हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएँ - वैदिक तथा लौकिक संस्कृत और उनकी विशेषताएँ।
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा
भाषा विज्ञान के आचार्यों ने संसार की भाषाओं में एकता ढूंढ कर उनका परिवारिक वर्गीकरण किया है। इसके परिणाम स्वरूप परस्पर संबंध रखने वाली भाषाओं को एक परिवार के अंतर्गत रखा गया है।
इस संसार में मुख्यता कुल लगभग 12-13 भाषा परिवार हैं- द्रविड़, चीनी, सेमेटिक,हेमेटिक, आग्नेय, यूराल-अल्टाइक, बाँटु, अमरीकी (रेड इंडियन), काकेशस, सुडानी, बुशमैन, जापानी-कोरियाई तथा भारोपीय।
हिंदी का संबंध भारोपीय परिवार से है। यह परिवार मुख्यतः भारत तथा यूरोप और उसके आसपास फैला हुआ है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, ईरान, अमेरिका का कुछ भाग तथा आस्ट्रेलिया में भी भारोपीय परिवार की भाषाएं बोली जाती हैं।
भारोपीय (भारत और यूरोपीय) परिवार संसार का सबसे बड़ा भाषा परिवार है। भूमंडल की लगभग लगभग 350 करोड़ जनसंख्या में इस परिवार की भाषाएं बोलने वालों की संख्या 150 करोड़ है।
इसकी प्रमुख भाषाएं संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, अवेस्ता, अंग्रेजी, जर्मन, रूसी, फ्रांसीसी, हिंदी, मराठी, बंगाली आदि है।
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मुख्यतः आर्य भाषा के दो वर्ग हैं - (1) यूरोपीय आर्यभाषाएं और (2) भारत-ईरानी आर्य भाषाएं।
भारत-ईरानी वर्ग की तीन शाखाएं बताई जाती हैं- (1) ईरानी(ईरान और अफगानिस्तान के भाषाएं), (2) दरद (कश्मीर और पामीर के पूर्व-दक्षिण की भाषाएं) और
(3) भारतीय आर्य भाषाएँ। धर्म, समाज, साहित्य कला और संस्कृति की दृष्टि से भारतीय आर्य भाषा बहुत महत्वपूर्ण है। संसार का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद इसी भाषा में है।
भारतीय आर्य भाषा
भारत में आर्यों के आने के बाद से भारतीय आर्य भाषा का विकास इतिहास शुरू होता है। आर्य लोग अपने देश में कहां से और कब आए, इस पर इतिहासकार एकमत नहीं है। कई विद्वान यह मानते हैं कि आर्य मध्य एशिया के निवासी थे। वे वहां से पश्चिम की ओर जाकर यूरोप में बसे और कुछ दक्षिण की ओर से ईरान और अफगानिस्तान में फैल गए। कुछ विद्वान इस मत के हैं कि वे रूस के दक्षिण-पूर्वी मैदानी भाग में रहते थे और वहीं से दक्षिण और पश्चिम की ओर फैले। अब भारतीय इतिहासकार एवं विद्वान यह सिद्ध कर रहे हैं कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए, वे हिन्दूकुश के आस-पास रहते थे। उस समय ईरान, अफगानिस्तान और भारत कोई अलग देश नहीं थे, यहीं से वे पश्चिम की ओर गए और भारत में फैले। ऋग्वेद में इसी प्रदेश का वर्णन 'सप्त सैंधव' नाम से किया गया है। जो भी हो, 3000 ई. पूर्व के लगभग आर्यों के दल उत्तर पश्चिमी सीमा से हिंदूकुश पार कर भारत में फैलने लगे। उस समय पश्चिम में 'सिंधु घाटी' में द्रविणों की सभ्यता फल-फूल रही थी। अन्य स्थानों में कोल, किरात, मुंड, शवर, यक्ष, नाग और निषाद जातियों के लोग रहते थे, जिन्हें अनार्य कहा गया।
