी, जिनसे उनका नाम दूर-दूर तक फैल चुका था कहा जाता है कि एक बार संत घासीदास में सतनाम के प्रभाव से सांप डसने वाले एक व्यक्ति को जीवित कर दिया था। कालांतर में उनकी जाति के लोगों ने उन्हें गुरु के पद पर अधिष्ठित कर दिया और स्वयं को 'सतनामी' कहा। संत घासीदास ने लोगों को सिखाया कि सतनाम का जाप करना चाहिए। उनकी वाणी में संत कबीर के उपदेशों की ध्वनि गूंज रही है। यद्यपि कबीर पंथ और सतनाम पंथ मूलतः एक हैं तथापि गुरु परंपरा के कारण यह एक दूसरे से पृथक हो गए हैं।
सतनाम पंथ की रचनाएं भी मूलतः सांसारिक बंधनों की असारता और ईश्वरीय कृपा की प्राप्ति की अभिलाषा का चित्रण करती है। 'चल हंसा अमर लोक जइबो' में मायावी सम्भार की स्वार्थपरता को स्पष्ट करते हुए ईश्वर के नाम को शाश्वत शांति के क्रोड़ के रूप में चित्रित किया गया है -
चलौ-चलौ हंसा अमर लोक जइबो, इहां हमरसंगी कोनो नइये।
एक संगी हावय घर के तिराई, देखे मां जिवरा जुड़ावै।
ओहू तिराई हृदय बनत भर के, मरे मा दूसर बनावै।
एक संगी हावय कुखे के बेटवा, देखे मां घोसा बैंधावे।
ओहू बेटा हावय बनत भर के, बहू आये ले तिरियाथे।
धन अउ लक्ष्मी बनत भर के, मरे मां ओहू तिरियाथै।
एक संगी परभू सतनाम हे, पापी मन ला मनावै।
जनम मरन के सबो दिन संगी, ओही सरग अमराथै।
उपर्युक्त गीत की मूल भावना में कबीर का प्रभाव स्पष्ट है। इसी प्रकार अन्य गीतों में कबीर की अन्योक्तियों की शैली का सफल अनुकरण मिल जाती है। इस दृष्टि के 'खेलथे दिन चार मइहर मा' जैसे गीत उल्लेखनीय हैं। सिमगा के कवि खंडेराव कृत 'राधा विनोद' महाकाव्य 18 वीं सदी के अंत में लिखा गया। यद्यपि यह महाकाव्य अवधि में प्रारंभ हुआ, पर छत्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाजों में गुम्फित है। हमें छत्तीसगढ़ी भाषा का स्वरूप इस महाकाव्य में देखने को मिलता है। यद्यपि उस समय अवधी और ब्रज में साहित्य सृजन होता था, पर लोक व्यवहार की बोली छत्तीसगढ़ी के प्रभाव को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता था। खंडेराव सशक्त कवि थे, जिन्होंने भागवत की संपूर्ण कथा को वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गीय दार्शनिक सिद्धांत में बांधकर कथा सृजन करते हुए महत्तर काव्य की सृष्टि की।
मध्य युग का तीसरा स्वर स्फूट रचनाओं का है। इस युग के अन्य कवियों में गोपाल, माखन, रेवा राम, लक्ष्मण और प्रह्लाद दुबे के नाम उल्लेखनीय हैं। गोपाल कवि तथा उनके पुत्र माखन कवि रतनपुर के निवासी थे तथा कलचुरी नरेश राजसिंह के समकालीन थे। इनकी 'जैमिनी अश्वमेघ', 'सुदामा चरित', 'भक्त चिंतमणि', 'छंदविलास' नामक रचनाओं का उल्लेख प्रायः किया जाता है। यद्यपि गोपाल कवि ने समग्रतः छत्तीसगढ़ी में पद्य-रचना नहीं की है, तथापि उनकी काव्य भाषा में छत्तीसगढ़ी का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार बाबू रेवाराम कायस्थ ने भी दार्शनिक ग्रंथों की रचना की है। 'भोंसला वंश प्रशस्ति' के लेखक लक्ष्मण कवि का नामोल्लेख भी इस संदर्भ में किया जा सकता है, जिनके काव्य में अंग्रेजों के नृशंस अत्याचार का सर्वप्रथम आंकलन हुआ है। तथापि, सारंगढ़ निवासी प्रह्लाद दुबे का कृतित्व इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है कि उनकी 'जयचंद्रिका' में छत्तीसगढ़ी का प्राकृतिक स्वरूप अभिव्यक्त हुआ है। उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है -
तुम करहू जैसे जीना, हम हवैं सामिल तौन।
महापात्र मन मह अंदाजे, हम ही हैं संबलपुर राजे।
3. आधुनिक युग
छत्तीसगढ़ का आधुनिक युग साहित्य की विभिन्न विधाओं के विकास के लिए बड़ा उर्वर सिद्ध हुआ है। यद्यपि इस युग में गद्य के भी विविध प्रकारों का संवर्धन हुआ है, तथापि काव्य के क्षेत्र में ही महति उपलब्धियां दृष्टिगोचर होती हैं। छत्तीसगढ़ी में नियतकालिक पत्रिकाओं का अभाव रहा, फलतः परिनिष्ठित छत्तीसगढ़ी के मानमूल्यों की स्थापना होने के बावजूद उसका व्यापक प्रसार नहीं हो पाया तथा छत्तीसगढ़ी के विविध गद्यकार परिनिष्ठित छत्तीसगढ़ी का प्रयोग न कर अपनी विकृत आंचलिक भाषाओं में ही साहित्य-सृजन करते रहे। द्वितीयतः प्रकाशन और प्रभार की असुविधाओं के कारण अनेक गद्य-कृतियां आज भी अप्रकाशित पड़े हुए हैं तथा समुचित सुरक्षा के अभाव में बहुप्रशासित ग्रंथों की पांडुलिपियाँ भी विस्मृति के गर्त में विलीन होती जा रही हैं।
छत्तीसगढ़ी कविता
प्रथम पड़ाव
छत्तीसगढ़ी काव्य की परंपरा अतिशय प्राचीन हैं तथा यही परंपरा आधुनिक युग को स्वयं शतधा अभिव्यक्त करती है। इस युग में छत्तीसगढ़ी की क्षमता को पूर्ण रूप आत्मसात करने वालों का ठेठ छत्तीसगढ़ी में काव्य का सृजन करने वालों में सुंदरलाल शर्मा का स्थान अद्वितीय है। सुंदरलाल शर्मा आधुनिक छत्तीसगढ़ी काव्य के पुरस्कार पुरस्कृत हैं। यद्यपि उनके काल के कुछ अन्य कवियों ने भी छिट-पुट तुकबंदीयां रची थीं तथा हिंदी शब्दों को छत्तीसगढ़ी के नाम से खपाने की चेष्टा की थी, किंतु सुंदरलाल शर्मा ने ही सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ी को ग्राम्य भाषा के पद से उठाकर साहित्यिक भाषा के पद पर अधिष्ठित किया और उसे मानवीय मनोभावों के संवहन योग्य बनाया। छत्तीसगढ़ी के ग्राम्य जीवन में क्रांति का अभिनिवेश करने वाले, अछूतों और दलितों के मुक्तिदूत तथा महात्मा गांधी को हरिजन-सेवा की दीक्षा देने वाले, छत्तीसगढ़ के प्रथम महाकवि सुंदरलाल शर्मा का जन्म रायपुर जिले के राजिम में सन 1881 ई. की पौष अमावस्या की पुण्य बेला में हुआ था। वे बंगला, गुजराती और उर्दू के भी पंडित थे तथा हिंदी और छत्तीसगढ़ी में उन्होंने 21 ग्रंथों की रचना की थी। छत्तीसगढ़ी में उनकी "छत्तीसगढ़ी दानलीला" के वजन की कोई चीज आज तक नहीं लिखी जा सकी। यदि भाषा, और विषय प्रतिपादन की दृष्टि से 'छत्तीसगढ़ी दानलीला' को प्रतिमान मानकर आधुनिक छत्तीसगढ़ी लेखकों की रचनाओं पर दृष्टिपात किया जाए तो हमें अत्यधिक निराशा होगी तथा बहुत कम कवि ऐसे होंगे,जिन्हें हम कवि के रूप में स्वीकार कर सकेंगे। 