अलंकार सिद्धान्त की मूल स्थापनाओं का वर्णन कीजिए।

अलंकार सिद्धान्त की मूल स्थापनाएँ

प्रश्न 2. अलंकार सिद्धान्त की मूल स्थापनाओं का वर्णन कीजिए।

अथवा

अलंकार सिद्धान्त के अन्तर्गत कौन-सी मूल स्थापनाएँ की गयी है ? उन पर प्रकाश हालिए। 

परिचय

उत्तर - काव्यशास्त्र का सबसे प्राचीन अथवा पहला सम्प्रदाय रस सम्प्रदाय है, जिसका आरम्भ 'नाट्यशास्त्र' के स्वचिता भरतमुनि से होता है। इसके पश्चात् काव्यशास्त्र में जिससे सम्प्रदाय का आरम्भ हुआ, वह अलंकार सम्प्रदाय था। इसका आरम्भ 'अग्निपुराण' के रचयिता आचार्य वेदव्यास ने किया। अलंकार समप्रदाय के प्रवर्तक तो अग्निपुराण के रचयिता आचार्य वेदव्यास हैं, पर सम्प्रदाय के रूप में इसकी स्थापना करने का श्रेय 'काव्यालंकार' के रचयिता आचार्य भामह को है। आचार्य भामह ने प्रमुख रूप से काव्यालंकारों तथा उनसे सम्बन्धित गुण-दोषों का विवेचन किया है। भामह के 'काव्यालंकार' ग्रंथ के आधार पर ही इस सम्प्रदाय का नाम 'काव्यालंकार-शास्त्र' पड़ा। यह अलंकार सिद्धान्त रस सिद्धान्त का समकालीन सिद्धान्त था। इसके समकालीन होने का प्रमाण यह है कि इन दोनों सिद्धान्तों की व्याख्या 'अग्निपुराण' में साथ-साथ प्रस्तुत की गयी है। अग्निपुराणकार ने जहाँ रस को काव्य की आत्मा कहा है, वही अलंकारों का महत्व भी प्रतिपादित किया है - 

 अलंकार सम्बन्धी स्थापना

 

1. अग्निपुराणकार की अलंकार सम्बन्धी स्थापना - 'अग्निपुराण' के रचयिता आचार्य वेदव्यास ने अलंकार को काव्य का शोभाकार अर्थात् शोभा बढ़ाने वाला धर्म कहकर पहली बार इसका महत्त्व स्थापित किया। अग्निपुराण की अलंकार सम्बन्धी स्थापनाएँ निम्नलिखित हैं -

(क) 'काव्यशोभाकरान् धर्मानलकारान् प्रचक्षते।'

(काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों अर्थात् तत्वों को अलंकार कहा जाता है)

(ख) अग्नि पुराणकार आचार्य वेदव्यास ने पहली बार अभिव्यक्ति जैसे ध्वनिमूलक तत्वों का अलंकारों में समावेश किया। 

(ग) अर्थालंकार कविता के लिए आवश्यक - अग्निपुराणकार आचार्य वेदव्यास ने कविता में अलंकारों की अनिवार्यता बताते हुए अर्थालंकारों से रहित कविता को विधवा के समान घोषित किया - 

'अर्यालंकाररहिता विधवेव सरस्वती।'

    यहाँ सरस्वती शब्द का आशय 'कविता' से है। जिस प्रकार नारी की शोभा उसके सधवापन अर्थात् सुहाग से है, उसी प्रकार कविता की शोभा अलंकारों से है। बिना अर्यालंकारों वाली कविता इतिहास के समान रुचि और आकर्षण से हीन रहेगी। 

2. आचार्य दण्डी की अलंकार सम्बन्धी स्थापना - काव्यादर्श के रचयिता आचार्य दण्डी ने अग्निपुराणकार के स्वर में स्वर मिलाते हुए और उनके शब्दों को ज्यों-का-त्यों दोहराते हुए अलंकारों को काव्य की शोभा बढ़ाने वाला घोषित किया है। उन्होंने अपने 'काव्यादर्श' में अलंकार का लक्षण निम्न प्रकार प्रस्तुत किया -