सर्वप्रथम उत्तर-पश्चिम सीमा प्रदेश और पंजाब में आर्यों की बस्तियाँ बसी। उन्होंने पंजाब की सात नदियों- सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, व्यास, सतलज और सरस्वती के प्रदेश को 'सप्तसिंधु' नाम दिया। आर्यों के विभिन्न दलों ने इस प्रदेश में अपने राज्य स्थापित किए। इसके पश्चात वे गंगा-यमुना की उपजाऊ भूमि में बस गए और धीरे-धीरे समस्त उत्तरी भारत में फैल गए। उनकी प्रभुता हिमालय से लेकर विद्यांचल तक के प्रदेश में स्थापित हो गई इस प्रदेश को उन्होंने 'आर्यावर्त' का नाम दिया। इस काल में ऋग्वेद के बाद से शेष तीन वेदों यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद तथा ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों की रचना हुई।
आर्यों के आने के पूर्व भारत में प्रमुख चार जातियां रहती थीं, जिनमें नेग्रिटो, आस्ट्रिक, किरात, द्रविड़ हैं। नेग्रिटो, भारत की प्राचीनतम जाती है जो मूलतः अफ्रीका के निवासी थे और ये दक्षिणी-अरब, ईरान होते हुए भारत आए थे। दक्षिण भारत की तमिल भाषी पनियर, कदिर, कुरुम्बा, इरुला आदि छोटी-मोटी जातियों के रूप में इनके अवशेष हैं। इनकी भाषा का कोई विशेष प्रभाव आर्य भाषाओं पर नहीं पड़ा है। बंगाल में बादुड़ (बाद), बिहारी में ,चमदड़िया (चमगादड़) आदि कुछ शब्द नेग्रिटो जाति के हैं।
नेग्रिटो जाति के बाद ऑस्ट्रिक आए। यह भू-मध्य सागर से ईराक, ईरान होते हुए भारत और भारत में आए थे। भारत की कोल, मुंडा, खासी, निकोबारी आदि भाषाएं इन्हीं के हैं। कार्पास, कदली, बाण, तांबूल, पिनाक, गंगा, लिंग, कंबल आदि अनेक शब्द आस्ट्रिक भाषा के हैं।
आस्ट्रिक लोगों के बाद किरात भारत में आए। ये आदि मंगोल थे। चीनी सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माता यही थे। इनकी एक शाखा भारत में पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, आसाम, बंगाल एवं उड़ीसा में फैल गई। यजुर्वेद में इनका उल्लेख मिलता है। खोखा (मछली का जाल), फेटा आदि शब्द इन्हीं के हैं।
भारत में आने वाली चौथी जाति द्रविणों की थी। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, इनका मूल स्थान अफ्रीका है। वहां से यह लोग ईरान, अफगानिस्तान होते हुए भारत में फैल गए। आज तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम आदि। इनके वृहद भाषा-क्षेत्र के अवशेष हैं। भाषा के चित्र में आर्य भाषाओं पर द्रविड़ प्रभाव पर्याप्त है। ध्वनियों में ट वर्ग द्रविड़ भाषा से ही आर्यभाषाओं में आया है। अणु, कला, गण, नाना, पुष्प, बीज, रात्रि, सायं, तंडुल, मर्कट, शव, झगड़ा, सीप, खूंटा आदि शब्द द्रविड़ भाषा से भारतीय आर्य भाषाओं में आए हैं।
काल विभाजन
भारत में आर्य भाषा का प्रारंभ 500 ईसा पूर्व के आसपास से माना जाता है। तब से आज तक भारतीय आर्य भाषा की आयु साढ़े तीन हजार वर्षों की हो चुकी है। भाषिक विशेषताओं के आधार पर भारतीय आर्य भाषा की इस लंबी आयु को तीन कालों में बांटा गया है-
