प्रश्न 14. औचित्य के प्रमुख भेदों का उदाहरण सहित परिचय दीजिए।
अथवा
औचित्य कितने प्रकार का होता है ? प्रत्येक का लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर -
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औचित्य सिद्धांत परिचय
आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'औचित्य-विचार चर्चा' में औचित्य के सत्ताईस (27) भेदों का निरूपण किया है, किन्तु काव्य के प्रत्येक अंग में औचित्य के व्याप्त होने के कारण उसके अनेक भेद हो सकते हैं। इसे औचित्य के भेदों की विवेचना भी कहते हैं.
डॉ. उमाशंकर शर्मा 'ऋषि' ने अपने ग्रव्य 'संस्कृत-साहित्य का इतिहास में आचार्य क्षेमेन्द्र, उनके 'औचित्य- विचार - चर्चा' और औचित्य के विभाजन के विषय में इस प्रकार कहा है -
औचित्य के भेदों का विवेचन |
"कश्मीर निवासी क्षेमेन्द्र ने प्रायः 40 ग्रन्थों की रचना विविध साहित्य प्रकारों में की है —'काव्यमाला' में इनके अनेक ग्रन्य प्रकाशित हैं। काव्यशास्त्र से सम्बन्धित इनकी तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं - औचित्य - विचार - चर्चा, कवि-कण्ठाभरण तथा सुवृत्त-तिलका। इनका काल प्रायः निश्चित है। 'वृहत्कथा मंजरी' (19/37) के अनुसार इन्होंने अभिनवगुप्त से साहित्य की शिक्षा पायी थी। 'औचित्य विचार चर्चा' तथा 'कवि-कण्ठाभरण' की रचना राजा अन्वति (1028-65 ई.) के राज्य-काल में की थी एवं 'दशावतारचरित काव्य' को 1066 ई. में पूरा किया था, जब अवन्ति-नरेश के पुत्र कलश का शासन था। अतः क्षेमेन्द्र का स्थिति-काल 1000 ई. से 1070 ई. तक माना जा सकता है। 'औचित्य-विचार-चर्चा' में औचित्य-प्राधान्य का प्रवर्तन है। इनमें 19 कारिकाएँ हैं। अन्त में पाँच पद्यों में कवि का वंश-वर्णन है। औचित्य के सत्ताईस (27) क्षेत्रों को समझाने के लिए क्षेमेन्द्र ने बहुत-से उदाहरण अपनी वृत्ति में दिये हैं। 'सुवृत्त तिलक' इसी का पूरक ग्रन्थ है, जिसमें वर्णनीय विषय के अनुसार छन्दों के चयन का औचित्य दिखाया गया है। 'कवि-कण्ठाभरण' केवल 55 (पचपन) कारिकाओं का ग्रन्थ है और पांच सन्धियों में विभक्त है। कवित-रचना के पाँच सोपान, शिष्यों के तीन वर्ग, कवियों के पाँच वर्ग तथा दस प्रकार के चमत्कार-ये सब इसकी विशिष्ट विवेचनाएँ हैं। तीनों पुस्तकें हिन्दी व्याख्या के साथ प्रकाशित हैं।
डॉ. कृष्णदेव शर्मा के अनुसार यशोवर्मन पहले नाट्यकार है, जिन्होंने 'औचित्य' शब्द का प्रयोग सही सन्दर्भ में किया है। उन्होंने औचित्य की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है -
'औचित्यं वचासां प्रकृत्यनुगतं सर्वत्र पात्रोचितां,
दृष्टिः स्वावसरे रसस्य च कथामार्गेण चातिक्रमः।
