हिंदी का भौगोलिक विस्तार

I हिंदी की उपभाषाएँ और बोलियाँ 

हिंदी, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के उत्तराधिकारी हैं। इन भाषाओं की शब्दावली मुहावरे, लोकोक्तियां, साहित्य और साहित्य की अनेक विधाएं हिंदी भाषा को विरासत में मिली हैं। ये भाषाएं अपने-अपने यौवन-काल में मध्यदेश की होते हुए भी देशव्यापी रही हैं। वस्तुतः हिंदी भी सारे देश में व्याप्त है। व्यवहार में वह राष्ट्रभाषा है, राजभाषा है संपर्क भाषा है और माध्यम भाषा है। इसका भौगोलिक विस्तार काफी दूर-दूर तक है। अहिंदी भाषा क्षेत्र कर्नाटक, आंध्रप्रदेश के दक्खिनी हिंदी वाले भाग कोलकाता, शिलांग, मुंबई तथा अहमदाबाद आदि महानगरों में हिंदी की संपर्क भाषा है। भारत के बाहर मॉरीशस, फीजी, सूरी ट्रिनिडाड, नेपाल के सीमावर्ती इलाकों में हिंदी भाषी हैं। इनके अतिरिक्त हांगकांग, मलेशिया, सिंगापुर आदि पूर्वी देशों एवं इंग्लैंड, अफ्रीका, अमेरिका आदि के बड़े नगरों में भी हिंदी भाषी हैं।

भारत में सात प्रदेश ऐसे हैं, जो हिंदी भाषी क्षेत्र हैं -

(1) हरियाणा, (2) राजस्थान, (3) मध्य प्रदेश, (4) दिल्ली, (5) हिमाचल प्रदेश, (6) उत्तर प्रदेश तथा (7) बिहार। 

इन सात प्रदेशों की सत्रह बोलियां हैं। इन्हें निम्नांकित पांच उपभाषाओं में विभक्त किया जा सकता है -


भाषा उपभाषाएँ बोलियाँ
हिंदी (क) पश्चिमी हिंदी 1. खड़ी बोली
2. ब्रजभाषा
3. हरियानी या बांगरू
4. बुंदेली
5. कन्नौजी
(ख)पूर्वी हिंदी 1. अवधी
2. बघेली
3. छत्तीसगढ़ी
(ग) राजस्थानी 1. मारवाड़ी
2. जयपुरी
3. मेवाती
4. मालवीय
(घ) पहाड़ी 1. पश्चिमी पहाड़ी
2. मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमायूँनी,गढ़वाली)
(ड)बिहारी 1. भोजपुरी
2. मगही
3. मैथिली

उपर्युक्त सत्रह बोलियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार से है -

 (क) पश्चिमी हिंदी

पश्चिमी हिंदी का क्षेत्र पश्चिम में अंबाला से लेकर पूर्व में कानपुर की सीमा तक एवं उत्तर में जिला देहरादून से दक्षिण में मराठी की सीमा तक माना जाता है। इस क्षेत्र के बाहर दक्षिण में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व केरल के प्रायः मुसलमानी घरों में पश्चिमी हिंदी का ही एक रूप दखिनी हिंदी व्याप्त है। इस भाषा के बोलने वालों की संख्या छह करोड़ से कुछ ऊपर है साहित्यिक दृष्टि से यह उपभाषा बहुत संपन्न है। दक्खिनी हिंदी, ब्रजभाषा व आधुनिक युग में खड़ी बोली हिंदी का विशाल साहित्य मिलता है। सूरदास, नंददास, भूषण, देव, बिहारी, रसखान, भारतेंदु और रत्नाकर आदि पश्चिमी क्षेत्र के प्रमुख कवि  है।

पश्चिमी हिंदी की उत्पत्ति सीधे शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है।