- प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं (प्रा.भा.आ.)- 1500 ई. पू. से 500 ई. पू. तक। (वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत)।
- मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं (म.भा.आ.)- 500 ई. पू. से 1000 ई. तक। (पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट)
- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं (आ.भा.आ.)- 1000 ई. से वर्तमान समय तक। (बंगाल, उड़िया, असमी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी आदि।)
प्रथम प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं में वैदिक संस्कृत का समय डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, 1500 ई. पूर्व से 800 वर्ष पूर्व तक है और लौकिक संस्कृत की कालावधी 800 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व है।
द्वितीय मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं में पाली 500 ईसा पूर्व से 1 ई. तक, प्राकृत 1 ई. से 500 ई. तक एवं अपभ्रंश तथा अवहट्ट की कालावधी 500 ईसवी से 1000 ई. तक हैं।
आधुनिक काल की भाषाएं अनेक हैं, हिंदी में उनमें एक है जो जब भारतीय भाषाओं की बड़ी बहन हैं और सबसे अधिक जनसमूह द्वारा बोली समझी जाती है। हिंदी को तीन कालक्रमिक स्थितियां हैं - प्राचीन हिंदी (1000 ई. से 1400 ई.), मध्यकालीन हिंदी (1400 ई. से 1850 ईसवी) और आधुनिक हिंदी (1850 से अब तक)।
(क) प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के दो रूप हैं- (1) वैदिक संस्कृत और (2) लौकिक संस्कृत या संस्कृत भाषा।
1. वैदिक संस्कृत
वैदिक संस्कृत को वैदिक भाषा, छान्दस या प्राचीन संस्कृत भी कहा जाता है। वैदिक संहिताएं ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक तथा प्राचीन उपनिषद इसी भाषा में लिखे हुए हैं। यों सभी में भाषा का कोई एक सुनिश्चित रूप नहीं है। इसका प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है। पाश्चात्य भाषा शास्त्रियों ने भषिक तुलना के आधार पर ऋग्वेद के 2 से 9 मंडलों को अधिक प्राचीन तथा 1 से 10 मंडलों को अपेक्षाकृत परवर्ती माना है। अन्य वेदों का समय इसके बाद का माना है।
ऋग्वेद छंदोबद्ध है, अतः उसे छन्दस कहा जाता है। यजुर्वेद और अथर्ववेद में गद्यांश भी हैं, इससे प्राचीन गद्य का स्वरूप ज्ञात होता है। ब्राह्मण ग्रंथ भी गद्य में हैं, इनसे प्रचलित भाषा का स्वरूप ज्ञात होता है।
वैदिक संस्कृत लगभग 700 वर्षों तक जन भाषा थी। यह मुख्य रूप से साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यों के लिए प्रयुक्त होती थी। अतः समस्त प्राचीनतम संस्कृत वांग्मय वैदिक संस्कृत में मिलता है। किंतु भाषा का यह रूप बोलचाल का रूप ना होकर बोलचाल की वैदिक संस्कृत पर आधारित साहित्य रूप है।
