प्रश्न 2. काव्य-हेतु से क्या तात्पर्य है ? काव्य-हेतु के सम्बन्ध में भारतीय विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हुए काव्य-हेतुओं की समीक्षा कीजिये।
अथवा
काव्य-हेतु से सम्बन्धित पाश्चात्य विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हुए काव्य-हेतुओं की समीक्षा कीजिये।
अथवा
साहित्य के काव्य-हेतु की व्याख्या करते हुए भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के मतों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर - काव्य या साहित्य के हेतु का सीधा अर्थ है - साहित्य निर्माण का कारण इसके अन्तर्गत उनका विश्लेषण किया जाता है, जिनके कारण साहित्य की रचना होती है। इसे इस प्रकार भी कहा जाता है कि (काव्य) के हेतु में रचनाकार द्वारा सृजन की प्रक्रिया और कारणों पर विचार किया जाता है।
Table of Content |
---|
काव्य हेतु |
'भारतीय काव्यशास्त्र' में इस तत्व का अत्यन्त वैज्ञानिक विवेचन हुआ है कि कवि में वह कौन-सी शक्ति निहित है, जिसके कारण वह सामान्य मानव होकर भी विलक्षण काव्य-रचना करता है या असामान्य अर्थ सम्पन्न करता है।
संस्कृत के आचार्यों का मत काव्य हेतु
विभिन्न आचार्यों ने काव्य-हेतुओं का वर्णन किया है, परन्तु उनमें मतैक्य नहीं दिखाई देता। यहाँ संक्षेप में उनके मत प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
(1) भामह' - काव्यालंकार' में भामह ने स्वीकार किया है कि गुरु के उपदेश से जड़-बुद्धि भी शास्त्रों का अध्ययन करने में समर्थ हो सकता है, पर काव्य तो किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति में यदा-कदा ही स्फुटित होता है। वे यह स्वीकार करते है कि काव्य-रचना के लिये व्याकरण छन्द, कोश, अर्थ, इतिहास, लोक-व्यवहार कलाओं का मनन करना चाहिये। उन्होंने काव्य-हेतु के तीन साधन माने हैं-प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास. पर वे प्रतिभा को महत्वपूर्ण और अनिवार्य तत्व स्वीकार करते हैं।
(2) दण्डी - प्रतिभा, अध्ययन तथा अभ्यास, तीनों के सम्मिलित रूप को ही दण्डी काव्य-हेतु स्वीकार करते हैं। उन्होंने 'काव्यादर्श' में कहा है -
'नैसर्गिकी प्रतिभा श्रुतम् च बहुनिर्मलम्।आनन्दश्वाभियोगऽस्याः कारणम् काव्यसम्पदः ।।'
इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि प्रतिभा के अभाव में भी अध्ययन तथा अभ्यास के कारण सरस्वती की सेवकों पर कृपा रहती है। डॉ. राजवंश सहाय हीरा' (भारतीय आलोचनाशास्त्र) के अनुसार दन्डी ने दो प्रकार की काव्य-कोटियाँ स्वीकार की — (क) उत्तम इसमें प्रतिभा, अध्ययन और अभ्यास की अनिवार्यता स्वीकार की है।
(ख) सामान्य - यह काव्य-प्रतिभा के अभाव में भी अध्ययन और अभ्यास द्वारा निर्मित हो सकता है।
(3) वामन - काव्यालंकार सूत्रवृत्ति में आचार्य वामन ने काव्य-हेतुओं का पर्याप्त विस्तार किया है। उन्होंने प्रतिभा को ही काव्य का मूल कारण स्वीकार किया है। इसे वे जन्मजात गुण भी स्वीकार करते हैं और उनके अनुसार इसके बिना काव्य-सृजन नही हो पाता -