पश्चिमी हिंदी की पांच बोलियां हैं जिनका सामान्य परिचय निम्नानुसार है

(1) खड़ी बोली

इसके अन्य नाम हिंदुस्तानी, नागरी हिंदी, सरहिंदी तथा कौरवी भी है। डॉ भोलानाथ तिवारी के अनुसार, 'खड़ी बोली' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है - "एक तो मानक हिंदी के लिए जिसकी तीन शैलियाँ हैं- 'हिंदी', 'उर्दू' और 'हिंदुस्तानी' और दूसरे उस लोक बोली के लिए जो दिल्ली, मेरठ में तथा उसके आस-पास बोली जाती है।" यहां खड़ी बोली का प्रयोग इस दूसरे अर्थ में ही किया जा रहा है। इस्लाम के प्रभाव के कारण हिंदी की अन्य ग्रामीण बोलियों की अपेक्षा खड़ी बोली में अरबी-फारसी के कुछ अधिक शब्द आ गए हैं, किंतु उनमें पर्याप्त धनात्मक परिवर्तन भी हो गया है जैसे मतलब मतबल में गवाही, उगाही में परिवर्तित हो गए हैं।

 नामकरण- खड़ी बोली में 'खड़ी' शब्द का अर्थ विवादास्पद है। कुछ लोगों ने खड़ी का अर्थ खरी (Pure) अर्थात अशुद्ध माना है, तो दूसरों ने खड़ी (Standing), गिलक्राइस्ट ने खड़ी का अर्थ शुद्ध और सीधी-सच्ची भाषा के अर्थ में माना है। ग्राहमबेली ने 'खड़ी' का अर्थ 'उठी हुई' किया है। डॉक्टर ग्रियर्सन ने इसे 'गंवारी' बोली कहा था। डॉक्टर चंद्रबली पांडेय ने खड़ी बोली का अर्थ ठेठ प्राकृत या शुद्ध किया है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसे 'मर्दानी' भाषा घोषित किया है।

 क्षेत्र- खड़ी बोली वस्तुतः रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फर नगर, सहारनपुर तथा देहरादून के मैदानी भाग में बोली जाती है। किंतु आदर्श और परिनिष्ठित रूप से यह सारे भारत की व्यवहारिक भाषा है।

 खड़ी बोली के रूप- में खड़ी बोली हिंदी की दो प्रधान बोलियां हैं- (1) बिजनौर की खड़ी बोली और (2) मेरठ की खड़ी बोली। आज की परिनिष्ठित हिंदी के तीन रूप हैं- (1) साहित्यिक हिंदी, (2) उर्दू तथा (3) हिंदुस्तानी। श्री सत्यनारायण त्रिपाठी ने लिखा है कि, "खड़ी बोली एक ओर, फारसी-अरबी से प्रभावित होकर 'उर्दू' के रूप में विकसित हुई है और दूसरी ओर संस्कृत की छाया में पलकर 'साहित्यिक हिंदी' के रूप में।"

 हिंदी व्यवहारिक रूप में राष्ट्रभाषा है अर्थात पूरे हिंद की भाषा है किंतु राजनीतिक स्वार्थों के कारण इसे राष्ट्रभाषा की मान्यता प्राप्त नहीं हुई है। आचार्य विनय मोहन शर्मा लिखते हैं- "नागपुर के बाजार में जो हिंदी बोली जाएगी, उसमें मराठी की महक, मद्रास में बोली जाने वाली हिंदी में तमिल की तिलांद, कलकत्ते में बोली जाने वाले हिंदी में बांग्ला कि बू, गुजरात में बोली जाने वाली हिंदी में गुजराती की गंध, असम में बोली जाने वाले हिंदी में असम का आमोद रहने की पूर्ण संभावना है।"

खड़ी बोली की उत्पत्ति- खड़ी बोली की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश के शुद्ध रूप से हुई है।

 खड़ी बोली का साहित्य- खड़ी बोली को यदि एक लोक बोली के रूप में लिया जाए तो इसमें उन लोग साहित्य पर्याप्त मात्रा में मिलता है जिसमें पवाडे मुख्य रूप से उल्लेख्य हैं। साहित्यिक दृष्टि से यह भाषा अत्यंत समृद्ध है। आदि काल से लेकर अध्ययन काल तक साहित्यकारों ने हिंदी को विकसित किया है। हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी तथा दक्खिनी हिंदी एक सीमा तक खड़ी बोली पर ही आधारित है।

