भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 21 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya

अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 10 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 21 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।

भ्रमरगीत सार की व्याख्या

पद क्रमांक 21 व्याख्या 
- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल

गोकुल सबै गोपाल-उपासी।

जोग-अंग साधत जे उधो ते सब बसत ईसपुर कासी।।
यध्दपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासो।
अपनी सीतलताहि न छाँड़त यध्दपि है ससि राहु-गरासी।।
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भजन तजि करत उदासी।
सूरदास ऐसी को बिरहनि माँ गति मुक्ति तजे गुनरासी?।।21।।

शब्दार्थ : सबै=सभी। उपासी=उपासना करने वाले। जोग अंग=योग के आठ अंग। (महर्षि पतंजली ने अष्टांग योग नामक आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग एक आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठो आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के आठ अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधी। ईसपुर=शिवपुरी (महादेव की नगरी काशी) तजि छोड़कर। रस रासी=रस में छंकी। ससि=चाँद। गरासी=ग्रसित। उदासी=उदास। गुनरासी=गुण समूह।

संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारे एम. ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यपुस्तक के हिंदी साहित्य के द्वितीय सेमेस्टर के प्रश्न पत्र 6 के इकाई 1 सूरदास भ्रमरगीत सार से लिया गया है। जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।

प्रसंग : उद्धव के ज्ञानोपदेश योग साधना की ज्ञान की बाते सुनकर गोपियाँ उद्धव के ज्ञान के विरोध में श्री क्रृष्ण के प्रति प्रेम साधना की प्रतिष्ठा कर रही हैं।

व्याख्या : हे उद्धव गोकुल में सभी नर नारी उस गोपाल के उपासक हैं श्री कृष्ण के उपासक हैं। हे उद्धव जो लोग तुम्हारे इस अष्टांग योग की साधना करने वाले हैं, वे यहां नही रहते वे सब शिव नगरी में निवास करते हैं अर्थात काशी में निवास करते हैं।

यद्यपि श्री कृष्ण ने हमें त्याग दिया है और अनाथ कर दिया है फिर भी हम उनके चरणों के रूप राशी में ही रत हैं उनमें हमारा अनुराग, प्रेम है यह उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार अपनी सीतलता नही।

जिस प्रकार चन्द्रमा राहु के द्वारा ग्रसित हो जाने पर भी अपना जो स्वभाविक गुण है सीतलता प्रदान करने वाला उसे नही छोड़ता है। उसी प्रकार श्री कृष्ण भले ही हमें त्याग दें किन्तु हम अपना स्वभाविक धर्म नहीं छोड़ेंगे ये जो मन है उनके चरणों में ही ध्यानस्त रहेंगी हम समझ नही पातीं की हमारे किस अपराध के दंड के रुप में कृष्ण ने हमारे लिए योग का संदेश लिख भेजा है।

वे हमें इस प्रकार हरिभजन को छोडकर संसार से विरक्त हो जाने को कहना चाहते हैं। सूरदास जी कहते हैं यहां ब्रज में ऐसी कौंन विरहणी है जो गुणों की खान को छोड़कर अर्थात श्री कृष्ण के प्रति प्रेम के सम्मुख गोपियों के लिए निर्गुण की उपासना से प्राप्त मुक्ति का कोई महत्व नही है हम सबके लिए तो कृष्ण प्रेम प्राण के समान हैं।

विशेष :
  • काशी प्राचीन काल से ही योगियों की साधना स्थली रही है। इससे अर्थात इस पंक्ति को जोड़ने से व्यंजना पड़ जाती है। 
  • अंतिम पंक्ति में निमित्त से प्रवृत्त मार्ग की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। 
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