औचित्य सिद्धान्त का परिचय देते हुए बताइये कि यह काव्य का मौलिक सिद्धान्त है अथवा सहायक सिद्धान्त है?

प्रश्न 12. औचित्य सिद्धान्त का परिचय देते हुए बताइये कि यह काव्य का मौलिक सिद्धान्त है अथवा सहायक सिद्धान्त है?

उत्तर -

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औचित्य सिद्धांत का स्वरूप या अर्थ

- उचित का भाव। उचित शब्द से भाववाचक व्यञ प्रत्यय होकर 'औचित्य' शब्द बनता है। व्यवहार, आचरण, गतिविधि, काव्य-रचना आदि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में औचित्य का महत्त्व है। जो काम, वस्तु अथवा व्यवहार उचित नहीं होगा, उसे सहृदय भावुक क्या, मूर्ख व्यक्ति भी रुचिकर नहीं समझेगा। काव्यशास्त्र में औचित्य शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। भाव, रस, अलंकार, रीति आदि कवि-कर्म की समस्त प्रक्रियाएँ औचित्य के अन्तर्गत आती है। औचित्य शब्द का प्रयोग न करते हुए भी भरतमुनि से लेकर परवर्ती आचायों ने उन सब बातों को काव्य के लिए आवश्यक बताया है जो औचित्य के अन्तर्गत आती हैं औचित्य पर विस्तारपूर्वक चर्चा सर्वप्रथम आचार्य क्षेमेन्द्र ने की है।

औचित्य सिद्धान्त

आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य की परिभाषा निम्न प्रकार दी है -

'उचितं प्राहुराचार्याः सहस्जकिल यस्य यत्।

उचितस्य च यो भावो तदौचित्यम् प्रचक्षते ।।'

(जो वस्तु अथवा तत्व किसी के निश्चय ही अनुरूप हो, उसे आचार्यों ने उचित कहा है। उचित का भाव ही औचित्य कहलाता है।)

वे औचित्य को काव्य का प्राण-तत्व स्वीकार करते हैं -

'औचित्यं रससिद्धस्य स्थिर काव्यस्य जीवितम् ।'

इस प्रकार वे इसे रस का भी प्राण स्वीकार करते हैं। वे यह भी स्वीकार करते हैं - 

'औचित्येन विना रुचिं प्रतनुते, नालंकृतिार्नोगुणः ।

(उचित स्थान के प्रयोग के बिना अलंकारादि भी गुणयुक्त नहीं हो पाते ।)

क्षेमेन्द्र के मत से औचित्य के अभाव में सौन्दर्य-सृष्टि अथवा सौन्दर्यानुभूति सम्भव नहीं है। स्त्री एवं पुरुष दोनों का उदाहरण देते हुए आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य की बात इस प्रकार की है -

'कण्ठे मेखलया, नितम्बफलके तारेण हारेण वा,

पाणौ नूपुरबन्धनेन चरणे केयूर पाशेन वा। 

शौर्येण प्रणते, रिपौ करुणया, नायान्ति के हास्यताम्,

औचित्येन विना रूचि प्रतनुते, नालंकृतिार्नोगुणः ।।

औचित्य के अभाव में गुणों एवं अलंकारों की शोभाहीनता बताने के साथ क्षेमेन्द्र ने इनके उचित प्रयोग को शोभा का जनक बताया है -

उचित-स्थान-विन्यासादलंकृतिरलंकृतिः। 

औचित्यापादच्युता नित्यं भवन्त्येव गुणाः गुणाः ।।

(उचित स्थान पर प्रयोग करने से अलंकार शोभा वृद्धिकारक होते हैं। इसी प्रकार औचित्य से च्युत होने वाले गुण ही वास्तव में गुण होते हैं।)

क्षेमेन्द्र ने औचित्य को काव्य की आत्मा क्यों स्वीकार किया ? इसका भी उन्होंने उल्लेख किया है कि सभी तत्वों - रस का रसत्व, अलंकार का अलंकारत्व आदि औचित्य के कारण ही महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन गुणों का यदि उचित रूप में विधान न हो सका, तो काव्य-शोभा क्षीण हो जायेगी।

औचित्य सिद्धांत के भेद

क्षेमेन्द्र ने औचित्य के निम्नलिखित भेद माने हैं -

'पदे, वाक्ये, प्रबन्धे ये गुणेऽअलंकारणे रसे,

क्रियायाम् कारके लिंगे वचने व विशेषणे ।

उपसर्गे च निपाते च काले देशे कुले व्रते,

तत्वे तत्वेऽप्यभिप्राये स्वभावसारसंग्रहे।

प्रतिभायामवस्थायां विचारे नाम्नि वाशिषे,

काव्यास्यांगेषु च प्राहुरौचित्यं व्यापि जीवितम् ।।' 