वैदिक संस्कृत पर अनार्य जातियों की भाषाओं का भी प्रभाव पड़ा है। यजुर्वेद संहिता की भाषा में अनार्य तत्वों का समीक्षण किया जा सकता है। अथर्ववेद की संस्कृति और भाषा में यह तत्व और भी अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों आरण्यकों और उपनिषदों की भाषा पूरे तौर पर तत्कालीन मध्यदेश की आर्य भाषा है। संभवत: मूल वैदिक भाषा की रक्षा के लिए ही वेदांगों की रचना की गई है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंद ये छः वेदांग हैं। इनमें शिक्षा उच्चारण से, कल्प यज्ञ विधान के सूत्र से, व्याकरण वैदिक भाषा के रूप और प्रयोग से, निरुक्त वैदिक परिभाषिक शब्दों की व्युत्पत्ति से, ज्योतिष समय निर्धारण से और छंद साहित्यशास्त्र से संबंधित है।
वैदिक भाषा की सामान्य विशेषताएं
वैदिक साहित्य में वैदिक भाषा का विकास होता दिखाई पड़ता है, फिर भी कुछ ध्वन्यात्मक एवं व्याकरणिक बातें ऐसी हैं जिनको वैदिक भाषा की सामान्य विशेषताएं माना जा सकता है।
- ध्वनिगत विशेषताएं
- स्वराघात
- व्याकरणिक विशेषताएं
- क्रियागत विशेषताएं
- समासगत विशेषताएं
- शब्दावली
- बोलियां तथा उपभाषाएं
सारांश
1. ध्वनिगत विशेषताएं- वैदिक ध्वनिसमूह में निम्नलिखित ध्वनियाँ है:
स्वर
- मूल स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋृ, लृ, ए, ओ।
- संयुक्त स्वर - ऐ (अइ), औ (अउ)|
व्यंजन
- कवर्ग - क, ख, ग, घ, ङ (कण्ठय)
- चवर्ग - च, छ, ज, झ, ञ (तालव्य)
- टवर्ग - ट, ठ, ड, ळ, ढ, ळह, ण (मूर्धन्य)
- तवर्ग - त, थ, द, ध, न (दन्त्य)
- पवर्ग - प, फ, ब, भ, म (ओष्ठ्य)
- अन्तस्थ - य, र, ल, व
- संघर्षी - श, ष, स, ह, विसर्ग (:) (ऊष्म) जिव्हामूलीय, उपध्मानीय
- अनुनासिक - अनुस्वार (ं) (नासिक्य)
वैदिक भाषा में विसर्ग जिव्हा मूल्य तथा उपध्मानीय, 'ह' की संध्वनियाँ थीं। अ, व, य, आदि कई अन्य धनियों की भी कई संध्वनियाँ थी।
वैदिक भाषा में U ग्वंत ध्वनियाँ थीं, संस्कृत में ग्वंत ध्वनि नहीं है, अनुस्वार है। वैदिक भाषा में हस्व और दीर्घ स्वर के अतिरिक्त प्लुत (तीन मात्रा के) स्वर भी थे।
2. स्वराघात वैदिक - भाषा की एक प्रधान विशेषता है स्वराघात। इसमें तीन प्रकार के स्वराघात हैं, (1) उद्दात्त, (2) अनुदात्त और (3) त्वरित। अनुदात्त स्वर प्रकट करने के लिए अक्षर के नीचे पड़ी रेखा ( _ ) तथा त्वरित के लिए अक्षर के ऊपर खड़ी रेखा ( | ) खींची जाती है। यथा- 'जुहोति' इसमें 'जु' अनुदात्त 'हो' उदात्त एवं 'ति' स्वरित है। वैदिक मंत्रों के उच्चारण में इनका ध्यान रखना अनिवार्य था। स्वराघात के कारण शब्द का अर्थ भी बदल जाता था। जैसे 'इंद्रशत्रु:' का अर्थ है जिसका शत्रु इंद्र है इसमें बहुव्रीहि समास है। किंतु 'इंद्रशत्रु' का अर्थ है इंद्र का शत्रु, इसमें तत्पुरुष समास है। वेंकट माधव ने लिखा है - "जैसे अंधकार में दीपकों की सहायता से चलता हुआ कहीं धोकर नहीं खाता, इसी प्रकार स्वराघात (स्वर) की सहायता से किए गए अर्थ संदेह शून्य या स्फुट होते हैं।" टर्नर के अनुसार, वैदिक संस्कृत में संगीतात्मक और बलात्मक दोनों ही स्वराघात था।
3. व्याकरणिक विशेषताएं - वैदिक भाषा में तीन लिंग थे - पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग।
