Bihari Satsai
Sampadak - Jagannath Das Ratnakar
बिहारी-रत्नाकर सतसई
सम्पादक जगन्नाथ दास रत्नाकर
दोहे |
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरी सोइ।
जा तन की झाँई परैं स्यामु हरित-दुति होइ।। 1 ।।
अपने अंग के जानि कै जोबन-नृपति प्रबीन।
स्तन, मन, नैन, नितम्ब की बड़ौ इजाफा कीन।। 2 ।।
अर तैं टरत न बर-परे, दई मरक मनु मैन।
होड़ाहोडी बढि चले चितु, चतुराई, नैन।। 3 ।।
औरें-ओप कनीनिकनु गनी घनी-सिरताज।
मनीं धनी के नेह की बनीं छनीं पट लाज।। 4 ।।
सनि-कज्जल चख-झख-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु।
क्यौं न नृपति ह्वै भोगवै लहि सुदेसु सबु देहु।। 5 ।।
सालति है नटसाल सी, क्यौं हूँ निकसति नाँहि।
मनमथ-नेजा-नोक सी खुभी खुभी जिय माँहि।। 6 ।।
जुवति जोन्ह मैं मिलि गई, नैन न होति लखाइ।
सौंधे कैं डोरैं लगी अली चली सँग जाइ।। 7 ।।
हौं रीझी, लखि रीझिहौ छबिहिं छबीले लाल।
सोनजुही सी होवति दुति-मिलत मालती माल।। 8 ।।
बहके, सब जिय की कहत, ठौरु कुठौरु लखैं न।
छिन औरे, छिन और से, ए छबि छाके नैन।। 9 ।।
फिरि फिरि चितु उत हीं रहतु, टुटी लाज की लाव।
अंग-अंग-छबि-झौंर मैं भयौ भौंर की नाव।। 10 ।।
नीकी दई अनाकानी, फीकी परी गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि।। 11 ।।
चितई ललचौहैँ चखनु डटि घूँघट-पट माँह।
छह सौं चली छुवाइ कै छिनकु छबीली छाँह।। 12।।
जोग-जुगति सिखए सबै मनौ महामुनि मैन।
चाहत पिय-अद्वैतता काननु सेवन नैन।13।।
खरी पातरी कान की, कौन बहाऊ बानि।
आक-कली न रत्नी करै, अली, जिय जानि।।14।।
पिय-बिछुरन कौ दुसहु दुखु, हरषु जात प्यौसार।
दुरजोधन लौं देखियत तजत प्रान इहि बार।।15।।
झीनैं पट मैं झुलमुली झलकति ओप अपार।
सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति सपल्ल्व डार।।16।।
डारे थोड़ी-गाड़, गहि नैन-बटोहि, मारि।
चिलक-चौंध मैं रूप-ठग, हाँसी-फाँसी डारि।।17।।
कीनै हूँ कोरिक जतन अब कहि काढै कौनु।
भो मन मोहन-रूप मिलि पानी मैं कौ लौनु।।18।।
लाग्यो सुमनु ह्वै है सफलु आतप-रोसु निवारि।
बारी, बारी अपनी सींचि सुहृदयता-बारि।।19।।
अजौ तरयौना हीं रह्यो श्रुति सेवत इक-रंग।
नाक-बास बेसरि लह्यो बसि मुकुतनु कैं संग।।20।।
जम करि-मुँह-तरहरि परयौ, इहिं धरहरि चित लाउ।
विषय-तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ।।21।।
पलतु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरू भाल।
आजु मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल।।22।।
लाज-गरब-आलस-उमग-भरै नैन मुसकात।
राति-रमी रति देति कहि औरें प्रभा प्रभात।।23।।
पति रति की बतियाँ कहीं, सखी लखी मुसकाइ।
कै कै सबै टलाटलीं, अलीं चलीं सुखु पाइ।।24।।