"कवित्व बीजं प्रतिभानं कवित्वस्य बीजम्"
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उन्होंने अन्य तत्वों को अस्वीकार किया है। उन्होंने कहा दोष आदि का उल्लेख भी किया है। साथ ही वे प्रतिभा को महत्वपूर्ण मानते हुए चित्त की एकाग्रता को भी उसका सहायक 'अवधान' स्वीकार करते हैं।
(4) रुद्रट - अपने ग्रन्थ 'काव्यालंकार' में रुद्रट ने प्रतिभा व्युत्पत्ति तथा अभ्यास, तीनों ही को काव्य हेतु स्वीकार किया है। उन्होंने प्रतिभा दो प्रकार की मानी है - पहली सहजा, जो कवि में जन्मजात होती है और काव्य-निर्माण का मूल कारण है। दूसरी उत्पाद्ध, यह अध्ययन से उत्पन्न होती है अथवा व्युत्पत्ति द्वारा उत्पन्न होती है। यह सहज प्रतिभा को संस्कारित और परिष्कृत करती है। अतः रुद्रट ने सहजा प्रतिभा को काव्य का हेतु मानकर उत्पाद को उसके संस्कार का कारण माना है। उन्होंने व्युत्पत्ति को छंद, कला, व्याकरण आदि का ज्ञान बताया है और यह भी कहा है कि सुकवि के निकट रहकर काव्याभ्यास करने से भी सुन्दर रचना सम्भव है।
(5) आनन्दवर्धन - इन्होंने 'ध्वन्यालोक' में प्रतिभा को महत्व देते हुए कहा है -
'न काव्यार्थविरामोऽस्ति यदि स्यात् प्रतिभा गुणः ।'
इसके अनुसार प्रतिभाहीन कवि उत्तम काव्य-रचना नहीं कर सकता। प्रतिभाशाली कवि के पास प्रतिपाद्ध-विषय का अभाव नहीं रहता। वह प्राचीन विषय को भी अपनी प्रतिमा के द्वारा नव्यता प्रदान करके उसमें नूतन भाव भर देता है।
(6) राजशेखर - ये प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों को काव्य का श्रेयस्कर हेतु मानते हैं-
'प्रतिभाव्युत्पत्तिमिश्रः समवेते श्रेयस्यौ इति।'
राजशेखर के अनुसार प्रतिभा तथा व्युत्पत्ति में अपूर्ण होने पर ही कवि कवित्व प्राप्त करता है। उन्होंने बुद्धि के तीन प्रकार बताये हैं — (क) स्मृति - पूर्व विषयों का स्मरण करने वाली (ख) मति - वर्तमान विषयों का मनन करने वाली (ग) प्रज्ञा - भविष्यदर्शिनी या दीर्घदर्शिनी वे तीनों प्रकार की बुद्धि को कवि के लिए उपयोगी एवं आवश्यक मानते हैं। अनुसार प्रतिभा भी दो प्रकार की होती है -
(1) (अ) कारयित्री - यह जन्मजात होती है। यह भी तीन प्रकार की होती हैं - सहजा, आहार्या और औपदेशिकी जन्मजात प्रतिभा सहजा, अध्ययन से उत्पन्न आहार्या और मंत्रादि के कारण उत्पन्न प्रतिभा औपदेशिकी कही जाती है।
(ब) भावयित्री - इसका संबंध सहृदय और आलोचक से माना जाता है।
(7) महिमभट्ट - ये शक्ति तथा व्युत्पत्ति को समवेत रूप से काव्य का हेतु मानते हैं और अभ्यास को गौंड।
(8) मम्मट - इन्होंने 'काव्यप्रकाश' में लिखा है -
'शक्तिनिपुणता लोकशास्त्रा काव्याद्ध्वेक्षणात।
काव्यज्ञशिवायाभ्यास इति हेतुस्तदुभये।।'
अर्थात् कवि में रहने वाली स्वाभाविक प्रतिभारूपी शक्ति, लोक-व्यवहार शास्त्र तथा काव्यादि के अध्ययन से निपुणता पाकर, गुरु की शिक्षा के अनुसार अभ्यास से अधिक निपुण होकर काव्य का कारण बनती है।