'छत्तीसगढ़ी दानलीला' में ही अनेक ऐसे भावोद्वेलनकारी और मनोहारी प्रसंग है, जो भाषा के अर्थवहन की गंभीर क्षमता को प्रकट करते हैं। श्याममिलनोत्सुक गोपांगनाओं का कृष्ण के प्रति यहां उपालंभ अत्यंत सटीक और हृदयग्राही बन पड़ा है -
जानेन चेलिक भइन कन्हाई। तेकरे ये चोचला ए दाई।
नंगरा नंगरा फिरत रिहित हे। आजेच चेलिक कहाँ भइन है।
कोन गुरु मेर कान फुं काइन। बड़े डपोर संख बन आइन।
दाई ददा ला जे नई माने। ते फेर दूसर ला का जानै।
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ऐसे उक्तिगर्भ और मुहावरेदार वाक्य सुंदरलाल शर्मा की लेखनी से जअस्त्र रूप से निःसृत हुए हैं। उनके कृतित्व के संबंध में रायबहादुर हीरालाल का इसी पुस्तक की भूमिका में यह कथन अत्यंत सार्थक है - "मेरी राय में" जउने हर एला बनाइस हे, तउने हर नाम कमाइस हे", भविष्य में छत्तीसगढ़ी का प्रथम कवि इस दानलीला का कर्ता ही समझा जाएगा।" दानलीला के अतिरिक्त सुंदरलाल शर्मा ने 'छत्तीसगढ़ी रामायण' का भी प्रणयन किया है। यह महाकाव्य कवि की महाकवि की अभिधा प्रदान करता है। पूरा प्रबंध छत्तीसगढ़ की विशेषता ग्रामीण संस्कृति और सभ्यता को समेटे हुए है तथा काव्यात्मक औदात्य के गुण इसमें भरे पड़े हैं। दुर्भाग्य से अप्रकाशित रहने के कारण यह ग्रंथ विशेष प्रसिद्ध नही हो सका है।
वर्मा जी के पाश्चात्यवर्ती कवियों में जगन्नाथ प्रसाद साहू, कपिलनाथ मिश्र, शुकलाल प्रसाद पाण्डेय का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
भानू हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के ज्ञाता थे। हिंदी काव्यशास्त्र में उनकी अच्छी पैठ थी। छत्तीसगढ़ी में उनकी उल्लेखनीय कृति 'श्री मातेश्वरी सेवा के गुटका' है, इसमें उन्होंने पारंपरिक माता-सेवा गीतों को साहित्यिक कलेवर में प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से कपिलनाथ मिश्र की 'खुसरा चिरई के बिहाव' नामक कृति भी एक विशिष्ट रचना है, जिसमें सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ी कविता प्रवेशिका प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तिका अपने सीमित क्षेत्र में पक्षियों और वृक्षों के छत्तीसगढ़ी नामों का ज्ञान कोश है। इस पुस्तिका का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ रायपुर में सन 1883 ईस्वी में उत्पन्न शुकलाल प्रसाद पांडे भी यद्यपि हिंदी के थे, तथापि छत्तीसगढ़ी में भी उन्होंने "गीयाँ" और "छत्तीसगढ़ी ग्राम्य गीत" की रचना की। पांडेय के काव्य में ग्राम्यानुभूति और आंचलिक वाक् प्रयोगों को बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत किया गया है। शिक्षा के प्रति तत्कालीन जनता की अरुचि का वर्णन 'विद्याप्रेम' नामक कविता में बड़ा सुंदर बन पड़ा है -
हम नइ होवन पंडित संडित, तहीं पढ़े कर आग लुवाट।
ये किताब अउ गजट सजत ला, जीभ लमा के तईं हर चाट।
जनम के हम तो नागर जोत्ता, नई जानन सोरा सतरा।
भुरुवा भइसा ता ता ताता, इही हमर पोथी पतरा।"
द्वितीय पड़ाव
छत्तीसगढ़ी काव्य का दूसरा पड़ाव स्वाधीनता आंदोलन की हलचलों के मध्य हुआ है। किंतु तत्कालीन जन भावना का जैसा यथार्थ आंकलन कुंजबिहारी चौबे की अपनी छत्तीसगढ़ी रचनाओं और गिरिवर दास वैष्णव के 'छत्तीसगढ़ी सुराज' की रचनाओं में हुआ है, वैसा अन्य कवियों से नहीं सध सका है। कुंजबिहारी चौबे का कृतित्व सर्वाधिक विलक्षण और द्वितीय है। 'अजी अंग्रेजी तै हमला बनावे कंगला' में जहां अंग्रेजों के ग्राम्य आक्रोश की अभिव्यक्ति हुई है, वहां 'चल मोर भइया बियासी के नागर' में ग्रामीण जीवन स्पष्ट हो गया है -
पहिरे बर दू बीता के पागी जी,
पीये ला चोंगी धरे ला आगी जी
खाये ला बासी पिए ला पेज पसिया
करे बर दिन रात खेत मा तपसिया,
साधू जोगी ले बड़के दरजा हे हमर।
चल मोर भइया बियासी के नागर।
इसी प्रकार, 'तैंहर ठग डाले हमला रे गोरा' में अंग्रेजों की शोषण-नीति का उल्लेख किया गया है और 'गांधी गोरा' में महात्मा गांधी के अवतरण की दिव्यता और रचना कार्यक्रमों के चित्रण के साथ उनके अहिंसात्मक सत्याग्रह का गुणगान किया गया है। राजनीतिक हलचलों के आधार पर लिखी जाने वाली कृतियों में 'छत्तीसगढ़ी सुराज' का अपना विशेष स्थान है। इस पुस्तक की प्रायः सभी रचनाएं प्रचलित राजनीतिक मुद्दों का परीक्षण कराते हुए पुस्तक की प्राय सभी रचनाएं प्रचलित राजनीतिक मत वादों का परिदर्शन कराते हुए महात्मा गांधी की नीति की वरीयता सिद्ध करती है।