'काव्यशोभकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते।'

(काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों अर्थात् तत्वों को अलंकार कहा जाता है) 

3. आचार्य भामह की अलंकार सम्बन्धी स्थापना - अलंकार सिद्धान्त के प्रवर्तक अर्थात् अलंकार सिद्धान्त की स्थापना करने वाले आचार्य भामह ने काव्य के शोभाचायक तत्वों को अलंकार घोषित किया है। उन्होंने अपने 'काव्यालंकार' में कविता के लिए अलंकारों की अनिवार्यता इन शब्दों में व्यक्त की है —

'न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्।'

(सुन्दर होने पर भी वनिता का आभूषणरहित मुख शोभा अभिव्यक्त करने वाला नहीं होता ।)

    आचार्य भामह की कविता में अलंकारों के महत्त्व की स्थापना एक प्रकार से 'अग्निपुराण' के उस वचन का अनुवाद है, जिसमें उन्होंने अर्यालंकारों से विहीन सरस्वती को विधवा के समान बताया था। हिन्दी में रीति ग्रन्थों के आदि रचयिता आचार्य केशवदास ने आचार्य भामह के इन्हीं शब्दों का अपने प्रसिद्ध दोहे में अनुवाद करके अपना अलंकारवादी रूप स्पष्ट किया है-

'जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त। 

भूषन बिनु न विराजई, कविता वनिता मित्त।।'

4. काव्य के प्रमुख तत्त्व के रूप में अलंकार की स्थापना - आचार्य भामह ने अलंकार को काव्य का प्रमुख तत्त्व न केवल स्वीकार किया, अपितु स्थापित भी किए हैं। 'चन्द्रालोक' के रचयिता आचार्य पीयूषवर्ष जयदेव ने आचार्य भामह की बात को ही सशक्त रूप में प्रस्तुत किया है। वे अलंकारवादी आचार्य ये और 'काव्य-प्रकाश' के रचयिता आचार्य मम्मट के काव्य-लक्षण 'तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि।' (दोषहीन, गुण सहित और कहीं-कहीं अलंकाररहित भी शब्दार्थ काव्य होते हैं।) से बहुत आहत थे। उन्होंने अलंकारहीन कविता को कविता कहना अनुचित घोषित किया है -

'अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकती।

असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती ।।

(जो विद्वान अलंकारविहीन शब्दार्थ को काव्य स्वीकार करता है। वह अग्नि को अनुष्ण अर्थात् शीतल क्यों नहीं मान लेता) 

5. आचार्य शुक्ल की उक्ति - वैचित्र्य को अलंकार मानना सम्बन्धी स्थापना - आचार्य भामह ने अलंकार सिद्धान्त को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है। वे अलंकार सिद्धान्त के प्रतिनिधि आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने अलंकार सम्प्रदाय की विच्छिन्न परम्परा को सचित किया और वक्रोक्ति को काव्य का सर्वस्य बताया। आचार्य भामह के मतानुसार वक्रोक्ति के बिना कोई भी अलंकार सम्भव नहीं है। इस प्रकार आचार्य भामह ने वचन-वक्रता को ही अलंकार घोषित किया है। उनका मत है कि वक्रोक्ति के बिना किसी अलंकार की सत्ता नहीं हो सकती -

'कोऽलंकारोऽनया विना ।'

    आचार्य भामह ने वक्रोक्ति और अतिशयोक्ति को एक ही स्वीकार किया है। आचार्य कुन्तक के अनुसार वक्र उक्त्ति अथवा उक्ति-वैचित्र्य का नाम ही वक्रोक्ति है। आचार्य कुन्तक ने आचार्य भामह ने इसी विचार को ग्रहण करके एक नवीन सिद्धान्त की स्थापना की है जो वक्रोक्ति सम्प्रदाय कहलाता है। इन्होंने 'वक्रोक्ति-जीवित' नामक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना करके वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा घोषित किया। उनका कथन है - 