शुद्धिः प्रस्तुत संविधानविषये प्रौढीश्च शब्दार्थयोः।
विद्वद्भिः परिभाव्यतामवहिते एतावदेवास्तु वः।।'
इन पंक्तियों में यशोवर्मन ने मुख्य रूप से तीन बातें कही हैं -
- नाटक में वचनों का औचित्य होना चाहिए।
- उपयुक्त अवसर पर पात्रों के अनुकूल रस की पुष्टि होनी चाहिए।
- कथा की योजना में कोई बात अकृत्रिम नहीं होनी चाहिए।
इस दृष्टि से भरतमुनि और यशोवर्मन के चिन्तन में अद्भुत साम्य दीखता है। भरतमुनि की ही भाँति यशोवर्मन ने भी समस्त नाटकीय तत्वों की सफल योजना का एकमात्र आधार औचित्य को ही माना है।
आनन्दवर्धन के बाद औचित्य के सम्बन्ध में महिमभट्ट आदि आचार्यों की दृष्टि पुनः संकुचित होने लगी थी। क्षेमेन्द्र ने आनन्दवर्धन से प्रेरणा प्राप्त करके औचित्य को स्वतन्त्र सिद्धान्त के रूप में स्थापित किया। आनन्दवर्धन ने तो उसे अर्थात् औचित्य को रस के उपकरण के रूप में विवेचित किया था, पर क्षेमेन्द्र ने सभी तथ्यों का औचित्य में भली-भाँति समावेश कर दिया है। उन्होंने काव्य में कमनीयता का रहस्य इसी औचित्य को स्वीकार किया है। उनकी मान्यता यह भी है कि कवि-कर्म अनौचित्य का परिहार करके ही समाप्त नहीं हो जाता, वह औचित्य-विधायक भी होता है, नकारात्मक नहीं। औचित्य तो बाद की मीमांसा है।
रसानुभूति में चमत्कार उत्पन्न करने वाला
- रसानुभूति में चमत्कार उत्पन्न करने वाला- औचित्य के विषय में आचार्य क्षेमेन्द्र ने यह स्थापना की है कि औचित्य रसानुभूति में चमत्कार को उत्पन्न करता है। इस प्रकार औचित्य रस का जीवन है चमत्कार को भी रस का जीवन बताया जाता है। जीवन ही जीवन को उत्पन्न कर सकता है। क्षेमेन्द्र ने काव्य के प्रत्येक अंग पात्र, शब्द, पद, वर्ण, रीति, वृत्ति, गुण, लिंग, वचन, कारक, वाक्य, रस, भाव, अलंकार, प्रसंग, प्रबन्ध, व्यवहार, विचार, विषय आदि सबसे अनौचित्य की स्थिति को महत्वपूर्ण माना है। क्षेमेन्द्र ने रस को काव्य का आत्म-तत्त्व स्वीकार करके कहा है -
'औचित्यस्य चमत्कारकारिणश्चारु चर्वणे।
रस जीवित भूतस्य विचारम् कुरुतेऽधुना।।'इस श्लोक में क्षेमेन्द्र ने औचित्य को रसानुभूति में चमत्कार उत्पन्न करने वाला तथा रस का जीवन बताया है। उन्होंने इस प्रकार औचित्य को काव्य का जीवित अर्थात् अविनश्वर तत्व माना है। अतः आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार काव्य की सिद्धि रस से होती है और औचित्य उसे स्थायित्व प्रदान करता है।
औचित्य सिद्धान्त की मौलिकता - यह वितर्क उपस्थित होता है कि औचित्य का यह सिद्धान्त मौलिक है अथवा काव्य का सहायक सिद्धान्त है ? क्या औचित्य की एक स्वतन्त्र काव्य-सिद्धान्त के रूप में प्रतिस्थापना की जा सकती है अथवा औचित्य दोषपरिहार करने का साधन है?
