प्रश्न 13. औचित्य सम्प्रदाय के आचार्यों ने जो प्रमुख स्थापनाएँ की हैं, उन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर -
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औचित्य सिद्धान्त की प्रमुख स्थापनाएँ
परिचय - काव्यशास्त्र में औचित्य सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य क्षेमेन्द्र माने जाते हैं। उन्होंने 'औचित्य-विचार-चर्चा' नामक ग्रन्थ की रचना की है। उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से औचित्य को काव्य का जीवन-तत्त्व बताते हुए पहली स्थापना की है -
औचित्य सिद्धांत |
(1) 'औचित्य रससिद्धस्य स्थिर काव्यस्य जीवितम् ।'
(औचित्य रससिद्ध काव्य का स्थायी जीवन तत्त्व है।)
आचार्य क्षेमेन्द्र की इसी स्थापना के आधार पर उन्हें औचित्य सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना गया है।
यह बात सत्य नहीं है कि काव्य के औचित्य का महत्व स्वीकार करने वाले क्षेमेन्द्र पहले आचार्य थे। आचार्य क्षेमेन्द् से पूर्व निम्नलिखित आचार्य काव्य में औचित्य का महत्व स्वीकार कर चुके थे -
(क) भरतमुनि - औचित्य की चर्चा सबसे पहले भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' में प्राप्त होती है। भरतमुनि ने बताया है -
"लोक में जो वस्तु जिस रूप में, जिस वेश में, तथा जिस मुद्रा में उपलब्ध होती है, उसका उसी रूप में, उसी वेश में तथा उसी मुद्रा में अनुकरण करना चाहिए।" भरतमुनि ने यह बात नाटक के सम्बन्ध में कही थी। नाटक में वर्णन नहीं अनुकरण होता है। अनुकरण के कारण ही नाटक दृश्य बनता है। यही कारण है कि नाट्यशास्त्र में पात्रों की भाषा, वेशभूषा आदि के विधान पर अधिक बल दिया गया है। भरतमुनि की मान्यता है कि नाटक में पात्रों को देश, काल और वय अर्थात् अवस्था के अनुरूप ही वेशभूषा धारण करनी चाहिए। जो वेशभूषा देश-काल के अनुरूप नहीं है, वह शोभाजनक नहीं हो सकती। जैसे वृक्ष पर मेखला धारण करना उपहास का कारण है -
'अदेशजो हि वेषस्तु न शोभां जनयिष्यति।
मेखलोरसि बन्धे च हास्यार्थमेवोपजायते।।'
(ख) भामह - नाट्यशास्त्र के रचयिता भरतमुनि के बाद अलंकारवादी आचार्य भामह ने अपने ग्रन्थ 'काव्यालंकार' में औचित्य को काव्य का सबसे बड़ा गुण स्वीकार किया है। भामह के मतानुसार काव्य का सबसे बड़ा दोष अनौचित्य है। औचित्य का विरोधी भाव ही अनौचित्य हुआ। अनौचित्य को सबसे बड़ा दोष मानना काव्य में औचित्य का महत्व स्वीकार करना है।
(ग) दण्डी – आचार्य भामह के बाद 'काव्यादर्श' की रचना करने वाले आचार्य दण्डी ने भी काव्य के गुण-दोष के विवेचन के प्रसंग में औचित्य और अनौचित्य को कारण स्वीकार किया है। तात्पर्य यह है कि औचित्य काव्य में गुण का कारण होता है और अनौचित्य अर्थात् औचित्य का अभाव काव्य में दोष उत्पन्न करता है।
(घ) रुद्रट - 'काव्यालंकार' के रचयिता और अलंकारवादी आचार्य रुद्रट ने अनौचित्य को दोष का जनक माना है। तात्पर्य यह है कि अनौचित्य ही दोषों को जन्म देता है। अनौचित्य से बचना औचित्य का महत्व स्वीकार करना है। अनौचित्य दोषों का कारण है, तो औचित्य गुणों का कारण होगा। उन्होंने देश, कुल, जाति, विद्या, धन, आयु, स्थान और पात्रों में अनौचित्य का होना ग्राम्यत्व दोष स्वीकार किया है।
