भ्रमर-गीत-सार : सूरदास पद क्रमांक 1 की व्याख्या By Khilawan

Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya

अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत सार के पद क्रमांक 1 से लेकर पद क्रमांक 10 को प्रकाशित किया था अब हम उनकी व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस कर रहे हैं। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 1 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं...

भ्रमरगीत सार की व्याख्या

भ्रमरगीतसार पद क्रमांक 1 व्याख्या


आज के इस पोस्ट में हम बात करने वाले हैं भ्रमरगीत सार के पद क्रमांक 1 की  सप्रसंग व्याख्या को लेकर जिसमें हम विभिन्न कठिन शब्दों के अर्थ भी जानेंगे। सबसे पहले शब्दार्थ को  जानते हैं फिर बात करेंगे भ्रमरगीत के संदर्भ और प्रसंग तथा व्याख्या की। चलिए शुरू करते हैं..  

पहिले करि परनाम नंद सो समाचार सब दीजो। 
औ वहां वृषभानु गोप सो जाय सकल सुधि लीजो।। 
श्रीदाम आदिक सब ग्वालन मेरे हुतो भेंटियो। 
सुख-सन्देस सुनाय हमारी गोपिन को दुख मेटियो।। 
मंत्री एक बन बसत हमारो ताहि मिले सचु पाइयो। 
सावधान है मेरे हुतो ताही माथ नावाइयो।। 
सुंदर परम् किसोर बयक्रम चंचल नयन बिसाल। 
कर मुरली सिर मोरपंख पीताम्बर उर बनमाल।। 
जनि डरियो तुम सघन बनन में ब्रजदेवी रखवार। 
वृंदावन सो बसत निरन्तर कबहूँ न होत नियार।। 
उध्दव प्रति सब कहीं स्यामजू अपने मन की प्रीति। 
सुन्दरदास किरण करि पठए यहै सफल ब्रजरीति।। 

शब्दार्थ - परनाम = प्रणाम, दीजो=देना, वृषभानु गोप = राधा के पिता, सकल = सम्पूर्ण, हुतो=ओर, माथ नवाइयो = मस्तक झुकना, वयक्रम = अवस्था, जनी-मत रखवार = रक्षा करने वाला, नियार=पृथक, प्रति=से, ब्रजरिति=ब्रज की पद्धति।

संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारे एम्. ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम से लिया गया है जिसके रचियता सूरदास जी हैं, इस पद्यांश के सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं। 

प्रसंग - सूरदास जी के द्वारा रचित यह भ्रमर गीत सार का पहला पद है, इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने बताया है  की श्री कृष्ण को अपने  माता-पिता और गोपिकाओं की याद आ गई है और इसी कारण वह अपने ज्ञानी सखा उद्धव को दूत बनाकर ब्रजवासियों और प्रियजनों की कुशल क्षेम ज्ञात करने के लिए भेज रहे हैं और उद्धव वहाँ पहली बार जा रहें हैं तो वहाँ की रीति-नीति से उन्हें अवगत करा रहे हैं। 

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व्याख्या - सूरदास जी ने लिखा है श्री कृष्ण उद्धव को समझाते हैं कि ब्रज पहुँचने पर तुम सबसे पहले नंद बाबा को प्रणाम करके सब समाचार कह देना। 

नंद यहां एक तो श्री कृष्ण के पिता हैं और इसलिए पूज्य हैं और दूसरे वहां  के राजा हैं और सबसे अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। उन्हें  प्रणाम करना स्वभाविकता और औपचारिक्ता दोनों की दृष्टि से ही उपर्युक्त है और उसके बाद सारे समाचार दे देना। सारे समाचार से तात्पर्य यह है कि पहले तो यह बताये की आप कौंन हैं फिर श्री कृष्ण की व्यस्तता का कारण बताये राज कार्य की जटीलता के कारण गोकुल आने की असमर्थता बताएं। और श्री कृष्ण कहते हैं की ये सब बात होने के बाद राधा के पिता वृषभानु गोप के पास जाकर उनके सम्पूर्ण कुशलक्षेम मालुम करना। 

यहां पर देखिये वृषभानु का सारा समाचार नंद के यहां से प्राप्त हो सकती थी किन्तु उनके यहां जाकर सुधी लेने मतलब खबर लेने को सूरदास जी ने रहस्य रखा है वह रहस्य यह है कि वृषभानु की कन्या राधा वहां मिलेगी स्वभाविक है की वह वृषभानु के यहां जाने पर राधा की स्थिती सुख दुःख आदि की दशा तथा कृष्ण विरह के प्रभाव आदि की दशा का पता चल जाएगा। इसके पीछे यही भाव निहित प्रतीत होता है। 

आगे श्री कृष्ण कहते हैं मेरी ओर से श्री दामा (सुदामा) आदि से मिलकर स्नेह से प्रणाम करना और साथ ही 
गोपियों को हमारा सुख संदेश अर्थात कुशल समाचार सुनाकर उनके विरह जन्य दुःख संताप को दूर करना। 