इस विषय में इतना तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि औचित्य न केवल दोषों का अभाव है और न केवल दोषों का परिहार है। यद्यपि दोषहीन रचना में औचित्य का होना आवश्यक है, किन्तु दोषों का अभाव ही औचित्य है। यह उसका युक्तियुक्त स्वीकरण नहीं है, सत्य तो यह है कि औचित्य की आवश्यकता रचना-प्रक्रिया में सबसे पहले होती है। प्रत्येक वस्तु एवं अंग-उपांग का औचित्यपूर्ण अनुपात ही किसी भी कृति को स्वाभाविकता प्रदान करता है। इससे वह कृति आस्वादमयी हो जाती है। इसलिए निर्दोषता से पहले औचित्य की आवश्यकता है। निर्दोषता अथवा दोषाभाव औचित्य का ही परिणाम है।
अब समस्या यह रह जाती है कि क्या औचित्य को स्वतन्त्र काव्य-सिद्धान्त के रूप में मान्यता प्रदान की जा सकती अथवा इसे काव्यांगों के सहायक के रूप में माना जाता है। इस सम्बन्ध में यह बात विचार करने योग्य है कि सिद्धान्त उसे कहते हैं, जिस पर तर्क-वितर्क किया जाता है और जिसकी व्याप्ति परिस्थिति- विशेष में ही होती है। औचित्य की व्युत्पत्ति सर्वत्र है तथा यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसका निषेध तो किसी स्थिति और किसी भी रूप में नहीं किया जा सकता; जैसे - अलंकार आदि सिद्धान्तों में मात्र अलंकारों को ही महत्ता प्रदान की गयी है, किन्तु औचित्य का समावेश यहाँ अर्थात् अलंकार सिद्धान्त में भी है। रसों में भी औचित्य आवश्यक है, अन्यथा उदाहरणार्थ करुण रस में हास्यास्पद स्थितियों का अनुचित समावेश रचना को शोभाहीन बना देगा। औचित्य तो प्रत्येक स्थान पर व्याप्त है। यह तो एक आवश्यक तत्व है, अतः इसका निषेध तो कदापि हो ही नहीं सकता।
औचित्य की स्थापना काव्य के अंग के रूप में - काव्य से सम्बन्धित नियम, स्थान, देश और काल के अनुरूप परिवर्तित होते रहते हैं। यदि इनमें औचित्य का समावेश न किया जाये तो काव्य व्यर्थ हो जायेगा। वस्तुतः काव्य के सौन्दर्य का नियामक औचित्य ही है। इतना ही नहीं, हमारे क्रिया-कलाप का और दैनिक जीवन का अविभाज्य अंग भी औचित्य है। यह न तो हमारे जीवन में किसी भी प्रकार की गतिविधि की सम्भावना नही रह जायेगी। औचित्य ही एकमात्र ऐसा भाव है जो प्रत्येक विधान में पग-पग पर आवश्यक प्रतीत होता है। यही कारण है कि प्रत्येक काव्यशास्त्री ने औचित्य को स्वीकृति प्रदान की है। आचार्य क्षेमेन्द्र से पूर्व और बाद में औचित्य के समर्थक आचायों की कमी नहीं रही है। सभी काव्यशास्त्रियों ने येन-केन प्रकारेण औचित्य का वर्णन किया है। यही कारण है कि औचित्य को सिद्धान्त न कहकर भाव कहना अधिक उचित प्रतीत होता है। सिद्धान्त कहकर औचित्य को किसी बन्धन में नहीं बाँधा जा सकता है और न ही बाँधा जाना चाहिए। औचित्य किसी सम्प्रदाय विशेष की बपौती भी नहीं हो सकता।
औचित्य की सर्वव्यापकता - इस प्रकार औचित्य की सर्वव्यापकता की स्थापना की जा सकती है। औचित्य का सम्बन्ध सभी काव्यांगों और काव्य के सभी तत्त्वों से है। इस आधार पर इसकी उपस्थिति सर्वत्र अनिवार्य रूप से देखी जा सकती है।
