भ्रमरगीत सार - सूरदास
- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
पद संख्या - 51 से 60
श्री कृष्ण का वचन उद्धव-प्रति
51. राग कान्हरो
अलि हो ! कैसे कहौ हरि के रूप-रसहि ?
मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि।।
जिन देखे तो आहि बचन बिनु जिन्हैं बजन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन जसहि।।
बार-बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहिं।
सूरदास अंगन की यह गति को समुझावै या छपद पंसुहि।।
52. राग सारंग
हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नंदनंदन सों उर यह दृढ करि पकरी।।
जागत, सोवत, सपने 'सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री।
सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी।।
53.
फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ?
दुसह बचन अति यों लागत उर ज्यों जारे पर लौन।।
सिंगी, भस्म, त्वचामृग, मुद्रा अरु अबरोधन पौन।
हम अबला अहीर, सठ मधुकर ! घर बन जानै कौन।।
यह मत लै तिनहीं उपदेसौ जिन्हैं आजु सब सोहत।
सूर आज लौं सुनी न देखी पोत सूतरी पोहत।।
54. राग जैतश्री
प्रेमरहित यह जोग कौन काज गायो ?
दीनन सों निठुर बचन कहे कहा पायो ?
नयनन निज कमलनयन सुंदर मुख हेरो।
मूँदन ते नयन कहत कौन ज्ञान तेरो ?
तामें कहु मधुकर ! हम कहाँ लैन जाहीं।
जामें प्रिय प्राणनाथ नंदनंदन नाहीं ?
जिनके तुम सखा साधु बातें कहु तिनकी।
निरगुन अविनासी गुन आनि भाखौ।
सूरदास जिय कै जिय कहाँ कान्ह राखौ ?।।
55. राम केदारो
जनि चालो, अलि, बात पराई।
ना कोउ कहै सुनै या ब्रज में नइ कीरति सब जाति हिंराई।।
बूझैं समाचार मुख ऊधो कुल की सब आरति बिसराई।
भले संग बसि भई भली मति, भले मेल पहिचान कराई।।
सुंदर कथा कटुक सी लागति उपजल उर उपदेश खराई।
उलटी नाव सूर के प्रभु को बहे जात माँगत उतराई।।
56. राग मलार
याकी सीख सुनै ब्रज को, रे ?
जाकी रहनि कहनि अनमिल, अलि, कहत समुझि अति थोरे।।
आपुन पद-मकरंद सुधारस, हृदय रहत नित बोर।
हमसों कहत बिरस समझौ, है गगन कूप खनि खोरे।।
घान को गाँव पयार ते जानौ ज्ञान विषयरस भोरे।
सूर दो बहुत कहे न रहै रस गूलर को फल फोरे।।
57.
निरख अंक स्यामसुंदर के बारबार लावति छाती।
गोकुल बसत संग गिरिधर के कबहुँ बयारि लगी नहिं ताती।
तब की कथा कहा कहौं, ऊधो, जब हम बेनुनाद सुनि जाती।।
हरि के लाड़ गनति नहिं काहू निसिदिन सुदिन रासरसमाती।
प्राननाथ तुम कब धौं मिलोगे सूरदास प्रभु बालसँघाती।।
58. राग मारू
मोहिं अलि दुहूँ भाँति फल होत।
तब रस-अधर लेति मुरली अब भई कूबरी सौत।।
तुम जो जोगमत सिखवन आए भस्म चढ़ावन अंग।
इत बिरहिन मैं कहुँ कोउ देखी सुमन गुहाये मंग।
कानन मुद्रा पहिरि मेखली धरे जटा आधारी।।
यहाँ तरल तरिवन कहैं देखे अरु तनसुख की सारी।।
परम् बियोगिन रटति रैन दिन धरि मनमोहन-ध्यान।
तुम तों चलो बेगि मधुबन को जहाँ-जहाँ जोग को ज्ञान।
निसिदिन जीजतु है या ब्रज में देखि मनोहर रूप।
सूर जोग लै घर-घर डोली, लेहु लेहु धरि सूप।।
59. राग सारंग
बिलग जनि मानौ हमारी बात।
जो कोउ कहत जरे अपने कछु फिरि पाछे पछितात।
जो प्रसाद पावत तुम ऊधो कृस्न नाम लै खात।।
मनु जु तिहारो हरिचरनन तर अचल रहत दिन-रात।
'सूर-स्याम तें जोग अधिक' केहि-केहि आयत यह बात ?।।
60.
अपनी सी कठिन करत मन निसिदिन।
कहि कहि कथा, मधुप, समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन।।
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियां कछु और चलावत।
बहुत भांति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत।।
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप समता नहिं पावत।
थकित सिंधु-नौका खग ज्यों फिरि फिरि फेर वहै गुन गावत।।
जे बासना न बिदरत अंतर तेइ-तेइ अधिक अनूअर दाहत।
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यों है चाहत।।
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