गिरिवरदास वैष्णव के समकालीन कवियों में पुरुषोत्तम लाल, गया प्रसाद बसेढिया, गोविंददास विट्ठल, कुंवर, दलपत सिंह, और किशन लाल ढ़ोते के नाम उल्लेखनीय हैं। पुरुषोत्तम लाल ने 'कांग्रेस आल्हा' की रचना की थी, जिसमें गांधी जी और उनके सहकर्मियों की महान कार्यों का उल्लेख करते हुए सामाजिक उत्थान के कार्यक्रमों को व्यक्त किया गया है। किशनलाल ढोटे ने द्वितीय महायुद्ध के काल में 'लड़ाई के गीत' की रचना करके युवकों को युद्ध में भाग लेने के लिए उत्साहित किया था तथा 'गीता उपदेश' में श्रीमद्भागवत गीता के भावार्थ को छत्तीसगढ़ी में प्रस्तुत किया गया था।
इस समस्त कवियों में गया प्रसाद बसेड़िया का काव्य कुछ अलग स्थान रखता है। बसेढिया ने 'महादेव के बिहाव' खंड काव्य की रचना की थी, जिसका प्रकाशन 'छत्तीसगढ़ी' में धारावाहिक रूप में होता रहा है। बसेढिया में सूक्ष्मा अंकन की विशिष्ट शैली है तथा वे बड़े कौशल से वर्ण्य विषयों को प्रस्तुत करते हैं -
पहले बघवा के खाल समेटे, तेकर ऊपर सांप लपेटे।
आँखी तिसर कपार उपर मा, दुधिया नाग जनेऊ गर मा।
गोविंदराव विट्ठल ने सन 1924 ईस्वी में 'छत्तीसगढ़ी नाग लीला' की रचना की जिस पर सुंदरलाल शर्मा की छत्तीसगढ़ी दानलीला का प्रभाव स्पष्ट है। कुंवर दलपतसिंह ने भी दो खंडों में 'राम यश मनोरंजन' नामक प्रबंध का प्रणयन किया है, जो अभी तक अप्रकाशित है, तथा जिसमें रामकथा को छत्तीसगढ़ी में प्रस्तुत किया गया है। इस प्रबंध काव्य में कवि की काव्यात्मकता एवं अनुभूति प्रवणता का अच्छा परिचय मिलता है।
यद्यपि इस काल में उभरने वाली कवियों की पंक्ति में प्रचारात्मक दृष्टिकोण की प्रधानता थी, किंतु जहां-जहां इन कवियों पर प्रचारात्माक लक्ष्य हावी नहीं हुआ है, वहां-वहां बड़ी निर्मल उदभावनाएं भी हुई हैं। इन कवियों में प्यारेलाल गुप्त का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होंने हमारे "हमर कइसन सुंदर गांव, जइसे लक्ष्मी जी के पाँव" जैसे पद्य लिखते हैं, वहां 'मैं भाईदूज मनायेव' और 'झिलमिल दिया बुता देख' आदि रचनाओं में उनका ह्रदय भी व्यक्त हुआ है इस दृष्टि से उनकी 'धान लुवाई' कविता अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी कविता से आगामी छत्तीसगढ़ी काव्य के लिए एक सुदृढ़ रीति की स्थापना होती है तथा वर्ण-विषय और कथ्य-शैली के प्रतिमान के रूप में इसे उद्धृत किया जाता है। इस कविता में बड़े सधे हाथों ग्रामीण जीवन को अभिव्यक्त किया गया है।
इसी क्रम में कोदूराम 'दलित' और द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' की रचनाएं आती हैं। 'दलित' ने छत्तीसगढ़ी में ही अपनी रचनाएं लिखी थीं तथा वे प्रायः छत्तीसगढ़ी कवियों की निचली पंक्ति में रख दिए जाते हैं। उनके काव्य में सामाजिक सुधार और उन्नयन के स्वर अधिक मुखर हैं, तथापि हास्य और व्यंग की रचनाओं की दृष्टि से उनकी परंपरा का निर्वाह ध्रुवराव वर्मा के अलावा अन्य किसी कवि में नहीं मिलता। 'दलित' शब्दों की ध्वन्यात्मकता के वे बड़े पारखी थे तथा उनका काव्य शब्दों में ध्वन्यात्मक शक्ति के सचेत प्रयोग के कारण जीवंत आंचलिक चित्रों का नियोजन करता है। द्वारका प्रसाद तिवारी 'विप्र' ने भी छत्तीसगढ़ी में विपुल संख्या में पद्य रचे हैं। इनमें से अधिकांश तो प्रचारात्मक और सुधारपरक हैं, तथापि खोजने से ऐसी रचनाएं भी मिल जाते हैं, जिनमें तिवारी का ह्रदय बोलता सा प्रतीत होता है। इस दृष्टि में 'धमनी के हाट में' नामक कविता विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस तरह के गीतों में तिवारी का निश्चल व्यक्तित्व बड़े सुंदरता से प्रकट होता है। ऐसे गीतों के काव्यात्मकता तथा उनमें निबद्ध ग्रामीण स्पर्श वस्तुस्थिति की यथार्थ प्रतिकृति प्रस्तुत करती है -
लकर धकर आये जोही, आँखी ला मटकाये गा,
कइसे जादू करे मोला, सुक्खा मां रिझाये,
चूंदी मा तै चोंगी खोंचे, झुलुप ला बगराये गा,
चमक अउ सोल मा, तै आंगी ला सपचाये,
तोला देखे रहेंव गा, धमनी के हाट मां बोइर तरी रे।
श्यामलाल चतुर्वेदी काव्य प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ी में 'राम-वनवास' नामक पुस्तिका भी लिखी है। सम्भवतः इसी प्रेरणा से राम शरण तंबोली ने अनेक छत्तीसगढ़ी कथागीतों की सृष्टि की, जिनका व्यापक प्रचार हुआ। चतुर्वेदी की उत्कृष्ट रचनाओं में से एक 'बेटी की विदा' है, जिसमें गहरी अनुभूतियां निबद्ध हैं -
मोरे पांवे पुजे दंमादे, होही मोर बर जमराज।
मोर जिव के थेभा ला जब, ले जही घिड़कावत बाजा।
तृतीय पड़ाव
छत्तीसगढ़ी काव्य में क्षेत्रीय पड़ाव का आरंभ 'छत्तीसगढ़ी' मासिक के प्रकाशन के साथ होता है तथा इसके माध्यम से अनेक कवियों की शुभ्र पंक्ति उभरती है। इन कवियों में नारायण लाल परमार उत्कृष्ट सृजनात्मक शक्ति से युक्त हैं। छत्तीसगढ़ी कविता के इतिहास में उनका महत्व इसलिए भी है कि उन्होंने छंद में सिद्धहस्त होकर मुक्त छंद के जन्मदाता हो जाते हैं। जहां लखनलाल गुप्त जैसे मुक्त छंद को सायास स्वीकार करते हैं, वहां परमार का मुक्त छंद छंदात्मक लय के सहयोग से निष्पन्न होता है। परमार की मुक्त छंदात्मक उपलब्धियां तब और भी प्रतिष्ठित हो जाती हैं, जब गुप्त की पंक्तियों से उसकी तुलना की जाती है। इस तुलना से हमें ऐसा प्रतिमान प्राप्त होता है, जिससे कवि-अकवि, झूठी और सच्ची, सहज और कृत्रिम कविता की परख हो सकती है। नारायण लाल परमार की कविता का एक अंश इस प्रकार है -