यहां श्री कृष्ण ने सूदामा का नाम ले दिया है लेकिन आगे आदिक लगा दिया है आदिक में उनके और सखा आ जाते हैं जिनके उल्लेख सुर ने स्यता, पयता, मना, मनसुखा आदि नामो से किया है। और उसके बाद गोपियो की बारी आती है गोपियाँ विरह से व्यतीत होंगी उन्हें जब यह पता चलेगा की श्री कृष्ण उनके प्रिय उनके सतत स्मृति को संजोये हुए हैं तो उन्हें सुख मिलेगा।

`जब प्रेमी को यह पता चलता है की उसका प्रिय भी उसकी याद में तड़प रहा है तो उसको बड़ा सुख मिलता है वो संतोष प्राप्त होता है की आखिर वह भी मेरे तरह जल रहा है। श्री कृष्ण आगे कहते हैं। 

वहां वन में हमारा एक मंत्री रहता है यहां मंत्री का अभिप्राय राधा से है। श्री कृष्ण कहते हैं की उनसे मिलकर सुख प्राप्त करना जब तुम उसके सम्मुख जाओ तो हमारी ओर से मस्तक नवाकर प्रणाम करना। 

श्री कृष्ण का उध्दव को सावधान करने का कारण यही है की वह कही राधा से मिलकर भ्रम में न पड़ जाय क्योकि वह उनका ही वेश धारण करके वहां विचरती रहती है। 

श्री कृष्ण कहते हैं की हमारा वह मंत्री अत्यंत सुंदर एवं किशोरावस्था का है उसके नेत्र चंचल और बड़े बड़े हैं।

वह हाँथ में मुरली सिर पर मोर पंख शरीर पर पीतांबर और हृदय में अर्थात गले में वनमाला धारण करता है। 

श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं की हमारा जो मंत्री है वह अत्यंत सघन वन में निवास करता है। तुम जाकर उससे मिलना और वन में जाने से डरने का कोई कारण नहीं है इसलिए मत डरना क्योकि वहां ब्रजदेवी सबकी रक्षा करती हैं। इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं है। 

वह ब्रजदेवी सदा वृन्दावन में निवास करती है  और वहां से कभी पृथक नही होती इस प्रकार श्री कृष्ण ने उद्धव से अपने मन की समस्त प्रेममयी स्थिती का स्पष्टीकरण किया। 

सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार श्री कृष्ण ने कृपा करके उद्धव को सारी ब्रजरीति समझाकर ब्रज भेजा और उनसे कहा की वह इसी प्रकार का व्यवहार करे। 

अन्य जानकारी जो आपके लिये उपयोगी हो सकते हैं 


देखिये यहां इस पद के पांचवे पंक्ति में मंत्री शब्द विवादास्पद है। काशी नागरी प्रचारणी सभा द्वारा सम्पादित सूरसागर में मंत्री के स्थान पर मित्र का प्रयोग हुआ है। यहां मंत्री से अभिप्राय स्पष्टतः राधा से है। 
शुक्ल जी ने मंत्री का अर्थ कृष्ण से लिया है जो उचित नही जान पड़ता। 

उनके मतानुसार ब्रम्ह के दो रूप हैं एक वैश्य रूप एवं ऎश्वर्य रूप उद्धव ने श्री कृष्ण का ऐश्वर्य रूप देखा था श्री कृष्ण चाहते थे की वह उनके दस रूपों को भी देखे तभी उन्होंने उद्धव को ब्रज भेजा क्योकी वह वहां सदा रस रूप मे निवास करते हैं। यहां मंत्री शब्द का प्रयोग करके सूरदास जी ने इसी तथ्य की ओर संकेत किया है। तो मंत्री शब्द से राधा का अभिप्राय किस प्रकार ग्रहण किया जा सकता है ? इसका उत्तर यह है की कृष्ण भक्तों ने राधा को कृष्ण का अविभक्त अंग स्वीकार किया गया है। कृष्ण एवं राधा एक ही आदि शक्ति के दो रूप हैं इसलिए परस्पर अभिन्न हैं। 

भक्ति की चर्मावस्था में भक्त और भगवान में कोई अंतर् नहीं आता। भक्त भगवान का स्वरूप धारण कर लेता है राधा भी श्री कृष्ण का स्वरूप धारण कर लेता है। ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गई है। विद्यापति ने भी इस चरमावस्था का वर्णन किया है। 

"राधा माधव, माधव राधा राधा भेल मधाई" और उद्धव भी ब्रज में राधा के इसी रुप के दर्शन किये तभी तो वह मथुरा लौटकर श्री कृष्ण से कहते हैं कि " ब्रजभानु में एक अच्म्भ्यो देख्यो मोर मुकुट पीताम्बर धोर तुम गाइन सम पेख्यो। "

धन्यवाद!
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