'वक्रोक्तिः काव्यजीवितम् ।'

(वक्रोक्ति काव्य का जीवन है।)

    कुन्तक की गणना अलंकारवादी आचायों में की जाती है। उन्होंने जिस वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा बताया है, वह एक अलंकार ही है। आचार्य कुस्तक का अलंकार के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने वक्रोक्ति को काव्यजीवितभूत तत्त्व मानकर अपने 'वक्रोक्ति सम्प्रदाय' की स्थापना की है। आचार्य कुन्तक को 'राजानक' की उपाधि प्राप्त थी। यह उपाधि राजाओं की ओर से कश्मीरी विद्वानों को प्रदान की जाती थी। आचार्य महिम भट्ट ने अपने 'व्यक्ति-विवेक' नामक ग्रन्थ में आचार्य कुन्तक के सिद्धान्त का खण्डन किया है। आचार्य कुन्तक ने ध्वनि सिद्धान्त का खण्डन किया है। 

आचार्य कुन्तक की घोषणा थी -

'उक्तिवैचित्र्यमलंकारः ।'

(उक्ति की विचित्रता ही अलंकार है ।)

    कवि-प्रतिभा से उत्पन्न उक्ति-वैचित्र्य होने पर ही अलंकार माना जाता है। आचार्य भामह ने अतिशयोक्ति अलंकार का विवेचन करने के पश्चात् 'सैषासर्वत्र वक्रोक्तिः' अर्थात् यही वक्र उक्ति सभी अलंकारों में विद्यमान है, कहकर यह संकेत दिया है कि अतिशयोक्ति ही वक्रोक्ति है। आचार्य दण्डी के अनुसार सभी अलंकारों का मूल अतिशयोक्ति है। 

    यह अतिशयोक्ति लोकातिशयोक्ति अर्थात् कथन होने के कारण अत्यन्त रमणीय होती है। वास्तव में यह आचार्य भामह की वक्रोक्ति ही है। यह सभी अलंकारों में श्रेष्ठ है।

6. आचार्य भामह की वक्रोक्ति की सभी अलंकारों में श्रेष्ठता की स्थापना - आचार्य भामह की मान्यता है कि वक्रोक्ति न केवल सभी अलंकारों में श्रेष्ठ है, अपितु वक्रोक्ति सभी अलंकारों में व्याप्त रहती है। 

7. आचार्य आनन्दवर्धन की प्रत्येक अलंकार में अतिशयोक्ति की स्थापना - आनन्दवर्धन ध्वनिवादी आचार्य थे, फिर भी उन्होंने प्रत्येक अलंकार में अतिशयोक्ति को स्वीकार किया है। ध्वनि सिद्धान्त के प्रतिपादक आचार्य आनन्दवर्धन का अलंकारशास्त्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्याकरणशास्त्र में जो स्थान पाणिनि का और वेदान्तशास्त्र में जो स्थान आदि शंकराचार्य का है, वही स्थान काव्यशास्त्र के इतिहास में आचार्य आनन्दवर्धन को प्राप्त है। आनन्दवर्धन कश्मीर-नरेश अवन्तिवर्मा के सभा पण्डित थे तथा इन्हें 'राजनक' की उपाधि भी प्राप्त थी।

8. आचार्य अभिनवगुप्त की अलंकार सम्बन्धी स्थापना — अलंकारशास्त्र के इतिहास में आचार्य अभिनवगुप्त का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। ये शैव दर्शन के महान आचार्य और प्रतिभाशाली विद्वान् थे। इन्होंने किसी मौलिक ग्रन्य की रचना न करके निम्नलिखित तीन ग्रन्थों पर टीका की रचना की है-

(क) अभिनव भारती — यह भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की टीका है। इसमें प्राचीन आलंकारिकों एवं संगीताचार्यों के मतों का उल्लेख किया गया है। 