(ङ) आनन्दवर्धन - इन्होंने 'ध्वन्यालोक' की रचना की और ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार किया। आनन्दवर्धन का कथन है-"रस का उन्मेष परम रहस्य औचित्य है और अनौचित्य ही रस-भंग का प्रधान कारण है। अनुचित वस्तु के सन्निवेश से काव्य में रस का परिपाक सम्भव नहीं हो सकता। उनके मतानुसार अलंकार, गुण, रीति आदि का विनियोजन रस के औचित्य की दृष्टि से किया जाता है। उनके अनुसार औचित्य के द्वारा किसी वस्तु का उपनिबन्धन रस का परम रहस्य है -
'अनौचित्यादृते नान्यत् रसभंगस्य कारणम् ।
औचित्योपनिबन्धस्तु रसस्योपनिषत् परा ।।'
(च) अभिनवगुप्त - इन्होंने आनन्दवर्धन के 'ध्वन्यालोक' पर 'लोचन' नाम की टीका का रचना करके औचित्य का महत्व स्वीकार किया है। इन्होंने रस-ध्वनि के साथ औचित्य का नित्य सम्बन्ध स्वीकार किया है। इनके अनुसार औचित्य रस-ध्वनि का प्राण है।
(छ) महाराज भोज - इन्होंने 'सरस्वती कंठाभरण' नामक ग्रन्थ की रचना की है। ये अलंकारवादी आचार्य थे। इन्होंने औचित्य सिद्धान्त का समर्थन किया है तथा लिखा है-"विषय, वक्ता, देश तथा काल के आधार पर कवि को भाषा का प्रयोग करना चाहिए। प्रबन्ध-काव्यों में रस, अलंकार आदि का विनियोग औचित्य के आधार पर करना चाहिए।" इस प्रकार महाराज भोज ने औचित्य की महत्ता स्वीकार की है।
(ज) कुन्तक - ये वक्रोक्तिवादी थे और वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मानते थे। इन्होंने 'वक्रोक्ति-जीवित' नामक काव्यशास्त्र की रचना की है। इन्होंने अनेक प्रकार की वक्रताओं अर्थात् वक्रोक्त्तियों के प्रतिपादन के प्रसंग में औचित्य की आवश्यकता स्वीकार की है। आचार्य कुतक का कथन है कि वस्तु, रस आदि में औचित्य का निर्वाह करना चाहिए।
(झ) महिमभट्ट - इन्होंने 'व्यक्ति-विवेक' की रचना की है। ये ध्वनि-विरोधी आचार्य माने जाते हैं। ये एकमात्र अभिया शक्ति को ही मानते थे। इन्होंने औचित्य को काव्य में अनिवार्य तत्व माना है। इन्होंने रस के अनौचित्य को काव्य का सबसे बड़ादोष माना है।
(2) औचित्य की परिभाषा -
आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'औचित्य विचार चर्चा' में औचित्य को काव्य की आत्मा के पद पर प्रतिष्ठित करके औचित्य सम्प्रदाय की स्थापना के साथ ही औचित्य की परिभाषा प्रस्तुत की है। 'औचित्य क्या है ? इसका विवेचन करते हुए स्पष्ट किया है-"जो वस्तु जिसके अनुरूप होती है, उसे उचित कहते हैं और उचित का जो भाव है, वह औचित्य कहलाता है।" यथा -
'उचितं प्राहुराचार्याः सदृशं किल यम्य यत् ।
उचितस्य च यो भावः तदौचित्यं प्रचक्षते ।।"
(जो जिसके समान होता है, उसे आचायों ने उचित कहा है। उचित का जो भाव है वह औचित्य कहलाता है।)
(3) आचार्य क्षेमेन्द्र -