मम्मट शक्ति को काव्य का बीज संस्कार मानते हैं, जिसके अभाव में काव्य-सृष्टि सम्भव नही -
'शक्तिः कवित्वबीजरूपः।'
(9) वाग्भट्ट - ये अपने 'अलंकार-तिलक' में प्रतिभा को महत्व देते हुए व्युत्पत्ति और अभ्यास को उसका सहायक मानते हैं -
"प्रतिभैव च कवीनां काव्य-करण कारणम्।"
(10) केशव मिश्र - अपने 'अलंकार शेखर' में प्रतिभा को ही महत्व देते हैं और व्युत्पत्ति और अभ्यास को उसका सहायक मानते हैं -
'प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिविभूषणम्।"
(11) हेमचन्द्र - इन्होंने 'काव्यानुशासन' में प्रतिभा को ही महत्व दिया और यह भी स्वीकार किया कि प्रतिभा के अभाव में व्युत्पत्ति और अभ्यास का महत्व भी कम हो जाता है -
'प्रतिभाऽस्य हेतुः प्रतिभा नवनवोल्लेखशालिनी प्रज्ञा।'
(12) पंडितराज जगन्नाथ - इन्होंने 'रस-गंगाधर में काव्य-निर्माण का हेतु प्रतिभा को ही स्वीकार किया -
"तस्य च कारणं कविगता केवलं प्रतिभा।"
काव्य-हेतुओं की समीक्षा - मुख्य रूप से काव्य के चार हेतु ही स्वीकार किये गये हैं -
(1) प्रतिभा, (2) व्युत्पत्ति, (3) अभ्यास तथा (4) समाधि या अवधान।
इसके अतिरिक्त समाधि अथवा अवधान की चर्चा भी हुई है -
(1) प्रतिभा - प्रतिभा का महत्व तो सर्वोपरि है ही। आचायों ने इसकी व्याख्या निम्न प्रकार की है -
(क) भट्टतोत - 'प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।' अर्थात् वह शक्ति (प्रज्ञा) जो नवीन-नवीन विचार उत्पन्न करने वाली हो, कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा कहलाती है।
(ख) रुद्रट (काव्यालंकार) - जिस गुण के कारण स्थिर चित्त में अनेक प्रकार के वाक्यार्थ का स्फुरण हो, वह शक्ति ही प्रतिभा है।
(ग) कुन्तक - इनके वक्रोक्तिजीवितम्' के अनुसार -
'प्राक्तनाद्यतन संस्कार परिपाक प्रौढ़ा प्रतिभा काचिदेव कवि शक्तिः।'
(पूर्व-जन्म तथा इस जन्म के संस्कारों से उत्पन्न विशेषज्ञ शक्ति प्रौढ़-रूप धारण करने पर प्रतिभा कहलाती है।)
(घ) महिमभट्ट - इसे (प्रतिभा को) कवि का तृतीय नेत्र मानते हैं, जिससे त्रैलोक्यवर्ती समस्त भावों का साक्षात्कार होता है।
सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि प्रतिभा ऐसी जन्मजात विशेषता या शक्ति है जो नवीन सृजन में सहायक होती है।
प्रतिभा के प्रकार - अभिनवगुप्त ने प्रतिभा के दो प्रकार माने हैं - (क) आख्या - यह कवि की प्रतिभा है।
(ख) उपाख्या - यह सहृदय या आलोचक की प्रतिभा है। राजशेखर ने भी प्रतिभा के दो रूप माने है - कारयित्री और भाववित्री।
अतः यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि संस्कृत के सभी आचायों ने प्रतिभा को सर्वाधिक महत्व दिया है। महिमभट्ट 'व्यक्ति-विवेक' तो यहाँ तक कहते हैं कि प्रतिभा के अभाव में कवि काव्य-सृजन करने में समर्थ नहीं हो सकता। यदि यह इस प्रकार का प्रयास करे भी तो वह उपहासास्पद होगा।