 प्रमुख विशेषताएं

  1. दीर्घ स्वर के बाद मूल व्यंजन के स्थान पर दित्य व्यंजन जैसे बेट्टा, बाप्पू, रोट्टी आदि।
  2. महाप्राण के पूर्व इसी स्थिति में अल्पप्राण का आगम, जैसे देक्खा, भुक्खा आदि।
  3. न का ण और ल का ळ हो जाता है जैसे अपणा, राणी, जाणा इसी प्रकार काळा, नीळा आदि। 
  4. अरबी-फारसी के शब्दों का बाहुल्य।
  5. क्रियाओं में ए का प्रयोग जैसे-- वह पढ़े था, मैं मारे था। 

(2) ब्रजभाषा 

ब्रजभाषा ब्रजमंडल की बोली है। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, ब्रज का संबंध है संस्कृत शब्द 'ब्रज' से है जिसका ऋग्वेद (2.38.8) आदि प्राचीन ग्रंथों में 'चारागाह' अथवा 'पशुसमूह' आदि के अर्थ में प्रयोग हुआ है। ब्रज मंडल में पशुपालन की प्रमुख पेशा होने के कारण, संभवतः इस प्रदेश को 'ब्रज' कहा गया और प्रदेश के आधार पर यहां की भाषा भी 'ब्रज' या 'ब्रजभाषा' कहलाई। 

 लिंग्विस्टिक सर्वे में डॉ. ग्रियर्सन ने इसका एक और नाम अंतर्वेदी दिया है अर्थात गंगा-यमुना के बीच के प्रदेश की भाषा। इसके अन्य नाम है- ब्रजी, भाषामणि, माथुरी, माथुरही, पुरुषोत्तम भाषा तथा नाक भाषा। कुछ लोग बंगला में प्रयुक्त 'ब्रजबुली' को भी ब्रजभाषा समझते हैं पर यथार्थतः ब्रजभाषा का इससे कोई संबंध नहीं है। इसे बंगला, मैथिली और ब्रज का मिश्रण है।

ब्रजभाषा का क्षेत्र- ब्रजमंडल के अंतर्गत जिले आते हैं- मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूं, बरेली। गुड़गांव जिले का पूर्वी भाग राजस्थान के धौलपुर, भरतपुर, करौली और जयपुर जिले का पूर्वी भाग तथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले का पश्चिमी भाग भी ब्रजभाषा का क्षेत्र है।

साहित्य- ब्रजभाषा में साहित्य की विशाल और समृद्ध परंपरा रही है। हिंदी की अन्य बोलियों की तुलना में सबसे बढ़कर और सबसे अधिक साहित्य ब्रज भाषा में है। खड़ी बोली के साहित्यिक भाषा बनने के पूर्व ब्रजभाषा ही संपूर्ण हिंदी क्षेत्र की साहित्यिक भाषा रही है। हिंदी क्षेत्र से बाहर भी (गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, उड़ीसा) इसमें साहित्य रचा गया। सूरदास, नंददास, तुलसी, रहीम, बिहारी, मतिराम, भूषण, देव, भारतेंदु, रत्नाकर आदि इस भाषा के सुप्रसिद्ध रचनाकार हुए हैं।

आज भले ही वह बोली मात्र है किंतु उसके साथ जुड़ा हुआ "भाषा" शब्द आज भी इसके अतीत गौरव का चिन्ह है।

प्रमुख बोलियां- ब्रजभाषा की प्रमुख उपबोलियां- भरतपुरी, अंतर्वेदी, डांगी, माधुरी तथा जाडोवाटी है।

