हिंदी साहित्य- बिहारी रत्नाकर -सतसई
बिहारी रत्नाकर के दोहे |
दीरघ साँस न लेहि दुख, सुख साईहिं न भूलि।
दई दई क्यौं करतु है, दई दई सु क़बूलि।।51।।
बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह।।52।।
हा हा! बदनु उघारि, दृग सफल करैं सबु कोइ।
रोज सरोजनु कैं परै, हँसी ससी की होइ।।53।।
होमति सुखु, करि कामना तुमहिं मिलन की, लाल।
ज्वालामुखी सी जरति लखि लगनि-अगनि की ज्वाला।।54।।
सायक-सम मायक नयन, रँगे त्रिबिध रँग गात।
झखौ बिलखि दूरि जात जल, लखि जलजात लजात।।55।।
मरी डरी कि टरई बिथा, कहा खरी, चलि चाहि।
रही कराहि कराहि अति, अब मुँह आहि न आहि।।56।।
कहा भयौ, जौ बीछुरे, मो मनु तोमन-साथ।
उड़ी जाउ कित हूँ, तऊ गुड़ी उड़ाइक हाथ।।57।।
लखि लोन लोइननु कैं, कौइनु, होई न आजु।
कौन गरीबु निवाजिबौ, कित तूठ्यौं रातिराजु।।58।।
सीतलताउरू सुबास कौ घटे न महिमा-मूरु।
पीनस वारैं जौ तज्यौ सोरा जानि कपूरु।।59।।
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात।।60।।
बंधु भए का दीन के, को तारयौ, रघुराइ।
तूटे तूठे फिरत हौ झूठे बिरद कहाइ।।61।।
जब जब वै सुधि कीजियै, तब तब सब सुधि जाँहि।
आँखिनु आँखि लगी रहैं आँखें लागति नाँहि।।62।।
कौन सुनै, कासौं कहौं, सुरति बिसारी नाह।
बदाबदी ज्यौ लेत हैं ए बदरा बदराह।।63।।
मैं हो जान्यौं, लोइननु जुरत बाढ़िहै जोति।
को हो जानतु, दीठि कौं किरकिटी होति।।64।।
गहकि, गाँसु औरे गहें, रहे अधकहे बैन।
देखि खिसौं हैं पिय- नयन किए रिसौं हैं नैन।।65।।
मैं तोसौं कैवा कह्यौं, तू जिन इन्हैं पत्याइ।
लगालगी करि लोइननु उर मैं लाई लाइ।।66।।
बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनानु तैं, हरि, नीके ए नैन।।67।।
थोरैं ही गुन रीझते, बिसराई वह बानि।
तुमहूँ, कान्ह, मनौ भए आजकाल्हि के दानि।।68।।
अंग-अंग-नग जगमगत दीपसिखा सी देह।
दिया बढाऐं हूँ रहैं बड़ौं उज्यारौ गेह।।69।।
छुटी न सिसुता की झलक, झलक्यौ जोबनु अंग।
दीपति देह दुहून मिलि दिपति ताफ्ता-रंग।।70।।
कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग-नाइक, जग-बाइ।।71।।
सकुचि न रहियै, स्याम, सुनि ए सतरौहैं बैन।
देत रचौंहौं चित कहे नेह-नैचाहैं नैन।।72।।
पत्रा हीं तिथि पाइयै वा घर कैं चहुँ पास।
नितप्रति पून्यौईं रहै आनन-ओप-उजास।।73।।
बसि सकोच-सदबदन-बस, साँचु दिखावति बाल।
सियलौं सोधति तिय तनहिं लगनि-अगनि की ज्वाल।।74।।
जौ न जुगति पिय मिलन की, धूरि मुकति-मुँह दीन।
जौं लहियै सँग सजन, तौ धरक नरक हूँ की न।।75।।
चमक, तमक, हाँसी, ससक, मसक, झपट, लपटानि।