भाई बरोबर
जनम जनम के
करम धरम के
एकेच संगी
खोखमा फूल कस
उज्जर तन हे
मन ओकरो ले
अउ उज्जर हे।
इसी प्रकार गुप्त की प्रस्तुत पंक्तियों का अवलोकन किया जा सकता है -
एके डरडरावन अंजोर
दूरिहा मां चमकत हे
अंधियारी के आंखी
संझा के फर्रस मां सोखे लागिस संझा के दारू।
इन दोनों के तुलनात्मक गुण और अवगुण यहां स्पष्ट हैं। जहां परमार की कविताओं के मुक्त छंद में काव्य की स्वभाविक लय, छत्तीसगढ़ी जनजीवन की मूल उपाएँ और सुलझे प्रतीक सचित है, वहां गुप्त में इनका अभाव है, वस्तुतः परवर्ती कवि की रचनाएं काव्य न होकर विश्रृंखलित गद्य ही है, जिनमें हिंदी की तथाकथित अत्याधुनिक कविता के क्षयग्रस्त उपमानों का सायास संचय किया गया है।
इसी क्रम में दिगंबरनाथ शर्मा की भक्ति-वैराग्य प्रधान रचनाएं, लाला जगदलपुरी के सुंदर वियोगी गीत, रामविलास साहू की उद्बोधनात्मक और प्रेरणादायक कविताएं, शिवशंकर शुक्ल के मानवीय संबंधों के रागात्मक अभिव्यक्तियाँ, विनोद परमार के गीत, मेहतराम साहू के ग्रामीण विवशताओं की अनुभूतियां, रामप्यारे नृसिंह की ढेर सारी रचनाएं, तथा चेतराम साहू की चिंतनपरक रचनाएँ उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त विमल कुमार पाठक, टिकेंद्र टिकरिहा, फूलचंद रायगढ़िया, राजदीप, ललित मोहन श्रीवास्तव, केयूर भूषण, ध्रुवराम वर्मा, दानेश्वर शर्मा, हरि ठाकुर और नरेंद्र वर्मा के गीतों और कविताओं का उल्लेख किया जाना भी आवश्यक है। ध्रुवराम वर्मा छत्तीसगढ़ी कविता में 'दलित' की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं तथा हास्य और व्यंग की कविताओं में उनका सानी नहीं मिलता 'अलकरहा रामाएन' की वंदना में कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
लाम थोथना दांत निपोरे, गनपति जेकर हावय नाम।
तेकर पांव मा मुड़ा मढ़ा के, घोलैंड घोलैंड करौं परनाम।
जेकर सुमिरे पूरन होथे, दुनिया के सब झन के काम।
पेट ला रइबे मगन मोरबर, झन करबे मोला बदनाम।
केयूर भूषण ने छत्तीसगढ़ी में भी कुछ कविताओं की रचना की है, जिनमें उद्घोषणात्मक स्वर प्रमुख रूप से उभरा है, ललित मोहन श्रीवास्तव की रचनाएं छत्तीसगढ़ी में श्रृंगार के एक नये स्वर का संधान करती है जिनमें 'का मोर किसा' का कहिनी', 'कतेक कहेंव मैं ओ मोर राजा' तथा 'भरे कटोरा फूटगे' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हनुमंत राव नायडू 'राजदीप' में श्रेष्ठ सृजनात्मक प्रतिभा है तथा उनके मनोरम गीत अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं। विपुल रूप में छत्तीसगढ़ी में काव्य सृजन करने वालों में विमल कुमार पाठक और टिकेंद्र टिकरिहा के नाम प्रमुख हैं। विमल कुमार पाठक ने मूलतः ग्रामीण परिवेश और मांसल श्रृंगार को अपने गीतों का विषय बनाया है तथा उसमें दैहिक गंध एवं भदेसपन की अभिहिति की है। यद्यपि उन्होंने भी कतिपय प्रचारात्माक कविताएं लिखी हैं, तथापि उनका सर्जनात्मक पक्ष प्रबल है। शब्दों की सूक्ष्म पकड़, ध्वन्यात्मकता तथा भाषा की मूल संस्कार का अभिज्ञान उनकी कविताओं को सहज और लोकप्रिय बना देता है। उनके ' गंवई के गीत' की अनेक रचनाएं ग्रामीण परिवेश का सजीव चित्रण करती हैं -
कर सिंगार जब बरखा रानी, मस्ती मा ओखरे जवानी।
बादर देखय टुकुर टुकुर अउ चुचुवावय लहरा कस पानी।
इन पंक्तियों में प्रकृति में मानवीयता का आरोप, तथा अन्यत्र विशेष श्रृंगारिक दृष्टि से किया गया मानवीकरण विमल कुमार पाठक की रचनाओं को विशेष स्तर प्रदान करता है।
टिकेंद्र टिकरिहा वस्तुतः सामाजिक उत्थान को वाणी देने वाले कवि हैं। जहां अन्य कवियों ने शौकिया छत्तीसगढ़ी में रचनाएं की हैं, वहीं टिकेंद्र अनवरत रूप से साहित्य की सृष्टि कर रहे हैं। शोषित और उत्पीड़ित जनजीवन के प्रति उनकी काव्यांजलियां विशेष प्रभविष्णु है -
सइकमी भर बासी, अउ नून के चटनी,
छेवरिहा दवइ सही, भइया लील लील के।
पछाड़ मारिस पूस के उन्नु आजाड ला,
चिरहा कथरी ला भइया लील लील के।।
हरि ठाकुर मूलतः हिंदी काव्यकार हैं, तथापि वे कुछ छत्तीसगढ़ी रचनाएं करने की प्रवृत्ति हुए हैं। 1997 में उनके छत्तीसगढ़ी पद्यों का संग्रह 'छत्तीसगढ़ी गीत और कविता' के रूप में सामने आया है। इसमें हरि ठाकुर की 15 कविताएं और गीत हैं, जिनमें उन्होंने व्यापक रूप से काव्य-विषयों का चयन किया है। 'बादर', 'सांझ' और 'बादर गीत' प्राकृतिक व्यापार की सहज-सरल अभिव्यंजनाएँ हैं। 'काबर करे हो विलम', 'सुन सुन रसिया', 'मोर फुल बगिया में अधरतिया', 'गोंदा फूल गे मोर राजा' विशिष्ट प्रेमपरक रचनाएँ हैं। इसमें 'सुन सुन रसिया' कवि की श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है। इस गीत की विशेषता यह है कि कवि ने लोकमानस में बैठे प्रतीकों का बड़े कौशल से प्रयोग किया है -
सुन सुन रसिया
तोर आँखी के काजर लगय हैसिया
चंदा ला रोकेंव, सुरुज रोकेंव
रोकेंव कइसे उमर ला
चुरुवा भर-भर पियेंव ससन भर
गुरुतर तोर नजर ला।