(पद, वाक्य, प्रबन्ध, अर्थ, गुण, अलंकार, रस, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात, देश, काल, कुलवृत, तत्व, स्त्राव, अभिप्राय, सार-संग्रह, प्रतिभा, अवस्था, विचार, नाम, आशीर्वाद, काव्य-इन सत्ताईस अंगों में काव्य का जीवित औचित्य व्याप्त है।)

वस्तुतः क्षेमेन्द्र द्वारा औचित्य का भेद-निरूपण अत्यन्त व्यापक है। डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा' के अनुसार इसके अन्तर्गत काव्यशास्त्रीय अंगों - रस, गुण, रीति, अलंकार, मीमांसाशास्त्र, व्याकरण तथा लोकशास्त्र को भी महत्त्व दिया गया है। पद एवं उसके अवयवों का विवेचन व्याकरणशास्त्रीय प्रणाली के आधार पर, वाक्य-निरूपण काव्योचित मीमांसा शास्त्रीय पद्धति के अनुसार, प्रबंधार्थ, गुण एवं अलंकार का काव्यशास्त्रीय दृष्टि से तथा स्वभाव एवं व्रत का विवेचन लोकशास्त्रीय दृष्टि से किया गया है। उन्होंने काव्यात्मभूत तत्व रस की उपेक्षा नहीं की है, उसे काव्य की आत्मा स्वीकार किया है, परन्तु वे औचित्य को रस का प्राण मानते हैं। इस प्रकार उनके अनुसार काव्य की आत्मा रस है और उसका प्राण या जीवन है - औचित्य

औचित्य सिद्धांत का महत्व

औचित्य का महत्व असंदिग्ध है। काव्य को यदि सापेक्ष एवं योजनासिद्ध वस्तु मानेंगे तो औचित्य को स्वीकार करना पड़ेगा औचित्य का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। काव्य, नाटक, प्रबन्ध, मुक्तक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध-साहित्य के सभी रूपों में औचित्य की अपेक्षा होती है। काव्य की आत्मा रस की मान्यता स्थिर होने के साथ ही औचित्य को सम्मान मिलना चाहिए था, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। औचित्य का सम्बन्ध काव्य के अन्य गौण अंगों से तो है ही, पर मुख्य अंग रस से विशेष है।

औचित्य सिद्धांत का इतिहास

(1) भरतमुनि - नाटक के सम्बन्ध में विचार करना भरतमुनि का उद्देश्य था। उन्होंने नाटक को लोक की अनुकृति बताते हुए अनुरूपता पर बल दिया है। पात्रों की वेशभूषा एवं गतिविधि में अनुरूपता (सामंजस्य) पर बल देते हुए 

भरतमुनि ने लिखा है -

'वयोऽनुरूपः प्रथमस्तु वेषो वेषानुरूपश्च गतिः प्रचारः। 

गतिप्रचारानुगतं च पाठ्यं पाठ्यानुरूपोऽभिनयश्च कार्यः।।"

(सर्वप्रथम नाटक के पात्रों की वेशभूषा उनकी अवस्था के अनुरूप ही होनी चाहिए। वेशभूषा के अनुसार ही पात्रों की गति होनी चाहिये। गति के प्रचार के अनुरूप वचन एवं वचन के अनुरूप उनका अभिनय होना चाहिए।) 

यद्यपि उन्होंने औचित्य शब्द का नामोल्लेख नहीं किया है, पर नाटक के विवेचन में उन्होंने इसके महत्व को स्वीकार किया है। उन्होंने औचित्य के निर्णायक तत्व का उल्लेख करते हुए लोक-व्यवहार को उसका नियामक माना है, शास्त्र को नहीं। इस प्रकार के विवेचन के द्वारा भरत औचित्य के 'भावदर्शी' आचार्य सिद्ध होते हैं। उन्होंने 'नाट्यशास्त्र' में नाटक के परमतत्व रस का वर्णन औचित्य की दृष्टि से ही किया है, जिसे वे 'अनुरूपता' की अभिधा प्रदान करते हैं।"

(डॉ. राजवंश सहाय 'हीरा' - भारतीय आलोचनाशास्त्र)

(2) भामह - इन्होंने भी औचित्य का उल्लेख करते हुए उसके स्थान पर 'सन्निवेश विशेषः' शब्द का प्रयोग किया है—

'सन्निवेशविशेषस्तुदुरुक्तमपि शोभते, 

नीलं पलाशिका बद्धधमन्तराले स्त्रजामिव।'

(विशेष सन्निवेश अर्थात् औचित्यपूर्ण विधान होने पर दोषपूर्ण उक्ति भी उसी प्रकार शोभा की जनक हो जाती है, जिस प्रकार मालाओं के बीच में रखा हुआ नीला या हरा पलाशपत्र )

