संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसार रस के स्वरूप पर विचार कीजिए।

1. संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसार रस के स्वरूप पर विचार कीजिए। 

उत्तर - रस के स्वरूप को लेकर संस्कृत काव्यशास्त्र में विभिन्न विद्वानों के मत भिन्न भिन्न प्रकार के रहे हैं जो की इस प्रकार है -

संस्कृत काव्यशास्त्र में रस सिद्धांत का आरम्भ भरतमुनि से होता है। उन्होंने जो रस की परिभाषा की, उसे रस-सूत्र कहा जाता है। उनका रस-सूत्र निम्नलिखित है -

विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगाद्रस निष्पत्तिः। 

(विभाव, अनुभाव, और संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।)

    इसमें स्थायी भाव का उल्लेख नहीं किया गया है। स्थायी भाव ही रस के रूप में परिवर्तित होता है। इस रस सूत्र को अभी तक मान्यता प्राप्त है। 

         भामह, दण्डी, उद्भट और रुद्रट अलंकारवादी आचार्य माने जाते हैं। इनमें भामह ने 'रसवत अलंकार' के रूप में रस को मान्यता दी है। दण्डी ने अलंकारों में इस का समावेश किया है, आचार्य उद्भट ने रस का समर्थन किया है, पर इसका समावेश अलंकारों में किया है। रुद्रट ने रस को काव्य में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। 

    रीतिवादी आचार्य वामन ने रस को काव्य-गुणों में रखा है। वक्रोक्तिवादी आचार्य कुंतक ने रस को वक्रोक्ति का प्राण माना है। ध्वनिवादी आचार्य आनंदवर्धन और मम्मट ने असंलक्ष्य क्रम व्यंग्य ध्वनि के अंतर्गत रस को स्थान दिया है। आचार्य विश्वनाथ और पंडितराज जगन्नाथ रसवादी आचार्य हुए हैं। इन्होंने रस का पर्याप्त विवेचन किया है। 

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Sanskrit kavyshastra ke anusar ras ke swaroop par vichar kijiye?

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