दानेश्वर शर्मा ने यद्यपि छत्तीसगढ़ी में अतिशय संख्या में रचना नहीं की है, तथापि उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह अत्यंत लोकप्रिय हुआ है, तथा उन्हें छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय कवियों की अग्रगण्य पंक्ति में बिठाया जाता है। दानेश्वर शर्मा मूलतः गीतकार है तथा उनके गीतों में लोकजीवन के उल्लास और विषाद की बहुमुखी व्यंजना हुई है। 'चल मोर जंवारा मडई देखे जाबो' और 'बेटी के बिदा' उनकी श्रेष्ठ रचनाओं में गिनी जाती है।
नरेंद्रदेव वर्मा ने भी अनेक छत्तीसगढ़ी गीतों की सृष्टि की है। उनका प्रत्येक गीत छत्तीसगढ़ी लोकगीत पर आधारित है तथा स्वर ताल बद्ध है। उनके गीतों में मूलतः जनजीवन की मौलिक आशा-आकांक्षाओं का नियोजन हुआ है। 'खेत ला विसार झन', 'नइ ये अंजोर' 'जांगर मा तोर जिंदगानी' और 'चिटकुल पानी बरसा देबे बादर मोर' में उद्बोधनात्मक भावों के साथ-साथ इस अंचल के ग्रामीणों के प्रकृति से सहज संबंध का भी निरूपण किया गया है। 'डोंघार गीत' में एक नवविवाहिता स्त्री की स्वभाविक आकुलता का चित्रण है। 'ओ तरिया ले उप्पर', 'तोरे रहा देखत-देखत', 'बादर गीत', सुआ गीत', और 'पाना हर झरगे' में बिरहानुभूति का विन्यास हुआ है तथा 'रतिहा पहागे', 'तूही ला में जिनगी के' में समर्पणशील भावनाएं हैं। इसी प्रकार 'रतिया पहागे अउ बेरा ढिलागे' में नववधू के द्वारा अकर्मण्य पति को कर्मरत होने का उद्बोधन निबंध है तथा 'विदा गीत' में विवाहोपरांत अपने श्वसुर गृह जाती हुई वधू के दुःखपूर्ण उद्गार संचित हैं।
इन कवियों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी में कुछ अन्य सुकवि भी हैं, जिनका उल्लेख अनिवार्य है। इनमें जमुना प्रसाद यादव, हेमनाथ यदु, विद्या भूषण मिश्र अखेचंद्र 'क्लांत', पवन दीवान, बसंत दीवान, रविशंकर शुक्ल, सूरज बली शर्मा, भगवती लाल सेन, रघुवीर अग्रवाल 'पथिक', उदय कुमार 'कमल', चतुर्भुज, झाडूराम तिलवार तथा लक्ष्मण मस्तुरिहा के नाम गणनीय है। जमुना प्रसाद यादव ने 'श्याम संदेश', 'अथ परीक्षित कथा' और 'छत्तीसगढ़ी रामायण' की रचनाकी है, इनमें से अंतिम ग्रंथ अभी अप्रकाशित हैं। हेमनाथ यदु ने भी प्रभूत मात्रा में काव्य सृष्टि किया है, किंतु प्रकाशन के अभाव में ये उपेक्षित ही रहे हैं। उनके गीत-संकलनों में 'छत्तीसगढ़ दरसन', 'छत्तीसगढ़ के माटी' और 'किसान के गउ गोहार' प्रमुख हैं। 'किसान के गउ गोहार' में यदु ने ग्रामीण दुःख-दैन्य को प्रकट किया है। विद्या भूषण भूषण मिश्र भी श्रृंगार और ग्रामीण अनुभूति के कवि हैं तथा अखेचंद्र 'क्लांत' का 'भोजली गीत' प्रकाशित हो चुका है। पवन दीवान और वसंत दीवान के संघर्ष के स्वरों में ध्वनित उद्बोधनात्मक कविताएं भी विशेष जनप्रिय हुई हैं।
रामेश्वर वैष्णव ने अनेक गीत लिखे हैं। अरुण कुमार सेन ने अपने गीतों को लोकप्रिय सुगम संगीत में निबद्ध किया है तथा वे श्रोताओं को प्रभावित करने में समर्थ हैं। 'महानदी के पार' में जहां ग्राम्य परिवेश का दृश्य उपस्थित होता है, वही 'महादेव घाट पुत्री मेला' में आंचलिक उल्लास का चित्रण किया गया है। 'तैं मोर जनम-जनम के संगवारी' और 'आगे सावन अउ भादो मोरे राजा, नदिया सही आँखी बोहावै आजा' विशेष प्रेम गीत हैं।
गद्य - छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य
यद्यपि छत्तीसगढ़ी गद्य का प्राचीनतम रूप 'दंतेवाड़ा के शिलालेख' में मिलता है, तथापि उसका विशेष विकास आधुनिक युग में हुआ है। दंतेवाड़ा में जो शिलालेख पाया गया है, वह इस प्रकार है - 'दंतेवाड़ा देवी जयति। देववाती यह प्रशस्ति लिखाए पाथर है महाराज दिकपाल देव के। कलियुग यह संस्कृत के बचवैया थोरही है। ते पांई दूसर पाथर मंह भाषा लिखै है। ते दिकपाल देव बिआह कीनेन्हें ने वरदी के चंदेल राव रतन राजा के कन्या अजब कुमारि विषै अठारहै वर्ष रक्षपाल देव नाम युवराज पुत्र भए। तब हल्ला ते नवरंगपुर गढ़ टोरी फारि सकल बंद करि जगन्नाथ बस्तर पठै के ओड़िया राखा थापेर बाजै। पुनी सकल पुरवासी समेत दंतवाला के कुटुंब यात्रा करें संवत सत्रह साबित 1960 चैर सुदी 14 आरम्भ वैशाख वटि से संपूर्ण भै जगा कतको हजार भैंसा बोकरा मारे तेकर रक्त प्रवाह वह पांच दिन सावित्री नदी लाल कुसुम बने भए ई अर्थ मैथिली भगवान मिश्र राज पंडित भाषा और संस्कृत दोउ पाथर मत तिशाए। अस गजा को दिकपाल देव समाज, कलयुग न हो है आन राजा किन्तु संवत 1703 से लेकर 1890 ईस्वी तक कोई उल्लेखनीय गद्य-कृति सामने नहीं आती। वस्तुतः छत्तीसगढ़ी गद्य का सक्रिय इतिहास हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा लिखित छत्तीसगढ़ी के व्याकरण से प्रारंभ होता है जिसे सन 1890 ईस्वी में जार्ज ए. ग्रियर्सन ने संपादित एवं अनुदित करके कलकत्ता के बैप्टिस्ट मिशन, प्रेष से छपवाया काव्योपाध्याय के इस ग्रंथ ने छत्तीसगढ़ी गद्य के इतिहास का सूत्रपात नहीं किया, प्रत्युत छत्तीसगढ़ी कथा का भी पौरोहित्य किया, तथा छत्तीसगढ़ी नाटक के आरंभ सूत्र भी उक्त पुस्तक के संवादों में छिपे हुए हैं। छत्तीसगढ़ी गद्य आज कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, जीवन, पत्रकारिता संस्मरण के रूप में उभर कर सामने आ रहा है।
कहानी