भामह की दृष्टि में उक्ति का उतना महत्व नहीं है, जितना उसके संयोजन अथवा विन्यास का। संयोजन सन्निवेश अथवा विधान का तात्पर्य लोक व्यवहारनुमोदित औचित्य से ही है। उचित संसर्ग के लिए आश्रय सौन्दर्य शब्द का प्रयोग करते हुए भामह ने इसी बात को पुनः स्पष्ट रूप से कहा है - 

“सुन्दरी के लोचन में लगे हुए काले अंजन के समान आश्रय के साधारण सौन्दर्य के कारण असाधु (शोभारहित) वस्तु शोभायुक्त हो जाती है।" 

इस प्रकार शब्दों के उचित प्रयोग की चर्चा करते हुए भामह ने औचित्य-तत्त्व की प्रतिष्ठा की है।

(3) दण्डी - इन्होंने 'औचित्य' के स्थान पर 'दोषपरिहार' शब्द का प्रयोग किया है। इन्होंने कवि-कौशल को दोषपरिहार का कारण माना है। दोषों की उत्पत्ति अनुचित संयोग से होती है। इस दृष्टि से भामह और दण्डी के मतों में बहुत समानता है -

'विरोधः सकलोऽप्येष कदाचित् कविकौशलात्। 

उत्क्रम्य दोषगणनां गुण वीथी विगाहते।।'

(कवि के कौशल अर्थात् उचित तत्वों के सन्निवेश से दोष भी अपना मार्ग छोड़कर गुण का स्थान प्राप्त कर लेते हैं।) 

इस स्थल पर 'गुण' शब्द के विषय में दण्डी ने कहा है - 'अत्रत्यं गुणपदम् औचित्य परम्' (यहाँ गुण शब्द का अर्थ औचित्य ही है ।) डॉ. जयन्त मिश्र (काव्यात्मा-मीमांसा) के अनुसार--" जिसके लिए जो उचित होता है, उसके विधान से गुण और जो अनुचित होता है, उसके विधान से दोष होता है। न तो कोई अपने आप में गुण है और न कोई अपने-आप में दोष ।

गुण का मूल है - औचित्य और दोष का मूल है-अनौचित्य ।" 

(4) उद्द्भट ने 'काव्यालंकारसार - संग्रह में ऊर्जस्वि अलंकार के निरूपण में औचित्य का उल्लेख किया है। उनका आशय है कि अनौचित्यपूर्ण रस-भाव आदि के प्रयोग में ऊर्जस्वि एवं उसके औचित्यपूर्ण बोध में रस, भाव की स्थिति होगी ।

(5) यशोवर्मन - कन्नौज - नरेश यशोवर्मन ने अपने नाटक 'रामाभ्युदय' की भूमिका में औचित्य शब्द का प्रयोग किया है -

'औचित्य वचसां प्रकृत्यनुगतः सर्वत्र पात्रोचित।' 

(नाटक में वचनों का औचित्य स्वभावानुकूल हो, पात्रों में सर्वत्र औचित्य रहे ।)

(6) रुद्रट- इन्होंने औचित्य का वर्णन अधिक विस्तार से किया है - 

'एताः प्रयत्नादधिगम्य सम्यगौचित्यमालोच्य तथार्थसंस्थम् ।'

उन्होंने काव्य में अनुप्रास के प्रयोग में औचित्य का विस्तार किया है तथा उसे ही इसका प्रधान निष्कर्ष बताया है। काव्य के विविध तत्वों के नियोजन में रुद्रट ने उनके औचित्यपूर्ण प्रयोग का कथन किया है। वृत्तियों का निबंधन संतुलित एवं समुचित हो, तभी सौन्दर्य की उत्पत्ति हो सकती है। 

(7) आनन्दवर्धन - इनका इस क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। इन्होंने गद्य-रचना में छन्दों के नियामक न होने और पद्य-रचना में (महाकाव्य) औचित्य सम्बन्धी सभी नियमों का निर्वाह उचित बताया है - 

'यथोक्तमौचित्यमेव तस्या नियामकम्, सर्वत्र गद्य बन्धेऽपि छन्दोनियमवर्जिते।' 

(सर्गबद्ध काव्य में रस के अनुसार औचित्य होना चाहिए। छन्दों के नियम के अतिरिक्त यही औचित्य गद्य-रचना का नियमन करता है।) 

इन्होंने वैसे तो रस के सभी अंगों के औचित्य की बात कही है, पर विभाव के औचित्य पर विशेष बल दिया है। औचित्य को रस का सबसे प्रबल कारण मानते हुए इन्होंने लिखा है -

'अनौचित्यादृते नान्यत् रसभङ्गस्य कारणम् ।'

(अनौचित्य अर्थात् औचित्य के अभाव से अधिक-रस भंग का दूसरा कारण नहीं है। ) 