औचित्य और रस — औचित्य के सन्दर्भ में रस पर विचार कर लेना अनुचित नहीं होगा। विचार यह करना है कि औचित्य और रस की स्थिति में क्या अन्तर है? डॉ. कृष्णदेव शर्मा ने यह स्वीकार किया है कि औचित्य की स्थिति रस से उच्च है। कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि औचित्य ही एकमात्र ऐसा व्यापक भाव अथवा तत्व है, जो रस, विचार, अलंकार रीति-सभी तत्वों में समान रूप से अवस्थित रहता है।
औचित्य के भेद क्षेमेन्द्र ने औचित्य के निम्न सत्ताईस भेद किये हैं -
(1) पद, (2) वाक्य, (3) प्रबन्ध, (4) गुण, (5) अलंकार (6) रस, (7) क्रिया, (8) कारक, (9) लिंग, (10) वचन, (11) विशेषण, (12) उपसर्ग, (13) निपात, (14) देश (15) काल (16) कुल, (17) व्रत, (18) तत्त्व, (19) सत्व, (20) अभिप्राय, (21) विभाव, (22) सार संग्रह (23) प्रतिभा, (24) विचार (25) नाम, (26) आशीर्वचन (27) प्रत्यय - औचित्य के इन सत्ताईस (27) प्रकारों का क्षेमेन्द्र ने विस्तार से वर्णन किया है और सभी के उदाहरण दिये हैं।
डॉ. रांगेय राघव ने भी औचित्य की स्थिति रस से उच्च स्वीकार की है। उन्होंने लिखा है "यदि कोई ऐसा तत्त्व है जो भाव और भाषा, रूप और रस, नीति-नीति-सभी पर समान प्रभाव रखता है तो वह भी औचित्य है।"
यद्यपि यह सत्य है कि औचित्य की व्याप्ति सर्वत्र रस पर भी रहती है, किन्तु इससे यह ध्वनित नहीं होता है कि औचित्य के रहने पर रस न रहे अथवा औचित्य के रहने पर काव्य में रस की स्थिति आवश्यक नहीं है। औचित्य तो एक भाव है जो विभिन्न वाक्यों को ही आधार बनाता है। इस आधार पर औचित्य काव्य की आत्मा नहीं हो सकता, काव्य की आत्मा का स्थान तो रस को ही देना पड़ेगा। इस विषय में आचार्य अभिनवगुप्त का कथन सर्वथा स्पष्ट है कि औचित्य का मूल आधार रस है। रस के बिना औचित्य शब्द का प्रयोग सर्वथा व्यर्थ हो जायेगा औचित्य शब्द का प्रयोग तभी सार्थक हो| सकता है, जिसके प्रति उसका प्रयोग हो रहा हो, वह वस्तु भी विद्यमान हो रस और ध्वनि के अभाव में औचित्य की अपेक्षा नहीं की जा सकती -
“उचितशब्देन रसविषयमौचित्यं भवतीति दर्शयन् रसध्वनेः जीवितत्वं सूचयति। तद भावे हि किमपेक्षयदेमौचित्यं नाम सर्वत्र उद्घोष्यते इति भावः।"
वास्तविकता यह है कि यदि रस है, अलंकार है, तभी तो औचित्य है यदि ये काव्यांग नहीं होंगे, तो औचित्य किसका होगा?
उपसंहार -
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, रस आदि के समान औचित्य कोई सिद्धान्त अथवा सम्प्रदाय नहीं है और न ही इसे किसी सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है, क्योंकि काव्य की आत्मा यह हो नहीं सकता। चूंकि यह प्रत्येक सिद्धान्त में व्याप्त है, इसलिए इसे सहायक भी नहीं कहा जा सकता। वास्तविकता यह है कि औचित्य की काव्य में स्थिति उसी प्रकार है, जिस प्रकार अन्धकार में दीपक की होती है। जिस प्रकार दीपक के प्रकाश में प्रत्येक वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है, उसी प्रकार औचित्य के प्रकाश में काव्यशास्त्र को प्रत्येक तत्व में देखा जा सकता है। जैसे दीपक किसी वस्तु का निर्माण नहीं कर सकता, उसी प्रकार औचित्य भी किसी तत्त्व का निर्माण न करके उन्हें चमका देता है।
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