(2) व्युत्पत्ति या निपुणता - मम्मट 'काव्यप्रकाश' के अनुसार लोक और शास्त्र के अध्ययन और अनुशीलन से जो चतुरता प्राप्त होती है, वही निपुणता है। रुद्रट (काव्यालंकार) इसे 'व्युत्पत्ति' कहा है -
"छन्दौ व्याकरण लोकस्थिति पद पदार्थ विज्ञानात्।
युक्तायुक्त विवेक व्युत्पतिरियम् समासेन।।"
(अर्थात् छन्द, व्याकरण, कला, लोक की स्थिति, पद तथा पदार्थों के विशिष्ट ज्ञान से उपयुक्त विवेकयुक्त ज्ञान की प्राप्ति ही व्युत्पत्ति है।) इस आधार इसके दो रूप माने गए हैं -
(क) शास्त्रीय - यह अध्ययनजन्य है।
(ख) लौकिक - यह लोक-निरीक्षण उत्पन्न होती है। शास्त्रीय व्युत्पत्ति द्वारा कवि के कथन में सौन्दर्य एवं समावेश होता तथा लौकिक व्युत्पत्ति कारण अभिव्यंग्य की सम्यक् प्रस्तुति की जाती है। अतः अभिव्यंजना को दोषरहित एवं हृदयावर्जक बनाने लिए व्युत्पत्ति या अध्ययन आवश्यक है। (भारतीय आलोचनाशास्त्र)
(3) अभ्यास - अभ्यास से तात्पर्य है - बार-बार उस कार्य को करना या निरन्तर प्रयास करना -
'अविच्छेदन शीलमनभ्यासः।'
अभ्यास का महत्व भी कम नहीं है। प्रतिभा होने पर भी बिना अभ्यास के श्रेष्ठ काव्य का सृजन सम्भव नहीं है। इसी से यह स्वीकार किया गया है- 'करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।'
(4) समाधि अथवा अवधान - मन की एकाग्रता ही वह स्थिति है जिसे समाधि या अवधान कहा जाता है। राजशेखर इसकी महत्ता स्वीकार की है। यह गुण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। किसी भी कार्य के लिए चित्त की एकाग्रता होना परम आवश्यक है, फिर काव्य-सृजन तो एक महत्वपूर्ण कार्य है।
हिंदी विचारक
(1) कुलपति ने 'रस-रहस्य' लिखा है -
'शब्द अर्थ जिन ते बने, नीकी भाँति कवित्त।
सुधि द्यावन समरथ्य तिन, कारण कवि को चित्त ।।'
टीका - कवित्त कारण कही शक्ति, कही व्युत्पत्ति, अभ्यास, कहीं तीनों जानिये।
(2) भिखारीदास - तीन को काव्यहेतु मानते हैं - शक्ति क्या प्रतिभा, सुकवियों द्वारा काव्य-रीति का अध्ययन और लोकानुभव। वे शक्ति को जन्मजात मानते हैं -
'सक्ति कवित्त, बनाइवे की, जिन जन्म नछत्र में दीनी विधाता।'
(3) श्रीपति - ये काव्य-हेतुओं की संख्या 6 मानते हैं -
'शक्ति निपुणता लोकमत, वित्पत्ति अरु अभ्यास।
अरु प्रतिभा ते होत है, ताको ललित प्रकाश ।।'
(4) आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी - द्विवेदीजी अनुसार, "कवि के लिए जिस बात की सबसे अधिक जरूरत होती वह प्रतिभा है।" वे व्युत्पत्ति और अभ्यास को महत्व देते हुए कहते हैं-"जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता, वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता। "
(5) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - शुक्लजी प्रतिभा 'रस-मीमांसा' को ही काव्य का प्रमुख हेतु मानते हुए व्युत्पत्ति और अभ्यास का भी महत्व स्वीकार करते हैं .
