द्रुत पाठ के कवि जगन्नाथ दास रत्नाकर : छायावाद एवं पूर्ववर्ती काव्य प्रश्न उत्तर

 4. जगन्नाथ दास रत्नाकर : छायावाद एवं पूर्ववर्ती काव्य प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. जगन्नाथ दास रत्नाकार का जीवन परिचय लिखें।

उत्तर- जगन्नाथ दास रत्नाकार का जन्म सं. 1923 (सन् 1866 ई.) के भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भी यही जन्मतिथि थी और वे रत्नाकार जी से 16 वर्ष बड़े थे। उनके पिता का नाम पुरुषोत्तमदास और पितामह का नाम संगमलाल अग्रवाल था जो काशी के धनीमानी व्यक्ति थे। रत्नाकार जी की प्रारंभिक शिक्षा फारसी में हुई। उसके पश्चात इन्होंने 12 वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी पढ़ना प्रारंभ किया और यह प्रतिभाशाली विद्यार्थी सिद्ध हुए। सन 1888 ई. में इन्होंने करना चाहा था, पर पारिवारिक परिस्थितिवश न कर पाए। ये पहले 'जकी' उपमान से फारसी में रचना करते थे। इनके हिन्दी काव्यगुरू सरदार कवि थे। ये मथुरा के प्रसिद्ध कवि नवनीत चतुर्वेदी से भी बड़े प्रभावित हुए थे।

    रत्नाकार जी ने अपनी आजीविका के हेतु 30-32 वर्ष की अवस्था में जरदोजी का काम आरंभ किया था। उसके उपरांत ये अवागढ़ रियासत में कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। भारतेन्दु जी के सम्पर्क और काशी की कविगोष्ठियों के प्रभाव से इन्होंने 1889 ई. में ब्रजभाषा में रचना करना आरंभ किया। रत्नाकर जी की सर्वप्रथम काव्यकृति हिंडोला सन 1894 ई. में प्रकाशित हुई। सन 1893 में साहित्य सुधा निधि नामक मासिक पत्र का संपादन प्रारंभ किया तथा अनेक ग्रन्थों का संपादन भी किया जिनमें दूलह कवि कृत कंठाभरण, कृपारामकृत हिमतरंगिणी, चन्द्रशेखरकृत नखशिख है। नागरी, प्रचारिणी सभा के कार्यों में रत्नाकार जी का पूरा सहयोग रहता था। सन 1897 में रत्नाकर जी ने घनाक्षरी नियम रत्नाकर प्रकाशित कराया और 1898 में समालोचनादर्श (पोप के 'एस्से ऑन क्रिटिसिज्म' का अनुवाद) प्रकाशित हुआ।

    सन 1902 के उपरांत ये अयोध्यानरेश राजा प्रतापनारायण सिंह के यहां प्राइवेट सेक्रेटरी (निजी सचिव) के रूप में काम करते रहे और अंतिम समय तक इनका संबंध अयोध्या दरबार से रहा। इस बीच इन्होंने बिहारी रत्नाकर नाम से बिहारी सतसई का संपादन किया। 14 मई सन 1921 ई. से अयोध्या की महारानी की प्रेरणा से इन्होंने गंगावतरण काव्य की रचना प्रारंभ की, जो सन 1923 में समाप्त हुई। इसी समय उद्धवशतक का भी रचनाकार्य चलता रहा। हरिद्वार यात्रा में एक बार इनकी पेटी खो गई जिससे उद्धव शतक के सौ सवा सौ छंद चोरी चले गये, पर रत्नाकर जी ने अपनी स्मृति से उन्हें फिर लिख डाला। उद्भव शतक इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। ये सन 1926 में ओरियंटल कांफ्रेंस के हिन्दी विभाग के सभापति हुए और सन 1930 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बीसवें अधिवेशन के सभापति चुने गये। इस अधिवेशन का सभापतित्व इन्होंने राजस्वी ठाटबाट के साथ किया सन 1932 ई. की 21 जून को इनका अचानक स्वर्गवास हो गया। 

    रत्नाकर जी केवल कवि ही नहीं ये, वरन वे अनेक भाषाओं (संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी) के ज्ञाता तथा विद्वान भी थे। उनकी कविप्रतिभा जैसी आश्चर्यकारी थी, वैसी ही किसी छंद की व्याख्या करने की क्षमता भी विलक्षण थी। अनेक विद्वानों ने रत्नाकार जी की टीकाओं की प्रशंसा की है। 