 प्रमुख विशेषताएं

  1. हिंदी का 'आ' प्रत्यय ब्रजभाषा में हो जाता है। यथा घोरो, भला से भलो।
  2. श, ष, स में स मिलता है। 
  3. व्यंजनान्त शब्द अकारांत हो गए हैं। यथा- सबु, मालू आदि।
  4. व के स्थान पर म का प्रयोग। आवतु = वास्तु।
  5. संयुक्त व्यंजनों का सरलीकरण हो गया है। श्रावण = सावन, कृष्ण = कान्ह।
  6. एक शब्द के अनेक रूप। प्रिय-प्रिय, पिया, पीतम, आँख-अंखियन, अंखयानि ।
  7. ब्रजभाषा में राजस्थानी, अवधि, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी आदि अनेक गोलियों के शब्द आ गए हैं।

(3) हरियाणवी या बांगरू

स्थान और बोली दोनों की जाति के अनुरूप यह बोली कई नामों से व्यवहृत होती है। इसका एक नाम 'हरियाना' है। 'हरियाना' शब्द की व्युत्पत्ति विवादास्पद है। हरि + यान (कृष्ण का यान इधर से ही द्वारका गया था), हरि + अरण्य (हरा वन), हरिण + अरण्य (हिरनों का जंगल) आदि कई मत दिए गए हैं। किंतु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। यह बांगार देश की बोली है इसलिए इसे बांगरू भी कहते हैं। बांगर शब्द का अर्थ है उच्च एवं शुष्क भूमि जहां नदी की बाढ़ नहीं पहुंच सकती। डॉक्टर उदय नारायण तिवारी लिखते हैं कि "बांगरू के कई स्थानीय नाम है। हरियाना के पड़ोस में यह हरियनी अथवा देसडी कहलाती है। रोहतक तथा दिल्ली के आस-पास जाटों की अधिक आबादी के कारण इसे जाटू तथा दिल्ली के चमारों की आबादी के कारण इसे चमरवा बोली भी कहते हैं। अन्य स्थानों में इसे बांगरू नाम से भी अभिहित किया जाता है।"

 बांगरू का क्षेत्र- डॉक्टर उदय नारायण तिवारी के अनुसार, यह बोली करनाल, रोहतक तथा दिल्ली जिलों में बोली जाती है। यह दक्षिण-पूर्वी पटियाला, पूर्वी हिस्सार नभा एवं झिँद  बोली जाती है। 

बांगरू की उत्पत्ति- बांगरू का विकास या उत्पत्ति उत्तरी शौरसेनी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से हुआ है।

 बांगरू की बोलियां- इसकी दो प्रमुख बोलियां हैं- (1) जाटों की बोली- यह बांगरू के प्रमुख बोली कही जा सकती है। (2) अहीरों की बोली- यह जाटू और अहिरवार का अच्छा मिश्रण कही जा सकती है।

 डॉ भोलानाथ तिवारी ने इसकी चार बोलियों हरियानी, जाटू, चमरवा तथा बागड़ी का उल्लेख किया है।

साहित्य- बांगरू में केवल लोक-साहित्य है, जिसका कुछ अंश प्रकाशित हो चुका है।

 प्रमुख विशेषताएं

  1. हिंदी न के स्थान पर ण का प्रयोग। होना - होणा। 
  2. मूर्धन्य ल का प्रयोग। जैसे काल का काल्। 
  3. ड़ के स्थान पर ड प्रयोग। बड़ा - बडा।
  4. द्वित्व व्यंजन का प्रयोग। बाब्बू, भीत्तर, गाड़ी।
  5. ध्वनिलोप। अंगूठा - गूंठा।
  6. सहायक क्रिया हूँ, हैं, हो के स्थान पर सूँ, सै, सो का प्रयोग।

 (4) बुंदेली

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, बुंदेली का या बुंदेलखंडी बुंदेलखंड की भाषा है। बुंदेल राजपूतों के कारण ही इस प्रदेश का नाम बुंदेलखंड तथा इसकी भाषा का नाम बुंदेली पड़ा है।

