सुंदरकांड के 60 दोहे
तुलसीदास जी के द्वारा लिखा गया रामचरित मानस का पंचम सोपान जिसे सुंदरकाण्ड के नाम से जाना जाता है। यहां पर गोरखपुर प्रकाशन से प्रकाशित सुंदरकाण्ड को लिखा गया है। यह एम.ए.हिंदी साहित्य द्वितीय सेमेस्टर षष्ठ प्रश्न पत्र के लिए भी उपयोगी हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस सुन्दरकाण्ड की जो की हमारे हिंन्दी साहित्य के द्वितीय सेमेस्टर के षष्ठ प्रश्नपत्र में है।
श्री गणेशाय नमः
श्री जानकीवल्ल्भो विजयते
श्रीरामचरितमानस
पंचम सोपान
सुंदरकांड की चौपाई
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रम्हाशंभुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम ।
रामाख्यं जगदीश्वरम सुरगुरुं मायामनुष्यम हरिं ।
वन्देअहं करुणाकरं रघुवरं भुपालचूडामणिम ।। 1 ।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयासदीये
सत्यं वदामि च भवानखहिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरितं कुरु मानसं च ।। 2 ।।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम ।
सकलगुणनिधानं वनराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।। 3 ।।
जामवंत के बचन सुहाए ।
सुनि हनुमंत ह्रदय आति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई ।
सहि दुख कंद मूल फल खाई ।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी ।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा ।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ।।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर ।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
बार बार रघुबीर संभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता ।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना ।
एही भाँति चलेउ हनुमाना ।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी ।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी ।।
sundarkand
अनुज सहित सुख भवन खरारी।।
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
सहज बानी सेवक सुख दायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदू गाता।।
बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।
sunderkand path
[ दोहा 14 ]रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।
कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
काल निसा सम निसि ससि भानू।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानू प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई।।
[ दोहा 15 ]
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयं धीर धरु जरे निसाचर जानु।।
जौं रघुवीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई।।
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की।।
अबहिं मातु मैं जाऊँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।
हैं सूत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना।।
मोरें हृदय परम् संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा।।
सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
[ दोहा 16 ]
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।
मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी।।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।
बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी।।
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।
[ दोहा 17 ]
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।
चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तौरैं लागा।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।
नाथ एक कपि आवा भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी।।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे।।
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।
[ दोहा 18 ]
कछु मारेसी कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना।।
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।
चला इन्द्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।
अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।।
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।।
मुठिका मारी चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई।
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।
[ दोहा 19 ]
ब्रम्ह अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रम्हसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।
ब्रम्हबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।
[ दोहा 20 ]
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।
कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।
मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।
सुनु रावन ब्रम्हांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा।।
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरी कानन।।
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता।।
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली।।
[ दोहा 21 ]
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झरि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।
जानऊँ मैं तुम्हारी प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई।।
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी।।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।
बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भी हारी।।
जाकें डर अति काल डेराई।
जो सूर असर चराचर खाई।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै।।
[ दोहा 22 ]
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहँ तव अपराध बिसारि।।
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजू तुम्ह करहू।।
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।
राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।
राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं।।
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।
[ दोहा 23 ]
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।
जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।
मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिप्रभ तोर प्रकट मैं जाना।।
सुनि कपि बचन बहुत खिसियाना।
बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।।
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।।
नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई।।
सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर।।
[ दोहा 24 ]
कपि कें ममता पूँछपर सबहि कहउँ संमुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधी पुनि पावक देहु लगाई।।
पूँछ हीन बानर तहाँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखऊँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई।।
बचन सुनत कपि मन मुस्काना।
भइ सहाय सारद मैं जाना।।
जातुधान सुनी रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।।
रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।।
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।।
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघु रूप तुरंता।।
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भईं सभीत निसाचर नारीं।।
[ दोहा 25 ]
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्ठहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।
देह बिलास परम् हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला।।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहिं अवसर को हमहि उबारा।।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरे सुर कोई।।
साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझमारी।।
[ दोहा 26 ]
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
कहेहु तात अस मोर प्रनाम।
सब प्रकार प्रभु पूरनकाम।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुन्हहू तात कहत अब जाना।।
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।
[ दोहा 27 ]
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरज दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी।।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा।।
हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा।।
मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी।।
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा।।
तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद समंत मधु फल खाए।।
रखवारे जब बरजन लागे।।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।
[ दोहा 28 ]
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।
जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई।।
एही बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा।।
आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।।
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।।
राम कपिन्ह जब
[ दोहा 29 ]
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
सोई बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू।।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।।
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।
[ दोहा 30 ]
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारित हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी।।
अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वान जरइ छन माहिं सरीरा।।
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी।।
[ दोहा 31 ]
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल जीति।।
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना।।
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार कर्रौ का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मीरा।।
सुनु सूत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखउँ करि बिचार मन माहीं।।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता।।
[ दोहा 32 ]
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।
बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।
सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुन्दर।।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा।।
कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।।
साखामृग कै बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।
सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।
[ दोहा 33 ]
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल।।
नाथ भगति अति सुुुुखदायनी।
[ दोहा 34 ]
कपिपति बेगि बोलाए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना।।
राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना।।
जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती।।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहि सोई।।
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा।।
नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।।
छ. - चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि
लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि
नाग किंनर दुख टरे।।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट
बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसल -
नाथ गन गन गावहीं।। 1 ।।
सहि सक न भार उदार अहिपति
बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ
कठोर सो किमि सोहई।।
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति
जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो
लिखत अबिचल पावनी।।2।।
[ दोहा 35 ]
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका।।
निज निज गृह सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।
जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी।।
रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी।।
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू।।
समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई।।
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।।
[ दोहा 36 ]
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।
श्रवन सुनी सठ टा करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी।।