ए जिहिं रति, सो रति मुकति; और मुकति अति हानि।।76।।
मोहूँ सौं तजि मोहू, दृग चले लागि उहि गैल।
छिनकु छवाइ छबि-गुर-डरी छले छबीलैं छैल।।77।।
कंज-नयनि मंजनु किए, बैठी ब्यौरति बार।
कच-अंगूरी-बिच दीठि दै, चितवति नंदकुमार।।78।।
पावक सो नयननु लगै जावकु लाग्यौ भाल।
मुकुरु होहुगे नैंक मैं, मुकुरु बिलौकौ, लाल।।79।।
रहति न रन, जयसाहि-मुख लखि, लाखनु की फौज।
जाँचि निराखर ऊ चलै लै लाखनु की मौज।।80।।
दियौ, सु सीस चढ़ाइ लै आछी भाँति अएरि।
जापैं सुखु चाहतु लियौ, ताके दुखहिं न फेरि।।81।।
तरिवन-कनकु कपोल-दुति बिच हीं बिकान।
लाल लाल चमकतिं चुनीं चौका चीन्ह-समान।।82।।
मोहि दयौ, मेरौ भयौ, रहतु जु मिलि जिय साथ।
सो मनु बाँधि न सौं पियै, पिय, सौतिनि कैं हाथ।।83।।
कंजु-भवनु तजि भवन कौं चालियै नंदकिसोर।
फ़ूलति कली गुलाब की, चटकाहट चहुँ ओर।।84।।
कहति न देवर की कुबत कुल-तिय कलह डराति।
पंजर-गत मंजार-ढिग सुक ज्यौं सूकति जाति।।85।।
औरे भाँति भए अब चौसरु, चंदनु, चंदु।
पति-बिनु अति पारतु बिपति मारतु मारुतु मंदु।।86।।
चलन ना पावतु निगम-मगु जनु, उपज्यौ अति त्रासु।
कुच-उतंग गिरिबर गह्यौ मैना मैनु मवासु।।87।।
त्रिबली, नाभि दिखाइ, कर सिर ढकि, सकुचि, समाहि।
गली, अली की ओट कै, चली भली बिधि चाहि।।88।।
देखत वुरै कपूर ज्यौं उपै जाइ जिन, लाल।
छिन छिन जाति परी खरी छीन छबीली बाल।।89।।
हँसि उतारि हिय तैं दई तुम जु तिहिं दिना, लाल।
राखति प्रान कपूर ज्यौं, वहै चुहुटिनी माल।।90।।
कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोउ लाख हजार।
मो सम्पति जदुपति सदा बिपति-बिदारनहार।।91।।
द्वैज-सुधादीधिति-कला वह लखि, दीठि लगाइ।
मनौ अकास-अगस्तिया एकै कली लखाइ।।92।।
गदराने तन गोरटी, ऐपन-आड़ लिलार।
हूठयौ दै, इठलाइ, दृग करै गँवारि सुबार।।93।।
तंत्री-नाद, कबित्त-रस, सरस राग, रति-रंग।
अनबूड़े बूढ़े, तरे जे बूड़े सब अंग।।94।।
सहज सचिक्क्न, स्याम-रूचि, सुचि, सुगंध, सुकुमार।
गनतु न मनु पथु अपथु, लखि बिथुरे सुथरे बार।।95।।
सुदुति दुराई दुरति नहिं, प्रगट करति रति-रूप।
छुटैं पीक, औरे उठी लाली ओठ अनूप।।96।।
वेई गड़ि गाड़ैं परीं, उपट्यौं हारु हियैं न।
आन्यौ मोरि मतंगु मनु मारि गुरेरनु मैन।।97।।
नैंक न झुरसी बिरह-झर नेह-लता कुम्हिलाति।
नित नित होति हरी हरी , खरी झालरति जाति।।98।।
हेरि हिंडोरैं गगन तैं परी परी सी टूटि।
धरी धाइ पिय बीच हीं, करी खरी रस लूटी।।99।।
नैंक हँसौंही बानि तजि, लख्यौ परतु मुहुँ नीठि।
चौका-चनकनि-चौंध मैं परति चौंधि सी डीठि।।100।।
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