छत्तीसगढ़ी में हीरालाल काव्योपाध्याय ने ही सर्वप्रथम कथा-लेखन का श्रीगणेश किया था। उनके व्याकरण-ग्रंथ में छत्तीसगढ़ी में 'श्री राम की कथा', 'ढोला की कहानी' और 'चंदैनी की कहानी' निबद्ध है। 'श्री राम कथा' में छत्तीसगढ़ में प्रचलित रामकथा के स्वरूप को कथात्मक रीति से प्रस्तुत किया गया है 'ढोला की कहानी' में ढोला और मारू की कहानी को नए कौशल और साहित्यिक सौंदर्य के साथ रखा गया है, तथा 'चंदैनी' की कहानी में लोरिक और चंदैनी की कहानी प्रस्तुत की गई है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि काव्योपाध्याय के इन लोक प्रचलित गाथाओं का स्वतंत्र प्रस्तुतीकरण किया है तथा इसमें उनकी साहित्यिक-प्रतिभा स्थान-स्थान पर उभर पड़ी है। किंतु हीरालाल लालू काव्योपाध्याय के लगभग साडे तीन दशकों के उपरांत तक कोई उल्लेखनीय कथा सृष्टि देखने में नहीं आती बहुत बाद बंशीधर शर्मा की 'हीरू की कहानी' का प्रकाशन हुआ। यद्यपि इसे छत्तीसगढ़ी कृति कहा गया है पर यह याद रखना चाहिए कि कहानी की भाषा परिनिष्ठित छत्तीसगढ़ी नहीं है तथा यह आंचलिक बोली सदरी कोरबा में लिखी गई है। इसके उपरांत 'विकास' पत्रिका में सीताराम मिश्र द्वारा लिखित लोककथा 'सुरही गाय के कहिनी' प्रकाशित हुई थी पर इसमें वह साहित्यिक अंतर्दृष्टि विध्यमान नहीं है, जो हम काव्योपाध्याय की कहानियों में पाते हैं। फलतः काव्योपाध्याय के पश्चात 65 वर्षों तक हमें छत्तीसगढ़ी कहानी के उल्लेखनीय रूप नहीं मिलते।
सन 1955 ईस्वी छत्तीसगढ़ी में नियतकालिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ी' मासिक का प्रकाशन युक्तिदूत के संपादकत्त्व में प्रारंभ हुआ था तथा सन 1962 में 'विचार और समाचार' के दो छत्तीसगढ़ी विशेषांक भी छपे। इनके मध्य माध्यम से छत्तीसगढ़ी कथाकारों की एक नई पंक्ति उभरी। इसमें शंकरलाल शुक्ल, ध्रुवराम वर्मा, केयूर भूषण, नारायणलाल परमार, शिव शंकर शुक्ल, विनोद परमार, पालेश्वर प्रसाद शर्मा, हेमनाथ यदु और नरेंद्र देव वर्मा का नाम लिया जाता है। शंकरलाल शुक्ल ने 'मनखे ला कतेक भूमिया चाही' नामक कहानी में लियो टॉलस्टॉय की एक कहानी 'हाउ मच लैंड डच ए मैन रिक्वायर' का भावानुवाद प्रस्तुत किया है। छत्तीसगढ़ी में हास्य और व्यंग प्रधान कहानीकारों में ध्रुवराम वर्मा और रंजन लाल पाठक की कहानियां विशेष रूप से सफल हुई हैं। ध्रुवराम वर्मा ने अपनी कहानी में ठेठ छत्तीसगढ़ी का प्रयोग किया है तथा उनकी कहानियों के संवाद स्वाभाविक हैं। इस दृष्टि से 'हाय रे मोर मुसर, तैं नहीं दूसर', 'तीन साला तरिया', 'छेरी चरवाहा' 'आव बादल बरस पानी' , 'हाय रे मोर धमना' और 'संगवारी' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन कहानियों में बड़ी सच्चाई से ग्रामीण अनुभूतियों का आकलन किया गया है। रंजनलाल पाठक की भी अनेक कहानियां प्रकाशित हुए हैं जिनमें 'खुरबेटा' और 'लेड़गा मंडल' प्रमुख है। केयूर भूषण मूलतः मानवीय संबंधों की जटिलता को चित्रित करते हैं तथा उनकी सहानुभूति की धारा सामाजिक दृष्टि से तिरस्कृत पात्रों की ओर विशेष रूप से अनुभावित होती है। केयूर भूषण क्षतिग्रस्त नैतिकता पर बखूबी प्रहार करते हुए उदार मानवीय दृष्टिकोण सी अवतारणा कहते हैं। इस दृष्टि से उनकी 'बताना एमा काखर दोष' महत्वपूर्ण कथा है। केयूर भूषण के अनेक कथा संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। नारायणलाल परमार ने अपनी कहानियों में चारित्रिक विशेषताओं के उद्घाटन में विशेष रूचि ली है। 'मितान' और 'सुन्ना मंदिर' में उनका यह दृष्टिकोण पूरी तरह से उभरा है। शिवशंकर शुक्ल की कहानियों के कई संग्रह निकल चुके हैं। 'डोकरी के कहिनी' में पांच शिशु-कन्याएं कलेवर में प्रस्तुत हैं। 'रषिया' में आधुनिक भाव बोध से युक्त पांच कहानियां संकलित है, जिनमें यथार्थ जीवन-स्थितियों का नियोजन किया गया है। इन कहानियों को देखकर हम छत्तीसगढ़ी कहानी के बदलते हुए आयाम की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इनमें न तो गौर-कथाओं की सी अलौकिकता है और न ग्रामीण अंधविश्वास ही लखन लाल गुप्त की भी कुछ कहानियां 'सरग ले डोला आइस' में संकलित है। पालेश्वर प्रसाद शर्मा की कहानियों का संकलन 'सुसक झन कुररी सुरता ले' प्रकाशित हुआ है। इन कहानियों के द्वारा नए रस की सृष्टि का प्रयास किया गया है। वहां लेखक शब्दों की विशिष्ट ध्वन्यात्मक ता का प्रयोग अपनी उद्भावनाओं के उद्दीपन के लिए करता है। शर्मा अतीत रस के पारखी के कथाकार हैं तथा उन्हें किंवदंतियों को कथा का स्वरूप प्रदान करने में बड़ी सफलता मिली है। इसी संदर्भ में नरेंद्र देव वर्मा के कुछ छत्तीसगढ़ी कहानियों को भी उद्धृत किया जाता है इनकी कथाएं आकाशवाणी से प्रकाशित हो चुकी हैं। इन कथाओं में लेखक ने मनोवैज्ञानिक आसंगों का प्रयोग करते हुए विभिन्न पीढ़ियों के मध्य काल गत साहचर्य की स्थापना की है। पृथक-पृथक प्रसंगों पर आधारित ये कथाएं मूलतः एक ही अंतर धारा से समन्वित हैं तथा वह अंतर धारा है आधुनिक और पिछली पीढ़ी के तलस्पर्शी द्वैत को पूरने वाली, जिसका प्रतीक है 'पुरखिन दाई' के रूप में सामने आता है। इस दृष्टि से 'भोरहा', 'पुरखिन दाई के गोठ' 'लोखन के नेवरा' और 'तच्छक के कहिनी' विशेष रूप से गणनीय है।
प्रायः इनमें से प्रत्येक कथा में आधुनिक जीवन स्थितियों को प्राचीन दशाओं के निरूपण के माध्यम से संकेतिक किया गया है तथा इनमें लोकगीतात्मक सहायता की अभिहिति हुई है। हेमनाथ यदु एक ऐसे कहानीकार हैं, जिन्होंने लोककथाओं को गद्य का रूप प्रदान किया है, 'चंदैनी', लोरिक और चंदैनी की प्रेमकथा के आधार पर लिखी गई लम्बी प्रणयकथा है। इसके अतितिक्त उन्होंने 'गंवार के गोठ और सुजान के बोल' नामक लोककथाओं का संकलन भी तैयार किया है।