कारक विभक्तियाँ आठ थीं - कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध, अधिकरण और संबोधन। व्याकरण की जटिलता वैदिक भाषा में बहुत अधिक थी, क्योंकि एक-एक कारक के रूपों में विविधता थी। उदाहरण के लिए - कर्ता द्विवचन में देवा, देवौ और कर्ता बहुवचन में देवा:, देवास:, रूप मिलते हैं। कई शब्द नपुंसक लिंग और पुल्लिंग दोनों रूपों में पाए जाते हैं।
वैदिक भाषा में सर्वनामों की रूपरचना भी अधिक जटिल थी। उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष में तो लिंग भेद नहीं था। यथा - अन्य पुरुष अधिकरण एकवचन में दो रूप हैं - सस्मिन और तस्मिन
4. क्रियागत विशेषताएं- वैदिक भाषा में धातुएं दस गणों में विभक्त थीं। प्रत्येक गुण की धातुओं का रूपांतर या तो परस्मैपद में होता था, जैसे 'गच्छति' या आत्मनेपद में जैसे 'बाधते'| कुछ धातुएं उभयपद थीं। आत्मनेपदी रूपों का प्रयोग केवल अपने लिए होता था तथा परस्मैपद का दूसरों के लिए। क्रिया रूप तीनों वचनों एवं तीनों पुरुषों में होते थे। क्रिया के बारह लकार थे- लट, लिट्, लङ, लुड, लुट, लृट, लोट, विधिलिङ, लृङ, लेट और लेड। ऋग्वेद और अथर्ववेद में लेटलकार का प्रयोग बहुत मिलता है किंतु धीरे-धीरे इसका प्रयोग कम होता गया और अंत में लौकिक संस्कृत में पूर्णत: समाप्त हो गया। वैदिक भाषा में भविष्य के रूप बहुत अच्छे बहुत कम है। उसके स्थान पर प्रायः संभावनार्थ या निस्वार्थ का प्रयोग मिलता है।
5. समास गत विशेषताएं - वैदिक भाषा में समास रचना की परंपरा मूल भारोपीय एवं भारत-ईरानी भाषा से आई है। वैदिक समस्त पद प्रायः दो शब्दों के ही मिलते हैं। इससे अधिक शब्दों के समास अत्यंत विरल हैं। जहां तक समाज के रूपों का प्रश्न है, वैदिक भाषा में केवल तत्पुरुष, कर्मधारय, बहुव्रीहि एवं एवं द्वंद ये चार ही समास मिलते हैं। शेष दो समाज बाद में विकसित हुए हैं।
6. शब्दावली - प्राचीन आर्य भाषा का शब्द भंडार बहुत संपन्न है। सांस्कृतिक शब्दों की तो भरमार है। वेद के कतिपय विशिष्ट शब्द और उनके तत्कालीन अर्थ इस प्रकार हैं-
अच् (निवेदन करना), अछ (की ओर), अभात (पाक्ष से), अवस (नीचे), अहिल्या (रात्रि), आत (अब), आ दिवा (प्रतिदिन), आरे (दूर ), आसात (पास से), इदा (अब), इत्था (ऐसे), इध (यहां), गौतम (चंद्रमा), घृणा (दया), जंतु (बच्चा), जमदग्नि (आंख), तात (ऐसे), धारा (वाणी), नकीम (बिल्कुल नहीं), नकिः (कोई नहीं), नः (हम), पर्वत (मेघ), रायस (धन), विप्र (बुद्धिमान), समिध (आहुति), सधो (साथ साथ) ।
वैदिक भाषा में अनेक आर्येत्तर शब्दों का प्रयोग होने लगा था। जैसे- अणु, अरणि, कपि, काल, गण, नाना, पुष्प, मयूर, तण्डुल, मर्कट आदि शब्द द्रविड़ भाषा में आए हैं तो वार, कंबल, बाण, अंग (स्थानवाची) आदि शब्द ऑस्ट्रिक भाषा से आए हैं।
7. बोलियां तथा उपभाषाएँ - वैदिक काल में प्राचीन आर्य भाषा से कम से कम तीन रूप या तीन बोलियां स्पष्ट रूप से मिलती हैं- (i) पश्चिमोत्तर बोली, (ii) मध्यवर्ती बोली, (iii) पूर्वी बोली।