(6) सुमित्रानंदन पंत - ये प्रतिभा के साथ व्युत्पत्ति का महत्व भी स्वीकार करते हैं -
'जोतो, हे कवि, निज प्रतिभा फल से निष्ठुर मानव अंतर ।'
(7) महादेवी वर्मा - ये भी काव्य-सृजन प्रतिभा और व्युत्पत्ति की महत्ता को स्वीकार करती हुई अभ्यास मात्र को नहीं देती -
"साहित्य-सृजन केवल रुचि, इच्छा या विवशता का परिणाम नहीं है, क्योंकि उसके लिए एक विशेष प्रतिभा और उसे सम्भव करने वाले मानसिक गठन की आवश्यकता होती है।"
(8) रामधारी सिंह 'दिनकर' - ये प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को सामूहिक रूप से काव्य-सृजन हेतु स्वीकार करते हैं -
"प्रेरणा को ठीक से ग्रहण करने और उसे ठीक-ठीक लिखने के अभ्यास और प्रयास को मैं कविता-साधन कहता हूँ ।"
(9) डॉ. नगेन्द्र - ये प्रतिभा सर्वाधिक महत्व देते हैं। ये प्रतिभा को चेतना मानते हैं, जो अनुभूति, चिन्तन, विचार संकल्प तथा कल्पना आदि क्रियाएँ सम्पादित करती हैं।
पाश्चात्य विचारक
(1) प्लेटो - ये प्रेरणा को ही महत्व देते हैं, क्योंकि इनके अनुसार प्रेरणा के अभाव में कोई स्फुरण सम्भव नहीं है।
"..there is no invention in him until he has been inspired."
(2) अरस्तू - ये प्रतिभा के साथ सूझ-बूझ को भी महत्व देते हैं। इनके अनुसार कवि-प्रतिभा जन्मजात होती है -
"A man of born talent."
(3) होरेस - यह प्रतिभा के साथ अभ्यास को महत्व देते हैं -
"For my part I fail to see the use of study without wit or of wit without training."
(4) बेन जॉनसन - ये तीन विशेषताएँ स्वीकार करते हैं—(क) प्रतिभा - जिसे वे प्रकृति प्रदत्त (Natural endownment) मानते हैं, (ख) व्युत्पत्ति—(लोकज्ञान) (Createness of study and multiplicity of reading). तथा (ग) अभ्यास - इस पर उन्होंने विशेष बल दिया है।
(5) बर्नदते क्रोचे - इन्होंने स्वयं-प्रकाश ज्ञान (Intution) और बाह्याभिव्यंजना (Expression) का महत्व बताते हुए प्रतिभा तथा अभ्यास की महत्ता ही स्वीकार की है।
(6) टी. एसात्र इलियट – इनके अनुसार महान रचना या महान् आलोचना उसी समय जन्म ले पाती है, जब तीन तत्व विद्यमान हो—प्रौढ़सभ्यता, प्रौढ़-भाषा एवं संस्कृति तथा प्रौढ़ कलाकार. ये तीनों तत्व एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं। कि इन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। प्रौढ़ता से तात्पर्य अभ्यास को ही स्वीकार करना है। (डॉ. देवीशरण रस्तोगी 'साहित्यशास्त्र')
उपसंहार
- संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी तीनों ही भाषाओं के विचारकों ने काव्य के प्रमुख तीन हेतु स्वीकार किये हैं - प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास। यह भी सभी ने स्वीकार किया है कि प्रतिभा इनमें सर्वोपरि है, परन्तु अभ्यास और व्युत्पत्ति के सहयोग से प्रतिभा में निखार आ जाता है।FAQ |
---|
काव्य हेतु कितने प्रकार के हैं? उत्तर - काव्य हेतु को यहां पर तीन प्रकार के होते हैं करके बताया गया है 1. प्रतिभा - जो जन्मजात होती है। 2. व्युतपत्ति - जिसे बाहरी दुनिया से सीखा जाता है और उत्पन्न किया जाता है। 3. अभ्यास - जिसे अभ्यास के द्वारा डेवेलप किया जाता है। काव्य हेतु का क्या अर्थ है? उत्तर - काव्य हेतु से तात्पर्य काव्य को लिखने के कारण से है अर्थात हम काव्य की रचना आखिर किस वजह से करते हैं क्या कारण होता है काव्य को लिखने के पीछे यही होता है हेतु। |
Post a Comment