    रत्नाकार जी का ब्रजभाषा पर अद्भुत अधिकार था और उनकी प्रसिद्ध ब्रजभाषा रचनाओं में सुन्दर प्रयोगों एवं ठेठ शब्दावली का व्यवहार हुआ है। रत्नाकार जी स्वच्छ कल्पना के कवि है। उनके द्वारा प्रस्तुत पद्मावली सदैव अनुभूति रही है। और संवेदना को जाग्रत करने वाली है। 

प्रश्न 2. जगन्नाथदास रत्नाकार की रचनाओं का उल्लेख करें।

उत्तर - रत्नाकर जी की रचनाएँ

पद्य

    हरिश्चन्द्र (खण्डकाव्य) गंगावतरण (पुराख्यान काव्य), उद्धवशतक (प्रबंध काव्य), हिंडोला (मुक्तक), कलकाशी (मुक्तक) समालोचनादर्श (पद्यनिबंध) श्रृंगार लहरी, गंगालहरी, विष्णुलहरी (मुक्तक), रत्नाष्टक (मुक्तक), वीराष्टक (मुक्तक), प्रकीर्णक पद्यावली (मुक्तक संग्रह)।

गद्य

    (क) साहित्यिक लेखा - रोला छंद के लक्षण, महाकवि बिहारीलाल की जीवनी, बिहारी सतसई साहित्यिक ब्रजभाषा तथा उसके व्याकरण की सामग्री, बिहारी सतसई की टीकाएँ, बिहारी पर स्फुट लेख। 

    (ख) ऐतिहासिक लेख - महाराज शिवाजी का एक नया पत्र, शुंगवंश का एक शिलालेख, एक ऐतिहासिक पाषाणाश्व की प्राप्ति, एक प्राचीन मूर्ति, समुद्रगुप्त का पाषाणाश्व, घनाक्षरी निय रत्नाकार, वर्ण, सवैया, छन्द आदि। 

संपादित रचनाएँ

सुधासागर (प्रथम भाग), कविकुल कंठाभरण, दीपप्रकाश, सुंदर शृंगार, नृपशंभुकृत नखशिख, हम्मीर हठ, रसिक विनोद, समस्यापूर्ति (भाग 1), हिमतरंगिणी, केशवदासकृत नखशिख, सुजानसागर, बिहारी रत्नाकर, सूरसागर। 

प्रश्न 3. जगन्नाथ दास रत्नाकर की काव्यगत विशेषताओं पर टिप्पणी लिखे।

उत्तर -

काव्यगत विशेषताएँ

    वर्ण्य विषय - रत्नाकर जी के काव्य का वर्ण्य विषय भक्ति काल के अनुरूप भक्ति, शृंगार, भ्रमर गीत आदि से संबंधि है और उनके वर्णन करने का ढंग रीति काल के अनुसार है। अतः उनके विषय में यह सत्य ही कहा गया है कि रत्नाकार जी के भक्तिकाल की आत्मा रीतिकाल के ढांचे में अवतरित हुई है। रत्नाकार जी का काव्य विषय शुद्ध रूप से पौराणिक है। उन्होंने उद्धवशतक, गंगावतरण, हरिश्चन्द्र आदि रचनाओं में पौराणिक कथाओं को ही अपनाया है। 

    रत्नाकर जी के काव्य में धार्मिक भावना के साथ-साथ राष्ट्रीय भावना भी मिलती है। निम्न पंक्तियों में अंग्रेजी शासन को खरी-खोटी सुनाते हुए उन्होंने गांधीजी के ओजस्वी व्यक्तित्व को चित्रित किया है- 

कुटिल कुचारी के निगरित मुखारी पर,

वक्र चाहि चक्र चरखे की फाल बाँधी है। 

ग्रसित गुरंग ग्राह आरत अथाह परे,

भारत गयंद को गुविंद भयो गांधी है। 

    भाव-चित्रण – रत्नाकर जी भाव-लोक के कुशल चितेरे थे। उन्होंने क्रोध, प्रसन्नता, उत्साह, शोक, प्रेम, घृणा आदि मानवीय व्यापारों के सुंदर चित्र उपस्थित किये हैं।