बुंदेली का क्षेत्र-मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में पहले हुए बुंदेलखंड क्षेत्र की यह बोली है। शुद्ध रूप से यह झांसी, जालौन, हमीरपुर (उ. प्र.), ग्वालियर, भोपाल, ओरछा, सागर, नरसिंहपुर, सिवनी और होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जिलों में बोली जाती है।

बुंदेली का मिश्रित रूप दतिया, पन्ना, चरखारी, दमोह, जबलपुर, बालाघाट तथा नागपुर तक प्रचलित है। इसका मानक रूप ओरछा और सागर के आस-पास पाया जाता है।

भाषागत सीमा- बुंदेली के पूरब में बघेली, उत्तर-पश्चिम में कन्नौजी तथा ब्रजभाषा, दक्षिण में मराठी तथा दक्षिण-पश्चिम में मालवी बोली जाती है।

 बुंदेली की उत्पत्ति- बुंदेली की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है।

बुंदेली की बोलियां- बुंदेली के प्रमुख तीन गोलियां हैं। पंवारी लोधांती अथवा राठौर तथा खटोला। मिश्रित बोलियों में पूरब की बनाफरी, दक्षिण की लोधी, कोष्टी, कुम्भरी तथा नागपुरी बोलियां हैं। दक्षिण की बोलियों में मराठी और बुंदेली का मिश्रण है।

बुंदेली का साहित्य- मध्यकाल में बुंदेलखंड साहित्य का केंद्र रहा है, परंतु यहां के कवि ब्रजभाषा में रचना करते रहे। "आल्हाखंड" सर्वप्रथम बुंदेली में रचा गया था। ठेठ बुंदेली में ईसुरी की फागें और गंगाधर का प्रेमकाव्य प्रसिद्ध है। लोक साहित्य की दृष्टि से बुंदेली समृद्ध है।

 प्रमुख विशेषताएं

  1. ए तथा ओ के स्थान पर इ, उ का प्रयोग। जैसे बेटी से बिटिया, घोरो से घुरवा।
  2. ड़ का र हो जाता है। पड़ो से परो।
  3. य का ज और व का ब हो जाता है। यह से  जो, वह का बो। 
  4. यह ओकारान्त भाषा है। भलो, बुरो, मोरो, गओ। 
  5. च का स और स का छ हो जाता है। साँचे का सासे, सीढ़ी का छीड़ी। 
  6. कर्म-सम्प्रदान में 'को' को 'खो' खां, खँ हो जाता है। 
  7. ने अनुसर्ग का विलक्षण प्रयोग। बाने बैठो (वह बैठा), बा ने चाउत तो (वह चाहता था)| 

 (5) कन्नौजी

यह प्राचीन कान्यकुब्ज (कन्नौज) की बोली है। कन्नौज शब्द वस्तुतः कान्यकुब्ज का विकसित रूप है। इसका क्षेत्र ब्रजभाषा और अवधी के बीच में हैं। डॉ. ग्रियर्शन एवं धीरेंद्र वर्मा कन्नौजी को स्वतंत्र बोली मानने के पक्ष में नहीं है।

उनके अनुसार कन्नौजी कोई स्वतंत्र उपभाषा नहीं है, बल्कि ब्रजभाषा का ही एक उपरूप है।

कनौजी का क्षेत्र- कन्नौजी (फर्रुखाबाद) ही कन्नौजी का प्रमुख केंद्र है। यह बोली इटावा, फर्रुखाबाद, शाहजहांपुर, कानपुर का कुछ भाग, हरदोई तथा पीलीभीत तक फैली हुई है। कन्नौजी का क्षेत्र बहुत विस्तृत नहीं है और सीमाओं पर यह ब्रजभाषा और बुंदेली से पर्याप्त रूप से प्रभावित है।

 भाषागत सीमाएं- कन्नौजी के पश्चिम तथा उत्तर पश्चिम में ब्रजभाषा तथा दक्षिण में बुंदेली का क्षेत्र है।