(ख) ध्वन्यालोक लोचन - यह आचार्य आनन्दवर्धन के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'ध्वन्यालोक' की टीका है। इसमें भी प्राचीन आचार्यों के मतों का उल्लेख है। 

(ग) काव्य-कौतुक विवरण - यह आचार्य भट्टतौत के ग्रन्थ 'काव्य-कौतुक' की टीका है। यह ग्रन्थ प्राप्त नहीं है।

    आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार अतिशयोक्ति समस्त अलंकारों का सामान्य रूप है। इन्होंने अतिशयोक्ति के विषय में लिखा है -

'सर्वालंकारसामान्यरूपकः।'

9. आचार्य मम्मट की अतिशयोक्ति को समस्त अलंकारों का प्राण होने की स्थापना - आचार्य मम्मट प्रसिद्ध रसवादी और ध्वनिवादी माने जाते हैं। इनके काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ 'काव्य-प्रकाश' का विद्वानों ने बहुत आदर किया है। उन्होंने अतिशयोक्ति को सभी अलंकारों का बीज स्वीकार किया है। इनका कथन है -

'अत्रैव एव विधविषयेऽतिशयोक्तिरेव प्राणत्वेनानुतिष्ठते।' 

(सभी जगह इस प्रकार के विषय में अतिशयोक्ति ही प्राण-तत्त्व के रूप में स्थित रहती है।)

10. महाराज भोज की तीन अलंकारों में समस्त वाङ्मय की स्थापना - राजा भोज ने सरस्वती 'कण्ठाभरण' की रचना की है जो अलंकारशास्त्र का श्रेष्ठ ग्रन्थ कहलाता है। राजा भोज अलंकारवादी आचार्य थे। उन्होंने समस्त वाङ्मय को निम्नलिखित तीन अलंकारों में विभाजित किया है-

(क) स्वभावोक्ति, (ख) वक्रोक्ति, (ग) रसोक्ति उनका कथन है-

वक्रोक्तिश्च रसोक्तिश्च स्वभावोक्तिश्वेति वाङ्मयम् ।

    राजा भोज ने गुणों की प्रधानता होने पर स्वभावोक्ति, रस की प्रधानता होने पर रसोक्ति और अलंकारों की प्रधानता होने पर वक्रोक्ति की सत्ता स्वीकार की है। आचार्य कुन्तक ने भी वक्रोक्ति की सत्ता स्वीकारी है। आचार्य मुक्तक ने वक्रोक्ति को ही एकमात्र अलंकार स्वीकार किया है। उनके अनुसार वक्रोक्ति का अर्थ है - 'उक्ति-वैचित्र्य' अर्थात् कथन की विविधता। यह वक्रोक्ति ही काव्य का जीवन है। इस वक्रोक्ति की परिधि में रस और ध्वनि भी समाहित हो जाते हैं। 'ध्वन्यालोक' के रचयिता आचार्य आनन्दवर्धन ने वैचित्र्य को वक्रता माना है। वे उसी अलंकार को अलंकार मानते हैं जो वैचित्र्य विशेषण वाला हो। यह वैचित्र्य वास्तव में वक्रोक्ति का ही रूप है। इस प्रकार भामह ने अलंकार सिद्धान्त को 'सैषासर्वत्र वक्रोक्तिः' कहकर जिस मत को व्यक्त किया था अथवा जिस मत की स्थापना की थी, आचार्य कुप्तक ने उसे व्यवस्थित रूप प्रदान किया और वक्रोक्ति को अलंकार सिद्धान्त की एक शाखा के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार आचार्य भामह से आचार्य रुद्रट-पर्यन्त आचायों ने अलंकार सिद्धान्त के महत्व को स्वीकार किया है। इसके साथ ही अलंकारवादी आचायों ने अलंकारों का मनोविज्ञान की दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विवेचन किया है। यही कारण है कि सब आचायों के ग्रन्थों में पर्याप्त भाग अलंकार-विवेचन से सम्बन्धित है। काव्यालंकारशास्त्र के कुछ ग्रन्थ तो ऐसे हैं जिनमें अलंकारों का ही विवेचन किया गया है। अप्पय दीक्षित का अलंकारशास्त्रीय ग्रन्थ इसी प्रकार का है, उसमें केवल अलंकारों के लक्षण, उदाहरण और विवेचन हैं।