पश्चिमोत्तरी का क्षेत्र अफगानिस्तान से पंजाब तक था ओर इसमें 'र' ध्वनि की प्रधानता थी। मध्यवर्ती का क्षेत्र पंजाब से मध्य उत्तर प्रदेश तक था और इसमें 'र' और 'ल' का अधिक प्रयोग होता था। तीसरी पूर्वी बोली का क्षेत्र मध्य उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग था और इसमें 'ल' की प्रमुखता थी।
ऋग्वेद में पश्चिमोत्तर ही बोली का प्रतिनिधित्व हुआ है। ऐसी बोली को आदर्श माना गया। उसे उस समय 'उदीच्य' कहते थे।
सारांश
- वैदिक भाषा की पद रचना श्लिष्ट योगात्मक थी।
- धातु रूप में लेट लकार का अधिक प्रयोग होता था। संस्कृत में वह नहीं रहा।
- कृत प्रत्ययों में तुम के अर्थ में असे, अध्यै आदि 16 प्रत्यय थे। संस्कृत में तुम ही शेष रहा।
- वेद में संगीतात्मक स्वर की प्रमुखता थी।
- वैदिक भाषा में हस्व और दीर्घ के साथ प्लुत स्वर का भी प्रयोग होता था।
- वैदिक भाषा में 'लृ' स्वर का प्रयोग होता था।
- संधि नियमों में पर्याप्त शिथिलता थी।
- वैदिक भाषा में मध्य स्वरागम के अनेक उदाहरण मिलते हैं। जैसे- पृथ्वी-पृथिवी, दर्शत-दरशत आदि।
- वैदिक भाषा में 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग मिलता है। जैसे- सलिल के स्थान पर 'सरिर'।
- वैदिक भाषा में उपसर्गों का स्वतंत्र प्रयोग होता था। जैसे 'मानुषान अभि'।
- वैदिक भाषा में स्वराघात का महत्वपूर्ण स्थान था।
- वैदिक भाषा में ड, ढ़ के स्थान पर ळ और ळह ध्वनियाँ प्रयुक्त होती हैं उसी से ड़ और ढ़ का विकास हुआ है।
- वैदिक भाषा में अनुस्वार के स्थान पर हस्व और दीर्घ ग्वूँ-ग्वूँ का प्रयोग किया जाता था। यह नासिक्य के साथ कण्ठ्य भी हैं।
2. लौकिक संस्कृत या संस्कृत
लौकिक संस्कृत को प्रायः संस्कृत ही कहा जाता है। संस्कृत का अर्थ है संस्कार की गई या शिष्ट भाषा। वैदिक काल में तीन बोलियां थी- पश्चिमोत्तरी, मध्यवर्ती और पूर्वी। लौकिक संस्कृत या संस्कृत भाषा पश्चिमोत्तर ही बोली का विकसित रूप है। इस पर मध्यवर्ती और पूर्वी बोली का भी कुछ प्रभाव पड़ा है।
संस्कृत नाम पाणिनि के बाद पड़ा। पाणिनि ने इसे 'भाषा' कहा है जिससे स्पष्ट होता है कि यह बोलचाल की भाषा थी। साहित्य में भी इसी भाषा का प्रयोग किया जाता था। हार्नले, बेवर तथा ग्रियर्सन आदि पश्चिमी विद्वानों ने संस्कृत को क्लैसिकल संस्कृत नाम देकर उसे केवल साहित्यिक भाषा माना है, जो निराधार है। यास्क, कात्यायन, पतंजलि आदि ने भी इसे लोक व्यवहार की भाषा माना है।
बोलचाल की भाषा होने के कारण संस्कृत भाषा में न तो स्थिरता थी और न एकरूपता। इसलिए पाणिनी से पूर्व कुछ विद्वानों ने संस्कृत में एकरूपता और स्थिरता लाने का प्रयास किया, परंतु वास्तविक वैज्ञानिक कार्य पाणिनी ने किया, जिनके व्याकरणिक नियमों का पालन आज तक होता है। इस प्रकार उस भाषा का परिष्कार-संस्कार होने से ही इसका नाम संस्कृत पड़ा।
