कबीर की साखियाँ हिंदी साहित्य में रखती हैं एक अलग पहचान

Kabir ki sakhiyan with meaning in hindi




भक्ति भजन हरि नाव है, दूजा दुक्ख अपार। 
मनसा, वाचा, करमना, कबीर सुमिरन सार।।1।।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखी "कबीर की साखियां" पाठ से उद्धृत की गई है। इसके कवि संत कबीर हैं।

प्रसंग - कवि ने ईश्वर भक्ति के महत्व को बताया है।

व्याख्या - कबीर दास जी कहते हैं कि ईश्वर भक्ति नाव के समान है, जिसमें बैठकर संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। ईश्वर के अतिरिक्त समस्त संसारिक साधन अपार दु:ख को देने वाले हैं। माया-मोह के बंधनों में पड़कर मनुष्य को सिवाय दु:ख के कुछ भी प्राप्त नहीं होता है अतः मनुष्य को मन, वचन और कर्म से ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। यही भगवत प्राप्ति का साधन है।

काव्य सौंदर्य - 1. भवसागर से मुक्ति भगवद भक्ति के ही द्वारा प्राप्त हो सकती है, 2. सधुक्क्ड़ी भाषा का प्रयोग किया है, 3. दोहा छंद में कबीर ने अपनी साखियों की रचना की है, 4. शांत रस, अनुप्रास अलंकार, 5. माधुर्य गुण।

जो तोको कांटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तू ही फूल को फूल है वाको है त्रिशूल।।2।।

संदर्भ - पूर्ववत। 

प्रसंग - परोपकार के महत्व को दर्शाया है।

व्याख्या - संत कबीर कहते हैं, कि यदि कोई मनुष्य तुम्हारे लिए कांटा बोता है, रुकावटें उत्पन्न करता है। फिर भी तुम उसके लिए फूल ही लगाना अर्थात कोई यदि तुम्हें दु:ख देता है तब भी तुम उसे सुख और आनंद प्रदान करने का ही प्रयत्न करना। तुम्हारे लिए फूल फूल ही है अर्थात दूसरों पर उपकार करना (फुल प्रदान करना)। तुम्हारे लिए असीम आनंद की अनुभूति है। यदि कोई किसी का अनहित करता है, तो यह उसके लिए त्रिशूल (कष्टदायक) के समान है।

काव्य सौंदर्य - 1. मनुष्य को कभी भी किसी का अनहित नहीं करना चाहिए। इस कथन को प्रतिपादित किया है।, 2. दृष्टांत अनुप्रास अलंकार, 3. दोहा छंद, 4. शांत रस।

हंसा पय को काढ़ि ले, छीर नीर निवार।
ऐसे गहै जो सार को सो जन उतरै पार।।3।।

संदर्भ - पूर्वानुसार।

प्रसंग - मनुष्य को सार को ग्रहण करके व्यर्थ को त्याग देना चाहिए।

व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं, कि हंस का यह गुण प्रसिद्ध है, कि वह अपने विवेक के द्वारा जल में से दूध को ग्रहण कर लेता है। उसी प्रकार भवसागर से वही मनुष्य पार उतर सकता है जिसने इस संसार में सार तत्व को ग्रहण किया है। माया-मोह के बंधनों से मुक्त होकर ईश्वर भक्ति करके जिस मानव ने उनके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त कर लिया है, उसे ही इस विश्व से मुक्ति मिल पाई है। ईश्वर के रूप में एकाकार हो गया है।

काव्य सौंदर्य - 1. "नीर क्षीर विवेक" हंस का यह गुण प्रसिद्ध है, 2. उत्प्रेक्षा अलंकार, 3. दोहा छंद, 4. साधुक्कड़ी भाषा, 5. शांत रस।

साधु कहावन कठिन है, लंबा पेड़ खजूर।
चढ़ै तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर।।4।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - साधु की विशेषताओं का उल्लेख किया है। 