11. सभी आचार्यों द्वारा अलंकार के महत्व की स्थापना - किसी भी सिद्धान्त अथवा सम्प्रदाय का आचार्य हो, उसने अलंकारों का विवेचन अवश्य किया है। आचार्य मम्मट के अतिरिक्त किसी भी आचार्य ने अलंकारविहीन रचना को काव्य नहीं माना है। यह बात अलग है कि विभिन्न आचायों ने काव्यशास्त्र में अलंकारों की स्थिति भिन्न स्वीकार की है। इसी आधार पर 'अलंकार- सर्वस्व' के रचयिता आचार्य रुय्यक ने स्वीकार किया है कि प्राचीन आचायों ने अलंकारों को काव्य में प्रधान तत्व घोषित करते हुए लिखा है -

'तदेवमलकारा: काव्ये प्रधानमिति प्राध्यानां मतम् ।'

12. ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा अलंकारों की महत्ता की स्थापना - अलंकारवादी आचायों ने अलंकार को काव्य की आत्मा अथवा जीवन घोषित किया है। रसवादी आचायों के बाद सबसे प्रबल एवं सर्वमान्य सिद्धान्त ध्वनि का हुआ है। इसे आचार्य आनन्दवर्धन ने काव्य की आत्मा तो घोषित किया ही, 'अपितु यह भी स्थापना की कि प्राचीन आचार्य भी ध्वनि को काव्य की आत्मा मानते रहे हैं -

'काव्यास्यात्मा ध्वनिरितयुधैर्यः समाम्नातपूर्वः ।'

    ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने भी ध्वनि के तीन भेद-वस्तु ध्वनि, अलंकार ध्वनि और रस ध्यनि स्वीकार करके अलंकार को रस के समान मान्यता प्रदान की है। आचार्य आनन्दवर्धन ध्वनि को काव्य की आत्मा मानते हैं। उन्होंने अलंकार को भी ध्वनि स्वीकार किया है। इस प्रकार वे उन आचार्यों के पर्याप्त समीप पहुँच जाते हैं जो अलंकार को काव्य की आत्मा मानते रहे हैं। 

    आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि के जो तीन भेद - वस्तु ध्वनि, रस-ध्वनि और अलंकार- ध्वनि माने हैं, उन्हें अलंकारवादी आचायों ने अपने-अपने अलंकारों के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिया है। अलंकारवादी आचार्य काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्व को अलंकार मानते हैं-

'काव्यशोभकरान् धर्मानलकारान् प्रचक्षते।'

    ध्वनि, गुण, रस आदि सभी काव्य की शोभा बढ़ाने वाले होने के कारण अलंकारवादी आचायों की मान्यता के अनुसार अलंकार ही हैं।

13. अग्निपुराणकार द्वारा अलंकार के विस्तार की स्थापना - अग्निपुराण के रचयिता आचार्य वेदव्यास ने अलंकार के अन्तर्गत अभिव्यक्ति, अभिया, लक्षणा, व्यंजना, आक्षेप, ध्वनि आदि का विवेचन करके अलंकारों के अत्यधिक महत्त्व को स्थापित किया है। 

14. पण्डितराज जगन्नाथ की अनेक रूप में स्थापना - पण्डितराज जगन्नाथ वैसे रसवादी आचार्य थे। उन्होंने 'रस गंगाधर' की रचना करके काव्य में रस को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है, परन्तु उनके मतानुसार रस, वस्तु ध्वनि तथा अलंकार प्रत्येक में स्वतन्त्र रूप से अलंकार-तत्त्व विद्यमान रहता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि अलंकार पण्डितराज जगन्नाथ की दृष्टि में भी काव्य का जीवनभूत अर्थात् आत्मतत्त्व है।

