साहित्य में अनेक प्रकार के आलोचना पद्धति विकसित हुए हैं जिनमें सिद्धांत और प्रभाव दोनों का सम्मिश्रण रहा है। इस कारण प्राय है यह देखने में आया है कि किसी कृति को पढ़कर कोई पाठक या आलोचक रस मगना हो सकता है तो दूसरा इसमें दिमाग ना होने के बजाय उसे निकृष्ट भी मान सकता है क्योंकि वह कृति उस पर इतना प्रभाव नहीं डालते जितना वहां पहले पाठक पर डालती है। यहां तथ्य यह स्पष्ट करता है कि आलोचना के जो आधार बनाए गए उनको सर्वमान्य स्वीकृति नहीं मिल सकती। अतः प्रश्न यहां कोहरा के क्या कोई ऐसी पद्धति जो सर्वमान्य और वैज्ञानिकों तथा जो मात्र प्रीति का ही विश्लेषण करें संभव हो सकती है शैली विज्ञान इसी प्रश्न का समाधान करता है।
आलोचना की वैज्ञानिकता डॉक्टर रविंद्र नाथ श्रीवास्तव शैली विज्ञान और आलोचना की नई भूमिका ने लिखा है आलोचना स्वयं में अनुशासन है वह एक टेक्निक है जो अपनी सिद्धि के लिए एक निश्चित कार्य प्रणाली का विकास करती है। वस्तुतः आलोचना को वैज्ञानिक बनाने का अर्थ इस कार्यप्रणाली को वैज्ञानिक बनाना है अतः जब आलोचना की टेक्निक और उस टेक्निक की वैज्ञानिकता की बात उठती है तो उसका मतलब मुख्यतः साहित्य से है उसकी विशेष से है जिसका अध्ययन आलोचक को वंचित रहता है और उस अध्ययन के लिए अपनाई गई उस कार्यप्रणाली से है जिसके सहारे वहां साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालता है।
आलोचना की विभिन्न पद्धतियों में से अधिकांश में साहित्य का काव्य को विभिन्न परिस्थितियों प्रभाव दर्शनों चिंतकों और कथ्य की विशेषताओं आदि के साथ पर रखते हुए उसके कलाकार वैशिष्ट्य को परखा गया। यह परक अपने में विशिष्ट और महत्वपूर्ण हो सकती है पर शैली विज्ञान यह मानता है कि इससे उसका सही परीक्षण संभव नहीं हो सकता।
डॉ रविंद्र नाथ जी वास्तव में इस तथ्य को इस रूप में उभारा है साहित्य आज जब ज्ञान विज्ञान के अन्य क्षेत्रों को स्पर्श करता है तब उन संतों का जो साहित्य क्षेत्र में उसका संबंध जोड़ते हैं अध्ययन अपने ढंग से अपने मैं उपलब्ध हो सकता है। पर यहां भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य आलोचना का दायित्व पहले एवं साहित्य के क्षेत्र की अपनी सीमा रेखा के भीतर किसी कृति के सभी विश्लेषण के प्रश्न के साथ जुड़ा रहता है स्वयं रचना के संगठनात्मक तत्व एवं उनकी आंतरिक अन्विति पर प्रकाश डालने के लक्ष्य के साथ संबंध रहता है।
अब रचना का उसके भीतर से ही मूल्यांकन शैली विज्ञान का कार्य है भले ही उसके प्रकार कुछ भी हो।
वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन शैली विज्ञान के मूल में यही प्रेरणा रही है कि कृतिका अपने भीतर से ही मूल्यांकन हो और वह मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ हो भावात्मक नहीं। इस दृष्टि से जिस और सर्वप्रथम ध्यान गया वहां की भाषा। डॉ कृष्ण कुमार शर्मा शैली विज्ञान की रूपरेखा की मान्यता है कि कुछ वर्ष पूर्व भाषिक या लिंग्विस्टिक और साहित्यिक अध्ययनों को परस्पर संबद्ध समझा जाता था साहित्य के आलोचक तथा भाषा तत्व विद एक दूसरे को दो विपरीत दिशाओं के प्रतीक मानते रहे हैं। किंतु अब यहां स्थिति नहीं है। अब यहां शिकार किया जाने लगा है कि किसी भी कृति कि मूल्यांकन हेतु भाषा वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठ निष्कर्ष प्रस्तुत कर सकता है।