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भी मन अति काचा।।
जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।।
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा।।
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभा ममता अधिकाई।।
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू।।
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माहीं।।
[ दोहा 37 ]
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भी आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।।
अवसर जानि बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।।
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन।।
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता।।
जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।।
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाईं।।
चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।।
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।
[ दोहा 38 ]
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।
तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेश्वर कालहु कर काला।।
ब्रम्ह अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपासिंधु मानुष तनु धारी।।
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।।
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारित भंजन रघुनाथा।।
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही।।
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।।
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन।।
[ दोहा 39 (क), (ख) ]
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरू तात।।
मालयवन्त अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना।।
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषनु पुनि कर जोरी।।
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।
तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।।
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीती घनेरी।।
[ दोहा 40 ]
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।
बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन निति बखानी।।
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई।।
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।।
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं।।
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा।।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई।।
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।।
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहिं सुनाइ कहत अस भयऊ।।
[ दोहा 41 ]
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाऊँ देहु जनि खोरि।।
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं।।
साधू अवज्ञा तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी।।
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं आभागा।।
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं।।
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जे पद परसि तरी रिषिनारी।
दंडक कानन पावनकारी।।
जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए।।
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई।।
[ दोहा 42 ]
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।
ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई।।
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया।।
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी।।
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना।।
[ दोहा 43 ]
सरनागत कहुँ तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।
जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं।।
[ दोहा 44 ]
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपालु कहि कपि चले अंगद हनू समेत।।
सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर।।
दूरिहि ते देखे द्वैा भ्राता।
नयनानंद दान के दाता।।
बहुरि राम छबिधाम के बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।।
भुज प्रलम्ब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन।।
सिंघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा।।
नयन नीर पलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता।।
नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता।।
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा।
[ दोहा 45 ]
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।
अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लागावा।।
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भय हारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।
खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती।।
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया।।
[ दोहा 46 ]
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा।।
ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भवसूला।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।।
[ दोहा 47 ]
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज।।
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरऊँ देह नहिं आन निहारें।।
[ दोहा 48 ]
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।।
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपाबरूथा।।
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी।।
पद अम्बुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी।।
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी।।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
[ दोहा 49 ( क ) ( ख ) ]
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड।।
जो सम्पति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ सम्पदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।।
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।।
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी।।
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक।।
सुनू कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।।
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँती।।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।
जद्धपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई।।
[ दोहा 50 ]
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई।।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा।।
नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।।
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा।।
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।।
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई।।
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।।
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए।।
[ दोहा 51 ]
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।।
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने।।
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर।।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए।।
बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे।।
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना।।
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए।।
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती।।
[ दोहा 52 ]
कहेहु मुख़ार मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न टी आवा कालु तुम्हार।।
तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गन गाथा।।
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावण चरन सीस तिन्ह नाए।।
बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहिस न सुक आपनि कुसलाता।।
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी।।
करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी।।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई।।
जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।।
[ दोहा 53 ]
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।।
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा।।
रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।।
श्रवन नासिक काटै लागे।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे।।
पूँछिहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई।।
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी।।
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा।।
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपल बिसाला।।
[ दोहा 54 ]
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।
ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन सम कोटिन्ह गनइ को नाना।।
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं।।
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर।।
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं।।
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा।।
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला।।
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।।
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका।।
[ दोहा 55 ]
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम।।
राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई।।
सक सर एक सोषि सत सागर।
तव भ्रातहिं पूँछेउ नय नागर।।
तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं।।
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा।।
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई।।
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।।
सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें।।
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।।
रामानुज दीन्ही यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।।
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन।।
[ दोहा 56 (क) (ख) ]
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।
की तजि मान अनुज इब प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहिं सुनाई।।
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग़ बिलासा।।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
ज्द्धपि अखिल लोक कर राऊ।।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही।।
जनकसुता रघुनाथहि दीजै।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे।।
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई।।
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।।
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।।
[ दोहा 57 ]
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु।।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीती।।
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा।।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा।।
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना।।
[ दोहा 58 ]
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई।।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधीकारी।।
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई।।
[ दोहा 59 ]
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।
नाथ नील नल कपि दोऊं भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।।
एहिं सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी।।
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा।।
देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।।
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा।।
छंद. - निज भवन गवनेउ सिंधु श्री -
रघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति
दास तुलसी गायऊ।।
सुख भवन संसय समन दवन
बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि
सुनहि संतत सठ मना।।
[ दोहा 60 ]
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः।
{ सुन्दरकाण्ड समाप्त }
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