15. डॉ. उमाशंकर शर्मा 'ऋषि' की अलंकार सम्बन्धी स्थापना - डॉ. उमाशंकर शर्मा ऋषि ने भी अपनी पुस्तक 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' में अलंकार सम्प्रदाय की स्थापनाओं पर इन शब्दों में प्रकाश डाला है- 

"भामह इसके प्रवर्तक है। उद्भट, दण्डी, प्रतिहारेन्द्र राज, पीयूषवर्ष जयदेव आदि इसके प्रबल समर्थक हैं। इस प्रस्थान (सम्प्रदाय) में अलंकार ही काव्य का मुख्य उपादान तथा संज्ञा प्रयोजक है। जयदेव ने तो यहाँ तक कहा कि जो विद्वान अलंकाररहित शब्दार्य को काव्य कहता है, उसे अग्नि को अनुष्ण अर्थात् शीतल कहने में भी संकोच नहीं होगा। स्पष्टतः यह मम्मट पर व्यंग्य है। आनन्दवर्धन के आविर्भाव के पूर्व तक सभी आचार्य काव्य में अलंकार की प्रधानता मानते रहे थे। कुछ लोग (आचार्य) बाद में भी यही मत धारण किये रहे। इस प्रस्थान का महत्त्व 'शास्त्र' को अलंकारशास्त्र कहे जाने से भी स्पष्ट होता है। सभी आचायों ने अलंकारों पर विचार किया तथा वे इनकी संख्या भी बढ़ाते चले गये। भरतमुनि के द्वारा प्रतिपादित चार अलंकार (उपमा, रूपक, दीपक और यमक) बढ़कर सोलहवीं शताब्दी तक संख्या में प्रायः 150 तक पहुँच गये। टीकाओं में अलंकारों का स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया, अन्य उत्कृष्ट उपादानों पर दृष्टि शून्यप्राय रही।" 

16. अलंकारों में रसतत्त्व के अन्तर्भाव की स्थापना - भरतमुनि से आचार्य विश्वनाथ तक रस सिद्धान्त का विस्तार रहा और अन्त में रस को काव्य की आत्मा मान लिया गया। आचायों ने कुछ ऐसे अलंकारों की भी उद्भावना की है, जिसमें रस का अन्तर्भाव किया गया है। रसवत्, प्रेयस, ऊर्जस्वित तथा समाहित इसी प्रकार के अलंकार हैं। अलंकार को अर्थ-सौन्दर्य का उपकरण स्वीकार किया गया है-

'काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते ।'

    अलंकार की व्युत्पत्ति स्वीकार की गयी- 'अलंक्रियते अनेन इत्यलंकारः।' अर्थात् जिसके द्वारा काव्य को सुशोभित किया जाये, वह अलंकार है। चाहे जिस साधन से सौन्दर्य तत्त्व का समावेश हो, वह साधन अलंकार ही कहा गया। इस प्रकार अलंकार के अर्थ की सीमा में विस्तार किया गया। पहले अलंकार सौन्दर्यकारक था। धीरे-धीरे अलंकार को शोभादायक बनाया गया अर्थात् सौन्दर्य को धारण करने वाले पद से उतारकर केवल सौन्दर्य की वृद्धि करने वाला माना गया है। अलंकार केवल शोभा बढ़ाने वाला रह गया। शोभायमान अथवा सुशोभित होने वाला कोई अन्य तत्त्व हो गया, ऐसी मान्यता विकसित हुई। अलंकार के विषय में वह नवीन स्थापना थी। आचार्य वामन ने गुण की शोभा धारण करने वाला और अलंकार को शोभा बढ़ाने वाला कहा -

'काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गुणाः तदतिशयहेतवस्वलंकाराः ।'