संस्कृत का सबसे प्राचीन एवं आदि काव्य वाल्मीकि रामायण 500 ई. पूर्व का है। महाभारत, पुराण, काव्य, नाटक आदि ग्रंथ 500 ई. पूर्व से आज तक अविच्छिन्न रूप से अपना गौरव स्थापित किए हुए हैं। विद्वानों ने लौकिक संस्कृत काल पांचवी शती ईसवी तक माना है, परंतु इसकी परंपरा तब भी समाप्त नहीं हो गई। संस्कृत की वास्तविक उन्नति मौर्यकाल के अंत से आरंभ करके 9 वीं से 10 वीं शताब्दी तक लगातार होती रही है। जितना उपयोगी धार्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, लौकिक एवं ललित साहित्य इस भाषा में लिखा गया है, उतना कई शताब्दियों आगे-पीछे संसार की किसी भाषा में नहीं लिखा गया। वह सारा वांग्मय शाश्वत है, अमर है। संस्कृत सारे देश की समन्वय शक्ति बनकर उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सर्वत्र छा गई। आज की सभी भारतीय भाषाओं की शब्द-सम्पत्ति इसी स्रोत से संपन्न होती है। विशेषत: ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में।
लौकिक संस्कृत की सामान्य विशेषताएं एवं दोनों में अंतर
1. ध्वनि-गत विशेषताएं
संस्कृत ध्वनियों के विषय में विशेष उल्लेखनीय बातें यह हैं:
- वैदिक संस्कृत में 52 ध्वनियों थी। संस्कृत में 48 ध्वनियाँ है अर्थात वैदिक भाषा के चार ध्वनियाँ ळ, ळह, जिव्हामूलीय तथा उपध्मानीय-संस्कृत में नहीं मिलती। जिव्हामूलीय और उपध्मानीय के स्थान पर विसर्ग (:) का ही प्रयोग होता है।
- वैदिक भाषा में लृ, ऋ, ऋृ के उच्चारण स्वर के समान होते थे। संस्कृत में आकर ये कदाचित 'लि', 'रि' और 'री'
- जैसे उच्चारित होने लगी अर्थात उच्चारण व्यंजन के समीप पहुंच गया।
- ऐ, औ के उच्चारण वैदिक भाषा में आइ, आउ थे, किंतु लौकिक संस्कृत में ये अइ, अउ हो गए।
- ए, ओ का उच्चारण वैदिक में अइ, अउ था अर्थात ये संस्कृत स्वर थे, किंतु संस्कृत में ये मूल स्वर हो गए।
- लेखन में वैदिक ळ, ळह अक्षर समाप्त हो गए और इनके स्थान पर ड, ढ प्रयुक्त होने लगे।
- वैदिक तवर्ग का (त, थ, द, ध, न) और स दंतमूलीय थे किंतु संस्कृत में दन्त्य हो गए।
- वैदिक हस्व और दीर्घा ग्वूं ध्वनि संस्कृत भाषा में नहीं रही।
2. स्वराघात
वैदिक भाषा में संगीतात्मक स्वराघात था। इसके विरुद्ध लौकिक संस्कृत में संगीतात्मक स्वराघात के स्थान पर बलात्मक स्वराघात का प्रयोग होने लगा। उदात्त आदि श्वर नहीं रहे।
3. क्रिया रूप
- क्रियारूपों की ये विशेषताएं हैं-
- वैदिक भाषा मैं लेट लकार था किंतु संस्कृत में इसका लोप हो गया।
- वैदिक भाषा में लिट् वर्तमान के अर्थ में था किंतु संस्कृत में वह परोक्षभूत के लिए आता है।
- क्रियारूपों में वैकल्पिक रूपों की न्यूनता हो गई।
4. समासगत विशेषताएं
वैदिक भाषा में लंबे-लंबे समासों की प्रवृत्ति नहीं थी किंतु संस्कृत में गद्य विकास के कारण लंबे-लंबे समास बनने लगे।
वैदिक भाषा में केवल 4 समाज थे-तत्पुरुष, कर्मधारय, बहुव्रीहि और द्वंद किंतु लौकिक संस्कृत में दो समास बढ़ गए- द्विगु और अव्ययीभाव समास।
5. उपसर्ग
मूल भारोपीय भाषा एवं वैदिक भाषा में उपसर्ग वाक्य में कहीं भी आ सकते थे। किंतु लौकिक संस्कृत में उपसर्ग का क्रिया एवं शब्द रूप के साथ प्रारंभ में जुड़ना अनिवार्य कर दिया गया। जैसे वैदिक भाषा में- "यथा प्र देव वरुण व्रतम मिनिमसि " यहां प्र उपसर्ग 'मिनिमसि' के पूर्व आना चाहिए था, किंतु इन दोनों के बीच में तीन शब्द आए हैं।