तो पर वारौं उरबसी, सुनी, राधिके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी ह्वै उरबसी-समान।।25।।
कुच-गिरि चढ़ि, अति थकित ह्वै, डीठि मुंह-चाड़।
फिरि न टरि, परियै रही, गिरी चियुक की गाड़।।26।।
बेधक अनियारे नयन, बेधत करि न निषेधु।
बरवट बेधतु मो हियौ तो नासा कौ बेधु।।27।।
लौनैं मुहँ दीठि न लगै, यौं कहि दीनौ ईठि।
दूनी ह्वै लागन लगी, दियै दिठौना, दीठि।।28।।
चितवनि रूखे दृगनु की, हाँसी-बिनु मुसकानि।
मानु जनायौ मानिनी, जानि लियौ पिय, जानि।।29।।
सब ही त्यौं समुहाति छिनु, चलति सबनु दै पीठि।
वाही त्यौं ठहराति यह, कविलनवी लौं, दीठि।।30।।
कौन भाँति रहिहै बिरदु अब देखिवी, मुरारि।
बीधे मोसौं आइ कै गीधे गीधहिं तारि।।31।।
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु हीं सब बात।।32।।
वाही कोई चित चटपटी, धरत अटपट पाइ।
लपट बुझावत बिरह की कपट-भरेऊ आइ।।33।।
लखि गुरुजन-बिच कमल सौं सीसु छुवायौ स्याम।
हरि-सनमुख करि आरसी हियैं लगाई बाम।।34।।
पाइ महावर दैन कौं नाइनि बैठी आइ।
फिरि फिरि, जानि महावरी, एड़ी मीड़ति जाइ।।35।।
तोहीं, निरमोही, लाग्यौ मो ही इहैं सुभाउ।
अनआऐं आवै नहीं, आऐं आवतु आउ।।36।।
नेहु न, नैननु, कौं कछू उपजी बड़ी बलाइ।
नीर-भरे नितप्रति रहैं, तऊ न प्यास बुझाइ।।37।।
नहि परागु नहि मधुर मधु नहिं बिकासु इहिं काल।
अली, कली ही सौं बंध्यौ, आगैं कौन हवाल।।38।।
लाल, तुम्हारे विरह की अगनि अनूप, अपार।
सरसै बरसै नीर हूँ, झर हूँ मिटै न झार।।39।।
देह दुलहिया की बढ़ैं ज्यौं ज्यौं जोबन-जोति।
त्यौं त्यौं लखि सौत्यैं सबैं बदन मालिन दुति होति।।40।।
जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौं नाँहि।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहि।।41।।
सोरठा -
मंगलु बिंदु सुरंगु, मुखु ससि, केसरि आड़ गुरु।
इक नारी लहि संगु, रसमय किय लोचन-जगत।।42।।
दोहा -
पिय तिय सौं हँसि कै कह्यौं, लखैं दिठौना दीना।
चंदमुखी, मुखचंद तैं भली चंद-समु की।।43।।
कौंहर सी एडीनु की लाली देखि सुभाइ।
पाइ महावरू देइ को आपु भई बे-पाइ।।44।।
खेलन सिखए, अलि, भलैं चतुर अहेरी मार।
कानन-चारी नैन-मृग नागर नरनु सिकार।।45।।
रससिंगार-मंजनु किए, कंजनु भंजनु दैन।
अंजनु रंजनु हूँ बिना खंजनु गंजनु, नैन।।46।।
साजे मोहन-मोह कौं, मोहीं करत कुचैन।
कहा करौ, उलटे परै टोने लोने नैन।।47।।
याकै उर औरे कछू लगी बिरह की लाइ।
पजरै नीर गुलाब कैं, पिय की बात बझाइ।।48।।
कहा लेहुगे खेल पैं, तजौं अटपटी बात।
नैंक हँसौंही हैं भई भौंहे, सौहैं खात।।49।।
डारी सारी नील की ओट अचूक, चुकैंन।
मो मन-मृग करबर गहैं अहे! अहेरी नैन।।50।।
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