(काव्य की शोभा के कर्ता धर्म-गुण हैं और उस शोभा का अतिशय करने वाले, उस शोभा की वृद्धि करने वाले अलंकार है।)

    ध्वनिवाद में अलंकार सर्वथा बाह्रा धर्म माने गए हैं। ध्वनिवादी आचायों की मान्यता थी कि जिस प्रकार आभूषण शरीर के बाह्य तत्व होते हैं और बाहर रहकर ही शरीर की शोभा को बढ़ाते हैं। इसी प्रकार अलंकार भी काव्य में बाह्य तत्त्व हैं और बाहर रहकर ही काव्य की शोभा की वृद्धि करते हैं। यदि रस या ध्वनि किसी रचना में विद्यमान हो तो अलंकारों के अभाव में भी वह रचना काव्य हो सकती है। फिर भी रचना में अलंकार रस के उपकारक के रूप में हो सकते हैं। रचना में अलंकारों का आगमन अनायास होना ही उचित माना जाता है। अलंकारों की अधिकता अथवा उनके आयासपूर्वक आधान से शोभा का विनाश होने लगा। बिहारी ने कहा तो अपनी नायिका के लिए आभूषणों को भार है, पर उन्होंने कविता पर अनायास लादे गये अलंकारों को ही शोभा का विनाशक और भार बताया है-

'भूषन भार सम्हारिहै, क्यों यह तन सुकुमार।

सूधै पाँय न धरि परत, सोभा ही के भार ।।'


ध्वन्यालोककार ने उसी को अलंकार माना है जो कविता में अनायास आ जाता है - 

'अपृथक् यत्ननिर्वर्त्यः सोऽलंकारो ध्वनौ मतः ।" 

(जो बिना किसी यत्न के आ जाये, ध्वनि सम्प्रदाय में उसी को अलंकार माना गया है)

परिश्रम से लाया गया अलंकार चित्रकाव्य में हो सकता है, अन्य काव्यों में यह उद्वेग उत्पन्न करता है, इसलिए अलंकार को काव्य का प्रधान तत्त्व कहना हास्यास्पद है।

17. अलंकारों की संख्या में वृद्धि की स्थापना – बढ़ते-बढ़ते अलंकारों की संख्या इतनी अधिक हो गयी कि उनका वर्गीकरण करने के हेतु विवश होना पड़ा। राजा भोज ने अलंकारों का तीन वर्गों (शब्दालंकार, अर्यालंकार और उभयालंकार) में विभाजन किया है। उन्होंने 24 शब्दालंकारों, 24 अर्थालंकारों और 24 उभयालंकारों को मान्यता प्रदान की है। इस प्रकार उन्होंने (24 x 3 = 72) अर्थात् अलंकारों की संख्या 72 स्वीकार की है। 'काव्य-प्रकाश' के रचयिता आचार्य मम्मट ने अलंकारों की संख्या 68 मानकर उनका निरूपण किया है। आचार्य मम्मट के अनुसार 62 अर्थालंकार और 6 शब्दालंकार हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि भरतमुनि से लेकर क्षेमेन्द्र तक अलंकारों में वृद्धि होती रही। केवल आचार्य मम्मट ने अलंकारों की संख्या कम करके उनकी वृद्धि पर रोक लगायी। आचार्य मम्मट के पश्चात् अलंकारों की संख्या पुनः बढ़ने लगी। आचार्य रुय्यक ने अपने 'अलंकार सर्वस्व' में 78 अलंकारों की गणना प्रस्तुत की है। आचार्य विश्वनाथ ने भी 78 अलंकारों को ही स्वीकार किया है। इसके पश्चात् 'चन्द्रालोक' में अलंकारों की संख्या 100 और 'कुवलयानन्द' में 120 हो गयी है।

यदि आपके कोई प्रश्न हों अलंकार सिद्धांत की मूल स्थापनाओं सेसंबंधित तो कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें। 

Alankar siddhant ki mool sthapnao ka warnan kijiye?

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