 बोलियां- कन्नौजी की प्रमुख बोली तिरहारी है।

 साहित्य- साहित्य की दृष्टि से इस गोली का विशेष महत्व नहीं है। हरदोई, कानपुर और कन्नौज साहित्य और कन्नौज साहित्य और संस्कृति के केंद्र रहे हैं, किंतु यहां के साहित्यकार भाषा का व्यापक रूप को अपनाते रहे हैं। इसमें लोक साहित्य काफी है। चिंतामणी, मतिराम, भूषण आदि ने ब्रज में ही लिखा है।

 कन्नौज की उत्पत्ति- कन्नौजी शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है।

प्रमुख विशेषताएँ 

  1. कन्नौजी में दो स्वरों के बीच 'ह' का लोप। कहिहै को कहयों।
  2. अधिकांश शब्द उकारांत है। जैसे खातु, घरू, सबू।
  3.  सर्वनाम प्रायः ओकारांत हैं। जैसे हमारो या हमाओ।
  4.  इया का अधिक प्रयोग। जैसे जिमिया, छोकरिया आदि।
  5.  वा का प्रयोग। जैसे बेटवा बचवा आदि।
  6. औ का अउ हो जाता है। जैसे कौन से कउन।
  7. बहुवचन में व्यवहार का प्रयोग। ह्म्दवार व्यास (हम लोग)।
  8. देना, लेना, जाना आदि बुंदेली की भांति। दओ, लओ, गओ। 

डॉ भोलानाथ तिवारी ने पश्चिमी में हिंदी के अंतर्गत अन्य दो बोलियों का उल्लेख किया है। इसमें (1) ताजजुज्बेकी (2) निमाड़ी।

 (1) ताजुज्बेकी 

सोवियत संघ में ताजिकिस्तान तथा उज्बेकिस्तान की सीमा पर हिसार, रेगार, सूची आदि में बोली जाने वाली इसे हिंदी बोली का नाम डॉ भोलानाथ तिवारी ने दिया है। उनके अनुसार उनके बोलने वाले 13  वीं सदी के लगभग चलकर पंजाब अफगानिस्तान होते उस क्षेत्र में जा पहुंचे जहां आज है। इसकी भाषा पंजाबी पाकिस्तानी अफगानी से प्रभावित हिंदी बोली है। शब्दावली के क्षेत्र में यहां हिंदी बोली उसी से प्रभावित है।

 प्रमुख विशेषताएं

इस बोली के परसर्ग हिंदी से मिलते जुलते हैं। जैसे ने, ते, ति, से, का, कि, में प्रति पति से कहा कि मैं ऊपर पुणे राम।

सर्वनाम के रूप भी मिलते-जुलते हैं जैसे मे, मि, हमन (हमने), हमन (हमें), मुरो (मेरे), तु, तम, उ, उस आदि।

सर्वनामों में ही जिस, किस, किन आदि रूप हैं।

  क्रिया विशेषण में इंगा (यहां), उंगा (वहां), किम्भा (कहां), कद (कब), जबे (जब), अबे (अब)।

(2) निमाड़ी

यह मध्य प्रदेश के निर्माण क्षेत्र में बोली जाती है। नीम के पेड़ ज्यादा होने से यह निमाड़ अर्थात नीमवाला कहलाया। ग्रियर्सन ने इसे राजस्थानी बोली माना है। किंतु डॉ भोलानाथ तिवारी के अनुसार, यह पश्चिमी हिंदी की बोली है। यह बोली बुंदेली और ब्रज के निकट है।

 प्रमुख विशेषताएं

निमाड़ी के परसर्ग न (कर्ता), ख, क (कर्म), सी, स (करण), का, की (संबंध), म, पर (अधिकरण)।

 सर्वनामों में हऊँ (मैं), हमन (हमने), म्हारा तु, तुम, तुख, ऊ, ऊन आदि है।

क्रियारूपों में विलक्षणता है। जैसे 'है' के लिए ज। चलूंज अर्थात चलता हूं।

(ख) पूर्वी हिंदी 

Related Posts

Post a Comment