6. प्रत्यय
- वैदिक भाषा में पूर्णकालिक कृदंत प्रत्यय के अनेक रूप थे। जैसे- त्वा,त्वाय, त्वीन, त्वी, य। लौकिक संस्कृत में इसके दो रूप रह गए हैं- त्वा और य जैसे गत्वा, अधिगत्य आदि।
- इसी प्रकार वैदिक भाषा में तुमुन् प्रत्यय के अर्थ में अनेक हैं- तुम, से, असे, अध्यै आदि परंतु लौकिक संस्कृत में एकमात्र तुम प्रत्यय का ही प्रयोग होता है।
7. शब्द रूप
- वैदिक संस्कृत में विजातीय शब्द मिल चुके थे, विशेषत: द्रविड़ और ऑस्ट्रिक भाषा से, किंतु लौकिक संस्कृत में उनकी संख्या बहुत बढ़ गई। डॉ भोलानाथ तिवारी के अनुसार, द्रविड़, आस्ट्रिक, यूनानी, रोमन, अरबी, ईरानी, तुर्की, चीनी आदि भाषाओं के लगभग दो शब्द लौकिक संस्कृत में आ गए। जैसे- मर्कट, मीन, अर्क, कानन आदि द्रविड़ भाषा से। तांबूल, श्रृंगार आदि शब्द आस्ट्रिक भाषा से। यवन, यवनिका, सुरंग आदि यूनानी भाषा से।हिन्दू, मिहिर (सूर्य), बादाम आदि इरानी भाषा से। चीनांशुक आदि चीनी भाषा से।
- अनेक वैदिक शब्दों के अर्थ लौकिक संस्कृत में बदल गए। जैसे आद्रि, (वैदिक अर्थ बादल, संस्कृत में पर्वत) असुर (वै. शक्तिशाली, संस्कृत दैत्य), आयु (वै. धन, सं. उम्र), घृणा वै. दया, सं. नफरत), पर्वत (वै. मेघ, सं. पहाड़), विप्र (वै. बुद्धिमान, सं. ब्राह्मण) आदि।
- अनेक वैदिक शब्दों का प्रयोग बंद हो गया जिससे शब्दकोश में भी अंतर आ गया। जैसे - मूर (मूढ़), अमूर (बुद्धिमान), अमीवा (व्याधि), रपस (चोट), दृशीक (सुंदर) आदि।
सारांश
1. समानताएँ
- वैदिक और लौकिक संस्कृत दोनों आकृतिमूलक की दृष्टि से श्लिष्ट योगात्मक हैं।
- दोनों में सभी शब्द धातु से ही बने हैं।
- प्रायः सभी प्रत्यय समान हैं।
- धातुओं के गण प्रायः एक समान हैं।
- संधि और समास की विधि दोनों में है।
- दोनों में तीन लिंग, तीन वचन और तीन पुरुष हैं।
- दोनों में पदों का क्रम निश्चित नहीं है जबकि हिंदी में है।
- दोनों में कारक और विभक्ति या हैं ।
2. विषमताएँ
वैदिक संस्कृत लौकिक संस्कृत
ध्वनियों में ळ, ळह, जिव्हामूलीय और उपध्मानीय हैं। ये ध्वनियाँ नहीं रही।
लृ स्वर का प्रयोग था। लृ स्वर लुप्त प्राय है।
उदात्त आदि स्वर थे। इनका प्रयोग नहीं रहा।
संगीतात्मक है। बलात्मक है।
हस्व, दीर्घ प्लुत थे। प्लुत प्रायः लुप्त हो गया।
शब्द और धातु रूपों में विविधता थी। यह विविधता नहीं रहे।
लेटलकार था। यह संस्कृत में नहीं रहा।
कृदंत प्रत्ययों में विविधता थी। यह विविधता नहीं रही।
संधि नियम ऐच्छिक थे। संधि नियम आवश्यक हो गया।
उपसर्गों का प्रयोगस्वतंत्र था। यह स्वतंत्र नहीं रही।
शब्दों का अर्थ संस्कृत से भिन्न है। शब्दों के अर्थ में अंतर हो गया।
छंदपूर्ति के लिए ईश्वर भक्ति का प्रयोग होता था जैसे - स्वर से सूवर। स्वर भक्ति का प्रयोग नहीं रहा।
तर, तम प्रत्यय संज्ञा शब्दों से भी जुड़ते थे। ये प्रत्यय विशेषण शब्दों से ही जोड़ते हैं।
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