ने औचित्य को रस का जीवन होने की स्थापना की है। आचार्य क्षेमेन्द्र का स्पष्ट कथन है “औचित्य ही रस का जीवितभूत अर्थात् प्राण है। औचित्य रस का जीवन है और काम में चमत्कारी तत्व है। जिस काव्य में जीवितभूत औचित्य नहीं है, उसमें अलंकारों और गुणों का विनियोग निरर्थक है। अलंकार तो अलंकार है और गुण तो गुण ही है, वह काव्य का जीवितभूत तत्व नहीं हो सकता, रस निविष्ट काव्य का जीवन तो औचित्य ही है।" यथा
'अलंकारस्त्वलंकारा गुणा एवं गुणा सदा।
औचित्य रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम् ।।'
(4) अलंकारों में अलंकारत्व का आधान औचित्य के कारण -
आचार्य क्षेमेन्द्र ने यह भी स्थापना की है कि अलंकारों में अलंकारत्व तभी होता है, जब उनका विन्यास उचित स्थान पर होता है और गुणों में गुण भी तभी होता है, जब वे औचित्य से च्युत न हो।" यथा -
'उचितस्थान विन्यासालंकृतिरलंकृतिः ।
औचित्यादच्युता नित्यं भवन्तीति गुणाः गुणाः।।'
(5) रस के विनियोजन में औचित्य विधान परमावश्यक -
औचित्यवादी आचार्य क्षेमेन्द्र ने यह भी स्थापना की है कि रसों के विनियोजन में भी औचित्य का विधान परम आवश्यक है। जब काव्य में रसों का विनियोजन उचित रूप में किया जाता है, तभी उसमें रमणीयता आती है। अनुचित स्थान व समय में रस का नियोजन नीरसता को उत्पन्न करता है, और इस प्रकार की स्थिति को काव्य में दोष माना जाता है। यही कारण है कि आचार्य आनन्दवर्धन ने अनौचित्य को रस-भंग का एकमात्र कारण माना है। आचार्य क्षेमेन्द्र की दृष्टि में औचित्य से रस-विनियोग सहृदयों को आह्लादित करने में समर्थ होता है।
(6) काव्य के प्रत्येक अंग में औचित्य की व्याप्ति -
आचार्य क्षेमेन्द्र ने यह भी स्थापना की है कि औचित्य काव्य के प्रत्येक अंग में व्याप्त रहता है। तात्पर्य यह है कि औचित्य का सम्बन्ध काव्य में किसी एक ही अंग तक सीमित नहीं है। जिस स्थान पर औचित्य का अभाव होगा अर्थात् औचित्य नहीं रहेगा, वही रस का भंग हो जायेगा। इससे काव्य उपहासास्पद हो जायेगा। अतः काव्य में औचित्य का सर्वांगपूर्ण निर्वाह होना आवश्यक है। जिस प्रकार लोक में सुन्दरी रमणीय मेखला गले में पहन ले, नितम्बों पर हार धारण कर ले, हाथ में नुपुर बाँध ले और पैर में नुपुर धारण कर ले तो कौन उसका उपहास नहीं करेगा ? इसी प्रकार यदि कोई पुरुष विनम्र व्यक्ति पर तो वीरता दिखावे और शत्रु पर करुणा प्रदर्शित करे तो कौन उसका उपहास नहीं करेगा ? यही स्थिति काव्य में है। औचित्य के अभाव में न तो अलंकार ही शोभा धारण करता है और न गुण ही रूचिता उत्पन्न करता है। यही नहीं, अपितु रस भी रमणीयता उत्पन्न नहीं कर पाता है -
"कण्ठे मेखलया नितम्बफलके तारेण हारेण वा,
पाणौ नुपुरबन्धनेन चरणे केयूरपाशेन वा
शार्येण प्रणते रिपोकरुणया नायान्ति के हास्यताम्,
औचित्येन बिना रुचिं प्रतनुतेनालंकृतिनगुणाः।।"
उपसंहार -
इस प्रकार काव्य के प्रत्येक अंग में औचित्य के व्याप्त होने के कारण क्षेमेन्द्र ने औचित्य को काव्य का जीवित (प्राण) कहा है। उनका कथन है कि रस में रसत्व, अलंकार में अलंकारत्व, गुण में गुणत्व और रीति में रीतित्व तभी होते हैं, जबकि उनका औचित्यपूर्ण संविधान है।
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