गोपी-उद्धव-संवाद का एक अंश देखिए -

टूकटूक ह्वै है मन मुकुर हमारे हाय,

चूँकि हूँ कठोर बैनपाहन चलावौना।

एक मनमोहन तौ बसि के उजारया मोहि, 

हिय में अनेक मन मोहन बसावौ ना ।।

    बाह्य दृश्य चित्रण - रत्नाकर जी में बाह्य दृश्य चित्रण की अद्भुत क्षमता थी। सुदामा की दीनता पूर्ण चित्र में निम्न पंक्तियों में देखिए -

जै जै महाराज दुजराज दुजराज एक, 

सुहृदय सुदामा राज द्वार आज आए है। 

कहै रतनाकर प्रकट ही दरिद्र रूप 

फटही लंगोटी बाँधि बाँध सौ जगाए है। 

छीनता की छाप दीनता की छाप धारे देह, 

लाठी के सहारे काठी नीठि ठहराए है। 

संकुचित कंघ पै अघोटीसी कछौटी लिए, 

ता पर सछिद्र छोटी लोटी लटकाए है।।

    प्रकृति चित्रण – रत्नाकर जी अपने प्रकृति चित्रण में अत्यंत सफल रहे हैं। उनके प्रकृति चित्रण पर रीति कालीन  प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ा है। वर्षा ऋतु का सुंदर चित्रण नीचे की पंक्तियों में देखिए -

छाई सुभ सुबना सुहाई रितु पावस की, 

पूरब में पश्चिम में, उत्तर उदीची में।

कहें रत्नाकर कदंब पुल के हैं बन,

लरजै लवग लता ललित बगीची में।।

प्रश्न 4. जगन्नाथ दास रत्नाकर की भाषा पर समीक्षात्मक टिप्पणी लिखें।

उत्तर - रत्नाकर जी की भाषा शुद्ध ब्रजभाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा में परिमार्जन किया। उन्होंने भूले हुए मुहावरों को अपनाया, लोकोक्तियों को स्थान दिया और बोल चाल के शब्दों को ग्रहण किया। रत्नाकर जी की शब्द-योजना पूर्ण निर्दोष है। उन्होंने शब्दों का चयन परिस्थितियों के अनुकूल ही किया है। मुहावरों के प्रयोग में रत्नाकर जी अपनी समता नहीं रखते। एक उदाहरण देखिए

अहह जाति तब मत्सरता अजहूँ न भुलाई। 

हेर फेर सौ बेर जदपि मुँह की तुम खाई।

    रत्नाकर जी की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है किन्तु इससे उसके सौन्दर्य में कोई कमी नहीं होने पाई है। उर्दू-फारसी के विद्वान होते हुए भी रत्नाकर जी ने उर्दू-फारसी के शब्दों के प्रयोग में अत्यन्त संयम से काम लिया है। उन्होंने उर्दू-फारसी के केवल उन्हीं शब्दों को अपनाया है जिनसे भाषा की स्वाभाविकता नष्ट नहीं हुई। संक्षेप में रत्नाकर जी की भाषा संयत, प्रौढ़ और प्रवाह पूर्ण है।

    शैली – रत्नाकर जी की शैली रीतिकाल की अलंकृत शैली है। उनकी इस शैली में सूरदास और मीरा की भावुकता, देव की प्रेममयता, बिहारी की कलात्मकता, पद्माकर की प्रभावोत्पादकता और ओजस्विता का सुंदर समन्वय है।रत्नाकर जी की शैली में भाव और भाषा का पूर्ण संयोग है।

    रस - यों रत्नाकर जी के काव्य में सभी रस मिलते हैं, पर श्रृंगार, करुण, वीर और वीभत्स रस के चित्रण में उन्हें विशेष सफलता मिली है। 

    छन्द – रत्नाकर जी ने विविध प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है, किन्तु रोला, कवित्त और सवैया छन्द उनके विशेष प्रिय छन्दों में से हैं।

    अलंकार - रत्नाकर जी अपने युग में सर्वाधिक अलंकार प्रिय कवि हैं। उनकी रचना का प्रत्येक छन्द अलंकारों की सुषमा से परिपूर्ण है। रत्नाकर जी का सबसे अधिक प्रिय अलंकार सॉंगरूपक है। इसके अतिरिक्त यमक, श्लेष, अनुप्रास उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप स्मरण, आदि अलंकारों का सौंदर्य भी रत्नाकर जी के काव्य में देखा जा सकता है।

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