छत्तीसगढ़ी कहानी लेखक का दुसरा दौर 1980 के दशक से प्रारम्भ होकर अब तक चल रहा है। इस बीच त्रैमासिक छत्तीसगढ़ी पत्रिका 'लोकाक्षर' का प्रकाशन देशबंधु का छत्तीसगढ़ी अंक "मड़ई" निकलना भी प्रारम्भ हो गया और छत्तीसगढ़ी कथाकारों को रचना प्रकाशन का अच्छा माध्यम मिला गया। आठ, नौ, के दशक में तथा अब इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में अनेक नए लेखकों ने लेखन के क्षेत्र में मजबूत आधार बनाया। छत्तीसगढ़ का बाहरी लोगों द्वारा शोषण, पलायन, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ, तीज त्यौहार और परम्पराओं के साथ उसे छत्तीसगढ़ के माध्यम से इतर छत्तीसगढ़ तक जोड़ने का प्रयास भावसिंह हिरवानी, परदेशीराम वर्मा, उर्मिला शुक्ल, मंगत रवींद्र, सुदामा प्रसाद गुप्त, रामलाल निषाद, सुधील भोले, बिहारीलाल साहू, गया प्रसाद साहू की कहानियाँ करती हैं। इनकी कहानियों में समय की चेतना उभरती, उमड़ती मुखर हो रही है।
ग्रामीण जागरण और समाजिक प्रतिब्धता से जुडी कुछ कहानियाँ चुनौती देती एवं चुनौती स्वीकारती सामाजिक चेतना का साकारात्मक पक्ष प्रस्तुत करती हैं। आठवें, नवें दशक की ऐसी रोचक कथाएँ डॉ. सत्यभामा आडिल के 'गोठ' एवं 'तप्तकुरू' कृति में संकलित हैं। 'सउत कथा' छत्तीसगढ़ के सामाजिक जीवन की परत दर परत अनोखी कथा श्रृंखला का संकलन है, जो हमें बांधे रखती है। परमानंद वर्मा की रचनाएँ भी सामाजिक सरोकार की कहानियाँ हैं। 'पुतरी-पुतरा के बिहाव' की रचनाएँ हमें झकझोरती हैं। केयूर भूषण जी की सामाजिक पीड़ा की कथाएँ "डोंगराही रद्दा" और "कालू भगत" में संकलित हैं।
उपन्यास
छत्तीसग़ढी उपन्यास की रचना पर्याप्त विलम्ब से आरम्भ हुई। अब तक छत्तीसगढ़ी में तीन-चार उपन्यास ही उल्लेखनीय रूप से सामने आए हैं। शिवशंकर शुक्ल ने छत्तीसगढ़ी के प्रथम उपन्यास 'दियना के अंजोर' की रचना की है तथा दूसरा उपन्यास 'मोंगरा' भी उन्हीं का है। 'दियना के अंजोर' का प्रकाशन जनवरी, 1965 ई. में हुआ था यद्धपि 'मोंगरा' भी उस समय तक लिखी जा चुकी थी, पर उसका प्रकाशन कुछ महीनों बाद हुआ। इन दोनों उपन्यासों में लेखक बड़ी भावुक निष्पत्तियाँ करता है। लखनलाल गुप्त की कथाकृति 'चंदा अमरित बरसाइस' भी उपन्यास के रूप में प्रचलित है। केयूर भूषण के उपन्यास भी प्रकाशित हो गए हैं। "कुल के मरजाद" उपन्यास पठनीय है। सामाजिक जागरूकता की चैतन्य कथा है।
नाटक
यह कहा जा चुका है कि छत्तीसग़ढी नाटक के आरम्भ सूत्र काव्योपाध्याय के ग्रंथ के बाइसवें अध्याय में संकलित ग्रामीण वार्तालाप में निबद्ध है। तथापि, सचेत नाटक सृष्टि के क्षेत्र में खूबचंद बघेल का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने 'ऊंच और नीच' , 'करमछड़हा', 'अनरैल सिंह', 'बेटवा बिहाव' और 'किसान के करलई' नामक नाटकों की सृष्टि की है, तथा वे छत्तीसगढ़ी के प्रथम नाटककार हैं। उनके नाटकों में छत्तीसगढ़ी का प्रकृत प्रवाहित रूप अवतरित हुआ है तथा उनके संवाद अधिक सहज और मर्मस्पर्शी हैं। ये नाटक लम्बे हैं तथा इनमें पाँच से अधिक अंकों का विन्यास हुआ है। इनके अतिरिक्त इन्हीं दार्शनिक एकांकियों की भी रचना की है। इस दृष्टि से टिकेंद्र टिकरिहा के नाटक भी उल्लेखनीय हैं।
नाटिकाओं और एकांकियों के क्षेत्र में भी अनेक रचनाएं हुई हैं। इस संदर्भ में लोचन प्रसाद पाण्डेय की 'कलिकाल' नाटिका का उल्लेख किया जाता है। यह नाटिका परिनिष्ठित छत्तीसगढ़ी में नहीं लिखी गई है तथा इसकी भाषा सदरी कोरवा है, जो छत्तीसगढ़ी का ही एक उपबोलोगत भेद है। इसी क्रम में रामकृष्ण लाल अग्रवाल की 'गंवई बर अंजोर' नाटिका भी उल्लेखनीय है, जिसमें ग्राम सुधार के कार्यक्रम के सोपानों का वर्णन करते हुए यह प्रतिपादित है किया गया है कि ग्रामीण समाज का उत्थान तभी हो सकता है, जब समाज के सदस्य स्वयं ऊपर उठने का प्रयास करें। इसके अतिरिक्त डॉक्टर रामलाल कश्यप की नाटिका 'कृष्णार्जुन युद्ध' का नाम भी लिया जाता है। कई दशकों के बाद अन्य नाटिका 'रतनपुर' भी प्रकाशित हुई हैं। डॉक्टर कश्यप इतिहास में झांकने का सार्थक प्रयास करते हैं।
नाटक और नाटिकाओं की अपेक्षा एकांकियों की रचना कुछ अधिक संख्या में हुई है। शुकलाल प्रसाद पांडेय की 'केकरा धरैया', 'उपसहा दमाद बाबू' और 'सीख देवैया' अच्छे प्रहसन हैं। किंतु पांडेय के उपरांत एकांकियों की यह परंपरा कुछ समय के लिए लुप्त हो जाती है तथा 'छत्तीसगढ़ी' के प्रकाशन से पुनः इसका उत्थान होता है। इस नवे एकांकीकारों में 'रतिहा मदरसी के लेखक भूषण लाल मिश्र, 'अंधेर जमाना' के फकीर दास साहू, 'पंच परमेश्वर' के धनंजय 'मतवार' और 'भूल सुधार' के नारायण लाल परमार, 'राजा-बेटा' के मेहतरराम साहू, और 'दू पइसा का हाथी' के लेखक चैतराम व्यास विशेष रूप से गणनीय हैं। टिकेंद्र टिकरिहा ने भी दशाधिक एकांकियों की सृष्टि की है। लखनलाल गुप्त की कुछ एकांकियां भी 'सरग ले डोला आइस' में संग्रहित है। इधर एकांकी लेखन की प्रवृत्ति बढ़ी अवश्य परिनिष्ठित भाषा का अभाव है।
जीवनी और निबंध