व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं, कि खजूर के वृक्ष के मीठे फलों को प्राप्त करना कठिन है, उसी प्रकार साधु कहलाना आसान नहीं है। मनुष्य अपने कार्य, आचरण और व्यवहार से संत कहलाता है। खजूर के वृक्ष पर यदि कोई चढ़ जाता है, तो मीठे फलों का उपभोग करता है यदि नीचे गिरता है, तो चकनाचूर हो जाता है अर्थात यदि ईश्वर भक्ति में तल्लीन रहता है, तो भगवद भक्ति रूपी प्रेम रस का पान करता है अन्यथा संसारिक मायामोह के बंधनों में पड़कर अपने अस्तित्व को समाप्त कर लेता है। 

काव्य सौंदर्य - 1. ईश्वर प्राप्ति का मार्ग तलवार की धार पर चलने के समान है। 2. सधुक्क्ड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी भाषा का प्रयोग किया है। 3. दोहा छंद। 4. शांत रस। 

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार। 
तरवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।5।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - कवि ने प्रथम पद में मनुष्य जीवन की महत्ता को प्रतिपादित किया है। 

व्याख्या - कविवर कवीरदास जी कहते हैं, कि हे संतों! यह मनुष्य जीवन हमें अत्यंत कठिनाइयों के बाद एक बार मिलता है। अर्थात जन्म-जन्मांतरों के शुभ कर्मों फलस्वरूप हमें यह मनुष्य जीवन मिलता है। अतः इसकी सार्थकता इसी में है, कि इसका उपयोग (जीवन के एक-एक क्षण का) अत्यंत सोच-विचार कर करना चाहिए , अन्यथा जिस प्रकार पेड़ से पत्ता अलग हो जाता है तो फिर से उसमें नहीं लगता, उसी प्रकार यदि इस शरीर से आत्मा एक बार निकल जाए तो लौटकर (दुबारा) नहीं आता अर्थात जीवन की सार्थकता केवल शुभकर्मों में है। 

विशेष - 1. मानव योनि की महत्ता प्रतिपादित की है, 2. शांत रस, 3. दृष्टांत अलंकार। 

कबीरा यह तन जात है, सकै तो राख बहोर। 
खाली हाथों वे गए, जिनके लाख करोर।।6।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - जीवन की नश्वरता की और संकेत किया गया है। 

व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं, कि मनुष्य का जीवन ईश्वर प्रदत्त है किन्तु नश्वर है। जीवन जीते हुए अंततः मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है। लाख प्रयत्न करने पर भी जीवन के इस अंतिम सत्य को झुटलाया नहीं जा सकता है। कवि कहते हैं, कि जिनके पास अपार धन संपदा है वे भी मृत्यु के ग्रास बने हैं। मनुष्य खाली हाथ आया था और जब मृत्यु को प्राप्त हुआ तो भी खाली हाथ ही गया। संसारिक भौतिक सुख ऐश्वर्य सब यही रह गए। जीवन नश्वर है और यहीं अंतिम सत्य है। 

विशेष - 1. जीवन की नश्वरता  का वर्णन, 2. शांत रस, दोहा छंद, सधुक्कड़ी भाषा, प्रसाद गुण, रूपक व दृष्टांत अलंकार का प्रयोग। 

कबिरा क्या मैं चिंतहूँ, मम चिंते क्या होय। 
मेरी चिंता हरि करैं, चिंता मोहि न कोय।।7।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - ईश्वर की दयालुता का वर्णन किया है। 

व्याख्या - कवि कहते हैं, कि मैं क्या चिंता करूँ? मुझे किसकी चिंता करनी चाहिए? जब मेरी  चिंता करने वाला ईश्वर है, तो भला मुझे किसी बात की चिंता करने की क्या आवश्यकता? अर्थात संसारिक मनुष्य व्यर्थ ही चिंता पाले बैठे हैं। सम्पूर्ण जगत की चिंता करने वाला साक्षात परमेश्वर है, अतः हमारी चिंता अज्ञानता जनित और व्यर्थ है। 

विशेष - 1. भाषा - साधुक्कड़ी भाषा की सरलता, सरसता और बोधगम्यता देखते ही बनती है, 2. 'दोहा' छंद, अलंकार-दृष्टांत के साथ अनुप्रास की छटा मनोहारी है, 3. शांत रस। 

सोना, सज्जन, साधुजन, टुटि जुरै सौ बार। 
दुर्जन कुंभ, कुम्हार कै, एकै धका दरार।।8।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में कवि ने सज्जन और दुर्जन की प्रवृत्ति में अंतर स्पष्ट किया है। 

