Hello and welcome guy's आपका स्वागत है हमारे ब्लॉग में जिसमें हम आपसे शेयर करते हैं ऐसी जानकारियां जो होती हैं, पढ़ाई से जुडी हुई। आज के इस पोस्ट में हमने आपके साथ शेयर किया उद्धव प्रसंग जिसका सम्पादन जगन्नाथ दास रत्नाकर ने किया है।
उद्धव प्रसंग
बिरह विथा की कथा अकथ अथाह महा,
कहै रत्नाकर बुझावन लगे ज्यों कान्ह,
उधौ को कहन-हेत ब्रज-जुवतीनि सौं।।
गहवरि आयौगरौ भभरि अचानक त्यों,
प्रेम परयौ चपल चुचाई पुरीन सौं।
नेकु कही बैननि अनेक कही नैननि सौं,
रही सही सोऊ कही दीन्हीं हिचकीनि सौं।।1।।
संदर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'उद्धव प्रसंग' से ली गयी हैं। इसके कवि श्री जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' हैं।
प्रसंग - श्रीकृष्ण गोपियों को याद करके भावविहव्ल हो रहे हैं। इसी कारण वे श्री उद्धव को पत्र लेकर गोकुल भेजते हैं। उसी समय का चित्रण कवि ने इस पद में किया है।
व्याख्या - कवि रत्नाकर कहते हैं, कि गोपियों और श्री कृष्ण के विरह की कथा अकथनीय है। जिसकी गहराई को नापा नहीं जा सकता। उस व्यथा का वर्णन चतुर और अच्छे कवि भी नहीं कर सकते, हम सब तो साधारण प्राणी हैं। रत्नाकर कवि कहते हैं कि जैसे ही श्री कृष्ण ब्रज की गोपियों को संदेश देने के लिए उद्धव को समझाने लगे वैसे ही उनका गला भर आया। गोपी विषयक प्रेम अचानक उमड़कर चंचल पुतलियों से अश्रुधारा के रूप में प्रवाहित होने लगा। वे अपनी विरह व्यथा का वर्णन शब्दों के माधयम से नहीं कर पाए अर्थात उन्होंने थोड़ा वर्णन वाणी द्वारा किया, शेष बातों को नेत्रों से कह दिया और शेष बातों को हिचकियों के द्वारा कहा अर्थात उनका विरहानल इतना तीव्र था, कि वे हिचकी ले-लेकर रोने लगे, कुछ भी नहीं बोल पाए।
काव्य सौंदर्य -
- श्री कृष्ण की गोपियों के प्रति विरह वेदना का मार्मिक तथा सूक्ष्म चित्र उपस्थित किया है,
- विप्रलम्भ श्रृंगार रस,
- कवित्त छंद
- अकथ-अथाह में अनुप्रास-अलंकार, प्रेम परयौ......पंक्ति में रूपक अलंकार प्रयुक्त हुआ है।
- ब्रज भाषा।
आए हौ सिखावन कौं, जोग मथुरा तैं तोपैं,ऊधौ ये वियोग के वचन बतरावौ ना।
कहैं रत्नाकर दया करि दरस दीन्यो,
दुःख दरीवै कौ तापै अधिक बढ़ावौ ना।।
टूक-टूक हवै है मन-मुकुर हमारौ हाय,
चूँकि हूँ कठोर बैन पाहन चलावौ ना।
एक मनमोहन तो बसिकैं उजारयौ मोहि,
हिय में अनेक मनमोहन बरसावौ ना।।2।।
संदर्भ - पूर्वानुसार।
प्रसंग - गोपियाँ उद्धव के योग संदेश को सुनकर निवेदन करती हैं कि श्री कृष्ण के वियोग संबंधी बातें नहीं करें।
व्याख्या - गोपियाँ उद्धव जी से कहती हैं कि हे उद्धव। आप हमें मथुरा से निर्गुण ब्रम्ह के ज्ञान का उपदेश देने आए हैं तो आप हमसे कृष्ण वियोग की बातें मत कीजिए। रत्नाकर कवि कहते हैं - कि हे उद्धव ! आपने हम पर कृपा करके ब्रज आकर हमें दर्शन दिया है, किन्तु आप वियोग की बातें करके हमारे दुःख को और अधिक मत बढ़ाइए। यदि आपने कठोर वचन रूपी पत्थरों को चलाया तो हमारे मन रूपी दर्पण के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। वियोग की बात सुनकर हमारी आत्मा व्यथित हो जाएगी, क्योंकि हमारे मन रूपी दर्पण में केवल श्री कृष्ण का ही प्रतिबिम्ब विद्यमान है। दर्पण के टूटने से अनेक प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होने लगेंगे। एक मनमोहन कृष्ण ने तो हमारे ह्रदय में बसकर हमें उजाड़ दिया है। अब हम अनेक मनमोहन (ब्रम्ह रूपी) को अपने ह्रदय में नहीं बसाना चाहते हैं अर्थात हम श्री कृष्ण के मनमोहक सौंदर्य को छोड़कर किसी अन्य को अपने ह्रदय में नहीं बसाना चाहती हैं।
