छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश - Kalchuri dynasty in Chhattisgarh

कलचुरी एक भारतीय राजवंश थे जिन्होंने 6 वीं और 7 वीं शताब्दी के बीच पश्चिम-मध्य भारत में शासन किया था। उन्हें हैहय या "प्रारंभिक कलचुरी" के रूप में भी जाना जाता है।

कलचुरी क्षेत्र में वर्तमान गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से शामिल थे। उनकी राजधानी संभवत: माहिष्मती में स्थित थी। पुरालेख और मुद्राशास्त्रीय साक्ष्य बताते हैं कि एलोरा और एलीफेंटा गुफा स्मारकों में से सबसे पहले कलचुरी शासन के दौरान बनाए गए थे।

छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास 

कलचुरी राजवंश का संस्थापक कृष्णराजथे। जिसने 500 से 575 ई. तक शासन किया कृष्णराज के बाद उसके पुत्र शंकर गण प्रथम ने 575 से 600 ई. और शंकर गण के पश्चात उसके पुत्र बुधदराज ने 600 से 620 ई. तक शासन किया। किन्तु 620 ई. के बाद से लगभग डेढ़ सौ से पौने दो सौ वर्षों तक कलचुरियों की स्थिति अज्ञात सी रही थी और अपेक्षाकृत कमजोर होते गए थे। वैसे इस अवधि में कलचुरी गुजरात, कोंकण और विदर्भ के स्वामी थे। 

छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश

9 वीं शताब्दी में कलचुरियों ने अपना साम्राज्य विस्तार किया और वामराज देव ने गोरखपुर प्रदेश पर आधिपत्य कर अपने भाई लक्ष्मण राजसौप दिया था। वे सरयुपार के कलचुरी कहलाये। वामनराज देव के पुत्र ने त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया। वामराज देव की कालंजर प्रथम और त्रिपुरी द्वितीय राजधानी रही थी। इस प्रकार वामनराज देव त्रिपुर के कलचुरी वंश का संस्थापक थे।

यह जबलपुर से 6 मील दूरी पर स्थित है एवं इसका वर्तमान नाम तेवर है। इस समय कलचुरियों को ' चैटुय ' या ' चंदि नरेश ' कहा जाता था। त्रिपुर में स्थाई रूप से राजधानी स्थापित करने का श्रेय कोकल्ल प्रथम को प्राप्त है। कोकल्ल अत्यंत ही प्रतापी एवं कुशल राजा था। इसकी विजय गाथा का उल्लेख ' बिलहरी लेख ' में मिलता है। 

उसका विवाह चन्देल वंश में हुआ था उसकी  एक पुत्री थी जिसका विवाह राष्ट्रकूटवंशी कृष्ण द्वितीय के साथ हुआ था। इससे उसकी शक्ति का पता चलता है। भारत के इतिहास में कलचुरी राजवंश का स्थान महत्वपूर्ण रहा है।
550 से लेकर 1740 ई. तक लगभग 1200 वर्षों की अवधि में कलचुरी नरेश उत्तर अथवा दक्षिण भारत के किसी न किसी प्रदेश पर राज्य करते रहे थे। शायद ही किसी राजवंश ने इतने लम्बे समय तक शासन किया हो।

रतनपुर के कलचुरी

रत्नापुर के कलचुरी 11वीं और 12वीं शताब्दी के दौरान शासन किया करते थे। उन्होंने वर्तमान छत्तीसगढ़ के रत्नापुर (आधुनिक नाम रतनपुर) को अपनी राजधानी बनायीं। वे त्रिपुरी के कलचुरियों की एक शाखा थे, और कई वर्षों तक मूल वंश के जागीरदार के रूप में शासन करते थे।

रतनपुर की शाखा की स्थापना दक्षिण कोशल में कलिंगराज ने की थी। कोकल्ल देव द्वितीय का पुत्र था  उसका उत्तराधिकारी कमलराज था। उसके उत्तराधिकारी रतनदेव प्रथम ने रत्नपुर नामक नगर की स्थापना की तथा उसे अपनी राजधानी बनाया।

रत्नापुरा शाखा के कई शिलालेख और सिक्के मिले हैं, लेकिन ये क्षेत्र के राजनीतिक इतिहास को पूरी निश्चितता के साथ पुनर्निर्माण करने के लिए पर्याप्त जानकारी प्रदान नहीं करते हैं।

जज्जालदेव प्रथम के 1114 सीई रतनपुर शिलालेख के अनुसार, त्रिपुरी कलचुरी राजा कोकल्ला के 18 पुत्र थे, जिनमें से सबसे बड़े पुत्र को त्रिपुरी के सिंहासन पर बैठाया। जिसके कारण वह छोटे मंडलों के शासक बन गए। 

रायपुर के कलचुरी 

त्रिपुर के कलचुरियों ने कालांतर में अपना राज्य दक्षिण कोशल में स्थापित किया I बिलहरी { जबलपुर } अभिलेख से ज्ञात होता है कि कोकल्ल देव प्रथम के पुत्र शंकरगण द्वितीय ' मुघ्दतुंग ' ने लगभग 900 ई. में कोशल राजा को पराजित कर कोशल का प्रदेश छीन लिया था इसके पश्चात 950 ई. के आसपास सोमुँसियों ने पुनः कोशल क्षेत्र पर अधिकार कर लिया I तब त्रिपुर के लक्ष्मणराज ने सेना भेज कर कोशल पर भयानक आक्रमण किया और क्षेत्र को पुनः विजीत कर लिया था। 

कलचुरियों के वास्तविक साम्राज्य की स्थापना कलिंगराज द्वारा तुम्मान को राजधानी बनाकर की गई।  इसने 1020 ई. तक शासन किया था। यह कोकल्ल देव द्वितीय का पुत्र था। उसका उत्तराधिकारी कमलराज था।

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