व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं, कि सोना, सज्जन और साधुजन श्रेष्ठ स्वभाव वाले होते हैं। ये कई बार टूट कर भी जुड़ जाते हैं अथवा जोड़े जा सकते हैं। जैसे - सोने का आभूषण बनाते समय कितना तोड़ा-पीटा जाता है, लेकिन वह फिर से जुड़कर विभिन्न आभूषणों का रूप ले लेता है, संत और सज्जन भी दूसरों के द्वारा किए गए अघात व अपमान को सहज ही भूलकर उसके प्रति समभाव रखते हैं। वहीं दुर्जन तो कुम्हार के घड़े के समान होते हैं, जो एक ही ठोकर में चकनाचूर हो जाते हैं और उसे दोबारा जोड़ा भी नहीं जा सकता। 

विशेष - 1. कवि ने लोक प्रसिद्ध उदाहरण में संत और असंत के मध्य अंतर को बड़ी सहजता से स्पष्ट किया है।  2. रस-शांत, छंद-दोहा, अलंकार-दृष्टांत, अनुप्रास, भाषा-सधुक्कड़ी। 

साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं। 
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहिं।।9।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - साधु धन सम्पत्ति नहीं अपितु मान-सम्मान प्राप्त करना चाहता है। 

व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं, कि इस संसार में साधु व्यक्ति धन की कामना नहीं करता है, अपितु उसे मान-सम्मान की चाह रहती है। यदि उसे धन की भूख रहती है तो उसे साधु नहीं कहा जा सकता है अर्थात सज्जन व्यक्ति का कार्य परोपकार तथा सेवा करना है। उसे धन की आवश्यकता नहीं होती है। 

काव्य सौंदर्य - 1. साधु संतों का महत्व बताते हुए कहा है, कि  सज्जनों को धन की चाह नहीं होती, 2. सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया है, 3. दोहा छंद। 

गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन सब खान। 
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।10।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - संतोष ही परम धन है। 

व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं, कि यदि किसी मनुष्य के पास बड़ी संख्या में गायें, हाथी और घोड़े होते हैं। हीरे-जवाहरात और रत्न होते हैं। ये सब वस्तुएँ खान होती हैं, किन्तु यदि मानव की आत्मा में संतोष रूपी धन है, तो उसके समक्ष सभी वस्तुएँ धूल के समान होती हैं अर्थात सभी तुच्छ हैं। 

काव्य सौंदर्य - 1. संतोष ही परम धन है। इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए बताया है कि संतोषी सदा सुखी होता है, 2. शांत रस, 3. दोहाछंद, 4. सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया है। 

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है बस तोर। 
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।।11।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - कबीर जी इस शरीर को ईश्वर चरणों में समर्पित करने की बात कहते हैं। 

व्याख्या - कबीर कहते हैं, कि इस शरीर में जो कुछ भी है, ईश्वर की देन है। अतः इस शरीर को ईश्वर की सेवा में समर्पित कर देना चाहिए। ईश्वर निर्मित शरीर उन्हीं को समर्पित करने में मनुष्य का कुछ भी नुक्सान नहीं होता। 

विशेष - 1. शांत रस, निष्काम भक्ति की प्रेरणा, 2. सधुक्कड़ी भाषा। 

आवत गारी एक है, उलटत होत अनेक। 
कह कबीर नहीं उलटिए, वही एक की एक।।12।।

संदर्भ - पूर्वानुसार। 

प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में कबीर जी ने अपशब्द का प्रत्युत्तर न देने की बात कही हैं। 

व्याख्या - कवि कहते हैं, कि यदि कोई हमें गाली दे या अपशब्द कहे तो हमें प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहना चाहिए शांत रहना चाहिए क्योकि यदि हमने उसका जवाब दिया तो सामने वाला फिर कुछ कहेगा। एक स्थिति ऐसी आयेगी कि स्थिति नियंत्रण में नहीं रहेगी और बात बढ़ जाएगी लेकिन यदि हम शांत रहकर उस स्थिति को टाल देंगे तो बात वहीं खत्म हो जाएगी। 

विशेष - 1. दोहा छंद, तद्भव शब्दों का प्रयोग, 2. अनुप्रास अलंकार। 

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