काव्य सौंदर्य -
- गोपियाँ वाक्चातुर्य से उद्धव के निर्गुण ज्ञान की शिक्षा को अस्वीकृत कर देती हैं,
- जोग में श्लेष तथा कठोर बैन पाहन मनमुकुर में रूपक विरोधाभास अलंकार,
- मुहावरों के प्रयोग से काव्य सौंदर्य में अभिवृद्धि हुई है।
- विप्रलम्भ श्रृंगार,
- कवित्त छंद
- ब्रज भाषा।
प्रेम-मद-छाके पग परत कहाँ के कहाँ,
थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है।
कहै रत्नाकर यों आवत चकात ऊधौ,
मानो सुधियात कोऊ भावना भुलाई है।।
धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं
सारत बहोलिनी जो आँसु-अधिकाई है।
एक कर राजै नवनीन जसुदा को दियौ,
एक कर बंसी बर राधिका पठाई है।।3।।
संदर्भ - पूर्वानुसार।
प्रसंग - उध्दव जब ब्रज से मथुरा गमन करते हैं, उस समय उसके ज्ञान का गर्व समाप्त हो गया है। वे गोपियों के प्रेम भाव में डूबकर भेंट लेकर वहाँ से प्रस्थान करते हैं।
व्याख्या - कवि कहते हैं, कि गोकुल आने के पश्चात उद्धव जी प्रेम मद में सराबोर हो गए। मथुरा जाते समय उनकी दशा मद्य (शराब) पान किए हुए व्यक्ति की तरह हो गई। उनके पैर इधर-उधर पड़ रहे थे अर्थात सीधे खड़े नहीं हो पा रहे थे। उनका शरीर थका हुआ था। नेत्र शिथिल हो चुके थे। रत्नाकर कवि कहते हैं कि उद्धव इस प्रकार आश्चर्यचकित होकर जा रहे थे मानो वे किसी भूली हुई बात को याद करने का प्रयास कर रहे हों। वे गोपियों को निर्गुण ब्रम्ह का उपदेश देने आए थे, किन्तु उन ग्वाल बालों की प्रेमपूर्ण बातों को सुनकर उनका गर्व चूर हो गया। ब्रज से प्रस्थान करते समय उनके एक हाँथ में माता यशोदा द्वारा दिया गया मक्खन सुशोभित हो रहा था और दूसरे हाथ में राधा द्वारा भेजी गई बाँसुरी थी। इन दोनों उपहारों को वे अत्यधिक आदरभाव के कारण धरती पर नहीं रख रहे थे। प्रेमातिरेक के कारण उनके नेत्रों से प्रवाहित होने वाले अश्रुओं को वे अपने कुर्ते की बाँहों से पोंछ रहे थे। उद्धव जी की इस अपूर्व दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता, यह ज्ञान पर प्रेम और भक्ति की विजय का रूप था।
काव्य सौंदर्य -
- उद्धव गोपियों के श्रीकृष्ण प्रेम से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके, वे भी प्रेम रस में निमग्न हो गए।
- वातसल्य एवं शांत रस
- कवित्त छंद।
- मानो सुधियात में उत्प्रेक्षा, रूपक तथा अनुप्रास अलंकार,
- ब्रज भाषा।
भेजे मन भावन के उद्धव के आवन की,सुधि ब्रज गांवनि में पावन जबै लागी।
कहै रत्नाकर गुवालिनि की झौरि-झौरि,
दौरि-दौरि नंद पौरी आवन तबै लगी।।4।।
संदर्भ - पूर्वानुसार।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में उद्धव के ब्रज आगमन पर गोपियों में क्या प्रतिक्रिया हुई, इसका वर्णन है।
व्याख्या - जगन्नाथ दास रत्नाकर जी कहते हैं, कि जैसे ही ब्रज की युवतियों को मालूम हुआ कि उनके मन को अच्छे लगने वाले श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे गए उद्धव जी का ब्रज में नंदबाबा के घर आगमन हुआ है। तब गोपियाँ दौड़-दौड़कर नंदबाबा के आँगन में एकत्र होने लगीं। वे उद्धव जी को घेर लीं।
विशेष -
- गोपियों की उतकंठा का चित्रण
- रूपक और अनुप्रास अलंकार का प्रयोग
- कवित्त श्रृंगार रस,
- कवित्त छंद
- भाषा- ब्रज।
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