(8) अभिनवगुप्त - इन्होंने औचित्य को काव्य की आत्मा मानने एवं काव्य में औचित्य को रस से अधिक महत्त्व देने का प्रबल विरोध किया है। इनके विचार से प्रकाश तो रस ही है औचित्य तो सम्बन्ध-विशेष का नाम है। वे यह अवश्य स्वीकार करते हैं कि रस, ध्वनि एवं औचित्य तीनों काव्य के नित्य तत्व हैं। रस काव्य की आत्मा है रस ध्वनि के रूप में ही उन्मीलित होता है। औचित्य का अस्तित्व रस की सत्ता का प्रमाण है। इन्होंने काव्यौचित्य, रसौचित्य, भावौचित्य आदि के अंग के कारण काव्याभास, रसाभास, भावाभास आदि की उत्पत्ति स्वीकार की।

(9) कुन्तक - इन्होंने वक्रोक्ति सिद्धान्त का समर्थन करते हुए औचित्य के महत्व को स्वीकार किया है। कुन्तक ने आदित्य के दो प्रकार माने हैं और वृत्यौचित्य, अलंकारौचित्य, रीत्यौचित्य आदि का कथन रस वर्ण-वक्रता के अन्तर्गत किया है।

(10) महिमभट्ट - ये रसवादी आचार्य थे। इन्होंने रसात्मक काव्य में अनौचित्य के स्पर्श मात्र की संभावना का निषेध करते हुए औचित्य का समर्थन किया है। 

इन्होंने काव्य से औचित्य का अभिन्न सम्बन्ध मानते हुए रस-प्रतीति को औचित्य का ही फल माना है। इन्होंने दोषों का वर्णन औचित्य एवं अनौचित्य की दृष्टि से किया है। जब रस-प्रतीति में विघ्न उपस्थित हो जाये तो अनौचित्य दोष होगा। महिमभट्ट काव्य के अवच्छेदक दत्व (नित्यधर्म) के रूप में औचित्य की स्थिति स्वीकार कर उसका महत्व प्रतिपादित करते हैं।

औचित्य सिद्धांत और अन्य सम्प्रदाय

(1) औचित्य और रस-सम्प्रदाय - क्षेमेन्द्र ने औचित्य को रस का पोषक स्वीकार किया है। इन्होंने औचित्य को रस का प्राण स्वीकार करते हुए कहा है कि औचित्य से युक्त होने पर श्रृंगारादि रस जन-मन को अंकुरित करते हैं! उनके अनुसार- "जिस प्रकार वसन्त अशोक को अंकुरित कर सहृदयों को आह्लादित करता है, उसी प्रकार रस-औचित्य के संयोग से औचित्य रुचिर होता है। रसानुभूति औचित्य के अभाव में संभव नहीं है। संक्षेप में रस और औचित्य परस्पर सम्बन्धित हैं।"

(2) औचित्य और अलंकार - औचित्य सम्प्रदाय अलंकारौचित्य के माध्यम से उचित स्थान पर अलंकारों की योजना का समर्थक है। उनके अनुरूप रसानुभूति अलंकार विन्यास ही अलंकारौचित्य है—

'औचित्यस्य चमत्कारकारिणश्चरुचण्णे।' 

यह सम्प्रदाय रस को काव्यात्मा स्वीकार करते हुए अलंकारों को उसका पोषक मानता है।

(3) औचित्य और वक्रोक्ति - कुन्तक भी इसके समर्थक हैं, क्योंकि इन्होंने वक्रता के विविध रूपों का वर्णन करते समय औचित्य का महत्व स्वीकार किया है। इनके द्वारा वर्णित वक्रोक्ति के भेदों में औचित्य का महत्व दिखाई पड़ता है। 

(4) औचित्य और ध्वनि - आनन्दवर्धन भी औचित्य का महत्व स्वीकार करते हुए अनौचित्य को रस-भंग का कारण बताते हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि काव्य में अलंकार, रस, गुण, वृत्ति आदि की योजना औचित्य के आधार पर ही होनी चाहिए। यदि इनके प्रयोग में अनौचित्य होगा तो विलासिता उत्पन्न हो जायेगी। 

उपसंहार - 

रस और औचित्य में से यद्यपि काव्यात्मा रस ही है पर काव्य के सिद्धान्तों में औचित्य का भी विशेष महत्व है, क्योंकि इसके अभाव में रस भी नीरस हो सकता है। जहाँ तक इसके सहायक सिद्धान्त होने का प्रश्न है वहाँ तो ये तथ्य सर्वमान्य हैं कि रस को यदि काव्य की आत्मा माना जाये तो शेष सभी अंग-गुण, रीति, अलंकार उसके उत्कर्ष में ही सहायक हैं, वे रसानुभूति के कारण नहीं हैं। यही स्थिति औचित्य की भी है। 

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