छत्तीसगढ़ी साहित्य की इन विधाओं का प्रारंभ अत्यधिक आधुनिक है। छत्तीसगढ़ी में जीवनी विषयक साहित्य अधिक नहीं है। 'छत्तीसगढ़ी' मासिक में सुंदरलाल शर्मा, हीरालाल काव्योपाध्याय, सुकलाल प्रसाद पांडेय, खंडेराव तथा गोविंदराव विट्ठल के संबंध में कतिपय परिचयात्मक लेख छपे हैं। तथापि छत्तीसगढ़ी में विस्तृत जीवनी अब तक प्रकाशित नहीं हो पाई है। इसी पत्रिका में छत्तीसगढ़ की जातियां जातियों के विशिष्ट रीति-रिवाज तथा महत्वपूर्ण पर्वों, नृत्यों एवं लोक परंपराओं का कुछ निबंध भी प्रकाशित हुए हैं।
संप्रति छत्तीसगढ़ी संस्कृति, पर रीतिरिवाज से संबंधित अनेकों लेख वर निबंध प्रकाशित हो रहे हैं। 1 नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृति को विशेष बढ़ावा मिल रहा है। एवं गद्य की सभी विधाओं पर धड़ल्ले से पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं।
अनुवाद
छत्तीसगढ़ी में अनुवाद की परंपरा की शुरुआत मुकुटधर पांडे से हुई। उन्होंने 'मेघदूत' का परिनिष्ठित छत्तीसगढ़ी में अनुवाद (संस्कृत से छत्तीसगढ़ी) किया। मेघदूत काव्य को पदों में नियोजित कर छत्तीसगढ़ी भाषा को गौरव प्रदान किया।
परिनिष्ठित छत्तीसगढ़ी में दूसरा महत्वपूर्ण अनुवाद, कालिदास के 'ऋतुसंहार' काव्य (संस्कृत) का रसिक बिहारी अवधिया के द्वारा मुक्तक छंद में किया गया। शुद्ध छत्तीसगढ़ी के लालित्य पूर्ण शब्दों एवं वाक्यांशों का प्रयोग करते हुए, 'ऋतुसंहार' काव्य प्रकृति, ऋतु परिवर्तन, सौंदर्य और प्रेम की अद्भुत छटा बिखेरते हुए सहृदय पाठक के मन को बांध लेता है। रसिक बिहारी 'पंचतंत्र' की कहानियों का भी अनुवाद कर रहे हैं। अब तक 50 कहानियों का अनुवाद कर चुके हैं जो 'छत्तीसगढ़ी सेवक' पत्र में प्रकाशित हो रहा है। डॉक्टर सत्यभामा आडिल द्वारा रविंद्र नाथ टैगोर की कविताओं का छत्तीसगढ़ी अनुवाद कार्य जारी है। अनुवाद कठिन रचना धर्म है जिसमें भाषा को भावों का अनुगत होना पड़ता है। अन्य प्रांतीय भाषाओं का भी छत्तीसगढ़ी में छुटपुट अनुवाद का प्रयास किया जा रहा है। भविष्य में अनुवाद साहित्य भी समृद्ध होगा, जो भारत की भाषाओं को समीप लाएगा और भारत की सांस्कृतिक एकता को पुष्ट करने में सहायक होगा।
लघु कथा
डॉ राजेंद्र सोनी का लघुकथा संग्रह 'खोर बहारा टोला गांधी बनाबो' बहुत रोचक पुस्तक है छत्तीसगढ़ी में लघु कथा लेखन की भी शुरुआत हो गई है। डॉक्टर राजेंद्र सोनी ने छत्तीसगढ़ी भाषा में इस विधा को प्रारंभ किया। यह विधा तेजी से लोकप्रिय हो रही है। लघु कथा के क्षेत्र में नए-नए लेखक सामने आ रहे हैं। सुधा वर्मा भी 'लघुकथा' विधा पर लेखनी चला रही हैं।
हाइकु व व्यंग्य
छत्तीसगढ़ी 'हाइकु' का प्रवर्तन डॉ राजेंद्र सोनी ने किया। यह हास्य-व्यंग्य भरपूर तत्कालीन सामाजिक व राजनीतिक विसंगति पर जबर्दस्त प्रहार करने वाली विधा है। 'हाइकु' पद्य में लिखा जाता है। गद्य में व्यंग्यात्मक लेख बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं। लक्ष्मण मस्तूरिया जैसे भाव प्रवण गीतकार ने भी व्यंग्य लेख लिखा है। परमानंद वर्मा और दुर्गा प्रसाद पारकर व्यंग के द्वारा समाजिक विसंगति को उभारते हैं।
संस्मरण
छत्तीसगढ़ी में संस्मरणात्मक लेखों के लिए दुर्गाप्रसाद पारकर पारंगत लेखकों के रूप में जाने जाएंगे। चिन्हारी - 1, 2, 3 के माध्यम से उन्होंने दुर्ग जिले के गांवों के महत्वपूर्ण व्यक्तियों का जिस प्रकार जीवन यथार्थ का चित्रण किया है - वह एक दस्तावेज है। संस्मरण विधा हृदय के मर्म को छूने वाली विधा है। भविष्य में और भी रचना सामने आएंगे - ऐसी आशा है।
पत्र पत्रिकाएं
बहुत पहले पंडित सुंदरलाल शर्मा जेल से 'दुलरुआ' पत्रिका निकालते थे। आज छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास के लिए छत्तीसगढ़ी भाषा प्रेमी साहित्यकार व बुद्धिजीवी प्रतिबद्ध हो रहे हैं। श्री नंदकिशोर तिवारी के संपादक में बिलासपुर से प्रकाशित होने वाली 'लोकाक्षर' त्रैमासिक पत्रिका में सभी विधाओं की रचनाएं प्रकाशित हो रही हैं। भाषा के विकास और इतिहास पर भी लेख प्रकाशित हो रहे हैं। देश का हिंदी पत्र का सप्ताहिक छत्तीसगढ़ी अंक 'मडई' अत्यधिक लोकप्रिय हुआ है। परमानंद वर्मा जैसे सुधी लेखक ने इसका संपादन किया। जनवरी 2003 से श्री मति सुधा वर्मा 'मडई' का संपादन कर रही हैं। 'मडई' में गीत, व्यंग, शब्दकोश, कहानी, लोक संस्कृति, धारावाहिक उपन्यास, साक्षात्कार, जीवनी, संस्मरण, अनुवाद एवं विधाएं प्रकाशित हो रही हैं।
'काहे री नलिनी तू कुम्हलानी' एक अनियतकालीन छत्तीसगढ़ी पत्रिका जिसका संपादन परदेशीराम वर्मा कर रहे हैं।
'छत्तीसगढ़ी सेवक' पत्र कई दशकों को पार करता हुआ छत्तीसगढ़ी भाषा मानो मुखपत्र है। नागेश्वर प्रसाद के संघर्ष, समर्पण और सृजनशीलता का परिचायक यह 'छत्तीसगढ़ी सेवक' पत्र, 'गुड़ी के गोठ', पंचतंत्र की अनुवादित कथाएं, संस्मरण लेखक और ग्रामीण अंचल की समस्याओं का बेकाबू बेबाक रखने के प्रयास के लिए सदा ही किया जाएगा। छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के विकास की दिशा दिखाने वाली यहां पत्र अभावों में भी मुखर है।
समृद्धि सर्जना की कोख में भविष्य में छत्तीसगढ़ी साहित्य का अमृत कलश निकलेगा।
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