शब्द और कविता का मुहूर्त अस्तित्व डॉ शर्मा ने यह स्वीकार किया है कि कविता शब्दों की कला में रूपा एक होती है क्योंकि शब्द विशिष्ट रचना संरचना में रचना ग्रहण कर उस संरचना के प्रतिमान का निर्धारण करता है इसलिए कविता में प्रयुक्त शब्द यथार्थ वस्तु है। एक अच्छी कविता का प्रत्येक शब्द रचना के संदर्भ में सो दृश्य होता है संपूर्ण संरचना से उसका संबंध होता है तथा इस संबंध व्यवस्था के प्रतिमान का निर्धारण होता है। इस प्रकार कविता भी एक वस्तु हो जाती है।
प्रायः शब्द अपनी शक्ति अर्थव्यवस्था और भाव व्यंजना शक्ति लेकर ही कविता में स्थान पाता है उसकी शक्ति को बढ़ाने में जहां विराम आदि चिन्हों का योग रहता है वहीं तक गति प्रतीक मुहावरे आदि जो जो शब्द रूप में ही प्रयुक्त होते हैं के प्रभाव से रचना भी अधिक प्रभाव पूर्ण हो उठती है। जॉर्डन ने ऐसे इन क्रिटिसिजम में यही स्वीकार किया है शब्दों के अंतर्संबंध से निष्पादित वस्तु एक मूर्ति तत्व है। अतः इस मुहूर्त अस्तित्व कहीं विश्लेषण करना अपेक्षित है।
कविता के इस मूर्ति तत्व को और उसकी स्वतंत्रता को अन्य आलोचकों ने भी स्वीकार किया है
Desmond Graham ने introduction to poetry मे कहा है कविता अपने में ही पूर्ण है उसमें और किसी तत्व की तलाश व्यर्थ है।
Arbaaz se Naman की मान्यता है की व्याख्या करते हुए डॉ कृष्ण कुमार शर्मा शैली विज्ञान की रूपरेखा कहते हैं इस मान्यता का प्रस्तुत प्रसंग में महत्व यह है कि इसके अनुसार कविता भाषा के कलात्मक परिचालन के वैशिष्ट्य से निस्तारण है। कला और साहित्य के संबंध में आधुनिकतम मान्यता यही है कि वहां संपूर्ण तथ्य है अस्तित्व है।
डॉक्टर शर्मा का मत है कि कविता स्वयं एक वस्तु रूप में उत्पन्न होती है। इस वस्तु रूप स्वतंत्र कृति का विश्लेषण वस्तुनिष्ठ प्रविधि से किया जाना चाहिए। वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का आधार शब्द वस्तु और कविता की संरचना में प्रयुक्त अन्य शब्दों से उसका संबंध अर्थात संरचना सांची structure patterns से हो सकते हैं। श्रद्धा और संरचना साथियों के विश्लेषण से कच्चे वस्तु तक पहुंचने की प्रविधि वस्तुनिष्ठ होने के कारण सार्वभौम होगी।
आज ऐसी सार्वभौमिक विश्लेषण पद्धति की आवश्यकता है। इसके विपरीत संदर्भ देश का वातावरण विभिन्न प्रभाव दर्शन वाद इंदन आदि के आधार पर किया गया विश्लेषण विवेचन सार्वभौम कैसे हो सकता है। फिर यही प्रश्न बार-बार उठता रहेगा कि सूर सूर तुलसी शशि और आचार्य शुक्ल जैसे आलोचक छायावाद की उपलब्धियों को नकारते रहेंगे इसी कारण इस वस्तुनिष्ठ पद्धति की ओर झुका हुआ।
शैली विज्ञान की अवधारणा
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