पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालिए।

एम. ए. हिंदी साहित्य

(प्रथम सेमेस्टर)

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

(द्वितीय प्रश्न-पत्र)

इकाई-1.

चन्दबरदायी : पृथ्वीराज रासो (पद्मावती समय)

लघु उत्तरीय प्रश्न - 

प्रश्न 1. पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालिए।

पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर प्रकाश

उत्तर - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पृथ्वीराज रासो को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना है जिसकी रचना पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र एवं दरबारी कवि चन्दवरदाई द्वारा की गई है। यह 2500 पृष्ठों एवं 69 सर्गों का विशालकाय ग्रन्थ है। रासो की प्रामाणिकता के विषय में पर्याप्त विवाद रहा है। विद्वानों का एक वर्ग इसे पूर्णतः अप्रमाणिक रचना स्वीकार करता है। इस वर्ग के विद्वानों में प्रमुख है - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मुंशी देवी प्रसाद, डॉ. बूलर तथा गौरीशंकर हीरानन्द ओझा आदि। दूसरे वर्ग में वे विद्वान् हैं जो रासो को एक प्रामाणिक रचना मानते हैं। इस वर्ग में डॉ. श्यामसुन्दरदास, मिश्र बन्धु तथा कर्नल टाड आदि के नाम लिये जाते हैं। तृतीय वर्ग के विद्वान् रासो को अर्द्ध-प्रामाणिक रचना मानते हुए इसके कुछ अंश को ही प्रामाणिक मानते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी आदि इसी वर्ग के विद्वान् है। 

वस्तुतः रासो की प्रामाणिकता के विषय में विभिन्न विद्वानों द्वारा दिये गये तर्कों में से रासो की अप्रामाणिकता के सम्बन्ध में दिये गये तर्क अधिक पुष्ट हैं क्योंकि ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवन चरित्र पर आधृत रचनाओं में बिना किसी कारण के उलट-फेर नहीं किया जा सकता। कल्पना का अधिकार मिलने पर भी कवि इतिहास नहीं बदल सकता। रासो का अन्तिम अंश 'चन्द' के पुत्र 'जल्हण' ने लिखा था अतः यह विकासशील महाकाव्य है और निष्कर्ष रूप में इसे और अर्द्ध-प्रामाणिक रचना कहना अधिक उपयुक्त है। इसका लघुतम संस्करण मूल रासो के निकट रहा होगा उसमें अनैतिहासिक अंश भी कम है अतः इसे अर्द्धप्रामाणिक रचना कहा जा सकता है।

Prithviraj raso ki pramanikta per Prakash daliye.

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